ANNOUNCEMENTS



Thursday, July 30, 2009

विद्वतापूर्ण बुद्धि की बात

"यह करो, यह मत करो!" - यह मूढ़ बुद्धि की कथा है। "क्या होना चाहिए, क्या नहीं होना चाहिए" - यह विचार-बुद्धि की बात है। "यह आवश्यक है, यह अनावश्यक है" - यह विद्वता-पूर्ण बुद्धि की बात है। यही मूल मन्त्र है।

"आवश्यक क्या है, अनावश्यक क्या है" - इसके आधार पर "होना क्या चाहिए, और क्या नहीं होना चाहिए" का निर्धारण है। फ़िर "क्या करना है" - यह निश्चित हो जाता है।

प्रश्न: "करने, नहीं करने" की सोच में क्या परेशानी है?

उत्तर: "नहीं करना" कुछ होता नहीं है। "क्या करना है" - यह भ्रमित-स्थिति में स्पष्ट नहीं रहता है। "होना" जब स्पष्ट हो जाता है, तब क्या करना है - यह निश्चित हो जाता है।

पहले "ज्ञान" लक्ष्य के प्रति स्पष्ट होना आवश्यक है। पहले प्रक्रिया (करो, नहीं करो) को ठीक करने जाने से काम नहीं चलेगा। यही shift है। ज्ञान जब स्वयं में निश्चित हो जाता है, तो उसके फलन में "करना" भी निश्चित हो जाता है। "करना" निश्चित करके ज्ञान होता नहीं!

अभी तक आदर्शवाद और भौतिकवाद ने जो भी बताया उसमें कहा - "करके समझो!" मैं यहाँ कह रहा हूँ - "समझ के करो!"

सिद्धांत यही है।

समझने का अधिकार हर व्यक्ति के पास हर परिस्थिति में रखा है। चाहे चपरासी हो, चाहे राजा हो - समझने का अधिकार सबमें समान है। भद्दे से भद्दा आदमी जिसको मानते हैं - उसके पास भी, अच्छे से अच्छा आदमी जिसको मानते हैं - उसके पास भी।

समझने का अवसर युगों के बाद आज आया है।

समझने के लिए सभी परिस्थितियां अनुकूल हैं। परिस्थितयों को पहले बदलने जाओगे तो बखेडे में ही पडोगे!

मैंने भी यही किया है। समाधि-संयम तक मैं विरक्ति विधि से ही रहा। समाधि-संयम पूर्वक समझने के बाद ही मैंने समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने के mechanism को जोड़ा। ज्ञान स्पष्ट होने से mechanism "निश्चित" हो जाता है। mechanism को बदलने से ज्ञान स्पष्ट नहीं होता।

समाधान-संपन्न होने के लिए हर व्यक्ति के पास अधिकार है - कल्पनाशीलता के रूप में। समझने के लिए हर परिस्थिति अनुकूल है। मध्यस्थ-दर्शन के अनुसंधान के सफल होने के आधार पर उसके साथ समाधान-संपन्न होने का स्त्रोत भी जुड़ गया है। इस स्त्रोत के आधार पर - हर व्यक्ति के पास, हर परिस्थिति में समाधान तक पहुँचने का रास्ता बन गया है।

समाधान संपन्न होने के बाद समृद्धि के लिए डिजाईन हर व्यक्ति में अपने में से ही उद्गमित होगा।

"समाधान प्राथमिक है" - इसको स्वीकारने में न कोई पैसा जाता है, न पद जाता है, न कोई परेशानी होता है। "समाधान प्राथमिक है" - इसको स्वीकारने में न दरिद्रता अड़चन है, न अमीरी अड़चन है, न दुष्टता अड़चन है, न निकृष्टता अड़चन है। इससे ज्यादा क्या बताया जाए?

हर परिस्थितियां समाधान-संपन्न होने को सफल बनाने के लिए सहयोगी ही हैं। इस बात की महिमा यही है। यदि हम समाधान की ओर गतिशील होते हैं - तो परिस्थितियां हमारे अनुकूल बनते जाते हैं। प्रतिकूल बनते ही नहीं हैं। केवल स्वयं में यह प्राथमिकता को तय करने की बात है - "अनुभव-प्रमाण ही समाधान है।" जब अध्ययन की आवश्यकता स्वयं में conclude होती है, तो ध्यान लगता ही है। जब तक यह conclude नहीं होता - ध्यान नहीं लगता।

-  श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद के चक्रव्यूहों से मुक्ति

स्वभाव गति को बनाए रखते हुए अध्ययन के लिए ध्यान देने की आवश्यकता है। आवेशित-गति में अध्ययन नहीं होता। आवेश पीड़ा पैदा करने का स्त्रोत है। आज की स्थिति में जो शिक्षा दी जा रही है, वह आवेश पैदा करने के अर्थ में है। लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद द्वारा आवेशित कराने के लिए ही आजकल की पूरी शिक्षा है। उन्माद एक आवेश ही है। ये तीन उन्माद कितने बड़े चक्रव्यूह हैं - आप सोच लो! इन चक्रव्यूहों से बच कर हमको व्यवहारवादी समाज-व्यवस्था, आवर्तनशील अर्थ-व्यवस्था, और मानव-संचेतना वादी मानसिकता की तरफ़ आना है।

प्रश्न: इन चक्रव्यूहों से हम कैसे छूट सकते हैं?

उत्तर: हमारे जीवन में अतृप्ति या खोखलापन अन्तर्निहित है। चाहे लाभ का आवेश हो, चाहे काम का आवेश हो, चाहे भोग का आवेश हो - आवेश को हम अपनी मानसिकता में सदा के लिए स्वीकार नहीं पाते हैं। जैसे- लाभ का आवेश "सही" है - यह हम किसी न किसी जगह आ कर नकार ही देते हैं। तीनो में से कोई भी आवेश "सही" है - यह हम सदा के लिए मान नहीं सकते! यह जीवन में निहित "सच्चाई के शोध" का स्त्रोत है। यह "सच्चाई की शोध" का स्त्रोत जो जीवन में बना हुआ है, उसी आधार पर हम इन चक्रव्यूहों से बच कर निकल सकते हैं। कैसे निकलेंगे? - woundless विधि से! हम जो सुविधा-संग्रह विधि से जी रहे हैं, उससे समाधान-समृद्धि विधि से जीना ज्यादा श्रेष्ठ है। यह हमको भी स्वीकार होना, हमारे परिवार जनों को भी स्वीकार होना।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, July 28, 2009

अध्ययन एक woundless process है.

प्रश्न: अध्ययन करने के लिए क्या नौकरी वगैरह छोड़ने की आवश्यकता है?

उत्तर: अध्ययन करना हर व्यक्ति के लिए हर अवस्था में सुगम है। चाहे कोई व्यक्ति एक रूपया कमाता हो, या एक लाख कमाता हो, या ख़ाक कमाता हो। हर व्यक्ति हर अवस्था में अध्ययन कर सकता है। अध्ययन के लिए कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है।

आप ही बताओ - झाड़ से पत्ता तोड़ने, और झाड़ से पत्ता गिरने में कितना अन्तर है? पत्ता जब पेड़ से गिरता है, तो पक कर गिरता है। उसी प्रकार मानव-चेतना से संपन्न होने पर हमारी सारी निरर्थकताएं झड़ जाती हैं। यह एक पूरी तरह woundless process है।

जिस तरीके से आप दाना-पानी उपार्जित करते हो - वह ठीक है, या नहीं है - यह समझदारी के बाद समीक्षित होता है। यदि वह तरीका अर्जित-ज्ञान के अनुकूल है, तो हमको क्या तकलीफ है? यदि वह तरीका ज्ञान के अनुकूल नहीं है - तो वह redesign अपने आप से स्वयं में उभर आता है। वह redesign कोई दूसरा आदमी आ कर नहीं करेगा। समझने के बाद अपने जीने का डिजाईन अपने आप से स्वयं में उभर आता है। यह वैसे ही है - जैसे, प्राण-सूत्रों में नयी रचना-विधि अपने आप से उभर आती है।

एक ही डिजाईन में हर व्यक्ति जियेगा - यह भी बेवकूफों की कथा है! सभी आदमी एक ही डिजाईन में जी नहीं पायेगा। हर आदमी के साथ डिजाईन बदलेगा। हर डिजाईन के साथ स्वावलंबन की स्थिति ध्रुव रहेगी। हमारा अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक आवर्तनशील विधि से श्रम पूर्वक उत्पादन कर लेना ही "स्वावलंबन" है। मानवीयता संपन्न परिवार की आवश्यकताएं होती हैं - शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में।

श्रम पूर्वक उत्पादन करने का डिजाईन समझदारी संपन्न होने पर आपमें अपने आप से निकलेगा। एक ही डिजाईन में सभी उत्पादन करेंगे - यह मूर्खता की बात है। इस तरह मानव एक मशीन नहीं है। मानव एक संवेदनशील और संज्ञानशील इकाई है। संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। फलस्वरूप हम व्यवस्था में जी कर प्रमाणित होते हैं। इतना ही तो सूत्र है। इसको यदि हम सही तरह से उपयोग कर लेते हैं, तो संसार के लिए उपकार करने की जगह में आ जाते हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

समाधान लक्ष्य की प्राथमिकता

प्रश्न: समाधान लक्ष्य की प्राथमिकता को स्वयं में स्थिर करने का क्या उपाय है?

