चारों अवस्थाओं (पदार्थ-अवस्था, प्राण-अवस्था, जीव-अवस्था, और ज्ञान-अवस्था) का "उपयोग" विधि अलग है, "कार्य" विधि अलग है, "होने" का विधि अलग है। उपयोग विधि और कार्य विधि साक्षात्कार तक ही रहता है। "होने" की जो बात है - वह साक्षात्कार, बोध, अनुभव तक जाता है। "होने" का अनुभव - अर्थात अस्तित्व का अनुभव - मानव को ही होता है। मनुष्येत्तर संसार में उपयोग तक पहचान-निर्वाह तक रहता है।
इस पर आप खूब सोचना। अपने में सोचना पड़ेगा इसको। यह literally नहीं बैठता, यह अपने में सोचने से meaningfully ही बैठता है।
प्रश्न: आज की स्थिति में मुझे आशा, विचार, और इच्छा तक तो स्वयं में कुछ-कुछ समझ में आता है। साक्षात्कार, बोध, और अनुभव समझ में नहीं आता। अब क्या करें?
उत्तर: सिलसिले से चलेंगे तो सब पकड़ में आ जायेगा। हम हर दिन जीते ही हैं। जीने में observe करने की बात है। ध्यान देने की बात है। मनुष्य ही ध्यान दे सकता है। किताब ध्यान नहीं दे सकती। किताब से सुनने तक पहुँच जाते हैं। सुनने के बाद सोचने का जो भाग है - वह किताब नहीं है। "सोच" हर व्यक्ति में समाहित है। सोच-विचार के साथ जब हम जुड़ते हैं, तो किताब पीछे छूट गयी। सोच-विचार से हम उपयोगिता, सदुपयोगिता, और प्रयोजन-शीलता तक पहुँच गयी। उपकार के साथ ही हम प्रयोजनशील हैं - यह समझ में आता है।
अनुक्रम से पूरे चीज को हम देख लिया, समझ लिया, प्रमाणित करने योग्य हुए। इसका नाम है - अनुभव। "मैं प्रमाणित होने योग्य हूँ" - इस जगह में नहीं आए, मतलब अनुभव हुआ नहीं है।
समझने की तीन स्थितियां हैं - साक्षात्कार, बोध, और अनुभव। साक्षात्कार, बोध, और अनुभव के बीच कोई दूरी नहीं है, कोई अवधि नहीं है। यह तत्काल ही होता है। साक्षात्कार में पहुँचा तो वह तुंरत बोध और अनुभव होता है। पुरुषार्थ का ज़ोर साक्षात्कार तक पहुँचने के लिए है। साक्षात्कार के बाद बोध और अनुभव के लिए कोई पुरुषार्थ का ज़ोर नहीं है। जब कभी भी हम साक्षात्कार तक पहुँचते हैं, बोध और अनुभव तत्काल होता ही है।
साक्षात्कार तक पहुँचने में उतना ही समय लगता है, जितना हम confusion में रहते हैं। शब्द का जब तक पुट रहता है - तब तक साक्षात्कार नहीं हुआ। जैसे - पानी को आप देखते हो। पानी कौनसा शब्द है? पानी तो वस्तु ही है, जो अपनी वास्तविकता को व्यक्त करता है। उसी तरह हर वास्तविकता के साथ है। जीवन भी एक वास्तविकता है। जीवन कोई शब्द नहीं है। मानव एक वास्तविकता है। मानव-संबंधों के साथ जीना होता है। संबंधों के नाम से संबोधन होता है।
वास्तविकताओं के "होने" का साक्षात्कार होता है। वस्तुओं को पहचानने के लिए हम नाम देते हैं। नाम के मूल में जो वस्तु है - उसको पहचानने का काम ही अध्ययन है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
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Saturday, January 24, 2009
दर्शन का मतलब
दर्शन का मतलब - "मैं जैसा हूँ।" जीना ही दर्शन है।
जैसे मेरा जीना आपके लिए दर्शन है। आपका जीना मेरे लिए दर्शन है। मेरा आचरण मेरे लिए दर्शन है। मेरे आचरण को मैं जानता हूँ, मानता हूँ - यह मेरा मेरे लिए दर्शन है। मेरे आचरण को जो आप देखते हैं, मैं आपके लिए दृश्य हुआ - वह आपके लिए "प्रेरणा" के रूप में दर्शन है। इस प्रेरणा से आप अध्ययन करते हैं - जिससे यह दर्शन आप का स्वत्व बनता है। आपका जब यह स्वत्व बन जाता है तो यह आपका दर्शन हो गया। फलन में एक ही स्वरूप में दो व्यक्ति हो गए! इस तरह ज्ञान-अवस्था के multiply होने की theory बनी।
अनुभव मूलक विधि से जीवन की दसो क्रियाएं अनुभव के आकार में प्रकट होती हैं। शरीर को जीवन मानते तक जीवन की ४.५ क्रियाएं ही प्रकट होती हैं। जीवन की दसो क्रियाएं प्रकट होने से हम मानवीयता पूर्ण आचरण में पक्के हो गए। मानवीयता पूर्ण आचरण आपके लिए प्रेरणा का स्त्रोत हुआ। मानवीयता पूर्ण आचरण में जीता हुआ मैं अपने स्वरूप में एक दृश्य हूँ, जिस दृश्य को देख कर आप में दर्शन होता है - अर्थात मानवीयता पूर्ण आचरण की आप में स्वीकृति होती है। यह तदाकार तद्रूप विधि से होता है। जिसके फलन में आप स्वयं दर्शन-स्वरूप हो जाते हो।
हम माने या न माने - व्यापक वस्तु में हम भीगे हैं ही। तद्रूपता के प्रमाण रूप में हम हैं ही। होने के प्रमाण को हमें खोजना नहीं है, मात्र अनुभव करना है, प्रमाणित होना है। इसको अनुभव करने के लिए - अध्ययन, अध्ययन के फलन में बोध, वस्तु-बोध के बाद अनुभव, अनुभव के बाद अनुभव-प्रमाण बोध। इसी विधि से हम प्रमाणित होते हैं। यही विधि है इसका। यह तार्किक, व्यवहारिक, और तात्विक रूप में पूरा होता है - इसीलिये मनुष्य को स्वीकार होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
जैसे मेरा जीना आपके लिए दर्शन है। आपका जीना मेरे लिए दर्शन है। मेरा आचरण मेरे लिए दर्शन है। मेरे आचरण को मैं जानता हूँ, मानता हूँ - यह मेरा मेरे लिए दर्शन है। मेरे आचरण को जो आप देखते हैं, मैं आपके लिए दृश्य हुआ - वह आपके लिए "प्रेरणा" के रूप में दर्शन है। इस प्रेरणा से आप अध्ययन करते हैं - जिससे यह दर्शन आप का स्वत्व बनता है। आपका जब यह स्वत्व बन जाता है तो यह आपका दर्शन हो गया। फलन में एक ही स्वरूप में दो व्यक्ति हो गए! इस तरह ज्ञान-अवस्था के multiply होने की theory बनी।
अनुभव मूलक विधि से जीवन की दसो क्रियाएं अनुभव के आकार में प्रकट होती हैं। शरीर को जीवन मानते तक जीवन की ४.५ क्रियाएं ही प्रकट होती हैं। जीवन की दसो क्रियाएं प्रकट होने से हम मानवीयता पूर्ण आचरण में पक्के हो गए। मानवीयता पूर्ण आचरण आपके लिए प्रेरणा का स्त्रोत हुआ। मानवीयता पूर्ण आचरण में जीता हुआ मैं अपने स्वरूप में एक दृश्य हूँ, जिस दृश्य को देख कर आप में दर्शन होता है - अर्थात मानवीयता पूर्ण आचरण की आप में स्वीकृति होती है। यह तदाकार तद्रूप विधि से होता है। जिसके फलन में आप स्वयं दर्शन-स्वरूप हो जाते हो।
हम माने या न माने - व्यापक वस्तु में हम भीगे हैं ही। तद्रूपता के प्रमाण रूप में हम हैं ही। होने के प्रमाण को हमें खोजना नहीं है, मात्र अनुभव करना है, प्रमाणित होना है। इसको अनुभव करने के लिए - अध्ययन, अध्ययन के फलन में बोध, वस्तु-बोध के बाद अनुभव, अनुभव के बाद अनुभव-प्रमाण बोध। इसी विधि से हम प्रमाणित होते हैं। यही विधि है इसका। यह तार्किक, व्यवहारिक, और तात्विक रूप में पूरा होता है - इसीलिये मनुष्य को स्वीकार होता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
अध्ययन, वस्तु-बोध, अनुभव, प्रमाण
अध्ययन से हम साक्षात्कार पूर्वक वस्तु-बोध तक पहुँच जाते हैं। उसके बाद अनुभव होना भावी हो जाता है। फ़िर अनुभव को प्रमाणित करना हर व्यक्ति का दायित्व है।
प्रमाण अनुभव मूलक विधि से ही सम्भव है। यह प्रमाण आचरण के स्वरूप में ही होता है।
जब तक हम शब्द का उच्चारण करते हैं - हमको वस्तु-बोध हो गया, यह विश्वास नहीं होता। अनुभव होने का प्रमाण आचरण ही है।
अनुभव होने के बाद मानवीयता पूर्ण आचरण होता ही है। मानवीयता पूर्ण आचरण का स्वरूप है - मूल्य, चरित्र, और नैतिकता। आचरण के साथ समाधान, और समाधान के साथ समृद्धि होती है। आचरण से, या जीने से ही यह स्पष्ट होता है - वस्तु-बोध हुआ कि नहीं?
व्यवहार में यदि किसी से यदि मानवीयता पूर्ण आचरण मिलता है - तो उसमें शंका करने की क्या जरूरत है? मानवीयता पूर्ण आचरण, समाधान, समृद्धि को कोई व्यक्ति प्रमाणित करता है - मतलब वह जागृत है। जैसे - कल आप ही कहोगे कि "हम समझ गए"। अब उस पर मेरा अविश्वास करने की कोई बात ही नहीं है। आपके सत्यापन पर मेरा विश्वास करने के अलावा और कुछ नहीं करना बनता - जब तक आप के आचरण से उस सत्यापन के विपरीत बात का संकेत नहीं मिलता। आप जो कह रहे हो - आप के अनुसार वह ठीक है। यदि आगे चल कर उसमे कमी मिलती है तो उसका सुधार होना भावी हो जाता है. इस तरह कोई दबाव-खिंचाव है ही नहीं!
अनुभव पहले किसी को नहीं हुआ - यह मैंने नहीं कहा है।
अनुभव प्रमाणित नहीं हुआ, जागृति का परम्परा नहीं बना - यह जोर से कहा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
प्रमाण अनुभव मूलक विधि से ही सम्भव है। यह प्रमाण आचरण के स्वरूप में ही होता है।
जब तक हम शब्द का उच्चारण करते हैं - हमको वस्तु-बोध हो गया, यह विश्वास नहीं होता। अनुभव होने का प्रमाण आचरण ही है।
अनुभव होने के बाद मानवीयता पूर्ण आचरण होता ही है। मानवीयता पूर्ण आचरण का स्वरूप है - मूल्य, चरित्र, और नैतिकता। आचरण के साथ समाधान, और समाधान के साथ समृद्धि होती है। आचरण से, या जीने से ही यह स्पष्ट होता है - वस्तु-बोध हुआ कि नहीं?
व्यवहार में यदि किसी से यदि मानवीयता पूर्ण आचरण मिलता है - तो उसमें शंका करने की क्या जरूरत है? मानवीयता पूर्ण आचरण, समाधान, समृद्धि को कोई व्यक्ति प्रमाणित करता है - मतलब वह जागृत है। जैसे - कल आप ही कहोगे कि "हम समझ गए"। अब उस पर मेरा अविश्वास करने की कोई बात ही नहीं है। आपके सत्यापन पर मेरा विश्वास करने के अलावा और कुछ नहीं करना बनता - जब तक आप के आचरण से उस सत्यापन के विपरीत बात का संकेत नहीं मिलता। आप जो कह रहे हो - आप के अनुसार वह ठीक है। यदि आगे चल कर उसमे कमी मिलती है तो उसका सुधार होना भावी हो जाता है. इस तरह कोई दबाव-खिंचाव है ही नहीं!
