चारों अवस्थाओं (पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था) का "उपयोग" विधि अलग है, "कार्य" विधि अलग है, "होने" का विधि अलग है। उपयोग विधि और कार्य विधि साक्षात्कार तक ही रहता है। "होने" की जो बात है - वह साक्षात्कार, बोध, अनुभव तक जाता है। "होने" का अनुभव - अर्थात अस्तित्व का अनुभव - मानव को ही होता है। मनुष्येत्तर संसार में उपयोग तक पहचान-निर्वाह तक रहता है।
इस पर आप खूब सोचना। अपने में सोचना पड़ेगा इसको। यह literally नहीं बैठता, यह अपने में सोचने से meaningfully ही बैठता है।
प्रश्न: आज की स्थिति में मुझे आशा, विचार, और इच्छा तक तो स्वयं में कुछ-कुछ समझ में आता है। साक्षात्कार, बोध, और अनुभव समझ में नहीं आता। अब क्या करें?
उत्तर: सिलसिले से चलेंगे तो सब पकड़ में आ जायेगा। हम हर दिन जीते ही हैं। जीने में observe करने की बात है। ध्यान देने की बात है। मनुष्य ही ध्यान दे सकता है। किताब ध्यान नहीं दे सकती। किताब से सुनने तक पहुँच जाते हैं। सुनने के बाद सोचने का जो भाग है - वह किताब नहीं है। "सोच" हर व्यक्ति में समाहित है। सोच-विचार के साथ जब हम जुड़ते हैं, तो किताब पीछे छूट गयी। सोच-विचार से हम उपयोगिता, सदुपयोगिता, और प्रयोजन-शीलता तक पहुँच गयी। उपकार के साथ ही हम प्रयोजनशील हैं - यह समझ में आता है।
अनुक्रम से पूरे चीज को हम देख लिया, समझ लिया, प्रमाणित करने योग्य हुए। इसका नाम है - अनुभव। "मैं प्रमाणित होने योग्य हूँ" - इस जगह में नहीं आए, मतलब अनुभव हुआ नहीं है।
समझने की तीन स्थितियां हैं - साक्षात्कार, बोध, और अनुभव। साक्षात्कार, बोध, और अनुभव के बीच कोई दूरी नहीं है, कोई अवधि नहीं है। यह तत्काल ही होता है। साक्षात्कार में पहुँचा तो वह तुंरत बोध और अनुभव होता है। पुरुषार्थ का ज़ोर साक्षात्कार तक पहुँचने के लिए है। साक्षात्कार के बाद बोध और अनुभव के लिए कोई पुरुषार्थ का ज़ोर नहीं है। जब कभी भी हम साक्षात्कार तक पहुँचते हैं, बोध और अनुभव तत्काल होता ही है।
साक्षात्कार तक पहुँचने में उतना ही समय लगता है, जितना हम confusion में रहते हैं। शब्द का जब तक पुट रहता है - तब तक साक्षात्कार नहीं हुआ। जैसे - पानी को आप देखते हो। पानी कौनसा शब्द है? पानी तो वस्तु ही है, जो अपनी वास्तविकता को व्यक्त करता है। उसी तरह हर वास्तविकता के साथ है। जीवन भी एक वास्तविकता है। जीवन कोई शब्द नहीं है। मानव एक वास्तविकता है। मानव-संबंधों के साथ जीना होता है। संबंधों के नाम से संबोधन होता है।
वास्तविकताओं के "होने" का साक्षात्कार होता है। वस्तुओं को पहचानने के लिए हम नाम देते हैं। नाम के मूल में जो वस्तु है - उसको पहचानने का काम ही अध्ययन है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
8 comments:
Can you please elaborate on "chaar avasthaaen"?
Chaar Avasthaayein are the four natural-orders in existence.
These are
(1) matter-order (padaarth avastha) - which is soil, stones, gems, and metals.
(2) plant-order (praan-avastha) - which is all kinds of vegetation.
(3) animal-order (jeev-avastha) - which is all living beings except human.
(4) knowledge-order (gyaan-avastha) - which is humankind.
These four orders are evidenced on our this very Earth. There can be no way that we could deny that. Humankind (the knowledge-order) or we ourselves - have to live with these four orders. There is no other place for humankind to live.
Now the proposal is - only with perfect comprehension of existence (which is these four orders expressing themselves in limitless space) a humankind can live with harmony.
rgds, rakesh...
Thanks. Now let us take an example of an object. Say "cow's milk".
This is from padaarth avasthaa.
