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Tuesday, December 23, 2008

सुविधा-संग्रह या समाधान-समृद्धि

मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव सुनना, सुनने में सहमत होना - यह पहली बात है।

समझने की कोशिश करना - यह दूसरी बात है।

समझ में आने के क्रम में जीने की इच्छा - यह तीसरी बात है।

इस प्रस्ताव को जीने की इच्छा के क्रम में आप पाते हैं - जो आपने पहले से design बनाया है जीने का, उसमें यह समाता नहीं है। आप जो पहले से design बना कर रखे हैं, वह सुविधा-संग्रह के खाके में ही किए हैं। अब आपको समाधान-समृद्धि के खाके में शिफ्ट होना है। इतना ही key point है। और इसमें कुछ भी नही है। मैंने इसको खूब छू-छू कर देख लिया है। इसमें और कोई पुराण-पंचांग नहीं है।

समाधान-समृद्धि चाहिए? या सुविधा-संग्रह चाहिए? यह हमको निर्णय करना होगा। दोनों का डिजाईन अलग-अलग है। दोनों का कोई मेल नहीं है।

समाधान-समृद्धि पूर्वक जिए बिना न्याय करना तो सम्भव नहीं है।

आज की स्थिति में, हम अपने साथ में रहने वाले लोगों की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए, सुविधा संग्रह के लक्ष्य से क्या कर सकते हैं - वह डिजाईन हम बना कर रखते हैं। उसी पर चल रहे हैं। यह स्थिति आज सब के साथ है। इस डिजाईन के साथ संतुष्टि-असंतुष्टि दोनों रहती है। स्वयं में कुछ भाग से संतुष्टि रहती है, कुछ भाग से असंतुष्टि रहती है। इस ढंग से जीव-चेतना में जीता हुआ मनुष्य ५१% फ़िर भी सही रहता है। बिना कुछ पढ़े, अध्ययन किए - यह बात रहता है। स्वयं में ५१% से कम सही-पन को स्वीकार बिना आदमी में जीने की कोई तमन्ना ही नहीं रहती। मनोविज्ञान का यह एक fulcrum point है। जीने की आशा बने रहना जीवन की अनूस्युत क्रिया है। जब जीवन स्वयं में सहीपन को ५१% से कम होना स्वीकार लेता है, तब जीने की आशा के विपरीत कार्य करना बन जाता है।

सही-पन को लेकर जो खाका भरना है - उसके लिए मध्यस्थ-दर्शन का प्रस्ताव है। सही-पन का स्वागत जीवन में बना ही है। हम जो गलती को सही मान कर उसे भरते हैं, वह temporary ही होता है। हर दिन के लिए वह भरता नहीं है। सही-पन की स्वयं में रिक्तता सही-पन से ही भरने पर वह शाश्वत हो जाता है।

प्रश्न: सही-पन को सोचने का आधार क्या है?

उत्तर: सह-अस्तित्व ही सही-पन को सोचने का आधार है। दूसरा कोई आधार नहीं है। सह-अस्तित्व समझ आने से शनै-शनै पिछला उखड़ता है। समझदारी आने पर हम संकट और संकट-मुक्ति के दृष्टा बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में भ्रान्ति और जागृति के दृष्टा बन जाते हैं। यही भ्रांत-अभ्रांत अवस्था है। क्योंकि चाहत हमारी जागृति की ही है - इसलिए समझने के बाद जागृति का ही वरण होता है।

सहीपन की गरिमा गलती को सदा-सदा के लिए उन्मूलन करने के रूप में है। गलती से घबराने के रूप में नहीं है। समझदारी आने पर भ्रम-उन्मूलन होता ही है। इसके साथ अपने-पराये का दीवार समाप्त हो जाता है। मानव के साथ हम सर्व-शुभ के लिए सोचने योग्य हो जाते हैं। सर्व-शुभ के साथ जीने की आशा जब पैदा हो जाता है, तब हमारा उस सही-पन को लेकर हर कार्य फलवती होने लगता है। इससे हमारे समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने में मदद हो जाती है। हम सही-पन को लेकर जो प्रयास करते हैं, वे फलवती होते हैं - उससे हमारा उत्साह बनता है। उत्साह भी होना बहुत ज़रूरी है।

हमें सच्चाई चाहिए - यह चाहत समझ में आने के साथ जितना उत्साह होना है, होता ही है।
हमें सही पन समझ में आने के बाद प्रमाणित होने के लिए उत्साहित होना होता ही है।
सहीपन के प्रमाणित होने के क्रम में फलवती होने के आधार पर उत्साहित रहना होता ही है।

यह एक से एक जुडी हुई प्रभाव-शाली परिनितियाँ हैं। यह जो उत्साह है - वह नकारात्मक फलों से मनायी जाने वाली खुशियों से बिल्कुल भिन्न है। वह उत्साह सदा रहता नहीं है। ठंडा पड़ जाता है। गलती करके होने वाला उत्साह ईर्ष्या-द्वेष के साथ ही होता है - फलतः वह हमेशा रहता नहीं है।

सकारात्मक उत्सव निरंतरता को प्राप्त कर लेते हैं। सदा-सदा के लिए उत्सव! सदा-सदा हम सहीपन का काम कर पाते हैं - जिसका सही फल-परिणाम मिलता रहता है। स्वाभाविक रूप में!

हर मानव सहीपन को समझने योग्य है।
हर मानव सहीपन को प्रयोग करने योग्य है।
हर मानव सहीपन को प्रमाणित करने योग्य है।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)

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