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Sunday, November 23, 2008

अध्ययन सुगम है

अज्ञात को ज्ञात करने की तीव्र इच्छा मुझ में थी। उसके लिए मैंने २० वर्ष समाधि के लिए, और ५ वर्ष संयम के लिए लगाया। संयम-काल में प्रकृति ने अपने एक एक पन्ने को खोलना शुरू किया। जैसा प्रकृति प्रस्तुत हुआ, मैंने वैसा ही अध्ययन किया। आप किताब खोल कर प्रकृति के बारे में पढ़ते हो - (संयम काल में) प्रकृति ने अपने आप को खोल कर मुझ को पढाया। पहले सह-अस्तित्व कैसे है, क्यों है - यह आया। उसके बाद विकास-क्रम कैसे है, क्यों है - यह आया। इसके साथ भौतिक रासायनिक रचना के स्वरूप में शरीर, उसके मूल में प्राण-कोष, प्राण-सूत्र यह सब आ गया। पूरी शरीर रचना के मूल में प्राण-सूत्र हैं। पूरी भौतिक रचनाओं के मूल में अणु-परमाणु हैं। फ़िर विकास (गठन पूर्णता) कैसे है, क्यों है - यह आ गया। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में जीव भी आ गया। जीने के मूल में जीवन है - यह स्पष्ट हुआ। इस तरह प्रकृति में तीन तरह की क्रियाएं हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया। मैं स्वयं क्यों-कैसे काम कर रहा हूँ - इस जगह पर पहुँचने पर अपने "जीवन" का अध्ययन किया।

जीवन क्रिया के विस्तार में जाने पर उसके १२२ आचरणों को पहचाना। (जैसे) मन की क्रियाओं को मैंने देखा है। जीवन के मन परिवेश (चौथा परिवेश) में शरीर संवेदना पूर्वक होने वाले अलग-अलग आस्वादनो की पहचान करने वाली क्रियाओं को मैंने पहचाना। इस तरह - जीवन के अध्ययन के साथ मनुष्य का भी अध्ययन हुआ। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मैंने मानव का अध्ययन किया है। जीवंत शरीर सहित मैंने जीवन का अध्ययन किया। सभी में वैसे ही जीवन है, यह स्वीकारा। इसको "सिन्धु-बिन्दु न्याय" कहा। अकेले जीवन का ही अध्ययन होता, मनुष्य (जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप) का अध्ययन नहीं होता - तो मनुष्य जाति के लिए इस बात का प्रयोजन नहीं निकलता। जीवन का अध्ययन मानव के जीने के अर्थ में ही है।

मैंने जो अध्ययन पूर्वक अनुभव किया वह मेरे अकेले के परिश्रम का फल नहीं है, यह समग्र मानव जाति के पुण्य का फल है - यह मैंने स्वीकार लिया। इसी लिए इसको मानव जाति को पकडाने का दायित्व मैंने स्वीकारा। मैंने जैसा अध्ययन किया वैसा ही उसको शब्दों में रखने का कोशिश किया। शब्द परम्परा के हैं - परिभाषा मैंने दी है।

अभी तक मनुष्य परम्परा में जो कुछ भी अध्ययन के आधार हैं - वे मनुष्य द्वारा ही प्रस्तुत किए गए। उन आधारों से तथ्य तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं मिला। प्रचलित सभी आधारों को छोड़ कर के यह बात है। परम्परा-गत आधारों पर चलने से मानव-जाति न्याय-धर्म-सत्य तक नहीं पहुँचा था, इसीलिये भ्रम-मुक्त और अपराध-मुक्त नहीं हुआ था। इसी लिए यह नया आधार अनुसंधानित हुआ। मैं इस नए आधार का प्रणेता हूँ। आप इसको जांच करके देखिये - पूरा पड़ता है या नहीं? जांचने का अधिकार हर व्यक्ति के पास रखा है।

अध्ययन विधि से पहले यह आपके साक्षात्कार में लाना है। साक्षात्कार हो सकता है, यहाँ तक आप पहुंचे। साक्षात्कार हो गया है - वहां आप को पहुंचना है। उसके बाद अनुभव हो गया है - वहां पहुंचना है। उसके बाद प्रमाण हो गया - वहां पहुंचना है। अध्ययन प्राथमिकता में आता है, तो हम जल्दी पहुँच सकते हैं। अध्ययन यदि द्वितीय-तृतीय प्राथमिकता में रहता है तो हम धीरे-धीरे पहुँचते हैं - इसमें क्या तकलीफ है? प्राथमिकता में जब तक यह नहीं आता है तब तक दूर ही दीखता है। इस बात के अध्ययन में कहीं अहमता बनता नहीं, कहीं कोई विरोध होता नहीं - इससे ज्यादा क्या सुगमता खोजा जाए?

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

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