उत्तर: इसके लिए सहज उपाय है - "श्रेष्ठता प्रकरण"। श्रेष्ठता को स्वीकारना या "मानना" पड़ता है।

जीव-चेतना में हम जो कुछ भी करते-धरते हैं - उसका गम्य-स्थली "सुविधा-संग्रह" ही है। पहले स्वयं में यह निष्कर्ष निकलना।

सुविधा-संग्रह में हमको अच्छा लगता तो है, लेकिन इसका कोई तृप्ति-बिन्दु नहीं है। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिन्दु आज तक किसी को मिला नहीं है। आगे किसी को मिलने की सम्भावना भी नहीं है। इस निष्कर्ष में पहुंचना।

यदि आप इस जगह में पहुँच जाते हैं तो मानव-चेतना की आपमें अपेक्षा बन जाती है।

मानव-चेतना की अपेक्षा बनने के बाद उसको पाने के लिए जो हमारा मन लगता है - उसको "ध्यान" कहते हैं। लगाने के लिए हमारे पास तन, मन, और धन होता है। इसमें से मन लगाने का जो भाग है, उसको "ध्यान" कहते हैं। अध्ययन के लिए ध्यान देने की आवश्यकता है। उसका मतलब यही है - मन लगाना।

अध्ययन में यदि आपका मन लगता है तो शनै-शनै आप मानव-चेतना के बारे में स्पष्ट होते जाते हैं। एक दिन उसी क्रम में वह बिन्दु आता है, जब मानव-चेतना आपको "स्वत्व" के रूप में स्वीकार हो जाती है। उसी बिन्दु से जागृति प्रकट होती है। वही जीवन की दसों क्रियाओं का प्रमाण है। अध्ययन में मन लगना यदि पूरी ईमानदारी से हो जाता है - तो वह मानव-चेतना में प्रवृत्त होने का पूरा रास्ता बना देता है।

अध्ययन करने के लिए आपको कोई अतिवाद करने की आवश्यकता नहीं है। आप अभी जो कर रहे हो उसके प्रति त्याग-वैराग्य की कोई बात आता नहीं है। आप अध्ययन करते रहो - कोई एक जगह/क्षण ऐसा आएगा - जब मानव-चेतना आपके लिए स्वीकार हो जायेगी। उस बिन्दु तक अध्ययन है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

कोई भी और कुछ भी "बेकार" नहीं है.

सह-अस्तित्व वादी सोच-विचार में किसी भी वस्तु या व्यक्ति का तिरस्कार या उपेक्षा नहीं है। कोई आदमी "बेकार" है - यह इससे निकलता नहीं है। कोई वस्तु "बेकार" है - यह निकलता नहीं है। कोई स्थिति "बेकार" है - यह निकलता नहीं है। कोई गति "बेकार" है - यह निकलता नहीं है। सह-अस्तित्व-वादी विचार पूर्वक हर वस्तु के साथ उपयोग, सदुपयोग, और प्रयोजनशीलता को जोड़ने का सूत्र निकल जाता है। उसके लिए अध्ययन पूर्वक समझदार होना ही एक मात्र उपाय है।

व्यक्ति के अकेले का समझदार हो जाना पर्याप्त नहीं है। इसीलिये समझदार होने पर स्वयं से उपकार होना भावी हो जाता है।

एकान्तवादी आदर्शवादिता से यह भिन्न बात है। उसमें जो तपस्वी हो गया - वह अपने आप को "समझदार" मान लेता है। संसार को सुधरने की ज़रूरत है - यह भी मान लेता है। संसार नहीं सुधरता है तो वह "पापी" है, "स्वार्थी" है, "अज्ञानी" है - यह गाली देता है। संसार दुःख भोगने योग्य है, मैं अकेला हलवा खाने योग्य हूँ - यह भी मान लेता है। आदर्शवादी परम्परा ऐसी ही बनी हुई है।

ऐसी आदर्शवादी परम्परा से संसार का कोई उपकार नहीं हुआ। साधकों का सम्मान अवश्य हुआ - लेकिन साधना से होने वाली उपलब्धि संसार को मिला नहीं। भक्तिवादी, विरक्तिवादी, एकान्तवादी परम्परा संसार को कुछ "देने" के पक्ष में नहीं है। संसार से जो सम्मान मिलता है, उसको "लेने" के लिए वे तैयार बैठे रहते हैं। संसार आदर्शवादियों, भक्तिवादियों, विरक्तिवादियों का सम्मान आज भी करता है - इसकी गवाहीयाँ आप देख सकते हैं।

आदर्शवादी भी "बेकार" नहीं है। आदर्शवादी सुधरने के योग्य है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, July 26, 2009

परिपूर्णता का समर्थन

परिपूर्ण या बिल्कुल-सही होने की अपेक्षा संसार के हर व्यक्ति में है। यह आप संसार में कहीं भी आजमा लो! परिपूर्णता को नकारने वाला भी क्या कोई होगा संसार में?

यदि आप परिपूर्णता के अर्थ में काम करते हैं तो उसके लिए आपके संपर्क में आने वाले लोगों की सहमति अपने आप से जुड़ जाती है, कि - "यह आदमी कुछ ठीक कह रहा है", "यह आदमी कुछ ठीक कर रहा है"। इस सहमति के साथ उनका सहयोग भी जुड़ जाता है। यह अपने-आप से होता है।

जैसे- मैं यहाँ अमरकंटक में अपने स्व-जनों से दूर जब साधना करने पहुँचा, तो मेरे उद्देश्य को सुन कर यहाँ के लोग कहने लगे - "यह ठीक सोच रहा है"। ये लोग मेरे अभिभावक जैसे हो गए। उनकी अनुकम्पा, सहयोग, सहमति मुझको मिलने लग गयी। यह अपने आप से होने लगा।

परपरागत विधि से जितनी अच्छाइयां हमको समझ में आती हैं, उनको प्रमाणित करने की इच्छा सहित उससे अधिक श्रेष्ठता के लिए यदि आपमें संकल्प होता है - तो उसे नकारा न जाए। अपने अनुसंधान के सफल हो जाने के बाद आज मेरा लोगों को यही कहना बनता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, July 24, 2009

अध्ययन एक उपलब्धि है

जब तक जीवन की दसों क्रियाएं क्रियाशील नहीं होती - तब तक स्वयं में खोखलापन बना ही रहता है। हम कहीं न कहीं बैसाखी लगा कर चलते रहते हैं। संसार हमको प्रणाम करता है, और हम अपने को सिद्ध मान लेते हैं। जबकि सच तो यह है - या तो मनुष्य साढ़े चार क्रिया में भ्रमित जीता है, या दस क्रिया में जागृति को प्रमाणित करता है।

प्रश्न: तो क्या साढ़े चार क्रिया और दस क्रिया के बीच में कोई स्थिति नहीं है?

उत्तर: नहीं। साढ़े चार क्रिया और दस क्रिया के बीच में कोई स्थिति नहीं है। साढ़े चार क्रिया से दस क्रिया में परिवर्तित होने की बात वैसे ही है, जैसे बत्ती जलाया और प्रकाश हो गया।

प्रश्न: तो क्या अध्ययन एक समय-बद्ध प्रक्रिया नहीं है?

उत्तर: नहीं। अध्ययन कोई "समयबद्ध प्रक्रिया" नहीं है। अध्ययन एक "उपलब्धि" है। पठन एक समय-बद्ध प्रक्रिया है, लेकिन अध्ययन एक "उपलब्धि" है। पठन पूर्वक स्मरण, फ़िर अध्ययन के लिए प्राथमिकता बनना, उसके बाद अध्ययन है। स्मरण पूर्वक अनुभव की रोशनी में, अधिष्ठान के साक्षी में किया गया प्रयास अध्ययन है।

प्रश्न: तो अभी जो हम कर रहे हैं, क्या वह अध्ययन का "प्रयास" नहीं है?

उत्तर: नहीं। यह अध्ययन की पृष्ठभूमि है। "अध्ययन होना" मतलब - उजाला हो गया। अध्ययन से पहले "उजाले की अपेक्षा" रहा। अध्ययन की पृष्ठ-भूमि ४.५ क्रिया से १० क्रिया में लाँघने की तैय्यारी है। उस तैय्यारी में समय लगता है।

प्रश्न: तो कोई व्यक्ति यदि कहता है "मैं अध्ययन-क्रम में हूँ" - तो उसका क्या आशय है?

उत्तर: अध्ययन की पृष्ठभूमि संजो रहा हूँ - यह तर्जुमा कर लो! उसके बिना मंगल-मैत्री होता नहीं। अध्ययन "क्रम" नहीं होता। दो ही स्थितियां हैं, पहली - "अध्ययन की पृष्ठ भूमि", दूसरी - "अध्ययन हो गया"। यदि पूरी यात्रा को एक फीट की दूरी माना जाए - तो ११.५ इंच की पृष्ठभूमि है, केवल आधा इंच अध्ययन है। अध्ययन और प्रमाण में कोई दूरी नहीं है। इससे ज्यादा क्या कहा जाए? गणितीय भाषा से भी बात करें तो इससे ज्यादा कैसे इसको बताया जाए?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Saturday, July 18, 2009

अध्ययन के लिए प्राथमिकता



भ्रमित-मनुष्य में भी श्रेष्ठता को स्वीकारने का सहज गुण है। जिसको वह अपनी कल्पना में अधिक-श्रेष्ठ मानता है, उसको स्वीकार लेता है। जैसे - ज्यादा पैसा स्वीकृत होता है, कम पैसा स्वीकृत नहीं होता। सुरूप स्वीकार होता है, कुरूप स्वीकार नहीं होता। भ्रमित व्यक्ति में भी तुलन होता है। भ्रमित व्यक्ति में भी कल्पना-शीलता और कर्म-स्वतंत्रता है, जिसके कारण वह तुलन कर पाता है। तुलन के आधार पर मनुष्य में श्रेष्ठता की ओर गतियां हैं। (जीवों में यह बात नहीं होती। उनमें जो ज्यादा-कम है, वह आहार तक ही है।) इस "काल्पनिक श्रेष्ठता" को स्वीकारने के क्रम में मनुष्य अपने इतिहास में मनाकार को साकार करता आया।

अब यहाँ प्रस्तावित है - "मानव-चेतना में जीना जीव-चेतना में जीने से ज्यादा श्रेष्ठ है। मानव-चेतना पूर्वक मनुष्य सुख की निरंतरता और अखंड-समाज को प्रमाणित कर सकता है। जीव-चेतना में इनको प्रमाणित नहीं कर सकता।" जब मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता बन जाता है, तो वह आचरण में आ ही जाता है।

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के अलावा मनुष्य के पास और कोई औजार नहीं है। उसी के आधार पर मनुष्य जिसको श्रेष्ठ मानता है, उसको स्वीकारता है। जब आपको यह स्पष्ट होता है कि मानव-चेतना पूर्वक जीना "परम आवश्यक" है - तब यह आपकी प्राथमिकता बनी। "मानव-चेतना में जीना आवश्यक है" - यह आपकी कल्पना में तो आ गया। इसकी आवश्यकता जब आप में इतनी बन जाए कि इसके बिना हम जी ही नहीं सकते - तो इसकी प्राथमिकता बनी।

कल्पनाशीलता पूर्वक पहले मानव-चेतना को लेकर "श्रेष्ठता का स्वप्न" बना। वही चीज हमको यदि जागते-सोते, खाते-पीते, उठते-बैठते नज़र आने लगे तो आप इस निष्कर्ष पर पहुँचते है - "इसके बिना मेरा जीवन अधूरा है।" कल्पना में जब इसकी प्राथमिकता बन गयी तो अध्ययन में लगना स्वाभाविक हो जाता है। अध्ययन का स्त्रोत दिया - मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्व वाद। अध्ययन में लगेंगे तो समझेंगे ही!