अनुभव पहले किसी को नहीं हुआ - यह मैंने नहीं कहा है।
अनुभव प्रमाणित नहीं हुआ, जागृति का परम्परा नहीं बना - यह जोर से कहा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
चयन - आस्वादन
भ्रम में जीते हुए तक चयन पूर्वक आस्वादन करते हैं।
जागृति पूर्वक अनुभव-मूलक विधि से मूल्यों के आस्वादन पूर्वक चयन करते हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८)
जागृति पूर्वक अनुभव-मूलक विधि से मूल्यों के आस्वादन पूर्वक चयन करते हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८)
Friday, January 23, 2009
अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, प्रकाशन
अनुभव मूलक विधि से जीवन की दसो क्रियाओं में अनुभव प्रभावित हो जाता है। दसो क्रियाओं में अनुभव-प्रमाण ही प्रभावित होता है।
अनुभव मूलक विधि से:
आशा विधा से मूल्यों का पहचान और निर्वाह
विचार विधा से संबंधों का पहचान और निर्वाह
इच्छा विधा से समाधान का पहचान और निर्वाह
बोध विधा से सत्य-बोध का पहचान और निर्वाह
अनुभव विधा से सह-अस्तित्व रूप में जो परम-सत्य का अनुभव किए रहते हैं, उसका पहचान और निर्वाह
अनुभव मूलक विधि से मनुष्य जो व्यक्त होता है, उसका स्वरूप है - अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, और प्रकाशन।
अभिव्यक्ति - सत्य और समाधान के साथ व्यक्त होना अभिव्यक्ति है। बुद्धि में जो सत्य-बोध हुआ रहता है, उसको दूसरे व्यक्ति को बोध कराने के लिए जब समाधान के अर्थ में व्यक्त करते हैं - उसे अभिव्यक्ति कहते हैं। अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) के अर्थ में व्यक्त होना ही अभिव्यक्ति है। सर्वतोमुखी समाधान के रूप में ही सह-अस्तित्व आपको बोध होता है। समस्या के रूप में सह-अस्तित्व आपको बोध नहीं होता। यह मुख्य बात है। अनुभव मूलक विधि से जो सत्य-बोध हुआ, उसका प्रयोजन है - सर्वतोमुखी समाधान के रूप में प्रमाणित होना। अभिव्यक्ति का मतलब - सत्य का सर्वतोमुखी समाधान के स्वरूप में व्यक्त होना।
सम्प्रेश्ना - समाधान और न्याय के साथ व्यक्त होना सम्प्रेश्ना है। यह चित्त में होने वाले अनुभव-मूलक चिंतन का फलन है। यह अनुभव मूलक इच्छा के रूप में व्यक्त होता है। सम्प्रेश्ना संबंधों में समाधान को न्याय के अर्थ में जीने के रूप में होता है। सत्य और समाधान के जुड़ने के बाद न्याय होता ही है। सत्य और समाधान के जुड़े बिना न्याय का प्रश्न ही नहीं! सम्प्रेश्ना का मतलब - सत्य और समाधान का न्याय के स्वरूप में व्यक्त होना।
प्रकाशन - न्याय और समृद्धि के साथ व्यक्त होना प्रकाशन है। प्रकाशन में न्याय को समृद्धि के अर्थ में व्यक्त करते हैं। न्याय को प्रमाणित करना समृद्धि के साथ ही होता है। प्रकाशन का मतलब - न्याय, समाधान (धर्म), और सत्य का समृद्धि के साथ व्यक्त होना।
इस तरह अनुभव-मूलक विधि से एक ही व्यक्ति द्वारा न्याय, धर्म (समाधान), और सत्य व्यक्त होने लगता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
अनुभव मूलक विधि से:
आशा विधा से मूल्यों का पहचान और निर्वाह
विचार विधा से संबंधों का पहचान और निर्वाह
इच्छा विधा से समाधान का पहचान और निर्वाह
बोध विधा से सत्य-बोध का पहचान और निर्वाह
अनुभव विधा से सह-अस्तित्व रूप में जो परम-सत्य का अनुभव किए रहते हैं, उसका पहचान और निर्वाह
अनुभव मूलक विधि से मनुष्य जो व्यक्त होता है, उसका स्वरूप है - अभिव्यक्ति, सम्प्रेश्ना, और प्रकाशन।
अभिव्यक्ति - सत्य और समाधान के साथ व्यक्त होना अभिव्यक्ति है। बुद्धि में जो सत्य-बोध हुआ रहता है, उसको दूसरे व्यक्ति को बोध कराने के लिए जब समाधान के अर्थ में व्यक्त करते हैं - उसे अभिव्यक्ति कहते हैं। अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) के अर्थ में व्यक्त होना ही अभिव्यक्ति है। सर्वतोमुखी समाधान के रूप में ही सह-अस्तित्व आपको बोध होता है। समस्या के रूप में सह-अस्तित्व आपको बोध नहीं होता। यह मुख्य बात है। अनुभव मूलक विधि से जो सत्य-बोध हुआ, उसका प्रयोजन है - सर्वतोमुखी समाधान के रूप में प्रमाणित होना। अभिव्यक्ति का मतलब - सत्य का सर्वतोमुखी समाधान के स्वरूप में व्यक्त होना।
सम्प्रेश्ना - समाधान और न्याय के साथ व्यक्त होना सम्प्रेश्ना है। यह चित्त में होने वाले अनुभव-मूलक चिंतन का फलन है। यह अनुभव मूलक इच्छा के रूप में व्यक्त होता है। सम्प्रेश्ना संबंधों में समाधान को न्याय के अर्थ में जीने के रूप में होता है। सत्य और समाधान के जुड़ने के बाद न्याय होता ही है। सत्य और समाधान के जुड़े बिना न्याय का प्रश्न ही नहीं! सम्प्रेश्ना का मतलब - सत्य और समाधान का न्याय के स्वरूप में व्यक्त होना।
प्रकाशन - न्याय और समृद्धि के साथ व्यक्त होना प्रकाशन है। प्रकाशन में न्याय को समृद्धि के अर्थ में व्यक्त करते हैं। न्याय को प्रमाणित करना समृद्धि के साथ ही होता है। प्रकाशन का मतलब - न्याय, समाधान (धर्म), और सत्य का समृद्धि के साथ व्यक्त होना।
इस तरह अनुभव-मूलक विधि से एक ही व्यक्ति द्वारा न्याय, धर्म (समाधान), और सत्य व्यक्त होने लगता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक)
Tuesday, January 20, 2009
अध्ययन और गुरु की आवश्यकता
प्रश्न: अध्ययन क्या है? - इसे एक बार फ़िर से समझा दीजिये।
उत्तर: अनुभव की रोशनी में स्मरण पूर्वक किया गया क्रिया-कलाप अध्ययन है। अनुभव की रोशनी अध्ययन कराने वाले (गुरु) के पास रहता है। उस अनुभव की रोशनी में वास्तविकताओं से तदाकार होने की प्रवृत्ति वाला विद्यार्थी है। वस्तु के स्वरूप में तदाकार होने की प्रेरणा गुरु देता है। तदाकार होने की प्रवृत्ति सभी मनुष्य शरीर चलाने वाले जीवनों में समान है। शब्द के अर्थ में जो वस्तु है, उससे तदाकार होने की प्रवृत्ति कल्पनाशीलता के स्वरूप में सभी जीवनों में रखा है। उसी आधार पर अध्ययन होता है। वस्तु के स्वरूप में जब अध्ययन करने वाला जीवन तदाकार हो गया तो उसमें अनुभव होना स्वाभाविक हो जाता है। तदाकार होना ही अध्ययन है। उसको मानव परम्परा में प्रमाणित करना ही जागृति है।
प्रश्न: गुरु के सान्निध्य की आवश्यकता कब तक है?
उत्तर: जब तक समझ में न आ जाए, तब तक! जब तक अनुभव न हो जाए, तब तक! अनुभव होने के बाद सदा-सदा के लिए हम समान ही हैं, साथ ही हैं, एक ही अर्थ में हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
उत्तर: अनुभव की रोशनी में स्मरण पूर्वक किया गया क्रिया-कलाप अध्ययन है। अनुभव की रोशनी अध्ययन कराने वाले (गुरु) के पास रहता है। उस अनुभव की रोशनी में वास्तविकताओं से तदाकार होने की प्रवृत्ति वाला विद्यार्थी है। वस्तु के स्वरूप में तदाकार होने की प्रेरणा गुरु देता है। तदाकार होने की प्रवृत्ति सभी मनुष्य शरीर चलाने वाले जीवनों में समान है। शब्द के अर्थ में जो वस्तु है, उससे तदाकार होने की प्रवृत्ति कल्पनाशीलता के स्वरूप में सभी जीवनों में रखा है। उसी आधार पर अध्ययन होता है। वस्तु के स्वरूप में जब अध्ययन करने वाला जीवन तदाकार हो गया तो उसमें अनुभव होना स्वाभाविक हो जाता है। तदाकार होना ही अध्ययन है। उसको मानव परम्परा में प्रमाणित करना ही जागृति है।
प्रश्न: गुरु के सान्निध्य की आवश्यकता कब तक है?
उत्तर: जब तक समझ में न आ जाए, तब तक! जब तक अनुभव न हो जाए, तब तक! अनुभव होने के बाद सदा-सदा के लिए हम समान ही हैं, साथ ही हैं, एक ही अर्थ में हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
Sunday, January 18, 2009
आचरण ही नियम है
आचरण ही नियम है।
दो अंश का परमाणु भी आचरण करता है।
अणु भी आचरण करता है।
अणु रचित रचनायें भी आचरण करती हैं।
प्राण-कोशा भी आचरण करता है।
प्राण-कोशा से रचित रचना भी आचरण करता है।
गठन-तृप्त परमाणु (जीवन) भी आचरण करता है।
जीव (जीव-शरीर और जीवन का संयुक्त स्वरूप) वंश-अनुशंगियता विधि से आचरण करता है।
जीवन जागृत हो कर मानव परम्परा में मानवीयता पूर्ण आचरण करता है।
सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में इतना ही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
दो अंश का परमाणु भी आचरण करता है।
अणु भी आचरण करता है।
अणु रचित रचनायें भी आचरण करती हैं।
प्राण-कोशा भी आचरण करता है।
प्राण-कोशा से रचित रचना भी आचरण करता है।
गठन-तृप्त परमाणु (जीवन) भी आचरण करता है।
जीव (जीव-शरीर और जीवन का संयुक्त स्वरूप) वंश-अनुशंगियता विधि से आचरण करता है।
जीवन जागृत हो कर मानव परम्परा में मानवीयता पूर्ण आचरण करता है।
सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में इतना ही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
सुख की चाहत
जीवों में वंश के अनुसार जीवन शरीर का संचालन करता है। मनुष्य शरीर रचना का भ्रूण स्वरूप जीव-शरीर में तैयार हुआ। मनुष्य शरीर परम्परा में प्रकति-प्रदत्त विधि से जीवन द्वारा कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रकटन प्रावधानित हुआ। जीवों में चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, और मैथुन) को संवेदनाओं के आधार पर तय करने की बात तक रही। मानव में संवेदनाओं को राजी रखने के लिए चार विषयों को भोगने की बात आ गयी। मनुष्य के पास पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के साथ साथ ५ विभूतियाँ (रूप, बल, पद, धन, बुद्धि) भी होती हैं। इन पाँच विभूतियों में से चार को (रूप, बल, पद, और धन) मनुष्य उपयोग कर डाला।
जैसे भी मनुष्य अभी तक जिया - उसको तृप्ति नहीं मिली।
जीवों के जैसे वंश के अनुसार चार विषयों में जीने से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।
पाँच संवेदनाओं को राजी रखने के कार्यक्रमों के आधार पर जीने से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।
चार विभूतियों (रूप, पद, धन, बल) के आधार पर जीने के प्रयासों से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।
लेकिन तृप्ति मनुष्य को चाहिए!
प्रश्न: तृप्ति की चाहत मनुष्य में कहाँ से आ गया?
कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश मनुष्य में तृप्ति की चाहत है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता मनुष्य में नियति-प्रदत्त है। इसको मनुष्य मिटा नहीं सकता। मनुष्य जब जीव-चेतना के आधार पर ४ विषयों के अर्थ में जीने जाता है, तो उसे विषयों में तृप्ति (सुख) भासती है। विषयों में सुख भासता है, लेकिन सुख होता-रहता नहीं है। जैसे - खाना अच्छा लगता है, पर सदा खाते ही रहे - ऐसा होता नहीं है। अच्छे बिस्तर पर सोना अच्छा लगता है, पर सदा सोते ही रहे - ऐसा होता नहीं है। चारों विषयों के साथ ऐसा ही है।जीव-चेतना में सुख भासता है, सुख होता नहीं है।
प्रश्न: जीव-चेतना में जीते मनुष्य को सुख कैसे भासता है?
कल्पनाशीलता वश। कल्पनाशीलता में सुख की अपेक्षा है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के सन्निकर्ष में जीवन को अच्छा लगना - बुरा लगना, यह बना ही है। इनमें निरंतरता नहीं है, इसी लिए मनुष्य सुख के लिए सदा प्रयास रत रहता है।
क्रमशः
जैसे भी मनुष्य अभी तक जिया - उसको तृप्ति नहीं मिली।
जीवों के जैसे वंश के अनुसार चार विषयों में जीने से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।
पाँच संवेदनाओं को राजी रखने के कार्यक्रमों के आधार पर जीने से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।
चार विभूतियों (रूप, पद, धन, बल) के आधार पर जीने के प्रयासों से मनुष्य को तृप्ति नहीं मिली।
लेकिन तृप्ति मनुष्य को चाहिए!
प्रश्न: तृप्ति की चाहत मनुष्य में कहाँ से आ गया?
कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश मनुष्य में तृप्ति की चाहत है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता मनुष्य में नियति-प्रदत्त है। इसको मनुष्य मिटा नहीं सकता। मनुष्य जब जीव-चेतना के आधार पर ४ विषयों के अर्थ में जीने जाता है, तो उसे विषयों में तृप्ति (सुख) भासती है। विषयों में सुख भासता है, लेकिन सुख होता-रहता नहीं है। जैसे - खाना अच्छा लगता है, पर सदा खाते ही रहे - ऐसा होता नहीं है। अच्छे बिस्तर पर सोना अच्छा लगता है, पर सदा सोते ही रहे - ऐसा होता नहीं है। चारों विषयों के साथ ऐसा ही है।जीव-चेतना में सुख भासता है, सुख होता नहीं है।
प्रश्न: जीव-चेतना में जीते मनुष्य को सुख कैसे भासता है?
