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Wednesday, January 7, 2009

जीवन और जीना

नियति विधि से अस्तित्व में गठन-पूर्णता घटित हुआ। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है - जिसमें मध्य में एक परमाणु-अंश और चार परिवेशों में २, ८, १८, ३२ परमाणु-अंश होते हैं। इस तरह जीवन ६१ परमाणु-अंशों का निश्चित गठन है। गठन-पूर्ण परमाणु (जीवन) में अपने में और अंशों को समाने तथा अपने में से अंशों को बहिर्गत करने की बात नहीं रहती। इसी को परिणाम का अमरत्व कहा है।

जीवन परमाणु अणु-बंधन और भार-बंधन से मुक्त, तथा आशा-बंधन से युक्त होता है। जीवन-परमाणु जीने की आशा से संपन्न होता है। आशा-बंधन से युक्त होने का मतलब - हर जीवन अपने जीने की आशा के अनुरूप एक कार्य-गति पथ बनाने योग्य होता है। कार्य-गति पथ अपने आप में एक आकार होता है - जैसे बकरी का आकार, बाघ का आकार, मनुष्य का आकार। सभी जीवन परमाणुओं का कार्य-गति पथ एक जैसा नहीं होता। गठन-पूर्णता होते ही जीवन एक कार्य-गति पथ सहित ही होता है। हर जीवन एक कार्य-गति पथ के साथ ही होता है।

नियति-क्रम विधि से ही विविध जीवों की शरीर रचनाओं का प्रकटन हुआ। जिस आकार की शरीर-रचना है, उसी कार्य-गति पथ वाला जीवन उस शरीर-रचना को जीवंत बनाने में प्रवृत्त होता है। जीवन में तदाकार-तद्रूप होने की व्यवस्था है । जिस जीव के गर्भ में रचित शरीर को जीवन चलाना शुरू करता है, उस जीव को चलाने वाले जीवन के कार्य-क्रम को वह तदाकार-तद्रूप में स्वीकार लेता है। इसी आधार पर बाघ का बच्चा बाघ जैसा ही आचरण करता है। बिल्ली का बच्चा बिल्ली जैसा ही आचरण करता है।

प्रश्न: क्या जीवन का कार्य-गति पथ बदलता भी है?

सामान्यतः वही कार्य-गति पथ ही रहता है। जैसे- बाघ के आकार के कार्य-गति पथ वाले जीवन बारम्बार बाघ का शरीर ही चलाता है। गुणात्मक परिवर्तन विधि से कार्य-गति पथ का बदलना होता है। जैसे - बाघ का मनुष्य से संसर्ग होने पर, बाघ-शरीर को चलाने वाला जीवन यदि शरीर छोड़ते समय मनुष्य-आकार को स्वीकार ले, तब उस जीवन में इस गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बन जाती है। मरते समय जीवन सुरूप-कुरूप, सुख-दुःख को स्वीकारते हुए शरीर छोड़ता है। मरते समय यदि जीवन में मनुष्याकार की स्वीकृति बनती है, तो उसका कार्य-गति पथ बदल जाता है।

प्रश्न: क्या जीवन की मनोगति अलग-अलग जीवों में अलग-अलग है?

जीवन में अपने स्वत्व के रूप में मनोगति एक ही है। शरीर-रचना के अनुसार उसके व्यक्त होने में अन्तर हो जाता है।

जीवों में जीवन वंश-अनुशंगियता विधि से व्यक्त होता है। जीवन द्वारा जीव-शरीर को जीवंत बनाने पर संवेदनाएं प्रकट होती हैं। जीव-शरीर में जो संवेदनाएं प्रकट होती हैं, वे चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) की सीमा में समीक्षित हो जाती हैं। जीव संसार में जीवन वंश के अनुसार, उस शरीर की आवश्यकता के अनुसार काम करता है।

नियति-क्रम विधि से (प्राण-सूत्रों में निहित रचना विधि के उत्तरोत्तर विकास से) मनुष्य-शरीर का प्रकटन हुआ। मनुष्य-शरीर के साथ जीवन में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने की बात आ गयी। मनुष्य-शरीर में समृद्धि पूर्ण मेधस होने से जीवन अपनी कल्पनाशीलता-कर्म-स्वतंत्रता को प्रकट करने योग्य हुआ। ज्ञान का शुरुआत कल्पनाशीलता है। उससे पहले जीवों में चार विषयों का ज्ञान प्रमाणित हो चुका। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश संवेदनाओं को राजी रखने के लिए काम करने की बात शुरू हुई।

मनुष्य-शरीर रचना के आधार पर ही जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त करता है। मनुष्य शरीर रचना से पूर्व जीव-शरीरों द्वारा जीवन कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त नहीं करता। जीवों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त करने का कोई प्रावधान भी नहीं है। यह मूल बात है - इसको आपको पहचानने की ज़रूरत है।

प्रश्न: क्या जीव-शरीरों को चलाने वाले जीवनों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को प्रकट करने की 'चाहत' रहती है?