साधना-समाधि-संयम पूर्वक मैंने प्रकृति से सीधा-सीधा जो पढ़ा उसे आपको किताब से पढने में क्या तकलीफ है?

प्रश्न: तो जब तक यह स्थिति स्वयं में नहीं बनती कि "इसके बिना मेरा जीना बनेगा नहीं" तब तक मैं साढ़े चार क्रिया में ही हूँ?

उत्तर: हाँ। तब तक कल्पना में मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता आयी नहीं है।

साढ़े चार क्रिया में जीता हुआ ही मैं यहाँ साधना करने के लिए पहुँचा था। यहाँ आने से पहले अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर ही तो मैं श्रेष्ठता को चाहता रहा। साढ़े चार क्रिया में जीते हुए जिस परम्परा में मैं था उसमें जो श्रेष्ठ मानते थे, उससे मैं संतुष्ट नहीं हो पाया। साधना सफल होने के बाद पता चला कि दसों क्रियाओं के साथ ही संतुष्टि पूर्वक जीना बनता है।

प्रश्न: तो क्या साक्षात्कार, बोध, और अनुभव "मानव-चेतना के प्राथमिकता में आने" के बाद है?

उत्तर: हाँ। यह बिल्कुल सही है।

प्रश्न: तो अभी हम जो "अध्ययन" के नाम पर जो कर रहे हैं, क्या वह अपनी कल्पना में मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता को सबल बनाने की बात है?

उत्तर: हाँ। सूचना से मानव-चेतना की श्रेष्ठता के प्रति हमारी कल्पना में प्राथमिकता आ जाती है। वहाँ से अध्ययन शुरू होता है। इससे पहले मानव-चेतना संबन्धी प्रस्ताव आपकी स्मृति में आता रहा, इस तरह अंततोगत्वा अपनी कल्पना में मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता को स्थापित कर लेते हो। उसके बाद साक्षात्कार, बोध, और अनुभव तत्काल होता है। सारा आगे-पीछे, देरी-जल्दी जब तक कल्पना में फंसे हैं, तभी तक है।

इसमें एक और बात ध्यान देने की है - इस प्रस्ताव के अनुरूप जीने का स्वरूप अभी आप जैसे जी रहे हो उससे भिन्न होगा। आप अभी की परम्परा में जिस डिजाईन में जी रहे हो, वैसे ही जीते रहो - और यह ज्ञान आपके जीने में प्रमाणित हो जाए, ऐसा सम्भव नहीं है। इस ज्ञान के अनुरूप जीने का डिजाईन है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। मानव-चेतना संपन्न होने के लिए यह प्रस्ताव आपके अधिकार में न आने में आना-कानी करने का एक बड़ा कारण है, हमारा जीव-चेतना के अपने जीने के कुछ पक्षों को सही माने रहना। जबकि मानव-चेतना और जीव-चेतना में कोई भी पक्ष में समानता नहीं है। मानव-चेतना को जीव-चेतना के साथ जोड़-तोड़ पूर्वक बैठाया नहीं जा सकता।

अध्ययन शुरू होता है तो जीना बनता ही है.

जब तक अध्ययन शुरू नहीं हुआ, तब तक हमारी कल्पनाएँ हमारे साथ बाधाएं डालता ही है। मूलतः बाधा डालने वाली कल्पना है - "शरीर को जीवन मानना"। ऐसी मान्यता के चलते जो बाधाएं आती हैं, उनमें से कुछ का स्वरूप है - हमारी आयु इंतनी हो गयी, अब हम इसको समझ नहीं पायेंगे। दूसरे, यह सब तो बेकार की बात है। तीसरे, यदि अपनी पूर्व-कल्पनाओं पर ज्यादा प्रहार होता है तो भी इस प्रस्ताव के लिए अपनी असमर्थता व्यक्त करना बनता है।

अध्ययन में सर्वप्रथम यही विश्लेषित होता है - जीवन और शरीर दो भिन्न वास्तविकताएं हैं। जीवन अमर है। शरीर नश्वर है। जीवन शरीर को चलाता है। नियति-क्रम में धरती पर मानव-शरीर परम्परा स्थापित होती है। जीवन में एक बार मानव-चेतना के लिए प्राथमिकता स्थापित हो जाती है तो वह सदा के लिए हो जाती है। आगे शरीर-यात्राओं में भी फ़िर स्वयं को प्रमाणित करने की अर्हता बनी रहेगी।

मनुष्य के जीने की दो ही स्थितियां हैं - साढ़े चार क्रिया में जीना, या दस क्रिया में जीना। इनके बीच में कोई स्थिति नहीं है। अभी तक के इतिहास में मनुष्य ने जो भी अध्ययन किया वह साढ़े चार क्रिया को संतुष्ट करने के अर्थ में किया। मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक जीवन की दसों क्रियाओं को प्रमाणित करने के लिए है।

अच्छी से अच्छी कल्पना भी मनुष्य के जीने में प्रमाणित होने का आधार नहीं हो सकती। सह-अस्तित्व में अनुभव ही मनुष्य के जीने में प्रमाणित होने का आधार हो सकता है। जीने में प्रमाणित होने का मतलब है - न्याय, धर्म, और सत्य को प्रमाणित करना।

प्रश्न: अस्तित्व के स्वरूप के इस प्रस्ताव में समाधान और सर्व-शुभ की सम्भावना तो स्पष्ट दिखाई देती है। लेकिन इसको अपने जीने से जोड़ नहीं पाने से मुझ में पीड़ा बढ़ी ही है। मैं "ज्यादा सुखी" हो गया - ऐसा कह नहीं पाता हूँ।

उत्तर: जिस परम्परा में आप पैदा हुए, बड़े हुए - उसमें जिसको अच्छा माना जाता है, उसको स्वीकार कर ही आप जिये। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। जैसे भी आप जीते रहे, उसके साथ आपकी निरंतर-सुख पूर्वक जीने की चाहत भी जुडी रही। अब आपके सामने यह प्रस्ताव सूचना के रूप में आया - उसको स्वयं के साथ जीने में जोड़ने में अभी सुगम नहीं हुआ है, यह आप कह रहे हो। इस प्रस्ताव में कहा गया है - सुविधा-संग्रह से ज्यादा अच्छा समाधान-समृद्धि पूर्वक जिया जा सकता है। समाधान-समृद्धि अभी हाथ नहीं लगा है, इस कारण से आपमें पीड़ा बढ़ी है - तो यह प्रयास सही दिशा में तो है। इस पीड़ा से मुक्त होने का निश्चित कार्यक्रम आप में से ही उद्गमित होगा. उसके लिए युक्ति है - प्रस्ताव के अध्ययन पूर्वक अपने में परिपूर्णता को प्राप्त करना। उसके बाद समृद्धि पूर्वक जीने का डिजाईन अपने आप से बनाना। समृद्धि पूर्वक जीने का एक डिजाईन नहीं होगा। समृद्धि पूर्वक जीने का डिजाईन हर मनुष्य में जागृति पूर्वक अपने आप से प्रकट होता है। समाधान सभी जागृत मनुष्यों में समान है। समृद्धि के डिजाईन अलग-अलग रहेंगे। मैंने जिस डिजाईन से समृद्धि को प्रमाणित किया, आप भी वही डिजाईन में प्रमाणित करें - ऐसा कोई नियम नहीं है।

"ब्रह्म जैसी परम-पवित्र चीज से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" - यह मेरी पीड़ा का कारण हुआ था। उस पीड़ा के निराकरण के लिए मैंने साधना किया। आपमें जो इस प्रस्ताव को अपने जीने से न जोड़ पाने के कारण जो पीड़ा है, उसका निराकरण अध्ययन पूर्वक ही है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी

मनुष्य का ज्ञान-संपन्न हो जाना ही समझदारी है। ज्ञान है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। ज्ञान-संपन्न हो जाना = सह-अस्तित्व में अनुभव होना।

ज्ञान के अनुरूप विवेक और विज्ञानं संपन्न हो जाना ही ईमानदारी है। मनुष्य का अपने जीने के लक्ष्य (क्यों जीना है?) के प्रति पूर्णतः स्पष्ट हो जाना विवेक है। मनुष्य का अपने जीने की दिशा (कैसे जीना है?) के प्रति पूर्णतः स्पष्ट हो जाना ही विज्ञान है।

मनुष्य का अपने संबंधों की सटीक पहचान सपन्न हो जाना ही जिम्मेदारी है। संबंधों को मनुष्य को बनाना नहीं है। संबंधों को पहचानना है, जिसका मतलब है - संबंधों में निहित प्रयोजनों को पहचानना। संबंधों को पहचानना समझदारी और ईमानदारी संपन्न होने पर ही सफल होता है।

मनुष्य का अपने संबंधों का निर्वाह करना ही भागीदारी है।

समझदारी और ईमानदारी संपन्न होने पर मनुष्य का मानवीयता पूर्ण आचरण के साथ जीना बनता है। फ़िर अपनी जिम्मेदारी स्वीकार होती है। फ़िर अपनी भागीदारी के विस्तार को तय किया जा सकता है।

समझदार होने पर जितनी सीमा में हम प्रमाणित होते हैं, उससे ज्यादा की संभावनाएं हमको दिखाई देने लगती हैं। हमारे स्वयं के पूरा पड़े बिना आगे की संभावनाएं कैसे पता चलेगा? स्वयं त्व सहित व्यवस्था होने पर अपने समग्र व्यवस्था में भागीदारी की सम्भावना दिखने लगता है। मुझको भी ऐसा ही हुआ। "समग्र व्यवस्था की सम्भावना है" - यह मैंने एक अकेले व्यक्ति ने शुरू किया था। आज मेरे साथ इसको लेकर जूझने वाले १० और लोग हो गए।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, July 17, 2009

ध्यान देंगे तो दिखेगा!