कल्पनाशीलता वश। कल्पनाशीलता में सुख की अपेक्षा है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों के सन्निकर्ष में जीवन को अच्छा लगना - बुरा लगना, यह बना ही है। इनमें निरंतरता नहीं है, इसी लिए मनुष्य सुख के लिए सदा प्रयास रत रहता है।
क्रमशः
Saturday, January 17, 2009
अस्तित्व में प्रकटन
प्रश्न: आपने कहा - पदार्थ-अवस्था से प्राण-अवस्था प्रकट हुई। यह कैसे हुआ? इसको समझाइये।
उत्तर: प्राण-अवस्था के प्रकट होने के मूल में पहले पानी का प्रकटन हुआ। पदार्थ-अवस्था की ही वस्तुएं ठोस, तरल, और विरल रूप में रही हैं। विरल रूप में रही वस्तुओं में से एक जलने वाला वस्तु रहा, एक जलाने वाला वस्तु रहा। ये दोनों वस्तुएं विरल रूप में रहते हुए कोई उपकार होती नहीं रही। उपकार होने का प्रवृत्ति सह-अस्तित्व में रखा हुआ है। आगे की प्रवृत्ति के लिए उपकार बना ही है। इसी आधार पर - ये दोनों वस्तुएं मिल कर प्यास बुझाने वाली वस्तु (पानी) के स्वरूप में आ गयी। पानी से पहले कोई प्राण-अवस्था नहीं है। पानी के बिना प्राण-अवस्था का प्रकटन होता नहीं है। यह बात यदि आप के समझ में आता है, तो समझो हम आधा दूर तक तैर गए! दो ऐसी वस्तुएं (hydrogen और oxygen) जो अकेले रहते हुए क्षति-ग्रस्त भी हो सकती थी, उस जगह से कैसे सह-अस्तित्व विधि से उपकारी हुई। पानी का धरती पर प्रकटन सह-अस्तित्व में नियति-क्रम का प्रमाण है।
पानी कहाँ खड़ा होगा? धरती पर ही! धरती पर पानी के खड़ा होने से धरती पर जो अम्ल और क्षार जो द्रव्य थे - वे पानी में आ गए। इन अम्ल और क्षार के संयोग से 'पुष्टि-तत्व' और 'रचना-तत्व' ये दोनों तैयार हुए। इन दोनों के आधार पर प्राण-सूत्र तैयार हुए। प्राण-सूत्र तैयार होने के आधार पर पहले वह प्राण-कोशा के स्वरूप में परिवर्तित हुई। इससे पहले पानी और धरती के संयोग में काई प्रकट हुई। पानी के साथ काई का होना स्वाभाविक है। काई प्रकट होने के बाद वह प्राण-सूत्र पुष्ट हुआ। प्राण-सूत्र पुष्ट होने के आधार पर उसमें रचना-विधि आ गयी। कैसे आ गयी? - नृत्य के आधार पर, खुशहाली के आधार पर। प्राण-सूत्रों में जो रचना विधि उभर आयी - उस (प्राण-अवस्था की) रचना को प्राण-कोशा पूरा किया। उसे पूरा करके जो खुशहाली आयी उससे (प्राण-सूत्रों में) दूसरे प्रकार की रचना-विधि आ गयी। उससे दूसरी और श्रेष्ठतर प्राण-अवस्था की रचना का प्रकटन हुआ। इस क्रम में अनेक प्राण-अवस्था की रचनाओं का धरती पर प्रकटन हुआ। इस ढंग से अंततोगत्वा मनुष्य रचना तक धरती पर प्रकट हो गयी।
"जो था" - वही प्रकट हुआ है। पदार्थ अवस्था ही यौगिक विधि से रसायन संसार के स्वरूप में प्रकट हुआ। प्राण-अवस्था में ही प्रजनन विधि आरम्भ हुई। यह विधि जीव-अवस्था में पुष्ट हुई। यही विधि मनुष्य संसार में भी है। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - इसलिए मनुष्य में इस विधि के दुरूपयोग, उपयोग, और सदुपयोग की सम्भावना है।
सह-अस्तित्व में जो कुछ भी प्रवृत्तियां हैं, सम्भावना है, प्रक्रिया है - उसको मनुष्य अनुकरण ही कर सकता है। सह-अस्तित्व में जो प्रवृत्तियां, सम्भावना, और प्रक्रिया नहीं है - उसको मनुष्य प्रकट कर ही नहीं सकता। यही मनुष्य के लिए नियति-विधि से जीने का उपाय है।
मनुष्य जीव-चेतना में अपराध-परम्परा में जीता है। मानव पद में न्याय परम्परा में जीता है। देव पद में समाधान-परम्परा में जीता है। दिव्य-पद में सत्य-परम्परा में जीता है। आपको कैसे जीना है - इसको आप को ही तय करना है। अपराध-परम्परा में ही आपको जीना है तो जीव-चेतना ठीक है। न्याय-परम्परा में जीना है तो मानव-चेतना के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
अक्टूबर २००५ में मसूरी में आयोजित जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन के बाद हुए बाबा के साथ आए हुए लोगों के संवाद पर आधारित
उत्तर: प्राण-अवस्था के प्रकट होने के मूल में पहले पानी का प्रकटन हुआ। पदार्थ-अवस्था की ही वस्तुएं ठोस, तरल, और विरल रूप में रही हैं। विरल रूप में रही वस्तुओं में से एक जलने वाला वस्तु रहा, एक जलाने वाला वस्तु रहा। ये दोनों वस्तुएं विरल रूप में रहते हुए कोई उपकार होती नहीं रही। उपकार होने का प्रवृत्ति सह-अस्तित्व में रखा हुआ है। आगे की प्रवृत्ति के लिए उपकार बना ही है। इसी आधार पर - ये दोनों वस्तुएं मिल कर प्यास बुझाने वाली वस्तु (पानी) के स्वरूप में आ गयी। पानी से पहले कोई प्राण-अवस्था नहीं है। पानी के बिना प्राण-अवस्था का प्रकटन होता नहीं है। यह बात यदि आप के समझ में आता है, तो समझो हम आधा दूर तक तैर गए! दो ऐसी वस्तुएं (hydrogen और oxygen) जो अकेले रहते हुए क्षति-ग्रस्त भी हो सकती थी, उस जगह से कैसे सह-अस्तित्व विधि से उपकारी हुई। पानी का धरती पर प्रकटन सह-अस्तित्व में नियति-क्रम का प्रमाण है।
पानी कहाँ खड़ा होगा? धरती पर ही! धरती पर पानी के खड़ा होने से धरती पर जो अम्ल और क्षार जो द्रव्य थे - वे पानी में आ गए। इन अम्ल और क्षार के संयोग से 'पुष्टि-तत्व' और 'रचना-तत्व' ये दोनों तैयार हुए। इन दोनों के आधार पर प्राण-सूत्र तैयार हुए। प्राण-सूत्र तैयार होने के आधार पर पहले वह प्राण-कोशा के स्वरूप में परिवर्तित हुई। इससे पहले पानी और धरती के संयोग में काई प्रकट हुई। पानी के साथ काई का होना स्वाभाविक है। काई प्रकट होने के बाद वह प्राण-सूत्र पुष्ट हुआ। प्राण-सूत्र पुष्ट होने के आधार पर उसमें रचना-विधि आ गयी। कैसे आ गयी? - नृत्य के आधार पर, खुशहाली के आधार पर। प्राण-सूत्रों में जो रचना विधि उभर आयी - उस (प्राण-अवस्था की) रचना को प्राण-कोशा पूरा किया। उसे पूरा करके जो खुशहाली आयी उससे (प्राण-सूत्रों में) दूसरे प्रकार की रचना-विधि आ गयी। उससे दूसरी और श्रेष्ठतर प्राण-अवस्था की रचना का प्रकटन हुआ। इस क्रम में अनेक प्राण-अवस्था की रचनाओं का धरती पर प्रकटन हुआ। इस ढंग से अंततोगत्वा मनुष्य रचना तक धरती पर प्रकट हो गयी।
"जो था" - वही प्रकट हुआ है। पदार्थ अवस्था ही यौगिक विधि से रसायन संसार के स्वरूप में प्रकट हुआ। प्राण-अवस्था में ही प्रजनन विधि आरम्भ हुई। यह विधि जीव-अवस्था में पुष्ट हुई। यही विधि मनुष्य संसार में भी है। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता है - इसलिए मनुष्य में इस विधि के दुरूपयोग, उपयोग, और सदुपयोग की सम्भावना है।
सह-अस्तित्व में जो कुछ भी प्रवृत्तियां हैं, सम्भावना है, प्रक्रिया है - उसको मनुष्य अनुकरण ही कर सकता है। सह-अस्तित्व में जो प्रवृत्तियां, सम्भावना, और प्रक्रिया नहीं है - उसको मनुष्य प्रकट कर ही नहीं सकता। यही मनुष्य के लिए नियति-विधि से जीने का उपाय है।
मनुष्य जीव-चेतना में अपराध-परम्परा में जीता है। मानव पद में न्याय परम्परा में जीता है। देव पद में समाधान-परम्परा में जीता है। दिव्य-पद में सत्य-परम्परा में जीता है। आपको कैसे जीना है - इसको आप को ही तय करना है। अपराध-परम्परा में ही आपको जीना है तो जीव-चेतना ठीक है। न्याय-परम्परा में जीना है तो मानव-चेतना के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
अक्टूबर २००५ में मसूरी में आयोजित जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन के बाद हुए बाबा के साथ आए हुए लोगों के संवाद पर आधारित
Monday, January 12, 2009
साम्य ऊर्जा - कार्य ऊर्जा
सत्ता (व्यापक) में संपृक्त प्रकृति ही अस्तित्व समग्र है।
प्रकृति में जो क्रियाशीलता है, उसके मूल में साम्य-ऊर्जा है। व्यापक ही साम्य ऊर्जा है। साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता से प्रकृति की इकाइयों में चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। चुम्बकीय बल सम्पन्नता से ही प्रकृति में क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता का स्वरूप है - श्रम, गति, परिणाम। क्रियाशीलता से जो ध्वनि, ताप, और विद्युत निष्पन्न होता है - वह कार्य ऊर्जा है। मूलतः परमाणु की क्रियाशीलता से ही ये (ध्वनि, ताप, विद्युत) निष्पन्न होते हैं। कार्य-ऊर्जा ही आचरण है।
चैतन्य-प्रकृति (जीवन) में भी साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता से चुम्बकीय-बल सम्पन्नता है - जिससे उसमें ध्वनि, ताप, और विद्युत रहता ही है। जीवन में यह ध्वनि, ताप, और विद्युत - आशा, विचार, और इच्छा के स्वरूप में प्रकट हो जाता है। इनके साथ चैतन्य में ज्ञान भी शुरू होता है। जीवन में जो "ज्ञान" है, वह है - पहले ४ विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) का ज्ञान, फ़िर ५ संवेदनाओ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) का ज्ञान, फ़िर जीव-चेतना का ज्ञान, फ़िर मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना का ज्ञान। भ्रमित-मानव की क्रिया-शीलता से जो कार्य-ऊर्जा (या आचरण) निष्पन्न होती है - वह जीव-चेतना का प्रकाशन है। जागृत-मानव की क्रियाशीलता से जो कार्य-ऊर्जा (या आचरण) निष्पन्न होती है - उसका स्वरूप है, नियम-नियंत्रण-संतुलन-न्याय-धर्म-सत्य। जागृत-मानव की कार्य-ऊर्जा का प्रकाशन ही मानवीयता पूर्ण आचरण है।
मनुष्य ने जड़-प्रकृति की कार्य-ऊर्जा के प्रकाशन (ध्वनि, ताप, और विद्युत) को develop करने की विधियों को कारीगारी विधि से पहचाना है। इसका सामरिक तंत्रों (युद्ध) में जो उपयोग किया - वह नकारात्मक हुआ। समाज-गति (दूर-गमन, दूर-दर्शन, और दूर-श्रवण) में जो उपयोग किया - वह सकारात्मक हुआ।
कार्य-ऊर्जा ही आचरण है। आचरण ही नियम है। नियम सभी जगह में आचरण के स्वरूप में व्यापक है। आचरण त्व सहित व्यवस्था के स्वरूप में होता है। यह प्रकृति की हर जड़ और चैतन्य इकाई के साथ है।
साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता से चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। चुम्बकीय बल सम्पन्नता से कार्य ऊर्जा है। ये दो links न भौतिक-वादियों को समझ में आए, न आदर्श-वादियों को समझ में आए। भौतिक-वादियों ने मान लिया - कार्य-ऊर्जा से चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। जबकि वास्तविकता इसका उल्टा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
प्रकृति में जो क्रियाशीलता है, उसके मूल में साम्य-ऊर्जा है। व्यापक ही साम्य ऊर्जा है। साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता से प्रकृति की इकाइयों में चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। चुम्बकीय बल सम्पन्नता से ही प्रकृति में क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता का स्वरूप है - श्रम, गति, परिणाम। क्रियाशीलता से जो ध्वनि, ताप, और विद्युत निष्पन्न होता है - वह कार्य ऊर्जा है। मूलतः परमाणु की क्रियाशीलता से ही ये (ध्वनि, ताप, विद्युत) निष्पन्न होते हैं। कार्य-ऊर्जा ही आचरण है।
चैतन्य-प्रकृति (जीवन) में भी साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता से चुम्बकीय-बल सम्पन्नता है - जिससे उसमें ध्वनि, ताप, और विद्युत रहता ही है। जीवन में यह ध्वनि, ताप, और विद्युत - आशा, विचार, और इच्छा के स्वरूप में प्रकट हो जाता है। इनके साथ चैतन्य में ज्ञान भी शुरू होता है। जीवन में जो "ज्ञान" है, वह है - पहले ४ विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) का ज्ञान, फ़िर ५ संवेदनाओ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) का ज्ञान, फ़िर जीव-चेतना का ज्ञान, फ़िर मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना का ज्ञान। भ्रमित-मानव की क्रिया-शीलता से जो कार्य-ऊर्जा (या आचरण) निष्पन्न होती है - वह जीव-चेतना का प्रकाशन है। जागृत-मानव की क्रियाशीलता से जो कार्य-ऊर्जा (या आचरण) निष्पन्न होती है - उसका स्वरूप है, नियम-नियंत्रण-संतुलन-न्याय-धर्म-सत्य। जागृत-मानव की कार्य-ऊर्जा का प्रकाशन ही मानवीयता पूर्ण आचरण है।
मनुष्य ने जड़-प्रकृति की कार्य-ऊर्जा के प्रकाशन (ध्वनि, ताप, और विद्युत) को develop करने की विधियों को कारीगारी विधि से पहचाना है। इसका सामरिक तंत्रों (युद्ध) में जो उपयोग किया - वह नकारात्मक हुआ। समाज-गति (दूर-गमन, दूर-दर्शन, और दूर-श्रवण) में जो उपयोग किया - वह सकारात्मक हुआ।
कार्य-ऊर्जा ही आचरण है। आचरण ही नियम है। नियम सभी जगह में आचरण के स्वरूप में व्यापक है। आचरण त्व सहित व्यवस्था के स्वरूप में होता है। यह प्रकृति की हर जड़ और चैतन्य इकाई के साथ है।
साम्य-ऊर्जा सम्पन्नता से चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। चुम्बकीय बल सम्पन्नता से कार्य ऊर्जा है। ये दो links न भौतिक-वादियों को समझ में आए, न आदर्श-वादियों को समझ में आए। भौतिक-वादियों ने मान लिया - कार्य-ऊर्जा से चुम्बकीय बल सम्पन्नता है। जबकि वास्तविकता इसका उल्टा है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
एक संकल्प
१० जनवरी, २००९ प्रातः १०:३० बजे श्रीमती नागरत्ना देवी, (बाबा श्री नागराज शर्मा की धर्म-पत्नी) जिनको सभी माता जी के नाम से जानते हैं का देहांत रायपुर में हुआ। उनका अन्तिम संस्कार ११ जनवरी को अमरकंटक में हुआ।
