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Saturday, November 1, 2008

भ्रमित मनुष्य में जीवन की स्थिति

प्रश्न: आपने लिखा है - "मैं निर्भ्रमित अवस्था में आत्मा हूँ, और भ्रमित अवस्था में अंहकार हूँ", उसका क्या मतलब है?

उत्तर: भ्रमित अवस्था में शरीर को ही "मैं" माने रहते हैं। जागृत होने पर जीवन को "मैं" के रूप में जानते और मानते हैं। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है। जिसका मध्यांश आत्मा है।

प्रश्न: भ्रमित-मनुष्य में मध्यांश (आत्मा) और बुद्धि का क्या रोल होता है?

उत्तर: भ्रमित मनुष्य में मध्यांश (आत्मा) का कोई रोल ही नहीं है। भ्रमित मनुष्य में मध्यांश "होने" के रूप में है, "रहने" के रूप में नहीं! "होना" प्राकृतिक-विधि से हो गया। "रहना" - जागृति-विधि से होता है। बुद्धि के साथ भी वैसे ही है। चित्त में न्याय-धर्म-सत्य तुलन दृष्टियों के साथ भी वैसे ही है। जीवन में कल्पनाशीलता- कर्म-स्वतंत्रता वश भ्रमित स्थिति में भी ज्ञान का अपेक्षा बना रहता है।

प्रश्न: कोई आदमी गलती करता है, उसको फ़िर बुरा लगता है - यह कैसे होता है?

उत्तर: कल्पनाशीलता के कारण।  हम अच्छा होना चाह रहे हैं, पर अच्छा हो नहीं पा रहे हैं - इसलिए होता है ऐसा।

प्रश्न: "अच्छा होना चाहने" की बात कहाँ से आ गयी?

उत्तर: अच्छा होना चाहने की बात हर मनुष्य में है। अच्छे होने की कल्पना जीवन की ४.५ क्रिया में ही हो जाती है। हम अपने घर-परिवार, गाँव, देश के लोगों से अच्छा होना चाहते ही हैं। यह ४.५ क्रिया में हुई कल्पना ही है। यह अच्छा होना चाहना ही आगे अध्ययन का आधार है।

प्रश्न: अध्ययनरत मनुष्य के साथ बुद्धि और आत्मा की क्या स्थिति है?

उत्तर: अध्ययन-काल में साक्षात्कार पूर्वक बुद्धि सहीपन को स्वीकारता है। अनुभव में पहुँच के, आत्मा और बुद्धि ही प्रमाण रूप में प्रकट होती है।

प्रश्न: अध्ययन होने से पहले बुद्धि और आत्मा में क्या कोई क्रिया नहीं है?

उत्तर: बुद्धि में बोध होने का प्यास बना रहता है.  आत्मा में अनुभव होने का प्यास बना रहता है.  उसी तरह वृत्ति में न्याय-धर्म-सत्य के तुलन का प्यास बना रहता है.  यह प्यास वृत्ति में है तभी तो मानव आगे आगे सोच ही रहा है.
न्याय-धर्म-सत्य तुलन में आ जाए.  उसके आधार पर चेतना विकास मूल्य शिक्षा ध्रुवीकरण हो जाए, उसके आधार पर मूल्यों का आस्वादन हो जाए - इसके लिए इसको प्रस्तुत किया है.  साढ़े पाँच क्रिया जो दबी थी वे प्रमाणित हो जाएँ - इतना ही तो बात है.  प्रिय, हित, लाभ के अलावा और कुछ हो सकता है यह कल्पना में ही रह गया था, अध्ययन में नहीं आया था.

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (भोपाल, अक्टूबर २००८)

1 comment:

Anonymous said...

Thanks! This was another note I was looking for the distinction between ego and Self(jeevan).