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Friday, November 28, 2008

सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान

साधना समाधि संयम पूर्वक जो मैंने अध्ययन किया - उसमें सर्वप्रथम सह-अस्तित्व को देखा। देखने का मतलब है समझा। इससे "पैदा होता है और मरता है" - इस विपदा से छूट गए। परिवर्तन होता है, परिणाम होता है - यह पता लगा। रचना की विरचना हो सकती है। मरता कुछ नहीं है। जैसे - शरीर की रचना गर्भाशय में होती है। शरीर की विरचना भी होती है। सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति को सह-अस्तित्व स्वरूप में देखा - यही परम सत्य है। नित्य-वर्तमान यही है। मैंने जो साधना की थी, उसके मूल में जिज्ञासा थी - "सत्य से मिथ्या कैसे पैदा होता है?" उसका उत्तर मिला - अस्तित्व में कुछ भी असत्य नहीं है। अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व में असत्य की कोई जगह ही नहीं है। "ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या" - जो शास्त्रों में लिखा है, वह ग़लत सिद्ध हो गया। उसकी जगह होना चाहिए - "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत"।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक )

3 comments:

Anonymous said...

"parivartan hota hai, parinam hota hai", chaliye yahaan se shuru karte hain, kyon ke is vaakyaa ki sachchayi par har kisi ko vishwas hai.

Kya aap mujhe bataa sakte hain, parivartan ke kya aur kitne kaaran ho sakte hain?

Parinaam ke kya aur kitne kaaran ho sakte hain?

"Brahma satya, jagat mithya" aapko ye baat asatya lagti hai. Hum ye samjhna chahte hain, ke aapko ye asatya kyon lagti hai?
Is vaakya ki sachchaayi ko samajhne ke liye ahamkaar ko shunya karne ki aavashyaktaa hoti hai,jo samadhi mein hota hai. Par har koyi yah samadhi mein bhi kar nahin paata hai.
Hum ne aap ke philosophy mein, abhi tak, ahamkaar ko shunya karne ki baat, kahin nahin dekhi hai.
"Self Realization ke liye yah baat ki sakth zaroori hai" aisa aadarshvaadi maante hain.
Kya aap is baat ko nahin maante hain? kya aap kah rahe hain, ki "ego nullification" ki koyi aavashyakta nahin hai?

aap sah astitva ki baat karte hain. Agar yahi param satya hai to aapke philosophy ko bhi is satya ke aadhaar par hi chalna hoga. Iska matlab hai ke anya schools of thought ke saath hi aapke philosophy ko bhi sah astitva mein rahna hoga. Agar aisa hai to "replacement" of other schools of thought ki baat kyon ki ja rahi hai? Kya aapko yeh contradictory nahin lagta hai?

Yahi hum samjhna chahte hain.

Aap please hamare directness ko galat mat samjhiye, hum sirf sachchaayi samjhna chate hain aur sachchaayi ki roshni to direct hi hoti hai, ismein koyi blocks nahin hone chahiye. Agar blocks hain to unke hataane se hi roshni milti hai. Isliye hamein kshmaa karein aur agar aap hamaare sawaalon ka jawaab denge to badi kripa hogi.
Aasha hai ke aap tak hamaari baat directly pohonch paayegi aur jawaab bhi hamein aapse directly hi milengi.

Rakesh Gupta said...

मैं आपकी बात का उत्तर देने का प्रयास करता हूँ.

परिणाम और परिवर्तन भौतिक-रासायनिक संसार (जड़ प्रकृति) में होता है. जैसे पेड़ का उगना, बढ़ना, बने रहना, मर जाना. शरीर का पैदा होना, बढ़ना, बने रहना, और मर जाना. परिणाम और परिवर्तन का मूल कारण सह-अस्तित्व सहज प्रगटन है.

जीवन एक गठन पूर्ण परमाणु है. इसमें परिणाम का अमरत्व होता है. इसमे केवल गुणात्मक परिवर्तन होता है - जो मनुष्य-जीवन में सम्भव है. जीवन चैतन्य ईकाई है - जो अपनी चेतना के स्तर को शरीर के साथ जीने में प्रकट करता है. मध्यस्थ-दर्शन जीवन के लिए चेतना विकास का अध्ययन के लिए प्रस्ताव है.

