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Friday, January 2, 2009

अनुसंधान क्यों, क्या, और कैसे - भाग-१

यह जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन सुखद, सुंदर, सौभाग्य-पूर्ण हो - यह मेरी शुभ कामना है। मूल में मुझे यह बताने के लिए कहा गया है की इस अनुसंधान को करने का "संकट" मुझे कैसे आ गया? यह अनुसंधान हुआ कैसे? इस अनुसंधान को "विकल्प" स्वरूप में प्रस्तुत करने की क्या ज़रूरत आ गयी थी? इन सब बातों पर ध्यान दिलाने के लिए यह मेरी प्रस्तुति है।

मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा - मेरी शरीर-यात्रा ईश्वर-वादी विचार के अनुसार विद्वान कहलाने वाले वेद-मूर्ती परिवार में शुरू हुई। उस परिवार में मैंने पलने से लेकर ६-७ वर्ष या १० वर्ष तक वेद-विचार के अलावा कुछ श्रवण किया ही नहीं। या ऐसा कह सकते हैं - दूसरी कोई बात मेरे मन में पहुँची ही नहीं। मेरी आयु जब ५ वर्ष रही होगी - तब बहुत सारे बड़े-बुजुर्ग लोग मुझे प्रणाम किया करते थे। मुझ में यह विचार आया - "मुझको ये लोग प्रणाम करते हैं - इनको मैंने ऐसा क्या दे दिया है? ये लोग क्यों मुझे प्रणाम करते हैं?" मैंने इस बारे में अपने घर-परिवार, माता-पिता, भाइयों, मामा के साथ बात की तो वे उसका मखौल उडाते रहे। यह सब चलते चलते १०-१२ वर्ष बाद मुझको इस बात का बोध हुआ, ये लोग मेरे परिवार का सम्मान करते हैं - और उसी आधार पर मेरा सम्मान करते हैं। यह जो मुझ में निष्कर्ष निकला उससे इस बात की मुझ में प्रतिज्ञा बनी, हमारा परिवार जो सम्मान और प्रतिष्ठा बनाया है, उसको बरबाद करने का अधिकार मुझको नहीं है।

उसके बाद मैं वहीं न रुक कर, मेरा परिवार संसार को क्या दे दिया - इस को मैं शोध करने लगा। यह शोध करने पर पता चला - मेरे परिवार की परम्परा में हर पीढी में एक-दो संन्यासी होते ही रहे। उनमें से कई संन्यासी तो ऐसे हुए, जो अपनी समाधी के लिए स्वयं गड्ढा खोद कर मिट्टी डाल कर मर गए। मर जाने के बाद उनके ऊपर चबूतरा बना कर रखे हुए थे। मैंने अपने परिवार-जनों से पूछा "ये हमको क्या दे गए?" इसका उत्तर देने में काफी परेशानी उनको होने लगी। अंततोगत्वा यह बताया - शास्त्रों में "संन्यास" के बारे में लिखा है कि उससे कल्याण होता है। "कल्याण होता है - तो उसका कोई गवाही होगी कि नहीं?" - यहाँ से मैंने शुरू किया। ऐसा शुरू करने पर तकलीफ और बढ़ी। यह बढ़ते-बढ़ते मुझ को अंततोगत्वा समझाया गया - तुम पूरा वेदान्त को समझो। मैं फ़िर वेदान्त को समझने गया।

वेदान्त को मैंने पूरा ठीक समझा। लेकिन उससे तो वही हुआ - "पहले से करेला, ऊपर से नीम चढा!" वेदान्त के अध्ययन से मुझे पता चला - "यह ब्रह्म ही बंधन और मोक्ष का कारण है।"

ब्रह्म-ज्ञान क्या है? - तो रहस्यमय बताया। "ब्रह्म अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है " - यह बात की मुझे सूचना दिए। यदि ब्रह्म अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - तो ऐसी स्थिति में "ब्रह्म-ज्ञान" का क्या मतलब होगा? ऐसा मैं तर्क करने लगा। उस पर मुझे बताया गया - "तुम छोटा मुहँ बड़ी बात करते हो। " इस प्रकार मुझ से मेरे परिवार में काफी संकट गहराया।

