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Saturday, February 7, 2009

चर्चा करनी है, या पारंगत होना है?

"चर्चा कम, पारंगत होना ज्यादा" - इस बात को ले कर चलें तो समय की बचत होगी।

पारंगत होने के लिए समझना आवश्यक है। चर्चा में हम तर्क में जुट जाते हैं, समझना और पारंगत होना वरीयता में नीचे चला जाता है। तर्क पारंगत बनाने में सहायक है। तर्क पारंगत होने का कोई लक्षण नहीं है।

तर्क में शब्द प्रधान है, वस्तु शून्य है।
समझने में वस्तु प्रधान है, शब्द गौण है।

जैसे - "पानी" एक शब्द है। पानी क्यों है, कैसा है? पानी नहीं रहने पर क्या होता है? पानी होने से क्या हो गया? नहीं रहने से क्या फर्क पड़ता है? यह सब हम तर्क कर ही सकते हैं।

मौलिक तर्क है - "पानी एक शब्द नहीं है, पानी एक वास्तविकता है।"

पानी को समझने के लिए इतना तर्क आवश्यक है। यह तर्क पानी की तात्विकता तक पहुंचाने के लिए एक सेतु है।

तर्क एक बौद्धिक साधन है। साधन साध्य नहीं होता है।

प्रश्न: मानव के पास तर्क का साधन कहाँ से आ गया?

उत्तर: तर्क का साधन मनुष्य के पास कल्पनाशीलता वश आ गया। मनुष्य के पास कुछ बौद्धिक साधन हैं, और कुछ भौतिक साधन हैं। शब्द विधि से बौद्धिक साधन हैं - जो कल्पनाशीलता वश आए। भौतिक वस्तुओं के स्वरूप में जो साधन हैं - वे मनुष्य के प्रयत्न या पुरुषार्थ से आए।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित। (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

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