पहले से हम कुछ खाका बनाए रहते हैं, उसके साथ इस प्रस्ताव को जोड़-तोड़ करने का प्रयास करते हैं। जितना जुड़ पाता है, उसको हम स्वीकार करते हैं। जो जुड़ नहीं पाता है, उस पर शंका करते हैं। वहीं अटक जाते हैं। जबकि जीव-चेतना और मानव-चेतना के बीच जोड़-तोड़ करने का कोई स्थान ही नहीं है। जीव-चेतना के स्थान पर मानव-चेतना को अपनाने की बात है। यही विकल्प का मतलब है।
एक बात को तो हमको निर्मम रूप में स्वीकार करना पड़ेगा कि हमको जागृति पूर्वक ही जीना है।
समझदारी होने तक सभी स्वतन्त्र हैं अपने मन की करने के लिए। समझदारी के लिए व्यक्ति का चाहत जब प्रबल होता है - तभी अध्ययन की तरफ़ आते हैं। समझदार होने पर, समझदारी के साथ जीने के लिए ईमानदारी स्वयं-स्फूर्त होती है। जिम्मेदारी स्वीकार होती है। भागीदारी के रूप में प्रमाणित होती है। ऐसा होना सभी की अपेक्षा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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