ब्रह्म ही बंधन और मोक्ष का कारण कैसे हो गया? मैंने पूछा तो बताया - यह "ब्रह्म-लीला" है। यह सुनने पर मैंने कहा - देखिये, संसार में जो दारु पीते हैं, वे बढ़िया लीला करते हैं। जो पागल हो जाते हैं - उससे बढ़िया लीला करते हैं। क्या ब्रह्म को पागल या दारु पिया हुआ माना जाए? यदि ऐसा नहीं माना जाए - तो उसका तरीका क्या है? यह सब होने पर वे मुझ को समझाए - "इसको समझने के लिए तुमको स्वयं अनुभव करना पड़ेगा।"

क्या अनुभव होता है? - मैंने पूछा।

"समाधि में अनुभव होता है" - उत्तर मिला।

किस बात का अनुभव? - मैंने पूछा।

"ज्ञान का" - यह बात बताये।

यह बताया तो मैंने समाधि के लिए तैय्यारी कर लिया। अपने मन को तैयार किया - कि इसके लिए मुझको यह शरीर यात्रा अर्पित करना है। उस समय मेरी आयु २६-२७ वर्ष रहा होगा। परम्परा को छोड़ कर अपने मन का कुछ करना है - उसके लिए शास्त्रों में "विद्वत-संन्यास" की बात लिखा है। विद्वत-संन्यास के बारे में लिखा है - ऐसा कुछ काम करने के लिए पत्नी का अनुमति चाहिए, माँ का अनुमति चाहिए, और गुरु का अनुमति चाहिए।

उस बारे में मैंने अपने पत्नी से एक गोष्ठी किया, अपना विचार व्यक्त किया - कि इस प्रकार से मेरे मन में ऐसा निश्चय हो रहा है। इसमें तुम्हारा क्या कहना है? "तुम जो निर्णय लोगे उसी के साथ मुझे चलना है।" - ऐसा वह बोली। मैंने बहुत तर्क दिया - इस में यह खतरा हो सकता है, वह हो सकता है, बहुत सारी कल्पना। यह सब बात मैंने की। अंततोगत्वा उनको साथ ही चलना है - यही ठोस निर्णय आया।

उसके बाद मैंने अपनी माँ से बात किया। मेरी माँ मेरे लिए पहले से ही गुरु-तुल्य रही थी। उन्ही से मैंने ज्योतिष और आयुर्वेद सीखा था। उसके आलावा मेरे घर पर "श्री विद्या आगम-तंत्र-उपासना" की परम्परा रही थी, उसका उपदेश उन्हों ने ही मुझे दिया। इसी अर्थ में मेरी माँ मेरे लिए गुरु-तुल्य थी। उनसे पूछा तो वे बताईं - "तुम जो कुछ भी निर्णय लोगे - उससे अच्छा निर्णय लेने वाला इस धरती पर कोई नहीं है। तुम जो निर्णय लो - उसे कर डालो, तुम उसमें सफल होगे।" ऐसा उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया।

उसके बाद श्रृंगेरी के विद्या-पीठ के शंकराचार्य को मैंने अपनी आस्था का केन्द्र बनाया था - उनसे मैंने इस बात का जिक्र किया। उन्होंने बताया - "तुम्हारा संकल्प ठीक है। तुम सफल हो जाओगे। नर्मदा किनारे भजन करो।" ऐसा वे बोले।

यह कुल मिला कर combination बनी। उसके बाद मैंने अपने पिताश्री से बात किया। पिताजी ने यह बताया - तुम वेद मानते हो, अध्यात्म मानते हो, तो जब तक हम जीते हैं - तब तक तुमाहरा जप, यज्ञ, तप सब कुछ हम ही हैं। हमारी सेवा करना ही तुम्हारा धर्म है - ऐसा वे बोले।

उसके बाद अपने ससुरजी से बात किया। वे बोले - तुम ६० वर्ष की आयु के बाद वानप्रस्थ जाना। मैंने धीरे से उनसे पूछा - आपका आयु कितना है? उन्होंने बताया - ६२ वर्ष! मैंने पूछा - फ़िर यहाँ कैसे दिख रहे हो?! सुन कर वे भाग गए! यह भी एक मखौल की बात है।

इस तरह परामर्श के तौर पर मैंने सबसे बात किया - और समाधि के लिए जाने का निष्कर्ष निकाला।

- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।

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