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Friday, January 2, 2009

अनुसंधान क्यों, क्या, और कैसे - भाग-२

सबसे परामर्श करके मैंने समाधि के लिए जाने का निष्कर्ष लिया। निष्कर्ष में तो मैं आ ही गया था - कि मुझको यह करना ही है, एक शरीर यात्रा इसमें अर्पित करना ही है। मैंने कुछ तिथि निश्चित किया कि इस तिथि में चले जायेंगे। तब तक अपने सभी क्रियाकलापों, लेन-देन आदि सब को पूरा करने में मैं लगा। इसी बीच में मेरी माँ का देहांत हो गया। यह १९४७ के अंत में हुआ। और १९४८ के आरम्भ में मेरे पिता का भी शरीर शांत हो गया। वहाँ की परम्परा के अनुसार १ वर्ष तक मरणोत्तर कर्मो में सम्मान देते हैं, ऐसी आस्था रखते हैं। उसको मैंने पूरा किया। वह सब पूरा होने पर १९५० में हम यहाँ अमरकंटक पहुँच गए।

अमरकंटक - इस पावन स्थली पर पहुँच कर हमको बहुत अच्छा लगा। यहाँ के लोग, हवा, पानी, जंगल, जानवर, धरती - इन सबके साथ हमारी सानुकूलता बनी। वहाँ जो २००-२५० लोग उस समय थे - उनके साथ भी हमारा स्नेह और विशवास पूर्वक जीने का आधार बना। हमको ऐसा लगा - वहाँ जितने भी लोग हैं, वे सभी हमारे अभिभावक हैं, संरक्षक है। ये सभी बात सानुकूल होने पर मैं साधना कर पाया। यह सानुकूलताएं जो अपने आप में मुझ को सुलभ हुई, (उसका कारण) मैंने माना - यह नियति का देन है, बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद है, या मानव का पुण्य है।

यह सब होने के बाद अपनी साधना में मैं तत्पर हुआ, उसके लिए किया-धरा, उस सब में २० वर्ष लगे। २० वर्ष बाद मैं समाधि की स्थिति में पहुँच गया।

समाधि की स्थिति में मैंने पाया - मेरा आशा, विचार, इच्छा जो दौड़ता रहता था - "मुझे कुछ चाहिए", "मुझे कुछ करना है", "मेरे पास कुछ है" - ये तीनो पूरा का पूरा चुप हो गए। ये चुप होने के बाद आदमी को कोई संकट तो होता नहीं है। आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाने के बाद संकट काहे को होगा? ये चुप होने के बाद मैं हर दिन इंतज़ार करता रहा - आज ब्रह्म ज्ञान होगा, आज होगा... ऐसा करते करते कई महीने इंतज़ार में बीत गए।

समाधि में मुझको ब्रह्म-ज्ञान नहीं हुआ।

समाधि में ब्रह्म-ज्ञान नहीं होता - इसको मेरे कहने भर से कौन मानने वाला है? शास्त्रों में तो इसके विपरीत लिखा है। समाधि मुझ को हुआ है या नहीं - इसका गवाही देने के लिए मैंने "संयम" किया। संयम के द्वारा समाधि का गवाही हो जाता है। फ़िर संयम करने का संकल्प ले कर मैं लग गया।

पंतांजलि योग-सूत्र में संयम के लिए विभूति-पाद में जो कुछ भी लिखा है - वह कोई ज्ञान के लिए नहीं है। "अज्ञात को ज्ञात" और "अप्राप्त को प्राप्त" करने के उद्देश्य की पहले से घंटी बजती रही। उसमें से "अप्राप्त को प्राप्त करने" को लेकर मेरी कोई जिज्ञासा नहीं रही। मुझको ऐसा महसूस ही नहीं हुआ - मेरे पास कुछ अप्राप्त है। अभाव मुझको स्पर्श ही नहीं किया था। अप्राप्त को प्राप्त करने की मुझ में कोई जिज्ञासा नहीं रही, आवश्यकता भी नहीं रही। इसको आप मेरा पागलपन भी कह सकते हैं, मेरी सच्चाई भी कह सकते हैं। अब क्या किया जाए? अज्ञात को ज्ञात कैसे किया जाए - यही बात हुई। उस सन्दर्भ में लिखा है - "धारणा-ध्यान-समाधिः त्रयम एकत्रत्वा संयमः"। ऐसा एक लाइन लिखा है। उसको मैंने उलटाया। "समाधि-ध्यान-धारणा त्रयम एकत्रत्वा संयमः" - ऐसा मैंने दूसरा लाइन तैयार किया। अप्राप्त को प्राप्त करने की एक भी विधि को मुझे नहीं अपनाना है - ऐसा मैंने सोचा। अज्ञात को ज्ञात करना उसके उल्टा विधि से होगा - उस विधि से करके देखा जाए! ऐसा मेरा मन पहुँचा। और फ़िर उसको मैंने किया।

यह करने पर एक वर्ष में मैं उस जगह पर पहुँचा जहाँ - अस्तित्व कैसा है, क्यों है? और मानव कैसा है, क्यों है? - इन दोनों का उत्तर मुझे मिल गया। इन दोनों ध्रुवों के बीच में संसार का जो कुछ भी क्रिया-कलाप है - भौतिक, रासायनिक, और जीवन क्रियाकलाप - उसका मुझे साक्षात्कार हुआ। साक्षात्कार होने पर मैं संतुष्ट हुआ।

- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।

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