नियति सहज विधि से मनुष्य-शरीर रचना धरती पर प्रकट हुई। पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था, प्राण-अवस्था से जीव-अवस्था, और जीव-अवस्था से ज्ञान-अवस्था का प्रकटन हुआ। मनुष्य-शरीर रचना ऐसी हुई कि जीवन उसके द्वारा अपनी कल्पनाशीलता को प्रकाशित कर पाया। यदि कल्पनाशीलता नहीं होती तो मनुष्य ज्ञान के लिए प्रयत्न ही नहीं करता। कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता का प्रकाशन ही मनुष्य और जीवों में मूल अन्तर है। कल्पनाशीलता की महिमा वश ही मनुष्य अस्तित्व में अध्ययन का साहस जुटा पाता है।
कल्पनाशीलता का भ्रूण रूप जीवावस्था में जीने की आशा के स्वरुप में है। जीने की आशा के प्रकाशन के रूप में जीव जानवर चयन क्रिया संपादित करते हैं. चयन क्रिया का भ्रूण रूप प्राणावस्था (पेड़ पौधों) में है। अपने लिए आवश्यक रस द्रव्यों को जड़ें चयन कर लेती हैं।
प्राणावस्था की शरीर रचनाएँ मूलतः प्राण-कोशिकाओं से बनी हैं। प्राण-कोशों में प्राण सूत्र हैं। उन प्राण-सूत्रों में रचना-विधि है, जिसके अनुरूप प्राण-कोशाएं रचना कार्य में संलग्न होती हैं। रचना-विधि में गुणात्मक परिवर्तन होने से प्राण-सूत्रों में नयी तथा और समृद्ध रचना-विधि स्वयं-स्फूर्त निकल आती है। जिससे नयी तरह की रचना तैयार होती है। इस तरीके से उत्तरोत्तर विकसित प्राण-अवस्था की रचनाएँ तैयार हो गयी।
प्राणावस्था की शरीर-रचनाओं में से कुछ में चलायमानता होते हुए भी जीवन उनको नहीं चलाता। जैसे - कीडे मकौडे, जौंक, आदि। उन जीवों में जीवन है, जिनमें - (१) सप्त धातुओं से रचित शरीर हो, (२) समृद्ध मेधस हो, (३) जो मनुष्य के संकेतों को पहचानते हों।
शरीर-रचना में विकास क्रम मनुष्य शरीर रचना तक पहुँचा। मनुष्य-शरीर रचना में मेधस पूर्ण समृद्ध हो गया। समृद्धि पूर्ण मेधस द्वारा जीवन मनुष्य शरीर द्वारा कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता को प्रकाशित करने में समर्थ हुआ। इसी कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता के चलते मनुष्य जंगल-युग, शिला-युग, धातु-युग, ग्राम-कबीला युग, राज-युग से चलते चलते आज तक पहुँच गया। इससे मनुष्य अपनी परिभाषा के अनुरूप मनाकार को साकार करने में सफल हो गया। लेकिन मनः स्वस्थता का पक्ष अभी तक वीरान पड़ा रहा।
मनः स्वस्थता के पक्ष को भरने के लिए मनुष्य अनुसंधान करता रहा। इसी अनुसंधान क्रम में आदर्शवाद और भौतिकवाद आए। मध्यस्थ-दर्शन का अनुसंधान भी इसी क्रम में ही हुआ। यह अनुसंधान सफल हो गया। इस अनुसंधान ने मनः स्वस्थता के स्वरूप को पहचान लिया, और जीने में प्रमाणित कर दिया। अनुसंधान को अध्ययन गम्य बनाने के लिए इसको शब्दों में प्रस्तुत किया गया। शब्द कल्पनाशीलता के लिए सहारा हैं - अर्थ तक पहुँचने के लिए। शिक्षा विधि से इस अनुसंधान के लोकव्यापीकरण के लिए प्रयास जारी हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
2 comments:
Rakesh,
Baba says
"उन जीवों में जीवन है, जिनमें - (१) सप्त धातुओं से रचित शरीर हो, (२) समृद्ध मेधस हो, (३) जो मनुष्य के संकेतों को पहचानते हों। "
I can understand the reason for 2 and 3 but not for 1. Well developed brain because jeevan should be able to drive the body through brain, then only it will. And if jeevan is there, it should understand the gestures from another jeevan. But why the first one ? Why we need body with these metals ?
One more question is , to receive the gestures , you need sensual organs. do you think they should all 5 sensual organs or only eyes.
Regards,
Gopal.
Hi Gopal,
the sapt-dhatus are (these were identified by AyurVed also):
1. rakt
2. ras
3. veerya
4. maans
5. majja
6. snaayu
7. (will check and let you know 7th one)
The three conditions come together - for a jeevan to drive the body. if you look closely - this statement is an assertion based on observation - and not a logical possibility.
"उन जीवों में जीवन है, जिनमें - (१) सप्त धातुओं से रचित शरीर हो, (२) समृद्ध मेधस हो, (३) जो मनुष्य के संकेतों को पहचानते हों। "
jeevan recognizes another jeevan - and uses sense organs for that purpose. the gestures (sanket) and their recognition needn't only be visual.
Regards,
Rakesh...
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