माता जी ने पूरी शरीर यात्रा बाबा के अनुसंधान को सफल बनाने के लिए समर्पित की। अपने इस संकल्प में वे पूरी तरह सफल हुई।
बाबा के साथ अगस्त २००६ में एक संवाद में उन्होंने बताया था:
"यहाँ अमरकंटक आने से पहले मैं हर दिन ८ घंटे काम करके एक हज़ार बजने वाला रुपया प्राप्त करता था। आज के दिन में उसका कीमत एक लाख रुपया तो होगा। अपने गुरु की आज्ञा लेकर मैंने समाधि के लिए फ़िर जाने का निश्चय किया। मेरी धर्म-पत्नी ने मेरे साथ चलने के लिए अपना मत दिया। मैंने अपनी श्रीमती से पूछा - यह बजने वाला पैसा जंगल में मिलेगा नहीं। मैं जंगल में कोई कंद-मूल लेने गया, और मुझे कोई बाघ खा गया - तो तुम क्या करोगी जंगल में मेरे साथ जा कर? वे बोली - तुम्हारा गणित ठीक नहीं है! तुमको पहले बाघ खायेगा, या मुझको खायेगा - कैसे बताओगे? कौनसे नक्षत्र से बताओगे? कौनसे विधि से बताओगे? उसके बाद मैंने कहा - अब जो होगा, सो होगा! माता जी की वह बात ने मुझको वहाँ से यहाँ तक पहुंचाया। माता जी यदि नहीं होते - मेरा साधना पूरा होता - मैं विश्वास नहीं करता।" - बाबा श्री नागराज शर्मा
१९७० के दशक में जब अनुसंधान सफल हुआ तो बाबा ने सर्व-प्रथम उन्ही को अपनी बात समझाने के लिए शुरुआत की। उसके उत्तर में उन्होंने कहा था - "आप लोक कल्याण करते रहो - मैं सेवा करती रहूँगी।" बाबा उनके इस निश्चय का सम्मान करते हुए आगे चलते रहे। उसके बाद से आज तक बाबा के पास आने वाले असंख्य आगंतुकों, जिज्ञासुओं की माता जी सेवा करती रही।
माता जी के प्रति हम सभी की कृतज्ञता सदा-सदा बनी रहेगी। उनके प्रति हम सभी अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
माता जी ने पूरी शरीर यात्रा बाबा के अनुसंधान को सफल बनाने के लिए समर्पित की। अपने इस संकल्प में वे पूरी तरह सफल हुई।
बाबा के साथ अगस्त २००६ में एक संवाद में उन्होंने बताया था:
"यहाँ अमरकंटक आने से पहले मैं हर दिन ८ घंटे काम करके एक हज़ार बजने वाला रुपया प्राप्त करता था। आज के दिन में उसका कीमत एक लाख रुपया तो होगा। अपने गुरु की आज्ञा लेकर मैंने समाधि के लिए फ़िर जाने का निश्चय किया। मेरी धर्म-पत्नी ने मेरे साथ चलने के लिए अपना मत दिया। मैंने अपनी श्रीमती से पूछा - यह बजने वाला पैसा जंगल में मिलेगा नहीं। मैं जंगल में कोई कंद-मूल लेने गया, और मुझे कोई बाघ खा गया - तो तुम क्या करोगी जंगल में मेरे साथ जा कर? वे बोली - तुम्हारा गणित ठीक नहीं है! तुमको पहले बाघ खायेगा, या मुझको खायेगा - कैसे बताओगे? कौनसे नक्षत्र से बताओगे? कौनसे विधि से बताओगे? उसके बाद मैंने कहा - अब जो होगा, सो होगा! माता जी की वह बात ने मुझको वहाँ से यहाँ तक पहुंचाया। माता जी यदि नहीं होते - मेरा साधना पूरा होता - मैं विश्वास नहीं करता।" - बाबा श्री नागराज शर्मा
१९७० के दशक में जब अनुसंधान सफल हुआ तो बाबा ने सर्व-प्रथम उन्ही को अपनी बात समझाने के लिए शुरुआत की। उसके उत्तर में उन्होंने कहा था - "आप लोक कल्याण करते रहो - मैं सेवा करती रहूँगी।" बाबा उनके इस निश्चय का सम्मान करते हुए आगे चलते रहे। उसके बाद से आज तक बाबा के पास आने वाले असंख्य आगंतुकों, जिज्ञासुओं की माता जी सेवा करती रही।
माता जी के प्रति हम सभी की कृतज्ञता सदा-सदा बनी रहेगी। उनके प्रति हम सभी अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
Thursday, January 8, 2009
देखना और समझना
जीवन समझता है। जीवंत-शरीर के साथ देखना बनता है।
जीवन जब समझता है - तभी देखना पूरा होता है।
भौतिकवाद ने "देखने" मात्र को पर्याप्त मान लेने से यंत्र को प्रमाण का आधार मान लिया। भौतिकवाद इस बात को नहीं पहचाना कि जीवन जब समझता है, तभी देखना पूरा होता है। यंत्र मनुष्य से ज्यादा सूक्ष्म देख सकता है, यह मान कर भौतिकवाद ने मनुष्य को प्रमाण का आधार नहीं माना। यंत्र को प्रमाण मान लिया। मनुष्य को छोड़ दिया। यह बात भौतिकवाद (और प्रचलित विज्ञान) के भटकाव का मूल कारण है। यह मुख्य बात है। इसको आपको समझने की ज़रूरत है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
जीवन जब समझता है - तभी देखना पूरा होता है।
भौतिकवाद ने "देखने" मात्र को पर्याप्त मान लेने से यंत्र को प्रमाण का आधार मान लिया। भौतिकवाद इस बात को नहीं पहचाना कि जीवन जब समझता है, तभी देखना पूरा होता है। यंत्र मनुष्य से ज्यादा सूक्ष्म देख सकता है, यह मान कर भौतिकवाद ने मनुष्य को प्रमाण का आधार नहीं माना। यंत्र को प्रमाण मान लिया। मनुष्य को छोड़ दिया। यह बात भौतिकवाद (और प्रचलित विज्ञान) के भटकाव का मूल कारण है। यह मुख्य बात है। इसको आपको समझने की ज़रूरत है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
Wednesday, January 7, 2009
समाधान और समृद्धि
कल्पनाशीलता के आधार पर ही मनुष्य ने कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया। कर्म-स्वतंत्रता को आजीविका का आधार बनाया। आजीविका के दो तरीके बने - श्रम-जीवी और बुद्धि-जीवी। श्रम-जीवी में हाथ-पैर चला कर पैसा पैदा करने की बात रही। बुद्धि-जीवी में बिना हाथ-पैर चलाये (भाषा के आधार पर) पैसा पैदा करने की बात रही। "बुद्धि-जीवी" के पास कोई बोध रहा नहीं! "श्रम-जीवी" के पास भी बोध नहीं रहा। समाधान के अभाव में दोनों तरह से आजीविका अर्जित करने के तरीके समृद्धि तक नहीं पहुंचे।
समाधान सभी के लिए समान है। सह-अस्तित्व में अनुभव-संपन्नता ही समाधान है। समृद्धि का आकार सभी के लिए समान नहीं है। समृद्धि का मतलब सभी के लिए एक ही है। जैसे एक आदमी २ रोटी खा कर तृप्त हो जाता है, दूसरे को ४ रोटी से ही तृप्ति है। समृद्धि का मतलब है - परिवार में निश्चित आवश्यकता से अधिक उत्पादन करके वस्तु से तृप्त हो जाना। समृद्धि का आकार परिवार में ही तय होता है।
मनुष्य ने अपनी कल्पना-शीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति सुविधा-संग्रह में खोजा - वह सफल नहीं हुआ। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिन्दु किसी भी आदमी को नहीं मिला। दूसरे कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु खोजा भक्ति-विरक्ति में - वह भी सफल नहीं हुआ। भक्ति-विरक्ति रहस्य में फंस गया, व्यवहारिक नहीं हुआ, परम्परा में प्रमाणित नहीं हुआ।
मनुष्य के पास ५ विभूतियाँ हैं - जिनके आधार पर मनुष्य ने जीने का प्रयास किया। वे हैं - रूप, बल, धन, पद, और बुद्धि। पहले आदमी "रूप" (रंग और नस्ल) के आधार पर जिया। उसके बाद "बल" के आधार पर जिया - जैसे जंगल में जानवर जीते हैं। उसके बाद "धन" और "पद" के आधार पर जिया। इन चारों के आधार पर जीने से तृप्ति-बिन्दु मानव को हाथ नहीं लगा। अब केवल "बुद्धि" बची। बुद्धि के आधार पर जीने के लिए बोध-संपन्न होना आवश्यक है। यह शिक्षा-संस्कार (अध्ययन) पूर्वक ही होता है। गुणात्मक परिवर्तन विधि से ही संस्कार की स्वीकृति होती है। बुद्धि के आधार पर जीने जाते हैं तो पहले न्याय ही प्रमाणित होता है। फ़िर धर्म प्रमाणित होता है। फ़िर सत्य प्रमाणित होता है। न्याय-धर्म-सत्य मानव-परम्परा में ही प्रमाणित होता है।
मध्यस्थ-दर्शन मनुष्य के बुद्धि के आधार पर जीने के लिए अध्ययन का प्रस्ताव है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
समाधान सभी के लिए समान है। सह-अस्तित्व में अनुभव-संपन्नता ही समाधान है। समृद्धि का आकार सभी के लिए समान नहीं है। समृद्धि का मतलब सभी के लिए एक ही है। जैसे एक आदमी २ रोटी खा कर तृप्त हो जाता है, दूसरे को ४ रोटी से ही तृप्ति है। समृद्धि का मतलब है - परिवार में निश्चित आवश्यकता से अधिक उत्पादन करके वस्तु से तृप्त हो जाना। समृद्धि का आकार परिवार में ही तय होता है।
मनुष्य ने अपनी कल्पना-शीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति सुविधा-संग्रह में खोजा - वह सफल नहीं हुआ। सुविधा-संग्रह का तृप्ति-बिन्दु किसी भी आदमी को नहीं मिला। दूसरे कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति-बिन्दु खोजा भक्ति-विरक्ति में - वह भी सफल नहीं हुआ। भक्ति-विरक्ति रहस्य में फंस गया, व्यवहारिक नहीं हुआ, परम्परा में प्रमाणित नहीं हुआ।
मनुष्य के पास ५ विभूतियाँ हैं - जिनके आधार पर मनुष्य ने जीने का प्रयास किया। वे हैं - रूप, बल, धन, पद, और बुद्धि। पहले आदमी "रूप" (रंग और नस्ल) के आधार पर जिया। उसके बाद "बल" के आधार पर जिया - जैसे जंगल में जानवर जीते हैं। उसके बाद "धन" और "पद" के आधार पर जिया। इन चारों के आधार पर जीने से तृप्ति-बिन्दु मानव को हाथ नहीं लगा। अब केवल "बुद्धि" बची। बुद्धि के आधार पर जीने के लिए बोध-संपन्न होना आवश्यक है। यह शिक्षा-संस्कार (अध्ययन) पूर्वक ही होता है। गुणात्मक परिवर्तन विधि से ही संस्कार की स्वीकृति होती है। बुद्धि के आधार पर जीने जाते हैं तो पहले न्याय ही प्रमाणित होता है। फ़िर धर्म प्रमाणित होता है। फ़िर सत्य प्रमाणित होता है। न्याय-धर्म-सत्य मानव-परम्परा में ही प्रमाणित होता है।
मध्यस्थ-दर्शन मनुष्य के बुद्धि के आधार पर जीने के लिए अध्ययन का प्रस्ताव है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
जीवन और जीना
नियति विधि से अस्तित्व में गठन-पूर्णता घटित हुआ। जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है - जिसमें मध्य में एक परमाणु-अंश और चार परिवेशों में २, ८, १८, ३२ परमाणु-अंश होते हैं। इस तरह जीवन ६१ परमाणु-अंशों का निश्चित गठन है। गठन-पूर्ण परमाणु (जीवन) में अपने में और अंशों को समाने तथा अपने में से अंशों को बहिर्गत करने की बात नहीं रहती। इसी को परिणाम का अमरत्व कहा है।
जीवन परमाणु अणु-बंधन और भार-बंधन से मुक्त, तथा आशा-बंधन से युक्त होता है। जीवन-परमाणु जीने की आशा से संपन्न होता है। आशा-बंधन से युक्त होने का मतलब - हर जीवन अपने जीने की आशा के अनुरूप एक कार्य-गति पथ बनाने योग्य होता है। कार्य-गति पथ अपने आप में एक आकार होता है - जैसे बकरी का आकार, बाघ का आकार, मनुष्य का आकार। सभी जीवन परमाणुओं का कार्य-गति पथ एक जैसा नहीं होता। गठन-पूर्णता होते ही जीवन एक कार्य-गति पथ सहित ही होता है। हर जीवन एक कार्य-गति पथ के साथ ही होता है।
नियति-क्रम विधि से ही विविध जीवों की शरीर रचनाओं का प्रकटन हुआ। जिस आकार की शरीर-रचना है, उसी कार्य-गति पथ वाला जीवन उस शरीर-रचना को जीवंत बनाने में प्रवृत्त होता है। जीवन में तदाकार-तद्रूप होने की व्यवस्था है । जिस जीव के गर्भ में रचित शरीर को जीवन चलाना शुरू करता है, उस जीव को चलाने वाले जीवन के कार्य-क्रम को वह तदाकार-तद्रूप में स्वीकार लेता है। इसी आधार पर बाघ का बच्चा बाघ जैसा ही आचरण करता है। बिल्ली का बच्चा बिल्ली जैसा ही आचरण करता है।
प्रश्न: क्या जीवन का कार्य-गति पथ बदलता भी है?
सामान्यतः वही कार्य-गति पथ ही रहता है। जैसे- बाघ के आकार के कार्य-गति पथ वाले जीवन बारम्बार बाघ का शरीर ही चलाता है। गुणात्मक परिवर्तन विधि से कार्य-गति पथ का बदलना होता है। जैसे - बाघ का मनुष्य से संसर्ग होने पर, बाघ-शरीर को चलाने वाला जीवन यदि शरीर छोड़ते समय मनुष्य-आकार को स्वीकार ले, तब उस जीवन में इस गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बन जाती है। मरते समय जीवन सुरूप-कुरूप, सुख-दुःख को स्वीकारते हुए शरीर छोड़ता है। मरते समय यदि जीवन में मनुष्याकार की स्वीकृति बनती है, तो उसका कार्य-गति पथ बदल जाता है।
प्रश्न: क्या जीवन की मनोगति अलग-अलग जीवों में अलग-अलग है?
जीवन में अपने स्वत्व के रूप में मनोगति एक ही है। शरीर-रचना के अनुसार उसके व्यक्त होने में अन्तर हो जाता है।
जीवों में जीवन वंश-अनुशंगियता विधि से व्यक्त होता है। जीवन द्वारा जीव-शरीर को जीवंत बनाने पर संवेदनाएं प्रकट होती हैं। जीव-शरीर में जो संवेदनाएं प्रकट होती हैं, वे चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) की सीमा में समीक्षित हो जाती हैं। जीव संसार में जीवन वंश के अनुसार, उस शरीर की आवश्यकता के अनुसार काम करता है।
नियति-क्रम विधि से (प्राण-सूत्रों में निहित रचना विधि के उत्तरोत्तर विकास से) मनुष्य-शरीर का प्रकटन हुआ। मनुष्य-शरीर के साथ जीवन में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने की बात आ गयी। मनुष्य-शरीर में समृद्धि पूर्ण मेधस होने से जीवन अपनी कल्पनाशीलता-कर्म-स्वतंत्रता को प्रकट करने योग्य हुआ। ज्ञान का शुरुआत कल्पनाशीलता है। उससे पहले जीवों में चार विषयों का ज्ञान प्रमाणित हो चुका। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश संवेदनाओं को राजी रखने के लिए काम करने की बात शुरू हुई।
मनुष्य-शरीर रचना के आधार पर ही जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त करता है। मनुष्य शरीर रचना से पूर्व जीव-शरीरों द्वारा जीवन कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त नहीं करता। जीवों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त करने का कोई प्रावधान भी नहीं है। यह मूल बात है - इसको आपको पहचानने की ज़रूरत है।
प्रश्न: क्या जीव-शरीरों को चलाने वाले जीवनों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को प्रकट करने की 'चाहत' रहती है?