Now can you elaborate on the upyog,kaarya and hone ka vidhi of this padaarth?
What I am trying to get at is the upyog. Upyog is two fold one determined by Nature and one by Man.
This is one crucial point I would like to understand from MDs viewpont.
यहाँ मनुष्य और पशु (गाय) के सम्बन्ध के अध्ययन की बात है. गाय का अस्तित्व है, एक जीव-अवस्था की ईकाई के रूप में - उनका प्रमाण गाय ही है. मनुष्य का अस्तित्व है, एक ज्ञान-अवस्था की ईकाई के रूप में - उसका प्रमाण हम स्वयं हैं. गाय जो जीती है - उसमें अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को पहचानती और निर्वाह करती है. यह पहचान और निर्वाह वह अपने वंश के अनुसार "उपयोगिता" विधी से करती है. गाय में जो जीवन है - वह वंश के अनुसार कैसे आचरण करना है, वह गर्भ-अवस्था में स्वीकार लेता है. पैदा होने से मरने तक गाय अपने गायत्व के अनुसार आचरण को प्रमाणित करती रहती है. गाय अपने "कार्य-विधी" और "होने की विधी" के आधार पर यह पहचान-निर्वाह नहीं करती.
मनुष्य एक ज्ञान-अवस्था की ईकाई है. पूरा पहचाने बिना मनुष्य गाय के साथ अपने सम्बन्ध में अपनी पूरकता सिद्ध नहीं कर पाता. जबकि गाय अपना काम वंश-विधी से निश्चित करती रहती है, अपनी पूरकता को प्रमाणित करती रहती है.
मनुष्य अपने उपयोग की वस्तुओं को संवेदनाओं की सीमा में भी पहचान लेता है, निर्वाह कर लेता है. उसी तरह कैसे काम करना है - वह भी संवेदनाओं की सीमा में पहचान लेता है. कैसे किसी चीज का उपयोग करना है, उसके लिए कैसे काम करना है - इस बात का ज्ञान मनुष्य-जीवन में संवेदनाओं की सीमा में हो जाता है. यह ज्ञान वंश के अनुसार नहीं आता. मनुष्य पैदा होते ही यह सीखा हुआ ही आता हो, ऐसा नहीं है. उसको यह सब के लिए सीखना ही होता है. इसी अर्थ में गाय को अपनी उपयोगिता के अर्थ में मनुष्य ने पहचान लिया. गाय को पालना, उसको दोहना, यह सब सीख लिया. गाय के दूध का उपयोग अपने भोजन में उपयोग करना शुरू किया. यह सब संवेदनाओं की सीमा में "उपयोग विधी" और "कार्य विधी" को पहचानने से हुआ. "होने" की विधी से गाय की पहचान अभी तक शेष ही रही. "होने" की विधी से पहचान का मतलब है - सह-अस्तित्व सम्बन्ध के आधार पर पहचान.
मनुष्य जो पहचान करता है - वह तभी पूरी होती है, जब तीनो विधियों से पहचान हो जाए. यदि उपयोग और कार्य विधी की सीमा में ही पहचान होती है, तो उससे हम कुछ भागों में ठीक पहचान लेते हैं, कुछ भाग ठीक नहीं पहचान नहीं पाते. जो भाग सही नहीं पहचान पाते उसमें समस्या भोगते हैं. जैसे - भ्रम-वश कुछ लोगों ने गाय के मांस को अपने आहार की वस्तु के रूप में पहचाना. उससे मनुष्य असंतुलन किया.
"होने" की समझ के साथ मनुष्य को जीव-अवस्था को अपने उपयोग के लिए कैसे पहचानना है - उसका आधार मिलता है. गाय की सेवा करने पर गाय बछडे की आवश्यकता से अधिक दूध देती है. गाय के दूध पर पहला अधिकार बछडे का है. सही क्या है, ग़लत क्या है - इस बात का निर्णय समझ के आधार पर ही मनुष्य ले पाता है.
"Upyog is two fold one determined by Nature and one by Man."
Instead - the proposal is to see it as:
Human-being is an inseparable part of Nature - and is an entity of Knowledge-Order. Being in knowledge-order it naturally needs to know - how to do upyog.
There are other entities in Nature apart from humankind - which are as matter-order, plant-order, and animal-order. There is natural-emergence in existence expressed as coexistence - as the governing law of existence. This law is evidenced by nature. This leads matter-order projecting plant-order, which in turn projects animal-order. Knowledge-order is the final projection in the process of natural-emergence in existence. The previous links in the projections are upyogi for the next links. The next links in these projections are poorak (complementary) for the previous links. This usefulness and complementariness is realizable only upon perfect-comprehension of existence by a human-being, since human-being is an entity of knowledge-order. For the rest of the entities of nature, this is realized without volition.