प्रश्न: आप (अस्तित्व के स्वरूप के बारे में) जो कहते हैं, वह मुझको दिखता नहीं है।

उत्तर: आपको दिखता नहीं है - यह कोई "शिक्षा" नहीं है। आपको दिखता नहीं है - क्या यह कोई "संदेश" है?

नहीं।

आपको दिखता नहीं है - क्या यह अस्तित्व के स्वरूप के इस प्रस्ताव पर कोई "प्रश्न" है?

नहीं।

फ़िर क्या चीज है यह?

यह मेरी अभी की यथा-स्थिति है।

आपको दिखता नहीं है - क्योंकि आप ध्यान नहीं दिए। यही इसका उत्तर है। जैसे हम बैठे हैं, हमारे सामने से कई लोग निकल जाते हैं, और हम कई को देख नहीं पाते हैं। क्यों नहीं देख पाते - क्योंकि हमने उस ओर ध्यान नहीं दिया। इसके ऊपर और कोई तर्क नहीं किया जा सकता। न इस पर और कोई चर्चा से कोई उपलब्धि हो सकती है। आप ध्यान देंगे तो आप को दिखेगा। आप ध्यान नहीं देंगे तो आप को नहीं दिखेगा।

जब तक अस्तित्व के स्वरूप को देखने (समझने) की प्राथमिकता स्वयं में नहीं बनती, तब तक हमे उसका अनुभव नहीं होता। इसमें किसी पर आक्षेप नहीं है। न यह किसी की आलोचना है।

अध्ययन के लिए ध्यान देना होता है। अध्ययन पूर्वक अनुभव के बाद ध्यान बना ही रहता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

चंद्रमा पर आदमी के जाने का प्रयोजन



मनुष्य जब चंद्रमा पर पहुंचाने की बात थी, तब पत्रकारों ने विज्ञानियों से पूछा - "चंद्रमा पर आदमी के जाने का क्या प्रयोजन है?" मैंने इसे तब समाचार पत्रों में पढ़ा था। इसका उत्तर तब उन्होंने दिया -

(१) चंद्रमा पर कोई मूल्यवान खनिज हमको मिला तो हम उसे धरती पर ले आयेंगे।

(२) वहाँ यदि रहने योग्य स्थान है तो वहाँ मनुष्य के लिए बस्तियां बसायेंगे।

(३) चंद्रमा को जो हम दूर से देखते हैं, वह वास्तव में वैसा ही है या नहीं - इस curiosity को पूरा कर लेंगे।

आज चंद्रमा को पर्यटन-स्थली बनाने और उसके लिए व्यापार करने के पक्ष में सोचा जा रहा है। इस तरह की सोच से हम कहाँ पहुंचेंगे, आप ही सोच लो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

उत्पादन और विनिमय

मानव-चेतना से संपन्न होने पर व्यवस्था का जो स्वरूप निकलता है उसे "मानवीय व्यवस्था" कहा।

मानवीय व्यवस्था में:
(१) हर परिवार समाधान-समृद्धि को प्रमाणित करने के क्रम में एक उत्पादक-इकाई है।
(2) उत्पादक अपनी "आवश्यकता" के अनुसार उत्पादन करता है - चाहे खेत में, चाहे कर्म-शाला में। मानवीयता संपन्न होने पर आवश्यकताएं निश्चित हो जाती हैं। मानवीयता संपन्न परिवार की निश्चित आवश्यकताएं होती हैं - शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज-गति में भागीदारी करने के लिए।
(३) उत्पादक अपनी उत्पादित वस्तु का मूल्यांकन स्वयं करता है।

अभी की अमानवीय स्थिति में: -
(१) उत्पादक व्यापारिक संस्थानों में एक कर्मचारी के रूप में रहता है।
(2) बाज़ार आवश्यकता (कितना उत्पादन करना है) का निर्धारण करता है। इससे उत्पादक की उत्पादन करने की स्वतंत्रता नहीं है।
(३) उत्पादक अपनी उत्पादित वस्तु का मूल्यांकन कर ही नहीं पाता। परिस्थिति के अनुसार व्यापारी या बाज़ार उत्पादित वस्तु की कीमत तय कर देता है। इससे होने वाली असंतुष्टियाँ कभी-कभी घातक भी सिद्ध हो जाती हैं।

अमानवीय स्थिति में इस तरह उत्पादक उत्पादन करने और मूल्यांकन करने दोनों में परतंत्र है।

अमानवीय स्थिति में पैसे लगाने वाला अलग व्यक्ति होता है, कार्य करने वाला दूसरा व्यक्ति रहता है। कार्य करने में - मैनेजमेंट वाला अलग, और उत्पादन कार्य करने वाला कर्म-चारी के रूप में अलग। मैनेजमेंट के भी कई स्तर बना दिए। उत्पादित वस्तु की गुणवत्ता का निर्धारण भी स्वयं-स्फूर्त नहीं है। बाज़ार ही उत्पादों की गुणवत्ता को तय करता है - पैसे के आधार पर। मार्केट-शेयर को पैसे के आधार पर तोला जाता है। मार्केट-शेयर के आधार पर व्यापारी की अर्हता को पहचाना जाता है। ग्राहकों से जिन उत्पादों की मांग रहती है - वे भी सारे रूचि मूलक ही होते हैं। "ठीक लगने" के आधार पर खरीद होती है।

मानवीय व्यवस्था में:

(१) मूल्यांकन और विनिमय सामन्याकान्क्षा और महत्त्वाकांक्षा संबन्धी वस्तुओं का होता है।
(२) श्रम मूल्य के आधार पर वस्तु-मूल्य का निर्धारण होता है। वस्तु में उपयोगिता और कला मूल्य के आधार पर उसके श्रम-मूल्य का निर्धारण होता है।
(३) श्रम मूल्य के आधार पर दो उत्पादक परिवारों में वस्तुओं का लाभ-हानि मुक्त विनिमय होता है।

बिना प्रतीक मुद्रा के वस्तुओं के सीधे विनिमय की बात पहले रही थी - लेकिन उसमें श्रम-मूल्य के आधार पर वस्तु-मूल्य को पहचानने की बात नहीं थी। इसलिए वह वस्तु-विनिमय भी व्यापारिक सिद्ध हो गया। लाभ विधि से यह असफल हो गया।

श्रम मूल्य विधि से मूल्यांकन मानव-चेतना विधि से ही होगा। जीव-चेतना विधि से नहीं।

जीव-चेतना में उत्पादन और विनिमय के नाम पर केवल शोषण के contracts होते हैं।

अनुभव मूलक विधि से ही मानवीय व्यवस्था स्पष्ट होती है।
शरीर मूलक विधि से लाभ मूलक व्यापार ही होता है।

लाभ-मूलक व्यापार में जो ज्यादा चतुर हैं, वे ज्यादा व्यापार कर पाते हैं। जो कम चतुर हैं, वे कम व्यापार कर पाते हैं।

सूत्र रूप में - परिवार की आवश्यकता के अनुसार उत्पादन, श्रम-मूल्य के आधार पर विनिमय। इस सूत्र की व्याख्या परिवार-समूह के बीच में, फ़िर ग्राम के स्तर पर, फ़िर मंडल के स्तर पर, फ़िर राज्य के स्तर पर, और अंततोगत्वा विश्व-स्तर पर।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

न्याय

न्याय का अर्थ है - सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति।

दो समझदार (अनुभव संपन्न) व्यक्तियों के बीच ही न्याय प्रमाणित होता है।

दो भ्रमित व्यक्तियों के बीच न्याय प्रमाणित होने की कोई सम्भावना ही नहीं है।

एक व्यक्ति समझदार हो, दूसरा समझदार नहीं हो - उस स्थिति में समझदार व्यक्ति अपने में तृप्ति पूर्वक न्याय करता है। लेकिन दूसरा व्यक्ति (जो समझदार नहीं है) वह प्रामाणिकता के अभाव में न्याय नहीं कर पाता है, और अपने में अतृप्त ही रहता है। इसलिए इस स्थिति में उभय-तृप्ति नहीं होगी।

समझदार व्यक्ति के साथ भ्रमित व्यक्ति के सम्बन्ध में भ्रमित-व्यक्ति के समझ कर तृप्त होने का मार्ग बनता है। समझदार व्यक्ति भ्रमित व्यक्ति की तृप्ति के लिए मार्ग-दर्शन हेतु प्रेरणा का स्त्रोत बन जाता है।

समझदार व्यक्ति द्वारा न्याय करना कोई अहसान नहीं है। समझदार व्यक्ति अपनी संतुष्टि को प्रमाणित करते हुए, "स्वाभाविक" रूप में न्याय करता है, विश्वास मूल्य को प्रमाणित करता है। समझदार व्यक्ति के साथ भ्रमित व्यक्ति भी कोई अविश्वास का काम नहीं कर पाता है। जैसे - मेरे साथ कोई व्यक्ति चाहे आगंतुक विधि से क्यों न हो - मेरे साथ अविश्वास नहीं कर पाता है। मेरे न्याय करते हुए, उस प्रभाव में, आप कोई अविश्वास का काम कर ही नहीं सकते। अविश्वास का आप कोई प्रस्ताव ही नहीं रख सकते।

पशु-मानव या राक्षस-मानव एक मानवीयता-संपन्न मानव के सम्मुख अपनी पशुता और राक्षसीयता को व्यक्त नहीं कर पाता है। मानवीयता संपन्न मानव का यह प्रभाव सामयिक रहता है। क्योंकि इस सान्निध्य से बाहर आने पर पशु-मानव और राक्षस-मानव प्रवृत्तियां (दीनता, हीनता, क्रूरता) वापस हो सकता है। किंतु जो क्षण उसने मानव के सान्निध्य में बिताये - उसके स्मरण में वह नयी परिस्थितयों को जांचने लगता है। जांचने पर जो उसको ज्यादा मूल्यवान लगता है, उसमें वह संलग्न हो जाता है। उसके परिवार में न्याय-पूर्वक जीने की "चाहत" पहले से ही बनी रहती है। अडोस-पड़ोस में न्याय-पूर्वक जीने की "चाहत" रहती ही है। शनै शनै अध्ययन पूर्वक वह व्यक्ति मानवीयता संपन्न होने तक पहुँचता ही है।