नहीं। 'चाहत' की शुरुआत मनुष्य से ही है। बकरी के शरीर को चलाने वाले जीवन में बकरी के शरीर को चलाने से अधिक की बात नहीं होती, न उससे कम की बात होती है। वंश-अनुशंगियता विधि से जीव-शरीर को चलाते जीवन में वंश अनुरूप कार्य-कलाप करने से भिन्न करने की कोई व्यवस्था ही नहीं है।
भौतिकवाद जीव-संसार और मनुष्य-संसार को जोड़ना चाहता है। भौतिकवाद (प्रचलित विज्ञान) मनुष्य को जीव ही मानता है। जबकि वास्तविकता उससे भिन्न है।
जीवन जिस जीव-शरीर को चलाता है, वह जीव-शरीर भी सप्त धातुओं से तैयार होता है, तथा उनमें समृद्ध मेधस रहता है। मनुष्य में मेधस समृद्धि-पूर्ण होता है - तथा समृद्धि-पूर्ण मेधस के अनुरूप बाकी सभी इन्द्रियां भी विकसित हैं। "समृद्धि-पूर्ण" मेधस इसलिए नाम दिया - क्योंकि इसके द्वारा जीवन में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हो सकती है। मनुष्य से पहले जीवों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने का कोई प्रावधान ही नहीं है। इसके प्रमाण में - कोई जीव-जानवर अपना फसल बोता नहीं है, अपना यान-वाहन तैयार करता नहीं है, अपने आहार को तैयार करता नहीं है। मनुष्य जबकि यह सब करता है - अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर। इसको चाहे आप नकार लो, चाहे सकार लो! फ़िर भी ऐसा ही है।
नकारने और सकारने की बात मनुष्य के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की बदौलत ही है। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के प्रकट होने के साथ उसकी तृप्ति की तलाश या अन्वेषण भी शुरू हो जाती है। इन प्रयासों के फलन में सुखी होने और दुखी होने के परीक्षण करने की भी बात आ गयी। सुखी होना और दुखी होना - यह मनुष्य के साथ ही बना है।
सुख और दुःख को जीव-जानवरों के साथ जोड़ कर हम कभी पार नहीं पायेंगे! जीवों में सुख-दुःख की पहचान नहीं होती। जीव केवल वंश-अनुशंगियता पूर्वक विषयों की सीमा में जीते हैं।
मानव-इतिहास में अभी तक मनुष्य कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सहित पहले "वंश" के अनुसार जिया। उसके बाद "कर्म" के अनुसार जिया। उसके बाद कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु के आधार पर जीता है। ये तीन सीडियां हैं। दो सीडियां मनुष्य पार कर चुका है। तीसरी सीड़ी - तृप्ति-बिन्दु के आधार पर जीने के लिए यह (मध्यस्थ-दर्शन) प्रस्ताव अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। ज्ञान (सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान) पूर्वक जीने में ही सुख पूर्वक या तृप्ति-पूर्वक जीने की बात बनती है। इस तरह ज्ञान पूर्वक (अनुभव के बाद) मनुष्य की ४ विषयों में प्रसक्ति ५ संवेदनाओं में विलय हो जाती है, और पांचो संवेदनाएं (संवेदनशीलता) संज्ञानीयता में नियंत्रित हो जाती है।
संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं, यही मानव-चेतना है। यह एक सिद्धांत है।
सुख का प्रमाण ज्ञान के अनुसार मनुष्य के जीने में ही आता है। ऐसे जीने का design है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। यही कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु है ।
कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु है - समाधान।
कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु है - समृद्धि।
उसका प्रमाण मैंने स्वयं को घोषित किया है। वह यदि आप अध्ययन पूर्वक पा लेते हो तो वह multiply होने लगता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
जीवन परमाणु अणु-बंधन और भार-बंधन से मुक्त, तथा आशा-बंधन से युक्त होता है। जीवन-परमाणु जीने की आशा से संपन्न होता है। आशा-बंधन से युक्त होने का मतलब - हर जीवन अपने जीने की आशा के अनुरूप एक कार्य-गति पथ बनाने योग्य होता है। कार्य-गति पथ अपने आप में एक आकार होता है - जैसे बकरी का आकार, बाघ का आकार, मनुष्य का आकार। सभी जीवन परमाणुओं का कार्य-गति पथ एक जैसा नहीं होता। गठन-पूर्णता होते ही जीवन एक कार्य-गति पथ सहित ही होता है। हर जीवन एक कार्य-गति पथ के साथ ही होता है।
नियति-क्रम विधि से ही विविध जीवों की शरीर रचनाओं का प्रकटन हुआ। जिस आकार की शरीर-रचना है, उसी कार्य-गति पथ वाला जीवन उस शरीर-रचना को जीवंत बनाने में प्रवृत्त होता है। जीवन में तदाकार-तद्रूप होने की व्यवस्था है । जिस जीव के गर्भ में रचित शरीर को जीवन चलाना शुरू करता है, उस जीव को चलाने वाले जीवन के कार्य-क्रम को वह तदाकार-तद्रूप में स्वीकार लेता है। इसी आधार पर बाघ का बच्चा बाघ जैसा ही आचरण करता है। बिल्ली का बच्चा बिल्ली जैसा ही आचरण करता है।
प्रश्न: क्या जीवन का कार्य-गति पथ बदलता भी है?
सामान्यतः वही कार्य-गति पथ ही रहता है। जैसे- बाघ के आकार के कार्य-गति पथ वाले जीवन बारम्बार बाघ का शरीर ही चलाता है। गुणात्मक परिवर्तन विधि से कार्य-गति पथ का बदलना होता है। जैसे - बाघ का मनुष्य से संसर्ग होने पर, बाघ-शरीर को चलाने वाला जीवन यदि शरीर छोड़ते समय मनुष्य-आकार को स्वीकार ले, तब उस जीवन में इस गुणात्मक परिवर्तन की आवश्यकता बन जाती है। मरते समय जीवन सुरूप-कुरूप, सुख-दुःख को स्वीकारते हुए शरीर छोड़ता है। मरते समय यदि जीवन में मनुष्याकार की स्वीकृति बनती है, तो उसका कार्य-गति पथ बदल जाता है।
प्रश्न: क्या जीवन की मनोगति अलग-अलग जीवों में अलग-अलग है?
जीवन में अपने स्वत्व के रूप में मनोगति एक ही है। शरीर-रचना के अनुसार उसके व्यक्त होने में अन्तर हो जाता है।
जीवों में जीवन वंश-अनुशंगियता विधि से व्यक्त होता है। जीवन द्वारा जीव-शरीर को जीवंत बनाने पर संवेदनाएं प्रकट होती हैं। जीव-शरीर में जो संवेदनाएं प्रकट होती हैं, वे चार विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) की सीमा में समीक्षित हो जाती हैं। जीव संसार में जीवन वंश के अनुसार, उस शरीर की आवश्यकता के अनुसार काम करता है।
नियति-क्रम विधि से (प्राण-सूत्रों में निहित रचना विधि के उत्तरोत्तर विकास से) मनुष्य-शरीर का प्रकटन हुआ। मनुष्य-शरीर के साथ जीवन में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने की बात आ गयी। मनुष्य-शरीर में समृद्धि पूर्ण मेधस होने से जीवन अपनी कल्पनाशीलता-कर्म-स्वतंत्रता को प्रकट करने योग्य हुआ। ज्ञान का शुरुआत कल्पनाशीलता है। उससे पहले जीवों में चार विषयों का ज्ञान प्रमाणित हो चुका। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता वश संवेदनाओं को राजी रखने के लिए काम करने की बात शुरू हुई।
मनुष्य-शरीर रचना के आधार पर ही जीवन अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त करता है। मनुष्य शरीर रचना से पूर्व जीव-शरीरों द्वारा जीवन कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त नहीं करता। जीवों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त करने का कोई प्रावधान भी नहीं है। यह मूल बात है - इसको आपको पहचानने की ज़रूरत है।
प्रश्न: क्या जीव-शरीरों को चलाने वाले जीवनों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता को प्रकट करने की 'चाहत' रहती है?
नहीं। 'चाहत' की शुरुआत मनुष्य से ही है। बकरी के शरीर को चलाने वाले जीवन में बकरी के शरीर को चलाने से अधिक की बात नहीं होती, न उससे कम की बात होती है। वंश-अनुशंगियता विधि से जीव-शरीर को चलाते जीवन में वंश अनुरूप कार्य-कलाप करने से भिन्न करने की कोई व्यवस्था ही नहीं है।
भौतिकवाद जीव-संसार और मनुष्य-संसार को जोड़ना चाहता है। भौतिकवाद (प्रचलित विज्ञान) मनुष्य को जीव ही मानता है। जबकि वास्तविकता उससे भिन्न है।
जीवन जिस जीव-शरीर को चलाता है, वह जीव-शरीर भी सप्त धातुओं से तैयार होता है, तथा उनमें समृद्ध मेधस रहता है। मनुष्य में मेधस समृद्धि-पूर्ण होता है - तथा समृद्धि-पूर्ण मेधस के अनुरूप बाकी सभी इन्द्रियां भी विकसित हैं। "समृद्धि-पूर्ण" मेधस इसलिए नाम दिया - क्योंकि इसके द्वारा जीवन में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट हो सकती है। मनुष्य से पहले जीवों में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता प्रकट होने का कोई प्रावधान ही नहीं है। इसके प्रमाण में - कोई जीव-जानवर अपना फसल बोता नहीं है, अपना यान-वाहन तैयार करता नहीं है, अपने आहार को तैयार करता नहीं है। मनुष्य जबकि यह सब करता है - अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर। इसको चाहे आप नकार लो, चाहे सकार लो! फ़िर भी ऐसा ही है।
नकारने और सकारने की बात मनुष्य के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता की बदौलत ही है। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के प्रकट होने के साथ उसकी तृप्ति की तलाश या अन्वेषण भी शुरू हो जाती है। इन प्रयासों के फलन में सुखी होने और दुखी होने के परीक्षण करने की भी बात आ गयी। सुखी होना और दुखी होना - यह मनुष्य के साथ ही बना है।
सुख और दुःख को जीव-जानवरों के साथ जोड़ कर हम कभी पार नहीं पायेंगे! जीवों में सुख-दुःख की पहचान नहीं होती। जीव केवल वंश-अनुशंगियता पूर्वक विषयों की सीमा में जीते हैं।
मानव-इतिहास में अभी तक मनुष्य कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सहित पहले "वंश" के अनुसार जिया। उसके बाद "कर्म" के अनुसार जिया। उसके बाद कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के तृप्ति-बिन्दु के आधार पर जीता है। ये तीन सीडियां हैं। दो सीडियां मनुष्य पार कर चुका है। तीसरी सीड़ी - तृप्ति-बिन्दु के आधार पर जीने के लिए यह (मध्यस्थ-दर्शन) प्रस्ताव अध्ययन के लिए प्रस्तुत है। ज्ञान (सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान) पूर्वक जीने में ही सुख पूर्वक या तृप्ति-पूर्वक जीने की बात बनती है। इस तरह ज्ञान पूर्वक (अनुभव के बाद) मनुष्य की ४ विषयों में प्रसक्ति ५ संवेदनाओं में विलय हो जाती है, और पांचो संवेदनाएं (संवेदनशीलता) संज्ञानीयता में नियंत्रित हो जाती है।
संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित हो जाती हैं, यही मानव-चेतना है। यह एक सिद्धांत है।
सुख का प्रमाण ज्ञान के अनुसार मनुष्य के जीने में ही आता है। ऐसे जीने का design है - समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। यही कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु है ।
कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु है - समाधान।
कर्म-स्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु है - समृद्धि।
उसका प्रमाण मैंने स्वयं को घोषित किया है। वह यदि आप अध्ययन पूर्वक पा लेते हो तो वह multiply होने लगता है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
Tuesday, January 6, 2009
नित्य वर्तमानता - भाग ३
"काल" क्या है?
काल के बारे में प्रतिपादित किया है:-
क्रिया की अवधि = काल।
यह अवधि मानव का ही बनाया माप-दंड (measuring scale) है। अस्तित्व में काल खंड-खंड रूप में मिलता नहीं है।
अस्तित्व शुद्धतः नित्य वर्तमान है।
यह बात आपके ह्रदय में पहुंचना चाहिए। अस्तित्व शुद्धतः नित्य वर्तमान है। अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूप में नित्य-वर्तमान है, वैभव है।
मनुष्य को थोड़ा समय, ज्यादा समय कहने के लिए काल-खंड की गणना करने की आवश्यकता पडी। जैसे धरती एक अपने में घूर्णन क्रिया करता है। एक प्रातः काल से दूसरे प्रातः काल तक। इसको २४ भाग किया। फ़िर हर भाग का ६० विभाग किया। उस हर विभाग का पुनः ६० विभाग किया। ऐसा करते गए। ऐसा करते-करते एक ऐसी जगह में आ गए कि यह कह दिया - काल है ही नहीं! जबकि धरती पर नित्य सवेरा होता ही रहता है! इस तरह विज्ञान ने कितने झूठ के आधार पर अपना बात खड़ा किया है - यह सोचने का मुद्दा है। सोचने पर अफ़सोस भी होता है - कैसे फंस गए?
