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Saturday, January 3, 2009

अनुसंधान क्यों, क्या, और कैसे - भाग ४


अनुसंधान के फल में जो हाथ लगा उसमें कुल मिला कर "समझदारी" की बात है। अभी तक क्या था? अभी तक समझदारी था कि नहीं था? यह आप पूछो तो मेरे समझ में यह आता है - अध्यात्मवाद रहस्य में फंसने से आदमी को हाथ नहीं लगा। रहस्य में ही रह गया। उसमें हमने माना मरने के बाद हमको स्वर्ग मिलेगा, मोक्ष मिलेगा, ज्ञान का फल मिलेगा, देवता मिलेंगे - इस प्रकार की बहुत सारी परिकल्पनाएं रखी हुई हैं। मरने के बाद क्या मिलता है - उसकी कोई गवाही तो हो ही नहीं सकती।

इस समझदारी से मानव-लक्ष्य स्पष्ट हुआ। मानव-लक्ष्य है - समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाण। मानव-लक्ष्य को पूरा करना ही मानव-चेतना है।

समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि - यह एक formula बना। समझदारी से समाधान-संपन्न हो सकते हैं। हर समझदार परिवार में अपनी आवश्यकता का निर्णय कर सकते हैं। आवश्यकता से अधिक उत्पादन करके समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं।

इस आधार पर इस पूरी बात को अध्याव्सायिक विधि से प्रस्तुत करने की कोशिश किए। प्रस्तुत करने के क्रम में सर्वप्रथम मैंने बंगलोर में एक "अध्ययन शिविर" लगाया। ४५ दिन का शिविर था। बहुत सारे लोग इसको सराहे, इसकी आवश्यकता है - ऐसा बोले। इसके बाद धीरे-धीरे रायपुर, भिलाई - इन जगहों पर विद्वानों के संपर्क में आए। उसके बाद दुर्ग में एक polytechnic institute के संपर्क में आए, जहाँ के लोगों ने जीवन-विद्या का शिविर किया। विज्ञान को पढ़े हुए लोगों के साथ मैंने एक जीवन-विद्या शिविर किया। इस शिविर करने के बाद उनमें कुछ संतोष और धैर्य हुआ, उसके बाद वही polytechnic institute द्वारा IIT Delhi से संपर्क हुआ। IIT Delhi के विद्वानों का तरीका कुछ दूसरा ही रहा!

वहाँ पहुँचते ही वे मुझसे कहे - "तुम्हारी प्रस्तुति का आधार क्या है? जो बात तुम कह रहे हो - यह किसी सिद्धांत पर आधारित है या नहीं?"

इससे मुझको ऐसा झलका, ये पूछ रहे हैं - "मैं किस परम्परा के आधार पर बात कर रहा हूँ? -उसको लेकर मेरा उदगार चाह रहे हैं। " किंतु मेरी बात किसी परम्परा पर आधारित नहीं रहा।

इसका सीधा उत्तर मैंने दिया - "मेरी बात का आधार है - सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व। और इस बात का प्रमाण मैं स्वयं हूँ।" इस प्रकार से मैं प्रस्तुत हुआ।

इस प्रकार वहाँ के जो तत्कालीन विद्वान थे - उनमें से कुछ लोगों को सुनकर काफी अच्छा लगा, तो कुछ को लगा यह बिल्कुल पाखंडी आदमी है - बस बात करने वाला है। ऐसा दो तरह की बात हुई। इसके बाद उनसे मंगल-मैत्री, ज्ञान-अर्जन करने-कराने की बातचीत शुरू हुई। अंततोगत्वा IIT में यह प्रवृत्ति बनी - "यह कुछ सही चीज़ है, इस पर प्रयोग करके देखना चाहिए।"

उनमें से एक आदमी - रण सिंह, जो हमारे पास यहाँ बैठे हैं - वहाँ से तत्काल resign किए, और मेरे पास ६ महीने अमरकंटक में आ कर रहे। ६ महीने हमारे पास रह कर उन्होंने जितनी भी स्वयं में जिज्ञासाएं थी उनके उत्तर पा कर के अपने में ऐसा महसूस किया कि हमको कुछ समझ में बात आ गयी। उसको प्रयोग करने के लिए वे अपने में तैय्यारी कर लिए, और ये अपने ढंग से अब तक प्रयोग कर भी रहे हैं। इनके धैर्य में अब तक कोई घाटा नहीं आया। ऐसा भी नहीं आया, हम जो अब तक समझे हैं - वह ग़लत हो गया। यह दोनों नहीं आने से धैर्य भी रहा, अपनी समझ पर विश्वास भी रहा - और उसके आधार पर आप अपने में अभी तक जुटे हैं। बिजनौर और आस-पास के गावों में उनका पहले से भी पहचान था, ये पहले से वहाँ के स्थापित व्यक्ति रहे। इनके बात पर वहाँ के लोगों की आस्था है, उसके आधार पर लोग उनकी बात सुनते हैं और आस्था प्रकट करते हैं।

इनके जुड़ने के बाद IIT में सत्य जी जुड़े। IIT में सबसे अधिक बुद्धिमान, विद्वान जिसे माना जाए - ऐसे थे यशपाल सत्य। वे fission fusion के विद्वान थे - उनको वह व्यवहारिक नहीं दिखा। उससे उनको संतोष नहीं हुआ। वे इस विद्या को पा कर इतना गद-गद हुए! उन्होंने बहुत सारे उपनिषद् आदि पढ़े थे - उसके आधार पर उन्होंने बताया - "विगत में यह सब कहा है - यह बात (मध्यस्थ-दर्शन) उससे आगे की चीज है।" वे बहुत कुछ आगे करने वाले थे, पर संयोग-वश उनका हमसे वियोग हो गया।

उसके बाद कानपूर में एक संस्था तैयार हुई - उसके प्रधान व्यक्ति गणेश बागरिया रहे। वह कार्यक्रम अभी तक चल रहा है। उसके बाद रायपुर में एक और संस्था चली - उसमें और आगे बढ़ने की बात आयी। वहाँ भी लोग काफी जुड़े हैं, और प्रयत्न कर रहे हैं। इस तरह जगह-जगह पर प्रयत्न चल रहे हैं।

- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।

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