मानवीयता संपन्न होने पर मनुष्य अपने में सिमट नहीं पाता है। मानव का प्रकट होना ही होता है। गलतियों और अपराध-प्रवृत्ति के साथ मनुष्य सिमट जाता है। न्याय के साथ मानव का विस्तार बढ़ता जाता है। जीवन अपनी स्वीकृतियों के आधार पर ही अपने विस्तार का निर्धारण करता है। आप और मैं यदि न्याय को प्रमाणित कर पाते हैं, तो वह तीसरे व्यक्ति तक प्रसारित होता ही है। हम तीनो यदि न्याय पूर्वक जी गए तो चौथे, फ़िर पाँचवे तक यह पहुँचता ही है। न्याय और उभय-तृप्ति का स्वागत होता ही है।

मानव परस्परता में विश्वास ही तृप्ति बिन्दु है। विश्वास कोई भौतिक-रासायनिक वस्तु नहीं है। यह चैतन्य प्रक्रिया है। संबंधों में मूल्यों को प्रमाणित करने के अर्थ में ही भौतिक-रासायनिक वस्तुएं (शरीर-पोषण, संरक्षण, और समाज-गति के अर्थ में) अर्पित-समर्पित होते ही हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Wednesday, July 15, 2009

मंगल मैत्री पूर्वक ही प्रबोधन सफल होता है.



प्रबोधन की परिभाषा है - अन्य व्यक्ति में सत्य-बोध कराने के लिए परिपूर्णता के अर्थ में शब्दों का प्रयोग करना। जिसको बोध हुआ वह व्यक्ति अनुभव पूर्वक पुनः प्रबोधित करेगा। इस ढंग से ज्ञान-अवस्था की परम्परा बनती है। जितना हम और लोगों को बोध कराते हैं, हमारा उत्साह और प्रसन्नता और बढ़ता जाता है। इस ढंग से मानव थकने वाले गुण से मुक्त हो जाता है।

मंगल-मैत्री के बिना प्रबोधन सफल हो ही नहीं सकता। मंगल-मैत्री ही दूसरे व्यक्ति में बोध होने के लिए एक पवित्र, पावन, निर्मल, और शुद्ध आधार-भूमि है। अध्ययन करने वाला प्रबोधक को पारंगत मान कर ही उसकी बात सुनता है। यदि उसे पारंगत नहीं मानता तो वह उसकी बात सुनता ही नहीं है। मंगल-मैत्री पूर्वक ही सुनने वाला और सुनाने वाला एक दूसरे पर विश्वास कर सकते हैं। सुनाने वाला पारंगत है, यह विश्वास सुनने वाले में हो - और सुनने वाला ईमानदारी से सुन रहा है, इसको बोध होगा - यह विश्वास सुनाने वाले में हो - तभी प्रबोधन सफल होता है। यदि परस्पर यह विश्वास नहीं होता तो हम बतंगड़ में फंस जाते हैं। बोध की अपेक्षा में ही विद्यार्थी यदि जिज्ञासा करता है, तो उसको बोध होता है। बोध की अपेक्षा को छोड़ कर हम और कोई reference से यदि तर्क करते हैं, तो रास्ते से हट जाते हैं। सुई की नोक से भी यदि इससे हटते हैं, तो किसी दूसरे ही दिशा में चले जाते हैं।

"स्वभाव गति" में रहने पर ही मंगल-मैत्री होता है, तो अध्ययन के लिए आवश्यक है। आवेशित-गति में रहने पर अध्ययन नहीं होता। बेहोश रहने पर भी नहीं होता। चंचलता बने रहने पर भी नहीं होता। मन यदि भटकता रहे और आप सुनते रहे तो कुछ समझ में नहीं आएगा। मन को एक ही समय में तीन जगह रहने का अधिकार रहता है। इस लिए अध्ययन के लिए विद्यार्थी द्वारा अपने मन को स्थिर करने की आवश्यकता है। इसी का नाम है - "ध्यान"। अध्ययन के लिए ध्यान देना बहुत आवश्यक है। अध्ययन करना ही ध्यान का प्रयोजन है। आँखें मूँद लेना कोई ध्यान नहीं है - उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ।

यदि हमने ध्यान दिया तो अस्तित्व में कोई ऐसी चीज नहीं है जो हमको बोध न हो। अस्तित्व में किसी चीज पर बुरका नहीं लगा। सम्पूर्ण अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में "खुला" है। इसी आधार पर अस्तित्व में अनुभव किए हुए आदमी द्वारा दूसरे आदमी को बोध कराना सहज है। स्वभाव-गति में होने पर ही दूसरा आदमी उसको ग्रहण कर पाता है। जो ग्रहण किया वह यदि तृप्ति नहीं दे पाता है, तो उस स्थिति में वह जिज्ञासा कर सकता है - संतुष्ट होने के लिए। इस तरह सुनने वाले और सुनाने वाले के बीच मंगल-मैत्री पूर्वक सारी बात स्पष्ट हो सकता है। यदि सुनने वाले और सुनाने वाले में समान रूप से स्पष्टता हो जाती है तो दोनों में एकरूपता हो गया कि नहीं? यह एकरूपता होना ही "अनन्यता" है।

प्रबोधक अनुभव-प्रमाण का धारक-वाहक होता है। अनुभव-प्रमाण का धारक-वाहक होने के लिए अनुभव-प्रमाण का दृष्टा बने रहना आवश्यक है।

बोध कराने के लिए प्रबोधक और विद्यार्थी के बीच सम्प्रेश्ना होती है। वह सम्प्रेश्ना ज्यादा स्नेहिल हो तो प्रबोधन जल्दी सफल हो जाता है। गणितात्मक भाषा सूखी-सूखी है, और गति के साथ है। गुणात्मक भाषा थोड़ा ज्यादा स्नेहिल है, और प्रयोजन के साथ है। कारणात्मक भाषा पूर्णतया स्नेहिल है, और प्रमाण के साथ है। कारण-गुण-गणित के संयुक्त स्वरूप में मानवीय भाषा के प्रयोग से प्रबोधन होता है। प्रबोधन स्नेहिल विधि से ही पल्लवित और पुष्पित होता है। विरोधाभासी विधि से नहीं होता।

भौतिक वस्तुओं का आवंटन किया जा सकता है। उनका भाग-विभाग किया जा सकता है। उनका विनिमय किया जा सकता है। लेकिन ज्ञान का आवंटन नहीं किया जा सकता। ज्ञान का भाग-विभाग नहीं होता। कितने भी व्यक्ति ज्ञान का बोध करें, ज्ञान में अनुभव करें, ज्ञान को प्रमाणित करें - ज्ञान न कम होता है, न ज्यादा होता है। इसलिए ज्ञान का व्यापार नहीं होता। ज्ञान का दूसरे को बोध ही कराया जा सकता है। किसी व्यक्ति से यदि हमको बोध हुआ तो उसके प्रति हमारा कृतज्ञ रहना ही बनता है। हमारी कृतज्ञता ही उसका प्रतिफल है। उससे ज्यादा हम कुछ दे भी नहीं सकते।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, July 14, 2009

अनुभव घटना

प्रश्न: अनुभव होना एक सामान्य घटना है या विशेष घटना?

उत्तर: अनुभव की अपेक्षा हर मनुष्य में है। मनुष्य में अनुभव हो जाना एक सामान्य घटना है। अनुभव न होने का कारण है - परम्परा में इसका प्रावधान न होना। परम्परा चार स्वरूप में होती है - आचरण, शिक्षा, संविधान, और व्यवस्था। इन चारों जगह में यदि प्रमाण सहित प्रेरणा का स्त्रोत बना रहता है - तो उस स्थिति में हर मनुष्य के लिए अनुभव करना कोई मुश्किल नहीं है। जिस तरह हम भाषा एक से दूसरे को सिखाते हैं, उससे ज्यादा आसानी से जागृति एक से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचती है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Monday, July 13, 2009

स्थिरता और निश्चयता

सत्ता ही ऊर्जा है, जिसमें संपृक्त होने के कारण प्रकृति की प्रत्येक इकाई चुम्बकीय बल संपन्न है। परमाणु-अंश भी जो एक दूसरे को पहचानते हैं, वे चुम्बकीय-बल सम्पन्नता के आधार पर ही पहचानते हैं। फल-स्वरूप परमाणु-अंश में व्यवस्था-प्रवृत्ति होने का प्रमाण मिलता है। इसकी गवाही है - दो अंश के परमाणु का आचरण निश्चित है। उसकी उपयोगिता निश्चित है। उसकी पूरकता निश्चित है।

उसी प्रकार एक प्राण-कोषा बल-संपन्न होने से अपने प्राण-सूत्रों में रचना-विधि के अनुसार कार्य करता है। एक रचना-विधि के पूरा होने पर दूसरी रचना-विधि उनमें स्वयं-स्फूर्त उभर आता है। जबकि विज्ञानी लोग बताते हैं - प्राण-कोषायें गलती करते हैं, फल-स्वरूप विविध तरह की रचनाएँ प्रकट हुई। इस पर प्रश्न बनता है - पहली जो प्राण-कोषा बनी वह किसकी गलती से बन गयी? पहली जो रचना बनी, उसकी रचना-विधि उसके प्राण-कोषा में था कि नहीं? क्या वह बिना रचना-विधि के ही रचना हो गयी? प्राण-सूत्रों में रचना-विधि के साथ ही रचना हुआ - यह विज्ञानी लोग मानते हैं। वह रचना-विधि किस गलती से हो गयी? - यह बता नहीं पाते हैं।

मध्यस्थ-दर्शन में यहाँ यह प्रस्तावित है - हर प्राण-कोषा में निहित प्राण-सूत्रों में रचना-विधि होती है, वह रचना बीज-वृक्ष परम्परा के रूप में स्थापित होने के बाद प्राण-कोषाओं में उत्सव होता है। जिसके फलस्वरूप उन्ही प्राण-सूत्रों में दूसरी अधिक-उन्नत रचना-विधि प्रकट हो जाता है। इस प्रकार प्राण-अवस्था की परम्पराएं एक से दूसरी क्रम वत निकलती चली आयी। इसमें मनुष्य कुछ भी हस्तक्षेप करता है, तो उसकी परम्परा नहीं बनती। मनुष्य जो genetic engineering द्वारा कर रहा है, उससे यही हो रहा है।