विज्ञान विखंडन-विधि से फंसा है। किसी बात का चीर-फाड़ करना, बाल की खाल निकालना, इस विधि से फंसा है। विखंडन विधि से ही विज्ञान fission fusion की जगह में पहुँचा। यह धरती के ही विनाश का स्वरूप बन गया। अब उस जगह सोचने की आवश्यकता आ गयी।
हम काल को उपयोगिता, सदुपयोगिता, और प्रयोजनशीलता के आधार पर समझ सकते हैं। काल का क्या प्रयोजन है? समय-बद्ध विधि से हम श्वास लेते हैं। समय-बद्ध विधि से हम भोजन करते हैं। समय-बद्ध विधि से हम उत्पादन-कार्यकलाप करते हैं। इसके लिए 'काल' का ज्ञान है।
विखंडन कोई सकारात्मक ज्ञान सिद्ध नहीं हुआ। विखंडन समस्याकारी ही सिद्ध हुआ है। विखंडन विधि से हम सभी तरह के तर्क में फंस कर समाधान पाने की जगह से वंचित रह गए हैं। विखंडन विधि समाधान से विमुख होने से ही हम समस्या में फंसने की जगह में आ गए हैं। कितनी भी विखंडन विधि है - उससे समाधान मिलता नहीं है। इस बात को आप देख सकते हैं, प्रयोग कर सकते हैं, जांच सकते हैं, और निर्णय कर सकते हैं। अभी सर्वाधिक पढ़े-लिखे, आधुनिक विज्ञान की शिक्षा प्राप्त किया हुआ व्यक्ति का मन विखंडन-विधि में ही लगा है। पढ़े-लिखे हुए व्यक्ति को सर्वाधिक उपयोगी होना चाहिए। पर यह कहाँ हो पा रहा है? जो आज सर्वाधिक पढ़े-लिखे, बुद्धिमान माने जाते हैं - उनसे उपकार कहाँ हुआ? विखंडन विधि से त्रस्त होने के कारण ही ये उपकार से नहीं जुड़ पा रहे हैं। विखंडन विधि से न परिवार बन सकता है, न समाज बन सकता है। न हम समाधानित हो पायेंगे, न संतुष्ट हो पायेंगे। इसीलिये विखंडन समस्या का कारण हुआ।
विखंडन विधि का दृष्टा बना रहना बुरा नहीं है। लेकिन आचरण में हम सह-अस्तित्व विधि से ही अखंडता और व्यवस्था पूर्वक जी पाते हैं। जैसे - मनुष्य का शरीर। विखंडन विधि से हम शरीर का संचालन तो नहीं कर पायेंगे। विखंडन विधि से जीवन का संचालन नहीं हो सकता। विखंडन विधि से हम समाधान को प्राप्त नहीं कर सकते। विखंडन विधि से हम नियम पूर्वक आचरण नहीं कर पायेंगे।
वर्तमान में अखंडता विधि से ही हम निरंतर समाधान को पाते हैं। नित्य वर्तमान में ही जागृति सहज वैभव हो पाता है।
- अक्टूबर २००५ में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, मसूरी में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।
नित्य वर्तमानता - भाग २
अस्तित्व निरंतर होने के आधार पर हम स्वाभाविक रूप में यह समझ सकते हैं कि - अस्तित्व स्वयं में स्थिर है।
अस्तित्व वर्तमान स्वरूप में स्थिर है। वर्तमान = निरंतर होना।
वर्तमान का मूल स्वरूप सत्ता में संपृक्त प्रकृति है। सत्ता कभी न घटता है, न बढ़ता है। प्रकृति कभी भी समाप्त नहीं होता, नाश नहीं होता। इस तरह वर्तमान नित्य, स्थिर, और निरंतर बने रहने वाली स्थिति में है।
वर्तमान नाश-विहीन स्थिति में है। प्रकृति में "अविनाशिता" दो तरीके से है। परिणाम विधि से अविनाशी (जड़ प्रकृति) और परिणाम विहीन विधि से अविनाशी (चैतन्य प्रकृति)।
चैतन्य प्रकृति में 'जीवन' परिणाम-विहीन विधि से अविनाशी है, नित्य-वर्तमान है। जीवन परिणाम (या मात्रात्मक परिवर्तन) से मुक्त है। जीवन को अमरत्व प्राप्त है। इस आधार पर जीवन नित्य वर्तमान होना स्वाभाविक हो गया।
जड़-प्रकृति (खनिज और वनस्पति संसार) में परिणाम सहित (या मात्रात्मक परिवर्तन सहित) अविनाशी वर्तमान होना हुआ। उसका मतलब है - रचना और विरचना। जैसे घर बनाया मिट्टी-पत्थर से, वह विरचित हो गया - तो भी वस्तु वहीं का वहीं रहता है। इस प्रकार सभी खनिज-वनस्पति जो रचना-विरचना में रत हैं - वस्तु के रूप में उनका कोई नाश नहीं होता है। रचना के विरचित होने को "विलय" या लय कहते हैं। रचना के बने रहने को "वैभव" या यथा-स्थिति कहते हैं। और रचना के रचित होने को "उद्भव" या सृष्टि कहते हैं। जैसे - घर को बनाना = उद्भव, घर का बने रहना = वैभव, और घर का विरचित हो जाना = विलय। वर्तमान में ये तीनो स्थितियां (उद्भव, वैभव, और विलय) बने ही हैं। वस्तु दूसरे स्वरूप में परिणित होने के बाद दूसरे स्वरूप में है ही! जैसे - कपड़ा बनाया, चिर गया, चिंदी के रूप में है ही! फ़िर मिट्टी हो गया - तो मिट्टी के स्वरूप में है ही! यह "होने" की बात कभी समाप्त होता नहीं है। किसी न किसी स्वरूप में वस्तु बना ही रहता है। कितने भी बदल गए, कितनी भी परिस्थितियां बदल गयी, कितनी भी विकृतियाँ हो गयी - कभी भी "होने" की बात समाप्त होता नहीं है।
कोई चीज समाप्त नहीं होती। कोई चीज गुमती नहीं है। इसको चुरा कर ले जाने वाला कोई नहीं है। वस्तु के सम्पाप्त हो जाने का कोई खाका ही अस्तित्व में नहीं है। जो हड्डी-पसली बनती है, वह मिट्टी में रहता ही है। पुनः मिट्टी से हड्डी-पसली बनता ही है। (जड़ प्रकृति में) यह रचना-विरचना क्रम चला ही है।
अस्तित्व निरंतर होने के स्वरूप में है। अस्तित्व नित्य वर्तमान है।
नित्य-वर्तमान होने के आधार पर ही अस्तित्व स्थिर है।
- अक्टूबर २००५ में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, मसूरी में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।
नित्य वर्तमानता - भाग-१
वर्तमान को "काल"और "समय"नाम भी मनुष्य ने दिया है। ये सब नाम हमारे सामने रखे हुए हैं। विगत में (आदर्शवाद में) बताया गया था - "सत्य नित्य वर्तमान है." ब्रह्म ही सत्य है - यह बताया। साथ ही सत्य को अव्यक्त और अनिर्वचनीय भी बता दिया। जगत को ब्रह्म से ही उत्पन्न बताते हुए, जगत को मिथ्या बता दिया। ऐसा बताने से हम संदिग्धता में आ गए थे। (दूसरी ओर) भौतिकवाद समय या काल को खंड-खंड करते हुए ऐसी जगह पहुँच गए कि वर्तमान को ही शून्य कर दिया।
इन सब बातों में एक तारतम्यता, संगीत, और निश्चयता आने के बारे में मैंने कुछ सोचा है। किस आधार पर? सह-अस्तित्व के आधार पर। सह-अस्तित्व विधि से हमें नित्य-वर्तमानता की बात स्पष्ट होती है।
ब्रह्म को मैंने व्यापक और शाश्वत वस्तु के स्वरूप में पहचाना। व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति संपृक्त रहने को पहचाना। इसी आधार पर 'काल', 'समय', 'वर्तमान' की बात स्पष्ट होना मुझे स्वीकार हुआ है। हम सब सह-अस्तित्व के आधार पर ही वर्तमान को सटीक पहचान पाते हैं।
वर्तमान का मतलब है - स्थिति-शील और गति-शील निरंतरता। जड़-चैतन्य प्रकृति के लिए यही वर्तमान है। स्थिति-गति शीलता सहित वर्तमान है। जड़-चैतन्य प्रकृति स्थिति-गति स्वरूप में वर्तता ही रहता है - इसीलिए वर्तमान। जड़-चैतन्य प्रकृति में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म निरंतर वर्तता ही रहता है। यह कभी रुकने वाला नहीं है।
किसी भी वस्तु का 'होना' निरंतरता के अर्थ में है। 'निरंतर होना' ही वर्तमान है। 'निरंतर होना' ही वैभव है। अस्तित्व में नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य निरंतर होने के अर्थ में ही हैं। ये सभी चीजें निरंतर होने के रूप में मुझे अनुभव में आया है। मैं उसमें जीता ही हूँ। उसी आधार पर मैं कह रहा हूँ - "होने" के रूप में नित्य वर्तमान है।
"होना" क्या चीज है? व्यापक वस्तु में एक-एक वस्तु का डूबा-भीगा-घिरा हुआ होना - यही "होने" का मूल स्वरूप है। यही वर्तमान है। यह निरंतर वर्तता ही रहता है। व्यापक में चार अवस्थाएं - उनका रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म - यह निरंतर वर्तता ही रहता है।
सम्पूर्ण खनिज (पदार्थ-अवस्था) परिणाम-अनुषंगी विधि से निरंतर होना - यह वर्तमान है।
सम्पूर्ण हरियाली (प्राण-अवस्था) गुण-प्रधान स्वरूप में बीज-अनुषंगी विधि से होना - यह वर्तमान है।
स्वभाव-प्रधान स्वरूप में वंश के अनुरूप जीवों (जीव-अवस्था) का जीना - यह वर्तमान है।
मानव सुख पूर्वक जीने के रूप में वर्तमान है। जब तक मनुष्य सुख पूर्वक नहीं जीता - तब तक मनुष्य का वर्तमान नहीं है। इस तरह से सह-अस्तित्व विधि से वर्तमान को पहचानने की बात आयी। यदि इस प्रकार से हम सोच पाते हैं, समझ पाते हैं, और इसमें विश्वास करने की जगह में आ पाते हैं - तो हम पाते हैं, वर्तमान में ही हमारा वैभव है। वर्तमान को छोड़ कर मानव का वैभव प्रमाणित होता ही नहीं है।
मनुष्य अपने 'धर्म' को सुख रूप में व्यक्त किया है। सुख के बारे में आपको बताया है:
समाधान = सुख = मानव धर्म
समस्या = दुःख = मानव के लिए अधर्म
समस्या मानव को स्वीकार नहीं है। समाधान और सुख ही मानव को स्वीकार है। मनुष्य के जीने में मानव-धर्म वर्तना या प्रमाणित होना ही "मानव का वर्तमान" है। मानव-धर्म प्रमाणित होने के अर्थ में समाधान निरंतर बना रहना आवश्यक है। समाधान निरंतर बने रहने के अर्थ में सुख निरंतर बने रहना आवश्यक है। यह मानव के वर्तमान का मतलब हुआ।
उसी प्रकार - जीवों में स्वभाव प्रधान विधि से वंश के अनुसार होना, जीना - यह वर्तमान हुआ। वैसे ही समस्त हरियाली बीज-अनुशंगियता विधि से वर्तमान है। और परिणाम-अनुषंगी विधि से समस्त पदार्थ संसार वर्तमान हुआ। इस ढंग से समस्त वस्तुएं सह-अस्तित्व में स्वयं वर्तमान हैं।
सम्पूर्ण अस्तित्व ही वर्तमान है। वर्तमान में स्थिति भी है, गति भी है। दोनों मिलकर के वर्तमान। स्थिति के बिना गति नहीं होती। अभी तक की परम्परा के मानव के मन में सुद्रढ़ होने में थोड़ा परेशानी आ रहा होगा - अब आगे चल कर इसमें हम और सुदृढ़ हो सकते हैं। मनुष्य-संसार स्थिति-गति में है। जीव-संसार भी स्थिति-गति में है। वनस्पति-संसार भी स्थिति-गति में है। सम्पूर्ण खनिज-संसार स्थिति-गति में है।
मूल में सम्पूर्ण वस्तु अपने परमाण्विक स्वरूप में स्थिति-गति में है ही। तथा - वह एक इकाई के रूप में भी स्थिति-गति में है। जैसे - यह धरती एक इकाई के रूप में स्थिति-गति में है। इसी प्रकार एक सौर-व्यूह अथवा ग्रह-व्यूह अपने स्थिति-गति में हैं। आकाश-गंगा भी स्थिति-गति में है। इसको हम अच्छे तरीके से स्वीकार कर सकते हैं। इन सब वस्तुओं का होना, इन सब वस्तुओं का सत्ता में संपृक्त रहना - और फल-स्वरूप ऊर्जा संपन्न होना, स्थिति-गति में होना - यह वर्तमान हुआ।
अस्तित्व स्वयं स्थिति-गति के रूप में नित्य वर्तमान है।
- अक्टूबर २००५ में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, मसूरी में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित।
Sunday, January 4, 2009
समझ का प्रमाण
शब्द को बोलना समझ का प्रमाण नहीं है। शब्द को बोल कर बता देना कोई "समझ" है - यह मैं स्वीकार नहीं करता। समझ को जीना ही समझ का प्रमाण है। समझ को जीने का डिजाईन जो मैंने प्रस्तुत किया है - वह है, समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना। अब आगे पीढी और बतायेगी यदि इसके अलावा भी समझ को जीने का कोई डिजाईन हो सकता है तो! मैं तो समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने के डिजाईन का ही prophecy करूंगा। हर समझदार व्यक्ति समाधान का एक factory है। सामाधानित होने के बाद ही व्यक्ति अपने समृद्धि पूर्वक जीने के तरीके को डिजाईन करता है।
समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का परिणाम है - उपकार। उपकार है - दूसरों को समझदार बनाना, और समृद्धि के लिए अपने प्रमाणों से प्रेरणा देना। प्रमाण नहीं है तो प्रेरणा क्या देंगे?
समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की इच्छा समझदारी के बाद सबके पास आता है। पूरी बात समझे बिना समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का चौखट बनता ही नहीं है। सुविधा-संग्रह ही रह जाता है। समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही होगा - यह बात इस प्रस्ताव को समझने वाले लोगों में खुल कर आ रही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का परिणाम है - उपकार। उपकार है - दूसरों को समझदार बनाना, और समृद्धि के लिए अपने प्रमाणों से प्रेरणा देना। प्रमाण नहीं है तो प्रेरणा क्या देंगे?
समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने की इच्छा समझदारी के बाद सबके पास आता है। पूरी बात समझे बिना समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का चौखट बनता ही नहीं है। सुविधा-संग्रह ही रह जाता है। समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना ही होगा - यह बात इस प्रस्ताव को समझने वाले लोगों में खुल कर आ रही है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
हम स्वयं प्रसन्न हुए बिना समाधान को व्यक्त नहीं कर सकते.
नागराज जी : आप जो इतने समय से इस प्रस्ताव के अध्ययन में लगे हैं, आपके अन्तःकरण से प्रसन्नता बहा कि नहीं?
उत्तर: नहीं। अभी और समझना शेष है, ऐसा ही लगता है।
हम स्वयं प्रसन्न हुए बिना समाधान को व्यक्त नहीं कर सकते। इसको मैंने आजमा लिया। इसको अथा से इति तक छू-छू कर देख लिया। स्वयं में समाधानित होने के बाद ही लोकव्यापीकरण की बात है। कोई-कोई लोग थोड़ी बात को पा कर प्रसन्न हो जाते हैं, व्यक्त हो जाते हैं। कोई थोड़ा ज्यादा पा कर प्रसन्न हो पाते हैं, तो कोई पूरा पा कर ही प्रसन्न हो पाते हैं। वह आपके अपने संस्कार के अनुसार ही होगा। उसका कोई मात्रा fix नहीं किया जा सकता।
सन १९७५ से अब तक लोगों के साथ काम करने में मैंने जो अनुभव किया - वह यही है। अपने में प्रसन्नता की स्थली को पाये बिना हम व्यक्त नहीं हो सकते। अभी अपने परिवार में इस बात को व्यक्त करने वाले करीब १०० लोग हो गए। उसमें समझने के स्तरों का अलग-अलग रेंज बनता है। इनमें दूरी कम करने के लिए मैंने अनुभव-शिविर लगाना शुरू किया। अनुभव शिविर का आशय है - कौन अपने से सत्यापित करे कि हम पूरा समझ गए हैं। उसमें से कुछ लोग सहमति दिए हैं कि हम पूरा समझ गए हैं, कुछ ऐसा बताते हैं - पूरा समझने में अभी थोड़ा देरी है। "पूरा समझ गया हूँ" - ऐसा कहने वाले इने-गिने ही हैं। उनका परीक्षण करना अभी शेष है। उनका परीक्षण (अभी की स्थिति में) मैं ही करूंगा। अनुभव को प्रमाणित करने के समाधान-समृद्धि का ढांचा-खांचा जो मैंने present किया है - उसमें वे सभी सहमत हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
उत्तर: नहीं। अभी और समझना शेष है, ऐसा ही लगता है।
हम स्वयं प्रसन्न हुए बिना समाधान को व्यक्त नहीं कर सकते। इसको मैंने आजमा लिया। इसको अथा से इति तक छू-छू कर देख लिया। स्वयं में समाधानित होने के बाद ही लोकव्यापीकरण की बात है। कोई-कोई लोग थोड़ी बात को पा कर प्रसन्न हो जाते हैं, व्यक्त हो जाते हैं। कोई थोड़ा ज्यादा पा कर प्रसन्न हो पाते हैं, तो कोई पूरा पा कर ही प्रसन्न हो पाते हैं। वह आपके अपने संस्कार के अनुसार ही होगा। उसका कोई मात्रा fix नहीं किया जा सकता।
सन १९७५ से अब तक लोगों के साथ काम करने में मैंने जो अनुभव किया - वह यही है। अपने में प्रसन्नता की स्थली को पाये बिना हम व्यक्त नहीं हो सकते। अभी अपने परिवार में इस बात को व्यक्त करने वाले करीब १०० लोग हो गए। उसमें समझने के स्तरों का अलग-अलग रेंज बनता है। इनमें दूरी कम करने के लिए मैंने अनुभव-शिविर लगाना शुरू किया। अनुभव शिविर का आशय है - कौन अपने से सत्यापित करे कि हम पूरा समझ गए हैं। उसमें से कुछ लोग सहमति दिए हैं कि हम पूरा समझ गए हैं, कुछ ऐसा बताते हैं - पूरा समझने में अभी थोड़ा देरी है। "पूरा समझ गया हूँ" - ऐसा कहने वाले इने-गिने ही हैं। उनका परीक्षण करना अभी शेष है। उनका परीक्षण (अभी की स्थिति में) मैं ही करूंगा। अनुभव को प्रमाणित करने के समाधान-समृद्धि का ढांचा-खांचा जो मैंने present किया है - उसमें वे सभी सहमत हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद के आधार पर (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
Saturday, January 3, 2009
समाधि के बाद संयम - और अध्ययन
प्रश्न: समाधि के बाद संयम किस प्रकार हुआ?