नहीं। 'चाहत' की शुरुआत मनुष्य से ही है। बकरी के शरीर को चलाने वाले जीवन में बकरी के शरीर को चलाने से अधिक की बात नहीं होती, न उससे कम की बात होती है। वंश-अनुशंगियता विधि से जीव-शरीर को चलाते जीवन में वंश अनुरूप कार्य-कलाप करने से भिन्न करने की कोई व्यवस्था ही नहीं है।

भौतिकवाद जीव-संसार और मनुष्य-संसार को जोड़ना चाहता है। भौतिकवाद (प्रचलित विज्ञान) मनुष्य को जीव ही मानता हैजबकि वास्तविकता उससे भिन्न है

जीवन जिस जीव-शरीर को चलाता है, वह जीव-शरीर भी सप्त धातुओं से तैयार होता है, तथा उनमें समृद्ध मेधस रहता है। मनुष्य में मेधस समृद्धि-पूर्ण होता है - तथा समृद्धि-पूर्ण मेधस के अनुरूप बाकी सभी इन्द्रियां भी विकसित हैं। "समृद्धि-पूर्ण" मेधस इसलिए नाम दिया - क्योंकि इसके द्वारा जीवन में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हो सकती है। मनुष्य से पहले जीवों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने का कोई प्रावधान ही नहीं है। इसके प्रमाण में - कोई जीव-जानवर अपना फसल बोता नहीं है, अपना यान-वाहन तैयार करता नहीं है, अपने आहार को तैयार करता नहीं है। मनुष्य जबकि यह सब करता है - अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर। इसको चाहे आप नकार लो, चाहे सकार लो! फ़िर भी ऐसा ही है।

नकारने और सकारने की बात मनुष्य के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की बदौलत ही है। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के प्रकट होने के साथ उसकी तृप्ति की तलाश या अन्वेषण भी शुरू हो जाती है। इन प्रयासों के फलन में सुखी होने और दुखी होने के परीक्षण करने की भी बात आ गयी। सुखी होना और दुखी होना - यह मनुष्य के साथ ही बना है।

सुख और दुःख को जीव-जानवरों के साथ जोड़ कर हम कभी पार नहीं पायेंगे! जीवों में सुख-दुःख की पहचान नहीं होती। जीव केवल वंश-अनुशंगियता पूर्वक विषयों की सीमा में जीते हैं।

मानव-इतिहास में अभी तक मनुष्य कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सहित पहले "वंश" के अनुसार जिया। उसके बाद "कर्म" के अनुसार जिया। उसके बाद कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु के आधार पर जीता है। ये तीन सीडियां हैं। दो सीडियां मनुष्य पार कर चुका है। तीसरी सीड़ी - तृप्ति-बिन्दु के आधार पर जीने के लिए यह (मध्यस्थ-दर्शन) प्रस्ताव अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। ज्ञान (सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान) पूर्वक जीने में ही सुख पूर्वक या तृप्ति-पूर्वक जीने की बात बनती है। इस तरह ज्ञान पूर्वक (अनुभव के बाद) मनुष्य की ४ विषयों में प्रसक्ति ५ संवेदनाओं में विलय हो जाती है, और पांचो संवेदनाएं (संवेदनशीलता) संज्ञानीयता में नियंत्रित हो जाती है।

संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं, यही मानव-चेतना है यह एक सिद्धांत है।

सुख का प्रमाण ज्ञान के अनुसार मनुष्य के जीने में ही आता है। ऐसे जीने का design है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। यही कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु है ।

कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु है - समाधान।
कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु है - समृद्धि।

उसका प्रमाण मैंने स्वयं को घोषित किया है। वह यदि आप अध्ययन पूर्वक पा लेते हो तो वह multiply होने लगता है।


- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)

2 comments:

Anonymous said...

Rakesh,

"जिस आकार की शरीर-रचना है, उसी कार्य-गति पथ वाला जीवन उस शरीर-रचना को जीवंत बनाने में प्रवृत्त होता है।"

How does jeevan recogniz the design of the body. Jeevan does not have any ways to see the body. It is hard to interact with body other than trying to enliven it.

Could you plz. elaborate ?

Regards,
Gopal.

Rakesh Gupta said...

May be jeevan without body has a way of recognizing which is distinct from visual-kind of seeing we are familiar with. I will try to get a definite answer for this.

regards, rakesh...