विज्ञानी अस्तित्व के मूल में अस्थिरता और अनिश्चयता को बताते हैं। जबकि मध्यस्थ-दर्शन में अस्तित्व में स्थिरता और निश्चयता से शुरुआत करते हैं।

आप अस्थिरता-अनिश्चयता चाहते हैं, या स्थिरता-निश्चयता? इस प्रश्न का उत्तर हर व्यक्ति स्थिरता और निश्चयता के पक्ष में ही देता है। अस्तित्व में जो नहीं है, उसको मनुष्य चाह भी नहीं सकता। अस्तित्व में जो है, उसी को मनुष्य चाह सकता है, प्रयोग कर सकता है, उसी के साथ सुख या दुःख को भोगता है।

पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था, प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था, जीव-अवस्था से मानव ज्ञान-अवस्था की इकाई के रूप में प्रकट हुआ। मानव ज्ञान-अवस्था के होते हुए भी जीवों के सदृश जिया। ऐसे जीव-चेतना में जीने से मानव ने मानव के साथ अपराध किया, और धरती के साथ अपराध किया। प्रधान तौर पर सुविधा-संग्रह के लिए, और सीमा-सुरक्षा के लिए धरती को घायल करना हुआ। सीमा-सुरक्षा में दो ही काम होते हैं - युद्ध करना, या युद्ध के लिए तैय्यारी करना। इससे युद्ध कहाँ रुका, या रुकेगा? अपराध-मुक्त विधि से जीने के लिए मध्यस्थ-दर्शन एक अध्ययन-गम्य प्रस्ताव है, जिसके अनुसार:

अस्तित्व स्थिर है। अस्तित्व में विकास और जागृति निश्चित है।
गठन-पूर्णता ही विकास है।
मानव-चेतना विधि से जीना ही जागृति है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

मानव-चेतना में वैविध्यता का स्थान

जीव-चेतना में जीते हुए मानव के जीने में वैविध्यता कहाँ वैध है, कहाँ अवैध है - यह तय नहीं है।

मानव-चेतना पूर्वक मानव की जीने का लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) और आशय (सुख, शान्ति, संतोष, आनंद) तय हो पाता है। यह लक्ष्य और आशय हर व्यक्ति में तय होने के बाद भी अलग अलग व्यक्तियों के समझने-समझाने, सीखने-सिखाने, करने-कराने का तरीका अलग-अलग होगा। हर कोई व्यक्ति एक ही जैसा बोलने, करने, समझने लगे - तो मानव और यंत्र में फर्क क्या हुआ? मानव यंत्र नहीं है। हम विविध प्रकार से समझते हैं, सीखते हैं, करते हैं - अपने लक्ष्य (समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व) को पाने के लिए। हम विविध प्रकार से समझाते हैं, सिखाते हैं, कराते हैं - अपनी समझ को प्रमाणित करने के लिए। यही मानव-चेतना में जीते हुए मनुष्यों में वैविध्यता का स्थान है। यह वैविध्यता मानव में निहित कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता की महिमा है।

समझने-समझाने, सीखने-सिखाने, करने-कराने के तरीके का कोई मूल्यांकन नहीं है।
समझा दिया, सिखा दिया, करा दिया - उसका मूल्यांकन है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

यंत्र और मानव

विज्ञानी जो भी बात किया - मानव को छोड़ कर किया। "मानव को छोड़ कर बात करनी है" - यह जिद्द पकड़ ली। "यंत्र यह कहता है, गणित यह कहता है" - ऐसी व्याख्याएं दी। विज्ञानी का यंत्र पर विश्वास करने का आधार था - यंत्र का बारम्बार वही क्रिया करना। उसके साथ यंत्र स्पीड भी ले आया। "यंत्र जिस स्पीड से काम कर सकता है, मानव उस स्पीड से काम नहीं कर सकता।" "यंत्र विश्वास योग्य है। मानव विश्वास योग्य नहीं है।" - यह ठहराया। जबकि मानव ही देखता है, मानव ही करता है, मानव ही यंत्र बनाता है। विज्ञानी की सोच यंत्र केंद्रित है, मानव-केंद्रित नहीं है।

मानव का "स्वयं पर विश्वास" करने का आधार ही नहीं है विज्ञानी के पास!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Saturday, July 11, 2009

काल

मनुष्य ने किसी आवर्तनशील क्रिया के आधार पर काल का गणना शुरू किया। जैसे - धरती के अपनी धुरी पर सूर्योदय से सूर्योदय तक घूर्णन करना एक आवर्तनशील क्रिया है। सूर्योदय से सूर्योदय तक की धरती की क्रिया की अवधि को "एक दिन" कहा। उसके आधार पर कितने समय में पेड़ बड़ा होता है, यह मकान कितना पुराना है - यह सब गणना करना शुरू किया। काल की गणना मूलतः धरती की क्रिया की गणना ही है। उसमें कोई तकलीफ भी नहीं है।

फ़िर मनुष्य ने विखंडन विधि से गणित करना शुरू किया। जैसे - धरती को भाग-विभाग करके पहचानना, किसी बड़ी राशि को १०-५० भागों में बांटना आदि। इतने तक में कोई तकलीफ नहीं थी। उसी विखंडन विधि से गणित करने के क्रम में एक दिन के २४ भाग करके "एक घंटा" को गणना किया। एक घंटे के ६० भाग करके "एक मिनट" का गणना किया। एक मिनट के ६० भाग करके "एक सेकंड" का गणना किया। उसके भी भाग विभाग करते चले गए, अंत में शून्यवत संख्या में काल को ले गए। काल है ही नहीं - कह दिया। जबकि जिस आधार पर समय को पहचाना था - वह क्रिया (धरती का अपनी धुरी पर घूमना) निरंतर चल ही रहा है। धरती अनादि काल से सूर्योदय से सूर्योदय तक क्रिया कर ही रहा है, अभी भी कर रहा है, आगे भी करता रहेगा। आवर्तनशील क्रिया का reference छोड़ कर जो वास्तविकता देखने गए तो "अपनी चाहत के अनुसार" विज्ञानियों ने निष्कर्ष निकाल लिए। काल को शून्यवत करके विज्ञानी अस्तित्व को भुलावा दे दिए। वस्तु को छोड़ दिए, गणित को पकड़ लिए। गणित लिखने में आता है, गणना करने में आता है - वस्तु उससे कुछ मिलता नहीं है।

(1) वस्तु को छोड़ कर जो भी पहचानने गए वह निराधार हुआ कि नहीं?

(2) इस निराधार सोच, कार्य-कलाप को करने वाला मनुष्य "आवारा पशु" जैसे हुआ कि नहीं?

(३) वर्तमान को शून्य करके विज्ञानी संसार को सच बोला कि झूठ बोला?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

मानवीय भाषा

जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य-जाति ने अनेक काल्पनिक आधारों पर अपने-पराये की दीवारें बनायी हैं - जैसे जाति, समुदाय, रंग, वेश-भूषा आदि। इस धरती पर अनेक भाषाएँ तैयार हुआ है। भाषा के आधार पर भी अपने-पराये की दीवारें बनी हैं। समान भाषा बोलने वाले "अपने", हमसे भिन्न भाषा बोलने वाले "पराये"! इसके निराकरण के लिए "मानवीय भाषा" को पहचानने की ज़रूरत है।

सभी मानव-सहज कार्य-कलापों, सोच-विचार, और अनुभव को परस्परता में इंगित कराने के लिए "मानवीय भाषा" है।

कारण, गुण, गणित के संयुक्त स्वरूप में "मानवीय भाषा" है।

गणना करने के लिए गणितात्मक भाषा है। सम, विषम, और मध्यस्थ गुणों को इंगित करने के लिए गुणात्मक भाषा है। सह-अस्तित्व मूल सत्य को इंगित करने के लिए कारणात्मक भाषा है। इसके अलावा और कुछ इंगित करने की कोई वास्तविकता नहीं है।

इससे पहले अध्यात्म-वादियों ने कारणात्मक भाषा का प्रयोग किया - गुणात्मक और गणितात्मक भाषा को नकार दिया। उसके बाद भक्तिवादियों ने अतिशयोक्तियों के साथ गुणात्मक भाषा का प्रयोग किया, कारणात्मक और गणितात्मक भाषा को नकार दिया। भौतिकवादियों (प्रचलित-विज्ञान) ने गणितात्मक भाषा का प्रयोग किया, कारणात्मक और गुणात्मक भाषा को नकार दिया। जबकि मानवीय-भाषा कारण, गुण, गणित तीनो आधारों पर ही टिकती है।

मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन कराने के लिए परम्परागत भाषा के शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। शब्दों को परिभाषाएं दी गयी हैं - जो परम्परा से नहीं हैं। परिभाषाएं ज्ञान के अर्थ में हैं - जो सह-अस्तित्व में अनुभव पूर्वक होता है। अध्ययन करने वाला अपनी कल्पनाशीलता को इन परिभाषाओं में नियोजित करके अस्तित्व सहज वास्तविकताओं को पहचानता है। सभी भाषाओँ को इन परिभाषाओं से सूत्रित किया जा सकता है। सभी भाषाएँ फ़िर एक ही अर्थ (अस्तित्व सहज वास्तविकता) को इंगित करेंगी। यही भाषाओँ के लेकर बनी अपने-पराये की दीवारों का निराकरण होने का सूत्र है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

समझ और आचरण

मानव-चेतना संबन्धी ज्ञान हमको समझ में आता है, पर वह आचरण में नहीं आए - ऐसा हो नहीं सकता। हम समझदार हों - और भीख मांग कर खाएं, ऐसा हो नहीं सकता। हम समझदार हों - और दूसरों का शोषण करें, ऐसा हो नहीं सकता। हम समझदार हों, और हम धरती का शोषण करें - ऐसा हो नहीं सकता।

