हम जब पूरा समझ जाते हैं, तब हमको अपने में समृद्धि पूर्वक जीने का तरीका समझदारी से आ ही जाता है। उससे परिवार-जनों की संतुष्टि हो जाती है, इसलिए हम अच्छे काम करने में लग सकते हैं। यह बात हर व्यक्ति की पकड़ में आ सकता है। मेरे पकड़ में यह आ सकता है, तो बाकी लोगों के पकड़ में यह कैसे नहीं आएगा? समाधि-संयम के बाद मैंने ५५ वर्ष की आयु में जहाँ से शुरू किया - आज आप सभी उससे अच्छे ही हैं। यह आप के लिए एक प्रेरणा हो सकती है।
विरक्ति विधि से मैं साधना में रहा। उससे जो अभाव हुए - उनसे मैं पीड़ित नहीं हुआ। शास्त्रों में लिखा भी है - पीड़ित न होना ही पात्रता है। अभाव से मैं पीड़ित नहीं हुआ - मतलब अभाव पर विजय हो गया। साधना के सम्बन्ध में जो शास्त्रों में लिखा है, वह अपूर्व है, कल्पनातीत विधि से लिखा है! साधना के फल में जो मुझे मिला - वह पता लगा कि यह अकेले की सम्पदा नहीं है। यह तो मानव-जाती की सम्पदा है। इसको मानव-जाती को अर्पित करना चाहिए। यह स्वीकारने के बाद मैंने यह पाया - अभी तक जो मैं विरक्ति मॉडल में जो चला, वह तो कोई मॉडल नहीं है। सही मॉडल समाधान-समृद्धि ही है। समाधान अनुभव पूर्वक मेरे पास हो गया था, समृद्धि का कृषि-गोपालन और आयुर्वेद से जुगाड़ कर लिया।
वस्तु (अनुभव) प्राप्त हो जाना एक बात है, उसको प्रमाणित कर देना अलग बात है। अनुभव प्राप्त होने के बाद उसको प्रमाणित करने के लिए उसको लोकव्यापीकरण करने के लिए मॉडल चाहिए। मानव कैसे रहेगा, परिवार कैसे रहेगा, सम्पूर्ण मानव कैसे रहेगा, शिक्षा कैसे रहेगा, संविधान कैसे रहेगा, आचरण कैसा रहेगा - हर बात के जवाब की आवश्यकता है। यह न कम है, न ज्यादा है।
उसके बाद यह आया - जहाँ पाये, वहाँ के लोगों को इसे समझाओगे, या कहीं दूर जा कर समझाओगे। न्याय तो यही है - जहाँ पाये, वहीं के लोगों को समझा दो। इसमें मेरा सहमती बन गया। इसलिए समृद्धि को प्रमाणित करने की निष्ठां बनी। जनता के पैसे की मेरी कोई अपेक्षा नहीं रही। समाधान-अधिकार में परमुखापेक्षा (दूसरे के दान की उम्मीद) स्वीकृत नहीं होता। समस्या से ग्रसित मनुष्य ही परमुखापेक्षा करता है।
मनुष्य जाती में आज तक शुभ से जीने की अपेक्षा तो रही, पर शुभ का मॉडल नहीं रहा। अब वह मॉडल आ गया है। स्वयं तृप्त होने के बाद उसको प्रमाणित करने करने की बात रहती है। multiply करने में बहुत से लोग शुभ का स्वागत करने के लिए बैठे हैं। बहुत से लोग शुभ को लेकर शंका करने के लिए भी बैठे हैं। इन दो चैनल में आपको आदमी मिलेगा ही। जो जिस चैनल में जाना चाहता है, जाए। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है। जिसकी पहले ज़रूरत है, वह पहले आएगा - जिसकी ज़रूरत उसके बाद बनती है, वह उसके बाद आएगा। यह एक प्रस्ताव है, आवश्यकता के अनुसार ही यह स्वीकार होगा।
हर व्यक्ति समझदार होने योग्य है।
हर व्यक्ति सुखी होना चाहता है।
समझे बिना कोई सुखी होता नहीं है।
सुखी होने की चाहना जिसकी प्राथमिकता में पहले आता है, वह जल्दी समझेगा। जिसकी प्राथमिकता में बाद में आता है, वह बाद में समझेगा।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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