प्रबोधन का मतलब है - परिपूर्णता के अर्थ में शब्दों को व्यक्त करना। प्रबोधन का प्रयोजन है - सामने व्यक्ति को बोध होना। बोध होने के बाद वही व्यक्ति जिसको बोध हुआ, अनुभव पूर्वक पुनः प्रबोधित करेगा। इस ढंग से यह multiply होता है। कितने भी multiply होने पर ज्ञान न कम होता है, न ज्यादा। न भाग होता है, न विभाग होता है। जितना हम दूसरों को बोध कराते हैं - हमारा प्रसन्नता उतना ही बढ़ता है। इस प्रसन्नता से और लोगों को बोध कराने का उत्साह बनता है। इससे मनुष्य थकने वाले गुण से मुक्त होता है। सत्य बोध जिनसे हुआ - उनके प्रति कृतज्ञ रहना ही बनता है। उसका return वही है। इससे ज्यादा उसका return होता भी नहीं है।
मंगल-मैत्री के बिना प्रबोधन सफल हो ही नहीं सकता। मंगल-मैत्री पूर्वक हम एक दूसरे पर विश्वास कर सकते हैं। सुनने वाले और सुनाने वाले दोनों। वही है संगीत। संगीत विधि से ही सम्प्रेष्णा होता है। सुनाने वाले को यह विश्वास हो कि सुनने वाला ईमानदारी से सुन रहा है - और उसको बोध होगा। सुनने वाले को यह विश्वास हो कि सुनाने वाला ईमानदारी से सुना रहा है - वह स्वयं बोली जा रही बात में पारंगत है, प्रमाण है।
अभी की स्थिति में १२ वी कक्षा के ८०% से अधिक बच्चे पढाने वाले को नालायक मानते हैं। उनसे अपने को श्रेष्ठ मानते हैं। पैसे के आधार पर। "हमने पैसा दिया है - यह पढाएगा!" - ऐसी इनकी सोच है। पढाने वाला स्वयम आत्म-विश्वास से संपन्न नहीं है। इस स्थिति में प्रबोधन की कोई बात ही नहीं है।
बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
1 comment:
आपका कुछ लेख मै कल पढ़ा |मेरा ज्ञानवर्धन हुआ |आपका धन्यवाद |
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