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Saturday, January 17, 2009

अस्तित्व में प्रकटन

प्रश्न: आपने कहा - पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था प्रकट हुई। यह कैसे हुआ? इसको समझाइये।


उत्तर: प्राण-अवस्था के प्रकट होने के मूल में पहले पानी का प्रकटन हुआ। पदार्थ-अवस्था की ही वस्तुएं ठोस, तरल, और विरल रूप में रही हैं। विरल रूप में रही वस्तुओं में से एक जलने वाला वस्तु रहा, एक जलाने वाला वस्तु रहा। ये दोनों वस्तुएं विरल रूप में रहते हुए कोई उपकार होती नहीं रही। उपकार होने का प्रवृत्ति सह-अस्तित्व में रखा हुआ है। आगे की प्रवृत्ति के लिए उपकार बना ही है। इसी आधार पर - ये दोनों वस्तुएं मिल कर प्यास बुझाने वाली वस्तु (पानी) के स्वरूप में आ गयी। पानी से पहले कोई प्राण-अवस्था नहीं है। पानी के बिना प्राण-अवस्था का प्रकटन होता नहीं है। यह बात यदि आप के समझ में आता है, तो समझो हम आधा दूर तक तैर गए! दो ऐसी वस्तुएं (hydrogen और oxygen) जो अकेले रहते हुए क्षति-ग्रस्त भी हो सकती थी, उस जगह से कैसे सह-अस्तित्व विधि से उपकारी हुई। पानी का धरती पर प्रकटन सह-अस्तित्व में नियति-क्रम का प्रमाण है।

पानी कहाँ खड़ा होगा? धरती पर ही! धरती पर पानी के खड़ा होने से धरती पर जो अम्ल और क्षार जो द्रव्य थे - वे पानी में आ गए। इन अम्ल और क्षार के संयोग से 'पुष्टि-तत्व' और 'रचना-तत्व' ये दोनों तैयार हुए। इन दोनों के आधार पर प्राण-सूत्र तैयार हुए। प्राण-सूत्र तैयार होने के आधार पर पहले वह प्राण-कोशा के स्वरूप में परिवर्तित हुई। इससे पहले पानी और धरती के संयोग में काई प्रकट हुई। पानी के साथ काई का होना स्वाभाविक है। काई प्रकट होने के बाद वह प्राण-सूत्र पुष्ट हुआ। प्राण-सूत्र पुष्ट होने के आधार पर उसमें रचना-विधि आ गयी। कैसे आ गयी? - नृत्य के आधार पर, खुशहाली के आधार पर। प्राण-सूत्रों में जो रचना विधि उभर आयी - उस (प्राण-अवस्था की) रचना को प्राण-कोशा पूरा किया। उसे पूरा करके जो खुशहाली आयी उससे (प्राण-सूत्रों में) दूसरे प्रकार की रचना-विधि आ गयी। उससे दूसरी और श्रेष्ठतर प्राण-अवस्था की रचना का प्रकटन हुआ। इस क्रम में अनेक प्राण-अवस्था की रचनाओं का धरती पर प्रकटन हुआ। इस ढंग से अंततोगत्वा मनुष्य रचना तक धरती पर प्रकट हो गयी।

"जो था" - वही प्रकट हुआ है। पदार्थ अवस्था ही यौगिक विधि से रसायन संसार के स्वरूप में प्रकट हुआ। प्राण-अवस्था में ही प्रजनन विधि आरम्भ हुई। यह विधि जीव-अवस्था में पुष्ट हुई। यही विधि मनुष्य संसार में भी है। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - इसलिए मनुष्य में इस विधि के दुरूपयोग, उपयोग, और सदुपयोग की सम्भावना है।

सह-अस्तित्व में जो कुछ भी प्रवृत्तियां हैं, सम्भावना है, प्रक्रिया है - उसको मनुष्य अनुकरण ही कर सकता है। सह-अस्तित्व में जो प्रवृत्तियां, सम्भावना, और प्रक्रिया नहीं है - उसको मनुष्य प्रकट कर ही नहीं सकता। यही मनुष्य के लिए नियति-विधि से जीने का उपाय है।

मनुष्य जीव-चेतना में अपराध-परम्परा में जीता है। मानव पद में न्याय परम्परा में जीता है। देव पद में समाधान-परम्परा में जीता है। दिव्य-पद में सत्य-परम्परा में जीता है। आपको कैसे जीना है - इसको आप को ही तय करना है। अपराध-परम्परा में ही आपको जीना है तो जीव-चेतना ठीक है। न्याय-परम्परा में जीना है तो मानव-चेतना के अलावा कोई रास्ता नहीं है।

अक्टूबर २००५ में मसूरी में आयोजित जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन के बाद हुए बाबा के साथ आए हुए लोगों के संवाद पर आधारित

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