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Saturday, November 29, 2008

सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता स्वाभाविक है.


सह-अस्तित्व चार अवस्थाओं के रूप में प्रकट होने के लिए तीन प्रकार की क्रियायें हैं - भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, और जीवन क्रिया। प्राकृतिक रूप में प्रकटन के बाद परम्परा है। मतलब - कोई अवस्था जब प्रकट होती है, तब उसके बने रहने का स्वरूप परम्परा के रूप में स्थापित प्राकृतिक रूप में हो जाता है। इनमें "घटना-बढ़ना" भ्रमित मनुष्य की प्रवृत्ति और कार्य-व्यवहार से होता है।

पदार्थ-अवस्था ही प्राण-अवस्था को यौगिक विधि से प्रकट करता है। यह स्वयं-स्फूर्त विधि से होता है। इसको कोई बाहरी ताकत नहीं करता। विगत (आदर्श-वाद) में बताया था - "यह परमात्मा की करनी है।" मध्यस्थ-दर्शन ने परमात्मा को व्यापक स्वरूप में पहचाना। परमात्मा (व्यापक) का प्रकटन में "करने वाले" के रूप में कोई रोल नहीं है। परमात्मा (व्यापक) जड़-चैतन्य प्रकृति में प्रेरणा के स्वरूप में है ही! जड़ प्रकृति परमात्मा (व्यापक) में भीगे होने से प्रेरित है, जिससे क्रियाशील है। यह प्रेरणा नित्य है। यह प्रेरणा घटता बढ़ता नहीं है। वस्तु की क्रिया से व्यापक में कोई क्षति होता ही नहीं है। व्यापक में प्रेरणा अभी मिला, बाद में नहीं मिला, अभी ज्यादा मिला, बाद में कम मिला - ऐसा कुछ नहीं होता।

परमाणु अंश भी इस तरह ऊर्जा-संपन्न है, और घूर्णन गति के रूप में क्रियाशील है। सभी परमाणु-अंश एक जैसे हैं। परमाणु की प्रजातियों में भेद उनके गठन में समाहित होने वाले परमाणु-अंशों के अनुसार है। सभी तरह के परमाणु-प्रजातियों के प्रकट होने के बाद भौतिक-संसार तृप्त हो जाता है। उसके बाद ही वह यौगिक-क्रिया में प्रवृत्त होता है। भौतिक-क्रिया में तृप्ति के बाद ही यौगिक क्रिया में प्रवृत्ति बन जाती है। फ़िर स्वयं स्फूर्त विधि से यौगिक प्रकटन होता है। यौगिक प्रकटन के लिए समस्त प्रकार के भौतिक-परमाणु सहायक (पूरक) हो जाते हैं। यौगिक प्रकटन के लिए "भूखे" परमाणु भी सहायक हैं, "अजीर्ण" परमाणु भी सहायक हैं। यौगिक विधि से सर्वप्रथम जल ही प्रकट हुआ।

सह-अस्तित्व में प्रकटनशीलता स्वाभाविक है। इसी प्रकटनशीलता के आधार पर प्राण-अवस्था स्थापित हो गयी। प्राण-कोष में निहित प्राण-सूत्रों में उत्तरोत्तर गुणात्मक विकास से नयी रचना विधि का प्रकटन होता है। इसी क्रम में प्राण-अवस्था के सभी झाड़, वनस्पति, औषधि प्रकट होने के बाद प्राणावस्था तृप्त हो गयी। प्राण-अवस्था तृप्त होने के बाद जीव-अवस्था की रचनाएँ शुरू हुई। जीव-अवस्था भुनगी-कीडे (स्वेदज संसार) से शुरू हो कर अंडज और पिंडज दो प्रकार की प्रजातियाँ स्थापित हुई। उनमें से जलचर, भूचर, और नभ-चर तीनो प्रकार के जीव हुए। शाकाहारी जीवों में प्रजनन क्रिया द्वारा multiplication ज्यादा होता है। मांसाहारी जीवों में अपेक्षाकृत कम multiplication होता है। शाकाहारी संसार की संख्या में संतुलन करने के लिए मांसाहारी संसार का प्रकटन हुआ - यह मुझको समझ में आया। जीवावस्था के सभी वंश-परम्पराएं स्थापित होने के बाद मानव-शरीर रचना का प्रकटन हुआ।

मानव-शरीर रचना सर्व-प्रथम किसी जीव से ही प्रारंभ हुआ, उसके बाद मानव-परम्परा शुरू हुई। जल, सघन-वन, सभी प्रकार के जीव-जानवर प्रक ट होने के बाद ही मनुष्य का प्रकटन हुआ। इन्ही के बीच मनुष्य पला। मनुष्य-शरीर के प्रकटन के साथ ही जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट करने की जगह में आ गया। सह-अस्तित्व सहज प्रकटन विधि से इतने सब श्रम के बाद मनुष्य का प्रकटन इस धरती पर हुआ।

मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता के चलते पहले वनों का संहार करना शुरू किया। विज्ञान युग आने के बाद खनिज-संसार का संहार करना शुरू कर दिया। जबकि - वन और खनिज के संतुलन से ही ऋतु-संतुलन होता है। बिना ऋतु-संतुलन के मनुष्य-जाती का धरती पर बने रहना सम्भव नहीं है। इस बात को आज के संसार के सामने highlite करने की ज़रूरत है। यह जो मैं समझा रहा हूँ - यह waste नहीं जाना चाहिए।

मनुष्य ने अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से अपनी परिभाषा के अनुरूप मनाकार को साकार करने का काम बहुत अच्छे से कर लिया। मनः-स्वस्थता का खाका वीरान पड़ा रहा। मनुष्य के प्रकट होने से पहले जीव-चेतना जीव-अवस्था द्वारा प्रकट हो चुकी थी। मनुष्य ने पहले जीवों जैसे ही जीने का प्रयत्न किया, फ़िर जीवों से अच्छा जीने का प्रयत्न किया। जीवों से अच्छा जीने के लिए मनुष्य ने जीव-चेतना का ही प्रयोग किया। इससे "अच्छा लगने" तक हम पहुँच गए। "अच्छा होना" इससे बना नहीं। "अच्छा लगने" की दौड़ में सुविधा-संग्रह लक्ष्य बना कर धरती का शोषण किया, और मनुष्य-परस्परता में अपराध किया। इसके चलते चलते धरती ही बीमार हो गयी। अब विकल्प की आवश्यकता आ गयी। उसी अर्थ में मध्यस्थ-दर्शन अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। मध्यस्थ-दर्शन (जीवन विद्या) मनुष्य-जाति के लिए जीव-चेतना से मानव-चेतना में संक्रमित होने लिए प्रस्ताव है। मानव चेतना पूर्वक ही मानव-परम्परा धरती पर बनी रह सकती है। और किसी विधि से नहीं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छा विष्लेक्षण किया है।

Anonymous said...

"वन और खनिज के संतुलन से ही ऋतु-संतुलन होता है। बिना ऋतु-संतुलन के मनुष्य-जाती का धरती पर बने रहना सम्भव नहीं है।"

It appears that people today do understand the importance of forests, plants, wild-life etc.. Hence the efforts can be seen about conserving the same. But it seems there is less awareness about minerals importance in balancing the climate. Indirectly we know that fossil fuel creates pollution but directly what is the impcat of extracting oil and other minerals from earth. I think we should elaborate this.

Rakesh, could you plz. share what you know about the same.


Thanks,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

Hi Gopal,

The Earth is purposeful - as there is a progress evidenced in successive emergence of matter-order, plant-order, animal-order, and finally humankind (knowledge-order). The mineral buried deep into Earth's guts have a purpose of being there in maintaining the equilibrium of Earth's climate. The richness and diversity on Earth's crust is maximum - and basic human-needs for food, shelter, warmth - and also aspirational needs of transportation and telecommunication can be met from the material available on the surface of Earth. Tearing apart the guts of Earth leads to its imbalance. Earth's natural-cycles is a delicate balance of numerous factors. The composition of water on Earth happened after matter-order had fully enriched itself. With human interferences in natural cycles - the situations can arise when decomposition of water may start happening. Humankind is at the pinnacle of the natural-emergence - and its purpose is to realize human-ness. If it doesn't realize human-ness it is bound to be destructive to its own kind, and also to the other natural-orders.

Attention of scientific community has gone to alternate sources of energy. Still it is not outside of the model of profiteering. Alternate-energy and also conservation of forests can happen if this is seen as a natural-responsibility. Natural-Responsibility can only result from comprehension of the orderliness of existence (Earth in particular). It's only with deep comprehension of coexistence - can one accept the responsibility for conservation of nature. It's not possible to conserve nature (forests and minerals) by making stricter laws for conservation, or by making "green energy" more lucrative.

In the last 20-30 years there is lot of attention gone for comprehending the delicate balance of Earth. Still net exploitation of Earth has only increased. The net plastic dumping has only increased. The net fossil fuel extraction and consumption has only increased.

regards,
Rakesh...

Rakesh Gupta said...

santulan - or equilibrium - of nature is orderliness. it is a mediating quality or madhyasth-ta. The angle with which Earth's axis is tilted. The tides, monsoons, migrations of birds, self balancing forests - these are manifestations of mediating quality of nature - which can't be captured by however sophisticated mathematical modeling. These can only be comprehended by human-being. It's only when a human-being comprehends the beauty, discipline, and mutual-complementariness of nature - that it gets appreciation of its own role in this cyclicality. This role gets explained as living with nyay, dharm, and satya - as humane-conduct. Humane-conduct alone gels will with the beauty of rest of the nature.

rgds, rakesh...