उत्तर: समाधि के पहले दो भूमियाँ हैं - धारणा और ध्यान। धारणा का मतलब है - किसी देश-काल और वस्तु की सीमा में चित्त-वृत्ति निरोध होना। ध्यान का मतलब है - उस (देश, काल, और वस्तु) के निश्चित बिन्दु में चित्त-वृत्ति निरोध होना। समाधि का मतलब है - ध्यान का जो अर्थ है, वह भर रहे, और उसका स्वरूप कुछ भी न रहे। ऐसा पंतांजलि योग-सूत्र में documented भी है।
धारणा, ध्यान, और समाधि - ये तीनो के एकत्र होने से संयम है। संयम की जो प्रणाली विभुतिपाद ग्रन्थ में बतायी गयी थी - उसको मैंने उलटाया। अज्ञात को ज्ञात करने के लिए। उसी क्रम में मुझे अनुभव हुआ।
प्रश्न: क्या हर व्यक्ति को समाधि-संयम करना सम्भव है?
उत्तर: मुझको समाधि हुई है। समाधि को मैंने देखा है। समाधि के बाद संयम को देखा है। उसका फल भी मेरे पास है। इसके बाद कुछ होता नहीं है। उसके बाद यदि आप मुझसे पूछो - हमको समाधि होगा या नहीं? तो मैं नहीं बता सकता कि आप को समाधि होगा या नहीं। आपके समाधि होने की कामना ही मैं कर सकता हूँ। मेरे गुरु जी भी मेरे लिए वैसे ही कामना ही किए थे।
समाधि होने के लिए आपके पास कोई निश्चित मुद्दा न हो और आपको समाधि हो जाए - ऐसा मैं recommend नहीं कर सकता। वह निश्चित मुद्दा पाना कितना सर्व-सुलभ है - आप ही सोच लो! "निश्चित मुद्दा" चाय काफी पीने जैसा तो होता नहीं है। जो अध्ययन में न आया हो - ऐसे मुद्दे को आपको तलाशना होगा। वह यदि हो पाता है - तो मैं कहूँगा, समाधि सम्भव है - संयम भी सम्भव है।
प्रश्न: आपने अपनी शरीर यात्रा के ८०-९० वर्ष इस बात के लिए लगाया। क्या हमारे लिए आपकी उपलब्धि को पाने का कोई shortcut है?
उत्तर: इसके shortcut के लिए आपसे निवेदन किया है - मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद का अध्ययन।
अध्ययन और पठन के सन्दर्भ में मैंने देखा - हर शब्द का अर्थ होता है। उस अर्थ के रूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु का बोध होना = हमको समझ में आना। इसको मैंने कहा है अध्ययन।
जैसे - "पानी" एक शब्द है। और पानी एक वस्तु है। "पानी" शब्द पानी नहीं है। उसी प्रकार हर शब्द के अर्थ में एक वस्तु होता है। वस्तु स्वयं अस्तित्व में होता है। अस्तित्व में वस्तु-बोध होने पर मैं अध्ययन मानता हूँ। यह मेरा निश्चय है। इसमें यदि आप सहमत हो पाते हैं - तो पहले पठन फ़िर अध्ययन।
अध्ययन के लिए मैंने परिभाषा-विधि उपक्रम प्रस्तुत किया। हर वस्तु को परिभाषित करने पर वस्तु-बोध होने की सुगमता बनेगी।
जैसे - "धर्म" एक शब्द है। धर्म को परिभाषित किया - जिससे जिसका विलागीकरण सम्भव न हो। मानव का धर्म सुख है। मानव जी कर अपने सुखी होने के धर्म को प्रमाणित कर सकता है। उसी अर्थ में मानव-लक्ष्य है - समाधान और समृद्धि। मानव-लक्ष्य में जीवन और शरीर दोनों का लक्ष्य समाहित है। जीवन में केवल जीवन के सुखी होने का लक्ष्य है। मानव में सुखी होने का भी लक्ष्य है, शरीर की आवश्यकता का भी लक्ष्य है। समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाण सहित मानव-लक्ष्य पूरा होता है। कैसे? संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के रूप में। यह अखंड-समाज और सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो पाता है।
यदि हम मानव इस बात को अपनाते हैं, परम्परा बनाते हैं - तो एक अखंड समाज की रचना होगी। समुदाय-चेतना में मानव समस्या से मुक्ति पायेगा नहीं। अखंड रूप में मानव-समाज को पहचानना ही एक मात्र उपाय है। सर्व-शुभ के लिए यदि सोचेंगे तो यही निकलेगा। अध्ययन विधि ही इसका रास्ता है। अध्ययन के लिए पूरा वस्तु आपके लिए प्रस्तुत है।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन के बाद लोगों के साथ हुए संवाद पर आधारित
उत्तर: समाधि के पहले दो भूमियाँ हैं - धारणा और ध्यान। धारणा का मतलब है - किसी देश-काल और वस्तु की सीमा में चित्त-वृत्ति निरोध होना। ध्यान का मतलब है - उस (देश, काल, और वस्तु) के निश्चित बिन्दु में चित्त-वृत्ति निरोध होना। समाधि का मतलब है - ध्यान का जो अर्थ है, वह भर रहे, और उसका स्वरूप कुछ भी न रहे। ऐसा पंतांजलि योग-सूत्र में documented भी है।
धारणा, ध्यान, और समाधि - ये तीनो के एकत्र होने से संयम है। संयम की जो प्रणाली विभुतिपाद ग्रन्थ में बतायी गयी थी - उसको मैंने उलटाया। अज्ञात को ज्ञात करने के लिए। उसी क्रम में मुझे अनुभव हुआ।
प्रश्न: क्या हर व्यक्ति को समाधि-संयम करना सम्भव है?
उत्तर: मुझको समाधि हुई है। समाधि को मैंने देखा है। समाधि के बाद संयम को देखा है। उसका फल भी मेरे पास है। इसके बाद कुछ होता नहीं है। उसके बाद यदि आप मुझसे पूछो - हमको समाधि होगा या नहीं? तो मैं नहीं बता सकता कि आप को समाधि होगा या नहीं। आपके समाधि होने की कामना ही मैं कर सकता हूँ। मेरे गुरु जी भी मेरे लिए वैसे ही कामना ही किए थे।
समाधि होने के लिए आपके पास कोई निश्चित मुद्दा न हो और आपको समाधि हो जाए - ऐसा मैं recommend नहीं कर सकता। वह निश्चित मुद्दा पाना कितना सर्व-सुलभ है - आप ही सोच लो! "निश्चित मुद्दा" चाय काफी पीने जैसा तो होता नहीं है। जो अध्ययन में न आया हो - ऐसे मुद्दे को आपको तलाशना होगा। वह यदि हो पाता है - तो मैं कहूँगा, समाधि सम्भव है - संयम भी सम्भव है।
प्रश्न: आपने अपनी शरीर यात्रा के ८०-९० वर्ष इस बात के लिए लगाया। क्या हमारे लिए आपकी उपलब्धि को पाने का कोई shortcut है?
उत्तर: इसके shortcut के लिए आपसे निवेदन किया है - मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद का अध्ययन।
अध्ययन और पठन के सन्दर्भ में मैंने देखा - हर शब्द का अर्थ होता है। उस अर्थ के रूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु का बोध होना = हमको समझ में आना। इसको मैंने कहा है अध्ययन।
जैसे - "पानी" एक शब्द है। और पानी एक वस्तु है। "पानी" शब्द पानी नहीं है। उसी प्रकार हर शब्द के अर्थ में एक वस्तु होता है। वस्तु स्वयं अस्तित्व में होता है। अस्तित्व में वस्तु-बोध होने पर मैं अध्ययन मानता हूँ। यह मेरा निश्चय है। इसमें यदि आप सहमत हो पाते हैं - तो पहले पठन फ़िर अध्ययन।
अध्ययन के लिए मैंने परिभाषा-विधि उपक्रम प्रस्तुत किया। हर वस्तु को परिभाषित करने पर वस्तु-बोध होने की सुगमता बनेगी।
जैसे - "धर्म" एक शब्द है। धर्म को परिभाषित किया - जिससे जिसका विलागीकरण सम्भव न हो। मानव का धर्म सुख है। मानव जी कर अपने सुखी होने के धर्म को प्रमाणित कर सकता है। उसी अर्थ में मानव-लक्ष्य है - समाधान और समृद्धि। मानव-लक्ष्य में जीवन और शरीर दोनों का लक्ष्य समाहित है। जीवन में केवल जीवन के सुखी होने का लक्ष्य है। मानव में सुखी होने का भी लक्ष्य है, शरीर की आवश्यकता का भी लक्ष्य है। समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाण सहित मानव-लक्ष्य पूरा होता है। कैसे? संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के रूप में। यह अखंड-समाज और सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो पाता है।
यदि हम मानव इस बात को अपनाते हैं, परम्परा बनाते हैं - तो एक अखंड समाज की रचना होगी। समुदाय-चेतना में मानव समस्या से मुक्ति पायेगा नहीं। अखंड रूप में मानव-समाज को पहचानना ही एक मात्र उपाय है। सर्व-शुभ के लिए यदि सोचेंगे तो यही निकलेगा। अध्ययन विधि ही इसका रास्ता है। अध्ययन के लिए पूरा वस्तु आपके लिए प्रस्तुत है।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन के बाद लोगों के साथ हुए संवाद पर आधारित
समाधि के आगे
प्रश्न: समाधि में आपकी आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाने के बाद भी आगे की बात के लिए आप में किस तरह इच्छा जगी?
