समझने के क्रम में यथासंभव स्वभाव-गति को बनाए रखें। स्वभाव-गति में ही मंगल-मैत्री होती है। आवेशित-गति में मंगल-मैत्री नहीं होती। बेहोश रहने में भी नहीं होती। तीसरे - चंचलता बने रहने में भी स्वभाव-गति नहीं रहती।
स्वभाव-गति में ही अध्ययन होता है।
मन सुनते समय भटकता है, इधर-उधर भागता है - तब स्वभाव-गति नहीं होती। मन को एक ही समय में तीन जगह रहने का अधिकार है - इसीलिये अध्ययन के लिए मन को एक जगह स्थिर करने की आवश्यकता है। इसी का नाम है - ध्यान। यदि आपने ध्यान दिया तो अस्तित्व में कोई ऐसी चीज नहीं है, जो आपको बोध न हो। अस्तित्व में किसी वस्तु पर बुरका नहीं लगा है। अस्तित्व की सभी वास्तविकताएं सह-अस्तित्व स्वरूप में प्रकट ही हैं। इसीलिये अस्तित्व को समझे हुए आदमी द्वारा दूसरे को बोध कराना सहज है। इसी का नाम "प्रबोधन" है। प्रबोधन को सुनने वाला "स्वभाव-गति" में ही receive करता है। receive करने के बाद यदि कोई बात संतुष्टि नहीं दे पाता है, उस स्थिति में सुनने वाला "जिज्ञासा" करता है - संतुष्ट होने के लिए। इस प्रकार सुनाने वाले और सुनने वाले के बीच मंगल मैत्री पूर्वक सारे बात स्पष्ट हो सकता है। सुनने वाले और सुनाने वाले को वस्तु समान रूप से स्पष्ट हो गयी - तो दोनों के बीच कोई अन्तर नहीं रह गया। इसी को "अनन्यता" या "प्रेम" कहा है।
प्रेम या अनन्यता के बारे में परम्परा में नवधा-भक्ति (नारद भक्ति सूत्र) की बात किया गया है। इसमें ९ सीढियों से गुजरने की बात कहा गया है। कब उन नौ सीढियों को कोई पूरा करेगा, किसी को पता नहीं चला!
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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