This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Tuesday, January 6, 2009
नित्य वर्तमानता - भाग-१
वर्तमान को "काल"और "समय"नाम भी मनुष्य ने दिया है। ये सब नाम हमारे सामने रखे हुए हैं। विगत में (आदर्शवाद में) बताया गया था - "सत्य नित्य वर्तमान है." ब्रह्म ही सत्य है - यह बताया। साथ ही सत्य को अव्यक्त और अनिर्वचनीय भी बता दिया। जगत को ब्रह्म से ही उत्पन्न बताते हुए, जगत को मिथ्या बता दिया। ऐसा बताने से हम संदिग्धता में आ गए थे। (दूसरी ओर) भौतिकवाद समय या काल को खंड-खंड करते हुए ऐसी जगह पहुँच गए कि वर्तमान को ही शून्य कर दिया।
इन सब बातों में एक तारतम्यता, संगीत, और निश्चयता आने के बारे में मैंने कुछ सोचा है। किस आधार पर? सह-अस्तित्व के आधार पर। सह-अस्तित्व विधि से हमें नित्य-वर्तमानता की बात स्पष्ट होती है।
ब्रह्म को मैंने व्यापक और शाश्वत वस्तु के स्वरूप में पहचाना। व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति संपृक्त रहने को पहचाना। इसी आधार पर 'काल', 'समय', 'वर्तमान' की बात स्पष्ट होना मुझे स्वीकार हुआ है। हम सब सह-अस्तित्व के आधार पर ही वर्तमान को सटीक पहचान पाते हैं।
वर्तमान का मतलब है - स्थिति-शील और गति-शील निरंतरता। जड़-चैतन्य प्रकृति के लिए यही वर्तमान है। स्थिति-गति शीलता सहित वर्तमान है। जड़-चैतन्य प्रकृति स्थिति-गति स्वरूप में वर्तता ही रहता है - इसीलिए वर्तमान। जड़-चैतन्य प्रकृति में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म निरंतर वर्तता ही रहता है। यह कभी रुकने वाला नहीं है।
किसी भी वस्तु का 'होना' निरंतरता के अर्थ में है। 'निरंतर होना' ही वर्तमान है। 'निरंतर होना' ही वैभव है। अस्तित्व में नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य निरंतर होने के अर्थ में ही हैं। ये सभी चीजें निरंतर होने के रूप में मुझे अनुभव में आया है। मैं उसमें जीता ही हूँ। उसी आधार पर मैं कह रहा हूँ - "होने" के रूप में नित्य वर्तमान है।
"होना" क्या चीज है? व्यापक वस्तु में एक-एक वस्तु का डूबा-भीगा-घिरा हुआ होना - यही "होने" का मूल स्वरूप है। यही वर्तमान है। यह निरंतर वर्तता ही रहता है। व्यापक में चार अवस्थाएं - उनका रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म - यह निरंतर वर्तता ही रहता है।
सम्पूर्ण खनिज (पदार्थ-अवस्था) परिणाम-अनुषंगी विधि से निरंतर होना - यह वर्तमान है।
सम्पूर्ण हरियाली (प्राण-अवस्था) गुण-प्रधान स्वरूप में बीज-अनुषंगी विधि से होना - यह वर्तमान है।
स्वभाव-प्रधान स्वरूप में वंश के अनुरूप जीवों (जीव-अवस्था) का जीना - यह वर्तमान है।
मानव सुख पूर्वक जीने के रूप में वर्तमान है। जब तक मनुष्य सुख पूर्वक नहीं जीता - तब तक मनुष्य का वर्तमान नहीं है। इस तरह से सह-अस्तित्व विधि से वर्तमान को पहचानने की बात आयी। यदि इस प्रकार से हम सोच पाते हैं, समझ पाते हैं, और इसमें विश्वास करने की जगह में आ पाते हैं - तो हम पाते हैं, वर्तमान में ही हमारा वैभव है। वर्तमान को छोड़ कर मानव का वैभव प्रमाणित होता ही नहीं है।
मनुष्य अपने 'धर्म' को सुख रूप में व्यक्त किया है। सुख के बारे में आपको बताया है:
समाधान = सुख = मानव धर्म
समस्या = दुःख = मानव के लिए अधर्म
समस्या मानव को स्वीकार नहीं है। समाधान और सुख ही मानव को स्वीकार है। मनुष्य के जीने में मानव-धर्म वर्तना या प्रमाणित होना ही "मानव का वर्तमान" है। मानव-धर्म प्रमाणित होने के अर्थ में समाधान निरंतर बना रहना आवश्यक है। समाधान निरंतर बने रहने के अर्थ में सुख निरंतर बने रहना आवश्यक है। यह मानव के वर्तमान का मतलब हुआ।
उसी प्रकार - जीवों में स्वभाव प्रधान विधि से वंश के अनुसार होना, जीना - यह वर्तमान हुआ। वैसे ही समस्त हरियाली बीज-अनुशंगियता विधि से वर्तमान है। और परिणाम-अनुषंगी विधि से समस्त पदार्थ संसार वर्तमान हुआ। इस ढंग से समस्त वस्तुएं सह-अस्तित्व में स्वयं वर्तमान हैं।
सम्पूर्ण अस्तित्व ही वर्तमान है। वर्तमान में स्थिति भी है, गति भी है। दोनों मिलकर के वर्तमान। स्थिति के बिना गति नहीं होती। अभी तक की परम्परा के मानव के मन में सुद्रढ़ होने में थोड़ा परेशानी आ रहा होगा - अब आगे चल कर इसमें हम और सुदृढ़ हो सकते हैं। मनुष्य-संसार स्थिति-गति में है। जीव-संसार भी स्थिति-गति में है। वनस्पति-संसार भी स्थिति-गति में है। सम्पूर्ण खनिज-संसार स्थिति-गति में है।
मूल में सम्पूर्ण वस्तु अपने परमाण्विक स्वरूप में स्थिति-गति में है ही। तथा - वह एक इकाई के रूप में भी स्थिति-गति में है। जैसे - यह धरती एक इकाई के रूप में स्थिति-गति में है। इसी प्रकार एक सौर-व्यूह अथवा ग्रह-व्यूह अपने स्थिति-गति में हैं। आकाश-गंगा भी स्थिति-गति में है। इसको हम अच्छे तरीके से स्वीकार कर सकते हैं। इन सब वस्तुओं का होना, इन सब वस्तुओं का सत्ता में संपृक्त रहना - और फल-स्वरूप ऊर्जा संपन्न होना, स्थिति-गति में होना - यह वर्तमान हुआ।
अस्तित्व स्वयं स्थिति-गति के रूप में नित्य वर्तमान है।
- अक्टूबर २००५ में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, मसूरी में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।
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