भ्रम ही अंहकार है. मध्यस्थ-दर्शन भ्रम-मुक्ति के लिए प्रस्ताव है. विगत में अंहकार भ्रमित-बुद्धि को कहा है. यहाँ प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से किए गए चित्रणों को भ्रम कहा गया है. बुद्धि तात्विक रूप में जीवन का प्रथम परिवेश है - जो सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक बोध संपन्न होता है. उससे पहले बुद्धि में सही-पन को लेकर कोई "वस्तु" नहीं रहती. विगत में आत्मा को ब्रह्म का ही अंश बताया गया है - जो ज्ञान का मूल रूप बताया गया है. आत्मा को निष्क्रिय भी बताया गया है. यहाँ आत्मा को जीवन-परमाणु का मध्यांश बताया गया है. आत्मा को क्रियाशील बताया गया है. सह-अस्तित्व में बोध संपन्न होने के उपरांत आत्मा ज्ञान में अनुभूत होता है. यह अनुभव ही फ़िर जीने में प्रमाणित होता है.

दूसरे दर्शनों की कोई अवहेलना अपमान नहीं है. सभी ने शुभ की अपेक्षा में ही काम किया है. लेकिन हम जोड़-तोड़ विधी से इसको समझ नहीं पायेंगे. इसको समझने के बाद हम यह समीक्षा कर सकते हैं - विगत के दर्शनों ने शुभ को प्रमाणित करने में कहाँ तक योगदान किया.

मनुष्य जाती एक है. अस्तित्व भी एक ही है. अस्तित्व ही समझने की वस्तु है. मनुष्य को ही समझने की आवश्यकता है. अपनी-अपनी समझ का कोई मतलब निकलता नहीं है. समझ में हम सभी एक ही हैं. जब तक हम एक अस्तित्व सहज समझ तक नहीं आ जाते - तब तक हम विचार-धाराओं के वाद-विवाद में ही उलझे रहते हैं. भौतिकवादी और आदर्शवादी विचार-धाराएं अभी तक आयी हैं. उन पर चल कर हमने देखा है. उससे हम समाधान को पाये नहीं. अब यह विगत की विचार-धाराओं के विकल्प के रूप में प्रस्तुत है. भौतिकवाद और आदर्शवाद की विचार-धाराएं शुभ की अपेक्षा में ही थी. इसलिए मुझ को इसमें विरोधाभास नहीं दीखता. पूर्णता सभी को सहज स्वीकार होती है. जितना आदर्शवाद से शुभ घटित हुआ, जितना भौतिकवाद से शुभ घटित हुआ - उसको सम्मान करते हुए, आगे और समझने की आवश्यकता हमको लगती है. उसी अर्थ में यह प्रस्तुति है.

Rakesh Gupta said...

परिवर्तन का दूसरा कारण है - भ्रमित कार्य कलाप. भ्रमित मनुष्य विघटन वादी मानसिकता से काम करता है - उससे बर्बादी के अलावा कुछ हाथ लगता नहीं है. भ्रमित क्रियाकलाप भी अस्तित्व में ही होता है. वह भी सह-अस्तित्व नियम से ही होता है. लेकिन उसके परिणाम शुभ कारी नहीं होते. भ्रम जाग्रति की अपेक्षा में ही है. भ्रम में जीना मनुष्य को स्वीकार नहीं होता. भ्रम पीड़ा ही देता है. भ्रम में जीते हुए "अच्छा लगना" तो बन जाता है - पर "अच्छा होना" नहीं बन पाता. अच्छा होने की ही परम्परा बन पाती है.

परिवर्तन और परिणाम की परिभाषा है - भिन्न यथा-स्थिति. मतलब मूल-द्रव्य का विनाश नहीं होते हुए, अवस्था बदल जाना.

अंहकार की परिभाषा - भ्रमित चित्रणों को चिंतन मान लेना.