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Sunday, November 2, 2008

सत्ता में संपृक्त प्रकृति

व्यापक, शून्य, Space जो इकाइयों के बीच खाली स्थली के रूप में दीखता है - यह क्या है? यह कुछ भी नहीं है! - यह कहना नहीं बनता! यहाँ यह बता रहे हैं - यह व्यापक साम्य ऊर्जा है। प्रकृति की सभी इकाइयां इसमें संपृक्त (डूबी, भीगी, और घिरी) हैं। व्यापक स्वयं में क्रिया न होते हुए भी, सभी क्रियाओं का आधार है। यह सह-अस्तित्व का मूल स्वरूप है। यह मूल बात समझ में आने पर ही सह-अस्तित्व का पूरा वैभव समझ में आता है।

इकाइयों का वैभव ही मध्यस्थता है। वैभव की ही परम्परा बनती है। जैसे - दो अंश का परमाणु का एक निश्चित आचरण है। सभी दो अंश के परमाणुओं का वैसा ही निश्चित आचरण है। यही दो अंश के परमाणु का वैभव है। वैसे ही नीम के, आम के झाड़ का आचरण निश्चित है। भालू, बाघ, और गाय का आचरण निश्चित है। मनुष्य का आचरण निश्चित होना अभी बाकी है। यही मुख्य मुद्दा है। मनुष्य का निश्चित आचरण समझदारी के बिना आएगा नहीं।

इकाइयां क्रियाशील हैं - यह समझ में आता ही है। साम्य ऊर्जा अपने में कोई क्रिया करता नहीं है। जैसे ज्ञान, विवेक, विज्ञान हैं - ये अपने आप में कोई क्रिया नहीं हैं। ज्ञान को execute करना क्रिया है। ज्ञान को पूरा execute ज्ञान-अवस्था का मानव ही कर सकता है। ज्ञान जो है - वह तेरह digits में समाया है। चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) का ज्ञान, पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) का ज्ञान, तीन ईश्नाओं का ज्ञान (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेश्ना) और उपकार का ज्ञान।

इसमें से चार विषयों का ज्ञान जीव-जानवर भी प्रकाशित करते हैं। उनमें विषयों का ज्ञान है - तभी तो उसको प्रकाशित करते हैं। जीव जानवर पाँच संवेदनाओं का उपयोग करते हैं, इन चार विषयों में जीने के लिए। मनुष्य जब धरती पर प्रकट हुआ - तो उसमें सुख की चाहत जन्म-जात रही। संवेदनाओं में मनुष्य को सुख भासा। मनुष्य ने कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता वश पाँच संवेदनाओं को राजी रखने के लिए सारा करतूत शुरू किया। इसी क्रम में आहार, आवास, अलंकार को लेकर जीव जानवरों से बिल्कुल भिन्न जीना शुरू कर दिया। साथ में दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, और दूर-गमन के तमाम साधनों को प्राप्त कर लिया। इसी क्रम में मनुष्य ने अपने को जीव-जानवरों से ज्यादा अच्छा मान लिया! पर ऐसा मानने से मनुष्य का अच्छा-पन कोई प्रमाणित नही हुआ। ज्ञान के बाकी चार भाग अज्ञात रहने के कारण मनुष्य ने धरती के साथ अपराध किया, बाकी तीनो अवस्थाओं के साथ असंतुलन किया, और मनुष्य जाती के साथ भी अन्याय किया। यह सब के चलते ऐसी स्थिति में पहुँच गए की आज धरती ही बीमार हो गयी।

इसलिए मनुष्य को ज्ञान के बाकी चार पक्षों को पहचानने की आवश्यकता है। यदि धरती पर बने रहना है तो! इसी के लिए मध्यस्थ-दर्शन का विकल्प प्रस्तुत है। जरूरत है, तो अपनाएगा आदमी जात!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

2 comments:

Anonymous said...

तीन ईश्नाओं का ज्ञान (पुत्तेष्णा, वित्तेष्णा, लोकेश्ना) और उपकार का ज्ञान!

Can you please elaborate this more?

much thanks
Anurag

Rakesh Gupta said...

Hi Anurag,

Iishnas are human-motives.

Putteshna - is motive of progeny. The motive for perpetuation of human-specie.

Vitteshna - is motive of wealthiness. This is motive for realizing prosperity through human efforts.

Lokeshna - is motive for acclaim. This is motive for wanting recognition from others for one's good deeds.

These are humane-motives with nothing negative about them.

Upkaar is enabling other like oneself through -
seekhe hue ko sikhana
kiye hue ko karaana
samjhe hue ko samjhaana.

Education is an activity of upkaar.

Regards,
Rakesh...