मानव-चेतना संबन्धी ज्ञान यदि हमको समझ आता है तो वह "मानवीयता पूर्ण आचरण" के रूप में ही प्रमाणित होता है। मानवीयता पूर्ण आचरण "मूल्य", "चरित्र", और "नैतिकता" का संयुक्त स्वरूप है। यह "परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था" के रूप में प्रमाणित होता है।

समझ में आया तो आचरण में आएगा ही!
आचरण में नहीं आया, तो समझ में आया नहीं!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, July 7, 2009

सकारात्मक सार्थकता

"मानव संचेतना" का अर्थ है - स्वयं (जीवन) में निहित मूल्यों को अपने जीने में प्रमाणित करना। { स्वयं (जीवन) में निहित (स्थापित) मूल्य हैं - (विश्वास, सम्मान, स्नेह, श्रद्धा, ममता, वात्सल्य, कृतज्ञता, गौरव, प्रेम) }

स्वयं (जीवन) में निहित मूल्यों की पहचान अपने संबंधों के आधार पर होती है।

संबंधों की पहचान उनमे निहित प्रयोजनों के आधार पर होती है।

हर सम्बन्ध का प्रयोजन है - व्यवस्था में होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना। सम्बन्ध का और कोई प्रयोजन नहीं है।

मूल में - अस्तित्व सह-अस्तित्व है। इसीलिये सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी है। इसीलिये अस्तित्व में हरेक एक अपने त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है। इसी क्रम में मानव मानवत्व सहित एक व्यवस्था है, और समग्र-व्यवस्था में भागीदारी करता है।

मानव मानवत्व सहित जीने में असमर्थ है - इसीलिये अपराध करता है। शेष तीनो अवस्थाएं (पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था) अपने त्व सहित व्यवस्था होने में समर्थ हैं - इसीलिये वे कोई अपराध करते नहीं हैं। इसीलिये मानव-जाति को मानवत्व सहित व्यवस्था में समर्थ बनाने की आवश्यकता है। जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित होने पर मनुष्य अपने संबंधों को प्रयोजनों के अर्थ में पहचान पाता है।

मनुष्य के व्यवस्था में होने और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने के आधार पर ही उसके द्वारा "न्याय" करना बनता है। न्याय का मतलब है - संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति। उसी के साथ "मानव चरित्र" स्थापित होता है। उसी के साथ "नैतिकता" स्थापित होती है। मूल्य, चरित्र, और नैतिकता अलग-अलग नहीं होता। मूल्य होगा तो चरित्र भी होगा। चरित्र होगा तो नैतिकता भी होगा। नैतिकता होगा तो मूल्य और चरित्र भी होगा। इस तरह "मानवीयता पूर्ण आचरण" को मैंने मूल्य, चरित्र, और नैतिकता के संयुक्त स्वरूप में मैंने पहचाना।

जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित होने के बाद ही मनुष्य मानवीयता पूर्ण आचरण करता है। उससे पहले एक भी आदमी मानवीयता पूर्ण आचरण नहीं कर पायेगा। मानव-चेतना में संक्रमित होने के पहले भी कई आदमी "ज्ञानी" कहला चुके - पर मानवीयता पूर्ण आचरण प्रमाणित नहीं हुआ। कई आदमी "विज्ञानी" कहला चुके - पर मानवीयता पूर्ण आचरण प्रमाणित नहीं हुआ। अज्ञानी में मानवीयता पूर्ण आचरण प्रमाणित होने का प्रश्न ही नहीं है।

ये निर्णयात्मक प्रस्तुतियां हैं। इन निर्णयों में यदि आपको कुछ समझ नहीं आता है, तो उसको समझने के लिए आप अपनी जिज्ञासा व्यक्त कर सकते हैं।

ये निर्णयात्मक प्रस्तुतियां हैं। आपकी आवश्यकता होने पर ही आप इनको स्वीकार करेंगे। आपको आवश्यकता नहीं होता है तो आप इनको स्वीकार नहीं करेंगे। यह वैसा ही है - आपको प्यास लगती है तो आप पानी को स्वीकारते हो। "सकारात्मक सार्थकता" इसी विधि से आता है।

"विकल्पात्मक अध्ययन" को एक सम्भावना के रूप में मैंने स्वीकारा है। अभी यह सम्भावना ही है। अभी हम भरोसमंद नहीं हैं। अध्ययन के बाद ही आप-हम इसके प्रति भरोसमंद होंगे।

आपको यदि इसकी आवश्यकता महसूस होती है और आप इसको स्वीकारते हैं तो यह मेरी आवश्यकता और मेरी स्वीकृति का प्रमाण मिलता है। आपको देख कर तीसरे आदमी में भी इसकी आवश्यकता बन सकती है - यह अनुमान किया ही जा सकता है। यदि ऐसा होता है - तो ७०० करोड़ आदमियों को इसकी आवश्यकता है, ऐसा मैं अनुमान करूंगा।

७०० करोड़ आदमियों के लिए इसे कैसे प्रस्तुत किया जाए - इसकी एक निश्चित विधि बनेगी। इसका नाम दिया - "शिक्षा विधि"। शिक्षा विधि के लिए तीन प्रबंध दिए - (१) मानव संचेतना वादी मनोविज्ञान, (२) आवर्तनशील अर्थ-शास्त्र, (३) व्यवहारवादी समाजशास्त्र। उन तीन प्रबंधों का अध्ययन कराने की व्यवस्था दिया। अध्ययन कराने के कार्यक्रम को निशुल्क रखा। अध्ययन कराने के लिए मुझे कोई प्रतिफल नहीं चाहिए। ज्ञान और धर्म का व्यापार करना महा-अपराध है।

प्रचलित-विज्ञानं का ज्ञान-पक्ष अपराधिक है। तकनीकी पक्ष ठीक है। प्रचलित-विज्ञान के तकनीकी पक्ष को यथावत रखा जाए, ज्ञान-पक्ष पर पुनर्विचार किया जाए। प्रचलित-विज्ञान के ज्ञान-पक्ष में अस्थिरता-अनिश्चयता के स्थान पर अस्तित्व में स्थिरता और निश्चयता के स्वरूप का अध्ययन हो। "अस्तित्व स्थिर है, विकास और जागृति निश्चित है।" - इस एक वाक्य में प्रचलित-विज्ञान के अपराधिक ज्ञान से विधि-ज्ञान में परिवर्तित होने का सूत्र है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

सुख और स्वयं में विश्वास

सर्व-मानव में सुखी होने (तृप्त होने) की अपेक्षा है, पर उसे सुख (तृप्ति-बिन्दु) मिला नहीं है। "मानव सुखी होना चाहता है" - यह निर्णय है। "मानव अभी तक सुखी नहीं हुआ है" - यह समीक्षा है।

सुखी होने के लिए "स्वयं में विश्वास" संपन्न होना आवश्यक है।

स्वयं में विश्वास संपन्न होने के लिए "सह-अस्तित्व में अध्ययन" पूर्वक अनुभव संपन्न होना आवश्यक है।

हर मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता स्वत्व के रूप में है। सह-अस्तित्व में अध्ययन के लिए कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग आवश्यक है।

मनुष्य द्वारा अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु को पहचानने के लिए ही अध्ययन है।

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु ही "सुख" है - जो "स्वयं में विश्वास" के रूप में प्रकट होता है।

जीवन-ज्ञान को नकारने वाला इस संसार में कोई नहीं है। अपने आप पर विश्वास करने के लिए स्वयं का अध्ययन नहीं चाहने वाला भी क्या कोई होगा? स्वयं पर विश्वास न करना चाहता हो - क्या ऐसा भी कोई व्यक्ति होगा? इसी आधार पर शुरू किए - स्वयं में विश्वास सुखी होने के लिए ज़रूरी है। उसके लिए ज्ञान, विवेक, विज्ञान संपन्न होने की आवश्यकता है। इन तीनो के लिए सह-अस्तित्व में अध्ययन करायेंगे। ये तीनो अध्ययन होने पर अपने आप से स्वयं में विश्वास होता है। फ़िर मनुष्य को विश्वास के लिए बाहर से कोई प्रेरणा की ज़रूरत नहीं पड़ती।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, July 5, 2009

राज-गद्दी और धर्म-गद्दी

मानव का अध्ययन करने पर पता चला - मानव को आदि-काल से कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का अधिकार है। इसकी गवाही है - मनुष्य जंगल से गुफा में, गुफा से झोपडी में, कबीले में, गाँव में, और आज शहर तक पहुँच गया। इस बीच मनुष्य अपनी सुविधा के लिए और जंगली-जानवरों से अपने बचाव के लिए औजार तैयार किया। गाँव-कबीला बसने से पहले ही यह औजार तैयार करना हो चुका था। गाँव-कबीला बसने के बाद एक गाँव-कबीला वाले दूसरे गाँव-कबीला वालों के साथ लूट-खसोट मार-पीट करते रहे। इसमें से ही कोई "बुद्दिमान" फ़िर सुझाया होगा - सबको लूट-पाट, झगडा करने की क्या ज़रूरत है? सामान्य लोग अमन चैन से रहे; लूट-पाट और लड़ने आदि की जिम्मेदारी हम ले लेते हैं। उसी तरह "शासन" की शुरुआत हुई।

इसके मूल में यह परिकल्पना दी गयी - "ईश्वर ही मूलतः शासक है।" राजा ईश्वर का ही प्रतिनिधि है। "राजा गलती नहीं करता" - यह मान लिया। इस मान्यता के आधार पर राजा का सम्मान हुआ। राजा जो कहता है वही संविधान है - यह भी मान लिया। कुछ समय बाद पता चला यह पर्याप्त नहीं है। तो उसके बाद मंत्रियों को जोड़ लिया - मंत्रणा करने के लिए! उसके बाद सभा को जोड़ लिया।

सभा-विधि से या राजा-विधि से राज्य की सच्चाई पहचान में नहीं आयी। यह दुःख सतत बना रहा। अमन-चैन से रहने का राज-गद्दी का आश्वासन पूरा नहीं हुआ। इसके विपरीत राज-गद्दी अपराध-ग्रस्त हो गयी।

