ANNOUNCEMENTS



Saturday, January 3, 2009

समाधि के बाद संयम - और अध्ययन

प्रश्न: समाधि के बाद संयम किस प्रकार हुआ?

उत्तर: समाधि के पहले दो भूमियाँ हैं - धारणा और ध्यान। धारणा का मतलब है - किसी देश-काल और वस्तु की सीमा में चित्त-वृत्ति निरोध होना। ध्यान का मतलब है - उस (देश, काल, और वस्तु) के निश्चित बिन्दु में चित्त-वृत्ति निरोध होना। समाधि का मतलब है - ध्यान का जो अर्थ है, वह भर रहे, और उसका स्वरूप कुछ भी न रहे। ऐसा पंतांजलि योग-सूत्र में documented भी है।

धारणा, ध्यान, और समाधि - ये तीनो के एकत्र होने से संयम है। संयम की जो प्रणाली विभुतिपाद ग्रन्थ में बतायी गयी थी - उसको मैंने उलटाया। अज्ञात को ज्ञात करने के लिए। उसी क्रम में मुझे अनुभव हुआ।

प्रश्न: क्या हर व्यक्ति को समाधि-संयम करना सम्भव है?

उत्तर: मुझको समाधि हुई है। समाधि को मैंने देखा है। समाधि के बाद संयम को देखा है। उसका फल भी मेरे पास है। इसके बाद कुछ होता नहीं है। उसके बाद यदि आप मुझसे पूछो - हमको समाधि होगा या नहीं? तो मैं नहीं बता सकता कि आप को समाधि होगा या नहीं। आपके समाधि होने की कामना ही मैं कर सकता हूँ। मेरे गुरु जी भी मेरे लिए वैसे ही कामना ही किए थे।

समाधि होने के लिए आपके पास कोई निश्चित मुद्दा न हो और आपको समाधि हो जाए - ऐसा मैं recommend नहीं कर सकता। वह निश्चित मुद्दा पाना कितना सर्व-सुलभ है - आप ही सोच लो! "निश्चित मुद्दा" चाय काफी पीने जैसा तो होता नहीं है। जो अध्ययन में न आया हो - ऐसे मुद्दे को आपको तलाशना होगा। वह यदि हो पाता है - तो मैं कहूँगा, समाधि सम्भव है - संयम भी सम्भव है।

प्रश्न: आपने अपनी शरीर यात्रा के ८०-९० वर्ष इस बात के लिए लगाया। क्या हमारे लिए आपकी उपलब्धि को पाने का कोई shortcut है?

उत्तर: इसके shortcut के लिए आपसे निवेदन किया है - मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद का अध्ययन।

अध्ययन और पठन के सन्दर्भ में मैंने देखा - हर शब्द का अर्थ होता है। उस अर्थ के रूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु का बोध होना = हमको समझ में आना। इसको मैंने कहा है अध्ययन।

जैसे - "पानी" एक शब्द है। और पानी एक वस्तु है। "पानी" शब्द पानी नहीं है। उसी प्रकार हर शब्द के अर्थ में एक वस्तु होता है। वस्तु स्वयं अस्तित्व में होता है। अस्तित्व में वस्तु-बोध होने पर मैं अध्ययन मानता हूँ। यह मेरा निश्चय है। इसमें यदि आप सहमत हो पाते हैं - तो पहले पठन फ़िर अध्ययन।

अध्ययन के लिए मैंने परिभाषा-विधि उपक्रम प्रस्तुत किया। हर वस्तु को परिभाषित करने पर वस्तु-बोध होने की सुगमता बनेगी।

जैसे - "धर्म" एक शब्द है। धर्म को परिभाषित किया - जिससे जिसका विलागीकरण सम्भव न हो। मानव का धर्म सुख है। मानव जी कर अपने सुखी होने के धर्म को प्रमाणित कर सकता है। उसी अर्थ में मानव-लक्ष्य है - समाधान और समृद्धि। मानव-लक्ष्य में जीवन और शरीर दोनों का लक्ष्य समाहित है। जीवन में केवल जीवन के सुखी होने का लक्ष्य है। मानव में सुखी होने का भी लक्ष्य है, शरीर की आवश्यकता का भी लक्ष्य है। समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाण सहित मानव-लक्ष्य पूरा होता है। कैसे? संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के रूप में। यह अखंड-समाज और सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो पाता है।

यदि हम मानव इस बात को अपनाते हैं, परम्परा बनाते हैं - तो एक अखंड समाज की रचना होगी। समुदाय-चेतना में मानव समस्या से मुक्ति पायेगा नहीं। अखंड रूप में मानव-समाज को पहचानना ही एक मात्र उपाय है। सर्व-शुभ के लिए यदि सोचेंगे तो यही निकलेगा। अध्ययन विधि ही इसका रास्ता है। अध्ययन के लिए पूरा वस्तु आपके लिए प्रस्तुत है।

- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन के बाद लोगों के साथ हुए संवाद पर आधारित

3 comments:

Anonymous said...

Yes all objects can be mapped to words. But ....
Are there only objects in Babaji's world?
Are there no thoughts, emotions, feelings, sensitivities etc in the living world?
If so can all of these be mapped to words?
Is Babaji saying that he only wants us to understand the world through objects that can be mapped to words?

Rakesh Gupta said...

There are countably infinite activities (objects)and there is Space. Infinite physiochemical and conscious-entities saturated in Space itself is Existence - is the base proposition of Madhyasth-Darshan.

Thought (rather thinking) is an activity of jeevan (conscious-entity - which is a constitutionally-complete atom).

Emotions and Feelings are expressions of sensitivity (samvedansheelta) towards others by jeevan through body.

Jeevan expresses sensitivity when it enlivens a body. Sensitivities get naturally-controlled in knowledge of existence - is the proposition of MD. In the absence of knowledge of existence sensitivities are uncontrolled. At the root of sensitivity is imaginability (kalpanasheelta) in jeevan - that is a combination of expecting, thinking, and desiring.

Rakesh Gupta said...

Naming is a natural-ability in human-being. Names indicate reality in existence. All realities in existence can be named - and defined upon experiencing them.

Definition is the bridge to give direction to human-imagination. Imaginability is natural-ability in every human-being. Imaginability is the tool with which a student studies the proposal of MD.