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Sunday, January 18, 2009

सुख की चाहत

जीवों में वंश के अनुसार जीवन शरीर का संचालन करता है। मनुष्य शरीर रचना का भ्रूण स्वरूप जीव-शरीर में तैयार हुआ। मनुष्य शरीर परम्परा में प्रकति-प्रदत्त विधि से जीवन द्वारा कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रकटन प्रावधानित हुआ। जीवों में चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, और मैथुन) को संवेदनाओं के आधार पर तय करने की बात तक रही। मानव में संवेदनाओं को राजी रखने के लिए चार विषयों को भोगने की बात आ गयी। मनुष्य के पास पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के साथ साथ ५ विभूतियाँ (रूप, बल, पद, धन, बुद्धि) भी होती हैं। इन पाँच विभूतियों में से चार को (रूप, बल, पद, और धन) मनुष्य उपयोग कर डाला।

जैसे भी मनुष्य अभी तक जिया - उसको तृप्ति नहीं मिली।

जीवों के जैसे वंश के अनुसार चार विषयों में जीने से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।

पाँच संवेदनाओं को राजी रखने के कार्यक्रमों के आधार पर जीने से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।

चार विभूतियों (रूप, पद, धन, बल) के आधार पर जीने के प्रयासों से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।

लेकिन तृप्ति मनुष्य को चाहिए!

प्रश्न: तृप्ति की चाहत मनुष्य में कहाँ से आ गया?

कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश मनुष्य में तृप्ति की चाहत है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता मनुष्य में नियति-प्रदत्त है। इसको मनुष्य मिटा नहीं सकता। मनुष्य जब जीव-चेतना के आधार पर ४ विषयों के अर्थ में जीने जाता है, तो उसे विषयों में तृप्ति (सुख) भासती है। विषयों में सुख भासता है, लेकिन सुख होता-रहता नहीं है। जैसे - खाना अच्छा लगता है, पर सदा खाते ही रहे - ऐसा होता नहीं है। अच्छे बिस्तर पर सोना अच्छा लगता है, पर सदा सोते ही रहे - ऐसा होता नहीं है। चारों विषयों के साथ ऐसा ही है।जीव-चेतना में सुख भासता है, सुख होता नहीं है।

प्रश्न: जीव-चेतना में जीते मनुष्य को सुख कैसे भासता है?

कल्पनाशीलता वश। कल्पनाशीलता में सुख की अपेक्षा है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के सन्निकर्ष में जीवन को अच्छा लगना - बुरा लगना, यह बना ही है। इनमें निरंतरता नहीं है, इसी लिए मनुष्य सुख के लिए सदा प्रयास रत रहता है।

क्रमशः

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