इसी के साथ धर्म-गद्दी तैयार हुई, जिसने आश्वासन दिया - पापी को तारने का, अज्ञानी को ज्ञानी बनाने का, और स्वार्थी को परमार्थी बनाने का। "पाप, अज्ञान-, और स्वार्थ ही आदमी को रास्ते से बे-रास्ता करता है" - यह सोचा गया। अभी तक कोई पापी के तारे होने का, अज्ञानी के ज्ञानी बनने का, और स्वार्थी के परमार्थी बनने की कोई गवाही मिलती नहीं है। इसके विपरीत धर्म-गद्दी "कीर्ति-ग्रस्त" हो गयी। धर्म-गद्दी के सारे प्रयास समुदाय-वादी अपने-पराये की दीवारों को और ऊंचा बनाने में लग गए। इस ढंग से धर्म-गद्दी से भी हम खाली हो गए हैं।

व्यवस्थित होने, और व्यवस्था में जीने की मनुष्य में सहज-अपेक्षा है। इनके लिए धर्म-गद्दी और राज्य-गद्दी के आश्वासन झूठे सिद्ध हो गए हैं। समझदारी पूर्वक मनुष्य स्वयं व्यवस्थित रहता है, और समग्र-व्यवस्था में भागीदारी करता है। मनुष्य के समझदारी संपन्न होने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव है। समझदारी पूर्वक मनुष्य अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था को प्रमाणित कर सकता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Saturday, July 4, 2009

व्यापार में शोषण से मुक्ति

मानव अपने इतिहास में अपनी परिभाषा के अनुरूप मनाकार को साकार करने का काम करता ही आया। मनाकार को साकार करने को प्रमाणित करने के क्रम में सामान्याकान्क्षा (आहार, आवास, अलंकार) और महत्त्वाकांक्षा (दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन) संबन्धी वस्तुओं को जो कारीगरी विधि से बनाया, उसका व्यापार-विधि से लोकव्यापीकरण हुआ। व्यापार लाभ से जुड़ा। शोषण के बिना लाभ होता नहीं है। लाभ-प्रवृत्ति से व्यापार शोषण के लिए प्रेरित हो गया.  फलस्वरूप ज्यादा-कम की सीढियां लगती गयी। ज्यादा-कम की सीढियां संघर्ष का आधार होता गया। जिसके पास ज्यादा पैसा है, वे व्यापार करते रहे - ऐसी सोच फ़िर उभरी। यही शोषण से ग्रसित व्यापार चलते-चलते विश्व-व्यापार तक पहुँच गया। ग्राम-स्तर पर व्यापार भी शोषण-ग्रसित है। विश्व-स्तर पर व्यापार भी शोषण-ग्रसित है।

यह किसी का विरोध या किसी पर आरोप नहीं है। जो मनुष्य ने किया, और उसका जो प्रभाव हुआ - उसकी समीक्षा है।

व्यापार-कार्य में शोषण-मुक्त होना है, या नहीं? - यह सोचने का एक मुद्दा है।

"लाभ-हानि मुक्त आवर्तनशील अर्थ-व्यवस्था" सह-अस्तित्व की समझदारी के बिना स्थापित हो नहीं सकती।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

मानव का अध्ययन

अध्ययन को शुरू करने के दो छोर हैं। मनुष्य से हम अध्ययन को शुरू कर सकते हैं। दूसरे - सह-अस्तित्व से शुरू कर सकते हैं। मनुष्य से शुरू करते हैं तो मनुष्य में शरीर, और शरीर में अंग-अवयव का होना पाया जाता है। जीवंत-शरीर में पाँच ज्ञान-इन्द्रियों के आधार पर मनुष्य अनुकूलता और प्रतिकूलता को व्यक्त करता है। जब यह व्यक्त करना बंद हो जाता है, तो मृतक शरीर घोषित कर देते हैं। जीवंत-शरीर द्वारा जो कार्य होता है, उसमें जीवन की आशा का आंशिक रूप ही व्यक्त होता है। शरीर-शक्तियां जीवन-शक्तियों की अपेक्षा में नगण्य हैं। उसकी गवाही है - जीवन के शरीर से पृथक हो जाने के बाद हम शरीर को तुंरत ठिकाने लगा ही देते हैं!

"जीवन के बिना मनुष्य निरर्थक है" - यह मनुष्य में आज भी स्वीकृत है। लेकिन जीवन क्या है? - यह मनुष्य को अज्ञात है। क्या चीज है जो शरीर से पृथक होता है जो हम मनुष्य को मृतक मान लेते हैं? - यह मनुष्य को अज्ञात है।

जीवंत कैसे होना शुरू होता है, और मृत्यु कैसे होता है - यह समझना मानव का अध्ययन हुआ। जन्म और मृत्यु के बीच में जो कुछ भी होता है - वह मानव-परम्परा का काम हुआ।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

कितना नापोगे?

भौतिकवाद नाप-दण्डो को लेकर चला - उसको "विज्ञान" मान लिया। एक मीटर के अरब अंश तक नाप लेने के बाद उससे भी सूक्ष्म, खरब अंश तक नापने की जगह बना ही रहता है। दूसरे - इस सौर-मंडल के हर गृह को नाप लेने के बाद अनंत और सौर-मंडल, अनंत और गृह बचा ही रहता है। जितना नापते हैं, उससे आगे और नाप सकते हैं - यह बना ही रहता है।

कितना नापोगे? कहाँ तक नापोगे?

हमारी अपेक्षा या आशा के अनुसार हम यह तय नहीं कर पायेंगे। आशा और अपेक्षा जीवन शक्तियां हैं, जो अक्षय हैं - उनके आधार पर कितना नापना है, यह तय नहीं हो सकता। आशा जीवन में अक्षय शक्ति है। नापने का कार्य जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है।

समझदारी के बिना मनुष्य अपनी आवश्यकता को तय नहीं कर सकता। अपनी आवश्यकता को तय करे बिना और-और नापने की प्यास बनी ही रहेगी। भौतिकवादी विधि से आवश्यकता का ध्रुवीकरण नहीं हो सकता। आवश्यकताएं असीमित होने से सुविधा-संग्रह के लिए होड़ अवश्यम्भावी हो जाती है। उस होड़ में मनुष्य द्वारा धरती का शोषण और एक-दूसरे का शोषण भावी हो जाता है।

समझदारी पूर्वक अपनी आवश्यकता का ध्रुवीकरण होने पर ही अपने नापने की सीमा को मनुष्य तय कर सकता है। जितनी आवश्यकता है, उतना फ़िर नाप ही सकते हैं। उससे ज्यादा को नापने फ़िर हम जाते नहीं हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

कार्य-ज्ञान और ज्ञान

"मनुष्य में कार्य-ज्ञान होता है।" हम कुछ भी कार्य करना सीख सकते हैं, सिखा सकते हैं - यह इस बात का प्रमाण है। यह बात मानव-परम्परा में आ चुकी है।

समय (क्रिया की अवधि) और दूरी के नाप के आधार पर कार्य का पहचान होता है। अत्याधुनिक संसार (प्रचलित-विज्ञान) ने macro और micro scale पर नापने की विधियां दी, जिससे कार्य की पहचान होती है। कार्य करने के लिए जो ज्ञान होता है, उसे "कार्य-ज्ञान" कहते हैं।

मनुष्य में कार्य-ज्ञान ही उसके कार्य करने की ऊर्जा है।

कार्य-ज्ञान के मूल में "कारण स्वरूप" में ज्ञान है। यही मूल ऊर्जा है। यही साम्य-ऊर्जा है। मनुष्य में साम्य-ऊर्जा ज्ञान स्वरूप में है। ज्ञान के आधार पर ही मनुष्य को कार्य-ज्ञान होता है। यह एक बहुत ही महिमा-संपन्न मुद्दा है। इसको आप अच्छे से डूब के समझ लो! यही स्थूल और सूक्ष्म के बीच की विभाजन रेखा है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

सुखी होने का ज्ञान

प्रश्न: मनुष्य को ज्ञान क्यों चाहिए?

उत्तर: सुखी होने के लिए। सुखी होने के बाद सुखी रहना बनता है। मनुष्य को सुखी होने के लिए ज्ञान की पहचान आवश्यक है, इसी आधार पर मनुष्य ज्ञान-अवस्था में है।

सुख किसी संख्या में नहीं आता। मानव द्वारा बनाए गए macro या micro किसी भी scale पर सुख को नापा नहीं जा सकता। विगत ने शब्द-संसार द्वारा सुख को लेकर जो कुछ भी बताया - उससे सुख के स्वरूप की पहचान नहीं हुआ। इस तरह आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों द्वारा सुख की पहचान नहीं हुई। यह यदि आपमें निर्णय हो पाता है तो आप उनके छूत से छुटोगे, नहीं तो छूत पकड़ा ही रहेगा!

"मनुष्य सुखी होना चाहता है।" - यह बात भारतीय-अध्यात्मवाद ने दिया। "इन्द्रियों में सुख की निरंतरता नहीं है।" - इस बात की भी घोषणा किया। इसके लिए हम विगत के लिए कृतज्ञ हैं। सुख किसमें होता है ? - यह पूछने पर विगत में उसको रहस्यमय बताया।

सुखी होने के ज्ञान को उजाले में बताने के लिए हम जा रहे हैं। सुख का "स्वरूप ज्ञान" जो आदर्श-वाद और भौतिक-वाद के प्रयासों से स्पष्ट नहीं हो पाया था, उसके लिए मैंने प्रयत्न किया - जिसमें मैं सफल हो गया।

मानव का अध्ययन सुखी होने के अर्थ में ही है, और कोई अर्थ में नहीं है। मानव का अध्ययन न हो - और सुख पहचान में आ जाए, यह सम्भव नहीं है।

संवेदनाओं में मनुष्य को सुख भासता है (सुख जैसा लगता है)। इससे सुख कुछ "है" - यह मनुष्य को स्वीकार हो गया। "संवेदनाओं में सुख की निरंतरता नहीं होती" - यह भी मनुष्य की पहचान में आ गया। सुख की निरंतरता कैसे हो? - यह बात मनुष्य के समझ में अभी तक नहीं आयी।

प्रश्न: सुख की निरंतरता कैसे हो?

ज्ञान, विवेक, और विज्ञान विधि से जीने पर मनुष्य में सुख की निरंतरता होती है। सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक मनुष्य का ज्ञान, विवेक, विज्ञान विधि से जीना बनता है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)