साक्षात्कार पूर्वक मुझ को पता चला : -
(१) हर मानव जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में है।
(२) जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है।
(३) जीवन में दो और पूर्णतायें - क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता - मानव परम्परा में ही घटित होता है।
मुझको यह समझ में आया - मनुष्य जीव-चेतना वश भ्रमित हो कर संकट से घिर जाता है। फ़िर मानव-चेतना पूर्वक सुखी होना होता है - यही क्रिया पूर्णता है। इस तरह पता चला - जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है। मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है। देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतर है। यह अनुभव होने के बाद मैं अपने में सुद्रढ़ हुआ। जागृति का अधिकार मुझे मिल गया।
जागृति के अधिकार के फलस्वरूप पता चला - मनुष्य भ्रम-वश ही बंधन की पीड़ा से पीड़ित है। क्या चीज है भ्रम या बंधन? वह है - अति-व्याप्ति दोष (अधिमुल्यन करना) , अना-व्याप्ति दोष (अवमूल्यन करना) , और अव्याप्ति दोष (निर्मुल्यन करना) । इन तीन दोषों से ही हम संकट में फंसते हैं। छल, कपट, दंभ, पाखण्ड - यह अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, और अव्याप्ति दोषों का प्रदर्शन है। दूसरी विधि से जो हम फंसे हैं - वह है - द्रोह, विद्रोह, शोषण, और युद्ध। इस तरह मनुष्य इन दो भंवरों में फंस गया। इसके पहले साम-दाम-दंड-भेद का भंवर बना ही रहा। इस तरह मानव एक साथ तीन भवरों में फंसा हुआ है। मनुष्य जाति कैसे जी पा रही है - आप ही सोच लो!
यह जो ज्ञान मुझे हुआ - यह १९७५ में हुआ। यह ज्ञान होने पर मैंने स्वीकारा - यह मेरे अकेले का ज्ञान नहीं है। यह मानव का ज्ञान है। मानव के पुण्य वश ही यह घटित हुआ है। इसलिए मानव को इसे अर्पित करना है। उसके बाद मनुष्य के साथ संपर्क करने का कोशिश किया। कोशिश करने के क्रम में कुछ लोगों ने कहा - "तुम आशावादी हो!" कुछ ने कहा - "समय से पहले तुम यह बात कर रहे हो।" कुछ ने कहा - "जैसे और कई विचार आए - तुम्हारा भी यह एक विचार है - थोड़ी देर बाद यह भी ख़त्म हो जायेगा। " इन तीन प्रकार की opinions आयी। मैं चिंतन-मनन करता रहा, और उसी के साथ अच्छे-अच्छे लोगों से मिलन होते ही रहे। धीरे-धीरे मुझको यह धैर्य हुआ कि इस बात की आवश्यकता मानव-परम्परा को है।
उसके बाद १९९० से हमने शुरू किया कि इसे सटीक विधि से एक शैक्षणिक प्रणाली के रूप में लोगों के सम्मुख रखा जाए। उसमें दो-तीन जगह में इस बात के प्रयोग हुए हैं, काफी बुद्दिमान लोग इसमें सोचने के लिए तत्पर हुए हैं। यह आज तक की घटित घटनाएं यहाँ तक पहुँची हैं।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
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