Humankind becomes capable of realizing its upyogita and poorakta effortlessly only upon achieving knowledge of coexistence.
So in summary, Nature's laws are inherent in Nature.
Human-being is inseparable part of Nature.
Human-being's laws are of that of knowledge-order, which it needs to know before it can act them out.
Before this knowing, human-being imposes his beliefs about how existence may be working. Such imposition is illusion in human-being only. Existence is, what it is.
Regards,
Rakesh.
Excellent answers!
Let me just add what I understand from Babaji's words.(I understand vidhi to means rules and methods that encapsulate the object).
Every object needs to be understood from three angles.1.Its Functionality(karya vidhi)2.Usefulness(upyog vidhi)3.Characteristics that define its being or existence(hone ka vidhi). Taking Cow's milk as an example of an object in existence:
What is its function? To provide nourishment.What is its use? Can be used in food, cosmetics, chemical bonding etc etc. What are its characteristics? It has physical characteristics such as being liquid and white and chemical such as its composition mainly being made of calcium,protein, fat and water.How does it get formed?What makes it possible to be in existence?
Only when one understands any object from all the three vidhi viewpoints, can one understand its purpose of being in existence and its relation with other objects and entities in existence which in effect means its "coexistence" or sah astitva.
When one has understood the object in this manner, one can never "misuse" the object or the method(procedure) that makes its possible for the object to project itself in existence. One who has an incomplete understanding (Bhramit) tends to misuse objects and entities associated with its being. As it is rightly said only a human being (being the sole possessor and dispenser of knowledge and Will) can use or misuse. Nature does not have Will so the question of use or misuse does not arise from this viewpoint.
As an example of misuse is the Bovine Growth hormone injected to cows to make them produce more milk and be sturdier. This is in fact proving harmful to both cows and humans, yet a human's want for milk has become so huge that BGH is used widely because a human wants to look at milk only from the point of view of functionality and usefulness.The last one "hone ka vidhi" is conveniently ignored which is the biggest mistake humankind is making.
If one continues his understanding of milk from the "hone ka vidhi" one realizes there are subtler more important aspects like "karuna" and "vaatsalya" that make it possible for milk to project itself in existence. It is these aspects that are hugely ignored by humans or often taken for granted. And it was rightly said before, this happens due to a human driving his Will by base animal instincts rather than the higher level ones.
Having looked at an object like milk, with this sampoorna drishti(threefold) one realizies how milk embodies itself in its form with physical and chemical characteristics, its functions and methods encapsulated in it. This realization is called "sakshatkar".
Soon after reaching sakshatkar you will understand milk for what it is(this is called bodh), then when you drink milk the next time you will not only experience its taste, appreciate its whiteness and nourishing properties you will also be aware and appreciative of the karuna and vaatsalya that goes into the production or creation of milk as an object. This is called anubhav. When you are at this level of consciousness you have risen above "animal level" where you are only aware of its functionality and use.
As you can see this sakshatkar, bodh and anubhav may not be mapped to words exactly, they may only be experienced and your intellect makes a decision of accepting the experience as a reality or hallucination.
All the methods needed for an object to manifest itself in existence are embodied within the object and its association with Space which is the eternal essential Truth. This is called knowledge(something that is inherent in the object and it's relations). A human being's endeavor is only to discover this knowledge and map it to words so that it can be studied or replicated.
And to think all knowledge basically boils down to a 1(what is) and a 0(what is not). And "what is not"(0) is a state that may be created only by blocking "what is"(1). There is a famous line "Nothing comes from Nothing, Nothing ever will". This is why Babaji says Existence is "what is".
I will just add a line to it, Realization is being aware of the changes of state between a 1 and a 0 and vice versa.The whole of knowledge, indeed life itself is nothing but changes of these two states.
This is the gist of Babaji's philosophy, This is how he wants us to study the world.
It should not be too hard for one with knowledge of programming and object oriented analysis. I would like to write a paper on this sometime .......
Yet as Babaji says the proof is in the pudding, it is not enough to understand, one has to practice and experience the philosophy to reach the Truth.(Now this is easier said than done, but we must make the attempt ....)
Thanks for putting all this on your blog, every bit was immensely interesting, absorbing and absolutely beautiful .......
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