This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Tuesday, January 6, 2009
नित्य वर्तमानता - भाग २
अस्तित्व निरंतर होने के आधार पर हम स्वाभाविक रूप में यह समझ सकते हैं कि - अस्तित्व स्वयं में स्थिर है।
अस्तित्व वर्तमान स्वरूप में स्थिर है। वर्तमान = निरंतर होना।
वर्तमान का मूल स्वरूप सत्ता में संपृक्त प्रकृति है। सत्ता कभी न घटता है, न बढ़ता है। प्रकृति कभी भी समाप्त नहीं होता, नाश नहीं होता। इस तरह वर्तमान नित्य, स्थिर, और निरंतर बने रहने वाली स्थिति में है।
वर्तमान नाश-विहीन स्थिति में है। प्रकृति में "अविनाशिता" दो तरीके से है। परिणाम विधि से अविनाशी (जड़ प्रकृति) और परिणाम विहीन विधि से अविनाशी (चैतन्य प्रकृति)।
चैतन्य प्रकृति में 'जीवन' परिणाम-विहीन विधि से अविनाशी है, नित्य-वर्तमान है। जीवन परिणाम (या मात्रात्मक परिवर्तन) से मुक्त है। जीवन को अमरत्व प्राप्त है। इस आधार पर जीवन नित्य वर्तमान होना स्वाभाविक हो गया।
जड़-प्रकृति (खनिज और वनस्पति संसार) में परिणाम सहित (या मात्रात्मक परिवर्तन सहित) अविनाशी वर्तमान होना हुआ। उसका मतलब है - रचना और विरचना। जैसे घर बनाया मिट्टी-पत्थर से, वह विरचित हो गया - तो भी वस्तु वहीं का वहीं रहता है। इस प्रकार सभी खनिज-वनस्पति जो रचना-विरचना में रत हैं - वस्तु के रूप में उनका कोई नाश नहीं होता है। रचना के विरचित होने को "विलय" या लय कहते हैं। रचना के बने रहने को "वैभव" या यथा-स्थिति कहते हैं। और रचना के रचित होने को "उद्भव" या सृष्टि कहते हैं। जैसे - घर को बनाना = उद्भव, घर का बने रहना = वैभव, और घर का विरचित हो जाना = विलय। वर्तमान में ये तीनो स्थितियां (उद्भव, वैभव, और विलय) बने ही हैं। वस्तु दूसरे स्वरूप में परिणित होने के बाद दूसरे स्वरूप में है ही! जैसे - कपड़ा बनाया, चिर गया, चिंदी के रूप में है ही! फ़िर मिट्टी हो गया - तो मिट्टी के स्वरूप में है ही! यह "होने" की बात कभी समाप्त होता नहीं है। किसी न किसी स्वरूप में वस्तु बना ही रहता है। कितने भी बदल गए, कितनी भी परिस्थितियां बदल गयी, कितनी भी विकृतियाँ हो गयी - कभी भी "होने" की बात समाप्त होता नहीं है।
कोई चीज समाप्त नहीं होती। कोई चीज गुमती नहीं है। इसको चुरा कर ले जाने वाला कोई नहीं है। वस्तु के सम्पाप्त हो जाने का कोई खाका ही अस्तित्व में नहीं है। जो हड्डी-पसली बनती है, वह मिट्टी में रहता ही है। पुनः मिट्टी से हड्डी-पसली बनता ही है। (जड़ प्रकृति में) यह रचना-विरचना क्रम चला ही है।
अस्तित्व निरंतर होने के स्वरूप में है। अस्तित्व नित्य वर्तमान है।
नित्य-वर्तमान होने के आधार पर ही अस्तित्व स्थिर है।
- अक्टूबर २००५ में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, मसूरी में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।
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