"अच्छा लगना" प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से व्यक्तिवाद की ओर ले जाता है। मुझ को यह अच्छा लगता है, आपको कोई दूसरा ही चीज अच्छा लगता है। इससे कोई रास्ता नहीं निकलता। अच्छा होने की ही परम्परा होगी, अच्छा लगने की परम्परा नहीं होगी। अभी सारे ७०० करोड़ आदमियों का पग "अच्छा लगने" की जगह पर ही चल पाया है। "अच्छा होने" को लेकर एक पग रखने की जगह भी नहीं बना। जबकि मानव परम्परा को धरती पर हुए हजारों वर्ष बीत चुके हैं। कितना मार्मिक बात है - आप ही सोच लो!
मनुष्य जैसे बौखला गया है। क्या बोलने से अच्छा लगेगा, इस जगह में आ गया है। ज्यादा लोगों को जो बोलने से अच्छा लगता है, वह बोल देता है। "अच्छा होना" तो हवा में है।
समझदारी पूर्वक समाधान संपन्न होने से ही अच्छे होने की शुरुआत है। उसका प्रस्ताव आपके सामने अध्ययन के लिए आ चुका है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
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