उत्तर: समाधि की स्थिति में मैं १२ से १८ घंटी तक रहता था, इंतज़ार में - अब ज्ञान होगा, अब ज्ञान होगा। यह बात शुरुआत से ही रहा। समाधि में मेरी आशा, विचार, इच्छा चुप हो गयी - यह बात मुझे स्पष्ट हो गयी थी। चुप होने के बाद १२-१८ घंटे बाद मुझको जब शरीर-अध्यास आता था, तब मैं अपनी समाधि की स्थिति का स्वयं मूल्यांकन करता था। (समाधि के बाद जो वापस शरीर का अध्यास होता है, वह स्वयं के द्वारा लिए गए संकल्प के आधार पर ही होता है कि हम इतनी देर समाधि में रहेंगे। उस समय के बाद अपने आप शरीर का अध्यास होता है। )मूल्यांकन करने पर यही निकलता था कि ज्ञान नहीं हुआ। यह बात हर दिन होती थी। फ़िर ज्ञान के लिए हर दिन फ़िर से समाधि की स्थिति में जाना, पुनः शरीर-अध्यास होने पर मूल्यांकन कि ज्ञान नहीं हुआ। यह होते-होते जब बहुत दिन महीने बीत गए तो संयम के लिए प्रवृत्ति बनी। समाधि होने को verify करने के लिए मैंने संयम किया। अपने मित्रों को अपने समाधि होने की गवाही जो देनी थी।
मुझे यह तो कल्पना भी नहीं थी - संयम से हम कोई चीज पा जायेंगे। यह बात तो थी ही नहीं। समाधि की गवाही देने के लिए मैंने संयम किया। जिसके फलस्वरूप अध्ययन हुआ। यह ज्ञान हुआ। वह अध्ययन मानव की बपौती है - ऐसा मेरी स्वीकृति हुई। उसके आधार पर मानव के हाथों में अर्पित करने का प्रयास मैं कर रहा हूँ।
समाधि की स्थिति में शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, देश (स्थान) का ज्ञान नहीं रहता है, और समय (काल) का ज्ञान नहीं रहता है। ये तीनो बात लुप्त रहता है, या छुपा हुआ रहता है। इसको मैं अच्छे से देखा हूँ। समाधि के सम्बन्ध में हमारे शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा है। गीता में समाधि के बाद क्या होता है, उसको लेकर लिखा है - "ब्रह्म भूतं प्रसन्नात्मा नशोच्यति नकान्क्ष्यती"। अर्थात - यदि ब्रह्म-ज्ञान हो जाता है, तो उस व्यक्ति में चाहत ख़त्म हो जाता है। "पंचदशी" नामक ग्रन्थ - जिसको वेदान्त का आरंभिक ग्रन्थ मानते हैं, उसमें लिखा है - "छिद्यन्ते हृदय ग्रंथि, भिद्यंती सर्व संशय, क्षिद्यंती सर्व कर्माणि, तस्मिन् दृष्टा परावरे।" अर्थात - ह्रदय में हमारे जो संशय रहे वे सब ख़त्म हो जाते हैं, गांठे जो रहे वे समाप्त हो जाते हैं, कर्म-बंधन समाप्त होता है। उसको व्याख्या देते हुए ऐसा कहा है - जीव में जो कर्म-बंधन हैं, विचार-बंधन हैं - ये सब से छूट जाते हैं। समाधि स्थिति में ऐसा होता है - लिखा है।
समाधि के बाद मुझको जो हुआ, वह है - (उस स्थिति में) भूत और भविष्य की पीड़ा नहीं है, और वर्तमान का विरोध नहीं है। शिकायत से मुक्त होने की स्थिति में मैं आ गया। समाधि से क्या फायदा हुआ? संसार के प्रति मेरा शिकायत नहीं रहा।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन के बाद लोगों के साथ हुए संवाद पर आधारित
उत्तर: समाधि की स्थिति में मैं १२ से १८ घंटी तक रहता था, इंतज़ार में - अब ज्ञान होगा, अब ज्ञान होगा। यह बात शुरुआत से ही रहा। समाधि में मेरी आशा, विचार, इच्छा चुप हो गयी - यह बात मुझे स्पष्ट हो गयी थी। चुप होने के बाद १२-१८ घंटे बाद मुझको जब शरीर-अध्यास आता था, तब मैं अपनी समाधि की स्थिति का स्वयं मूल्यांकन करता था। (समाधि के बाद जो वापस शरीर का अध्यास होता है, वह स्वयं के द्वारा लिए गए संकल्प के आधार पर ही होता है कि हम इतनी देर समाधि में रहेंगे। उस समय के बाद अपने आप शरीर का अध्यास होता है। )मूल्यांकन करने पर यही निकलता था कि ज्ञान नहीं हुआ। यह बात हर दिन होती थी। फ़िर ज्ञान के लिए हर दिन फ़िर से समाधि की स्थिति में जाना, पुनः शरीर-अध्यास होने पर मूल्यांकन कि ज्ञान नहीं हुआ। यह होते-होते जब बहुत दिन महीने बीत गए तो संयम के लिए प्रवृत्ति बनी। समाधि होने को verify करने के लिए मैंने संयम किया। अपने मित्रों को अपने समाधि होने की गवाही जो देनी थी।
मुझे यह तो कल्पना भी नहीं थी - संयम से हम कोई चीज पा जायेंगे। यह बात तो थी ही नहीं। समाधि की गवाही देने के लिए मैंने संयम किया। जिसके फलस्वरूप अध्ययन हुआ। यह ज्ञान हुआ। वह अध्ययन मानव की बपौती है - ऐसा मेरी स्वीकृति हुई। उसके आधार पर मानव के हाथों में अर्पित करने का प्रयास मैं कर रहा हूँ।
समाधि की स्थिति में शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, देश (स्थान) का ज्ञान नहीं रहता है, और समय (काल) का ज्ञान नहीं रहता है। ये तीनो बात लुप्त रहता है, या छुपा हुआ रहता है। इसको मैं अच्छे से देखा हूँ। समाधि के सम्बन्ध में हमारे शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा है। गीता में समाधि के बाद क्या होता है, उसको लेकर लिखा है - "ब्रह्म भूतं प्रसन्नात्मा नशोच्यति नकान्क्ष्यती"। अर्थात - यदि ब्रह्म-ज्ञान हो जाता है, तो उस व्यक्ति में चाहत ख़त्म हो जाता है। "पंचदशी" नामक ग्रन्थ - जिसको वेदान्त का आरंभिक ग्रन्थ मानते हैं, उसमें लिखा है - "छिद्यन्ते हृदय ग्रंथि, भिद्यंती सर्व संशय, क्षिद्यंती सर्व कर्माणि, तस्मिन् दृष्टा परावरे।" अर्थात - ह्रदय में हमारे जो संशय रहे वे सब ख़त्म हो जाते हैं, गांठे जो रहे वे समाप्त हो जाते हैं, कर्म-बंधन समाप्त होता है। उसको व्याख्या देते हुए ऐसा कहा है - जीव में जो कर्म-बंधन हैं, विचार-बंधन हैं - ये सब से छूट जाते हैं। समाधि स्थिति में ऐसा होता है - लिखा है।
समाधि के बाद मुझको जो हुआ, वह है - (उस स्थिति में) भूत और भविष्य की पीड़ा नहीं है, और वर्तमान का विरोध नहीं है। शिकायत से मुक्त होने की स्थिति में मैं आ गया। समाधि से क्या फायदा हुआ? संसार के प्रति मेरा शिकायत नहीं रहा।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन के बाद लोगों के साथ हुए संवाद पर आधारित
अनुसंधान क्यों, क्या, और कैसे - भाग ५
कुल मिला कर "अध्यात्मवाद की रहस्यमयता" मेरे अनुसंधान का कारण रहा। अस्तित्व में रहस्य होने का कोई कारण नहीं है। अध्यात्म या ब्रह्म जैसे वस्तु का अव्यक्त रहने का कोई कारण नहीं है। अनुसंधान से पता चला - ब्रह्म सभी वस्तुओं को प्राप्त है। प्राप्त का अनुभव करने का मानव के पास अधिकार है। वह अनुभव सह-अस्तित्व स्वरूप में होता है। यह मैंने अनुभव किया है।
इस प्रकार सह-अस्तित्व समझ में आने के बाद उसको literature स्वरूप में दर्शन, वाद, और शास्त्र रूप में दिया। दर्शन रूप में नाम दिया गया है - मानव व्यवहार दर्शन, मानव कर्म दर्शन, मानव अभ्यास दर्शन, और अनुभव दर्शन। उसके बाद विचार में नाम दिया - समाधानात्मक भौतिकवाद , व्यवहारात्मक जनवाद , और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद। उसके बाद शास्त्रों का नाम दिया - आवर्तनशील अर्थशास्त्र , व्यवहारवादी समाजशास्त्र , मानव संचेत्नावादी मनोविज्ञान। उसके बाद संविधान लिखा - मानवीय आचार संहिता रुपी संविधान। उस ढंग से मानव को जो आवश्यकता है - आचरण से संविधान तक, संविधान से व्यवस्था तक - हर आदमी जो जांच सकता है, उसका पूरा व्याख्या प्रस्तुत किया। उसमें धीरे-धीरे लोगों का भरोसा तो बन ही रहा है। इस प्रकार जितने भी लोग इस विचार से जुड़ रहे हैं, उनका भरोसा की बात तो पूरा पड़ता है। इस बात को लेकर जीवन-विद्या का कार्यक्रम जहाँ-जहाँ होता है, जीवन-विद्या को जो-जो सुनते हैं, उनमें नवीन उत्साह जगता है। उसके बाद जिज्ञासा के आधार पर आगे विद्वान होना बनता ही है।
इस तरह अनुसंधान की यह छोटी सी बात हुई। केवल मुझ में स्वयं में रहस्यवाद से पैदा हुआ संकट और भौतिकवाद से पैदा हुआ संकट (धरती बीमार होने के रूप में ) - इन दोनों से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्न, उस प्रयत्न में मेरी सफलता समाधि-संयम पूर्वक होना, उसको मानव को अर्पित करने के लिए प्रयत्न, और यहाँ आप तक पहुँचने का सौभाग्य।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
इस प्रकार सह-अस्तित्व समझ में आने के बाद उसको literature स्वरूप में दर्शन, वाद, और शास्त्र रूप में दिया। दर्शन रूप में नाम दिया गया है - मानव व्यवहार दर्शन, मानव कर्म दर्शन, मानव अभ्यास दर्शन, और अनुभव दर्शन। उसके बाद विचार में नाम दिया - समाधानात्मक भौतिकवाद , व्यवहारात्मक जनवाद , और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद। उसके बाद शास्त्रों का नाम दिया - आवर्तनशील अर्थशास्त्र , व्यवहारवादी समाजशास्त्र , मानव संचेत्नावादी मनोविज्ञान। उसके बाद संविधान लिखा - मानवीय आचार संहिता रुपी संविधान। उस ढंग से मानव को जो आवश्यकता है - आचरण से संविधान तक, संविधान से व्यवस्था तक - हर आदमी जो जांच सकता है, उसका पूरा व्याख्या प्रस्तुत किया। उसमें धीरे-धीरे लोगों का भरोसा तो बन ही रहा है। इस प्रकार जितने भी लोग इस विचार से जुड़ रहे हैं, उनका भरोसा की बात तो पूरा पड़ता है। इस बात को लेकर जीवन-विद्या का कार्यक्रम जहाँ-जहाँ होता है, जीवन-विद्या को जो-जो सुनते हैं, उनमें नवीन उत्साह जगता है। उसके बाद जिज्ञासा के आधार पर आगे विद्वान होना बनता ही है।
इस तरह अनुसंधान की यह छोटी सी बात हुई। केवल मुझ में स्वयं में रहस्यवाद से पैदा हुआ संकट और भौतिकवाद से पैदा हुआ संकट (धरती बीमार होने के रूप में ) - इन दोनों से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्न, उस प्रयत्न में मेरी सफलता समाधि-संयम पूर्वक होना, उसको मानव को अर्पित करने के लिए प्रयत्न, और यहाँ आप तक पहुँचने का सौभाग्य।
जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
अनुसंधान क्यों, क्या, और कैसे - भाग ४
अनुसंधान के फल में जो हाथ लगा उसमें कुल मिला कर "समझदारी" की बात है। अभी तक क्या था? अभी तक समझदारी था कि नहीं था? यह आप पूछो तो मेरे समझ में यह आता है - अध्यात्मवाद रहस्य में फंसने से आदमी को हाथ नहीं लगा। रहस्य में ही रह गया। उसमें हमने माना मरने के बाद हमको स्वर्ग मिलेगा, मोक्ष मिलेगा, ज्ञान का फल मिलेगा, देवता मिलेंगे - इस प्रकार की बहुत सारी परिकल्पनाएं रखी हुई हैं। मरने के बाद क्या मिलता है - उसकी कोई गवाही तो हो ही नहीं सकती।
इस समझदारी से मानव-लक्ष्य स्पष्ट हुआ। मानव-लक्ष्य है - समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाण। मानव-लक्ष्य को पूरा करना ही मानव-चेतना है।
समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि - यह एक formula बना। समझदारी से समाधान-संपन्न हो सकते हैं। हर समझदार परिवार में अपनी आवश्यकता का निर्णय कर सकते हैं। आवश्यकता से अधिक उत्पादन करके समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं।
इस आधार पर इस पूरी बात को अध्याव्सायिक विधि से प्रस्तुत करने की कोशिश किए। प्रस्तुत करने के क्रम में सर्वप्रथम मैंने बंगलोर में एक "अध्ययन शिविर" लगाया। ४५ दिन का शिविर था। बहुत सारे लोग इसको सराहे, इसकी आवश्यकता है - ऐसा बोले। इसके बाद धीरे-धीरे रायपुर, भिलाई - इन जगहों पर विद्वानों के संपर्क में आए। उसके बाद दुर्ग में एक polytechnic institute के संपर्क में आए, जहाँ के लोगों ने जीवन-विद्या का शिविर किया। विज्ञान को पढ़े हुए लोगों के साथ मैंने एक जीवन-विद्या शिविर किया। इस शिविर करने के बाद उनमें कुछ संतोष और धैर्य हुआ, उसके बाद वही polytechnic institute द्वारा IIT Delhi से संपर्क हुआ। IIT Delhi के विद्वानों का तरीका कुछ दूसरा ही रहा!
वहाँ पहुँचते ही वे मुझसे कहे - "तुम्हारी प्रस्तुति का आधार क्या है? जो बात तुम कह रहे हो - यह किसी सिद्धांत पर आधारित है या नहीं?"
इससे मुझको ऐसा झलका, ये पूछ रहे हैं - "मैं किस परम्परा के आधार पर बात कर रहा हूँ? -उसको लेकर मेरा उदगार चाह रहे हैं। " किंतु मेरी बात किसी परम्परा पर आधारित नहीं रहा।
इसका सीधा उत्तर मैंने दिया - "मेरी बात का आधार है - सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व। और इस बात का प्रमाण मैं स्वयं हूँ।" इस प्रकार से मैं प्रस्तुत हुआ।
इस प्रकार वहाँ के जो तत्कालीन विद्वान थे - उनमें से कुछ लोगों को सुनकर काफी अच्छा लगा, तो कुछ को लगा यह बिल्कुल पाखंडी आदमी है - बस बात करने वाला है। ऐसा दो तरह की बात हुई। इसके बाद उनसे मंगल-मैत्री, ज्ञान-अर्जन करने-कराने की बातचीत शुरू हुई। अंततोगत्वा IIT में यह प्रवृत्ति बनी - "यह कुछ सही चीज़ है, इस पर प्रयोग करके देखना चाहिए।"
उनमें से एक आदमी - रण सिंह, जो हमारे पास यहाँ बैठे हैं - वहाँ से तत्काल resign किए, और मेरे पास ६ महीने अमरकंटक में आ कर रहे। ६ महीने हमारे पास रह कर उन्होंने जितनी भी स्वयं में जिज्ञासाएं थी उनके उत्तर पा कर के अपने में ऐसा महसूस किया कि हमको कुछ समझ में बात आ गयी। उसको प्रयोग करने के लिए वे अपने में तैय्यारी कर लिए, और ये अपने ढंग से अब तक प्रयोग कर भी रहे हैं। इनके धैर्य में अब तक कोई घाटा नहीं आया। ऐसा भी नहीं आया, हम जो अब तक समझे हैं - वह ग़लत हो गया। यह दोनों नहीं आने से धैर्य भी रहा, अपनी समझ पर विश्वास भी रहा - और उसके आधार पर आप अपने में अभी तक जुटे हैं। बिजनौर और आस-पास के गावों में उनका पहले से भी पहचान था, ये पहले से वहाँ के स्थापित व्यक्ति रहे। इनके बात पर वहाँ के लोगों की आस्था है, उसके आधार पर लोग उनकी बात सुनते हैं और आस्था प्रकट करते हैं।
इनके जुड़ने के बाद IIT में सत्य जी जुड़े। IIT में सबसे अधिक बुद्धिमान, विद्वान जिसे माना जाए - ऐसे थे यशपाल सत्य। वे fission fusion के विद्वान थे - उनको वह व्यवहारिक नहीं दिखा। उससे उनको संतोष नहीं हुआ। वे इस विद्या को पा कर इतना गद-गद हुए! उन्होंने बहुत सारे उपनिषद् आदि पढ़े थे - उसके आधार पर उन्होंने बताया - "विगत में यह सब कहा है - यह बात (मध्यस्थ-दर्शन) उससे आगे की चीज है।" वे बहुत कुछ आगे करने वाले थे, पर संयोग-वश उनका हमसे वियोग हो गया।
उसके बाद कानपूर में एक संस्था तैयार हुई - उसके प्रधान व्यक्ति गणेश बागरिया रहे। वह कार्यक्रम अभी तक चल रहा है। उसके बाद रायपुर में एक और संस्था चली - उसमें और आगे बढ़ने की बात आयी। वहाँ भी लोग काफी जुड़े हैं, और प्रयत्न कर रहे हैं। इस तरह जगह-जगह पर प्रयत्न चल रहे हैं।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
इस समझदारी से मानव-लक्ष्य स्पष्ट हुआ। मानव-लक्ष्य है - समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाण। मानव-लक्ष्य को पूरा करना ही मानव-चेतना है।
समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि - यह एक formula बना। समझदारी से समाधान-संपन्न हो सकते हैं। हर समझदार परिवार में अपनी आवश्यकता का निर्णय कर सकते हैं। आवश्यकता से अधिक उत्पादन करके समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं।
इस आधार पर इस पूरी बात को अध्याव्सायिक विधि से प्रस्तुत करने की कोशिश किए। प्रस्तुत करने के क्रम में सर्वप्रथम मैंने बंगलोर में एक "अध्ययन शिविर" लगाया। ४५ दिन का शिविर था। बहुत सारे लोग इसको सराहे, इसकी आवश्यकता है - ऐसा बोले। इसके बाद धीरे-धीरे रायपुर, भिलाई - इन जगहों पर विद्वानों के संपर्क में आए। उसके बाद दुर्ग में एक polytechnic institute के संपर्क में आए, जहाँ के लोगों ने जीवन-विद्या का शिविर किया। विज्ञान को पढ़े हुए लोगों के साथ मैंने एक जीवन-विद्या शिविर किया। इस शिविर करने के बाद उनमें कुछ संतोष और धैर्य हुआ, उसके बाद वही polytechnic institute द्वारा IIT Delhi से संपर्क हुआ। IIT Delhi के विद्वानों का तरीका कुछ दूसरा ही रहा!
वहाँ पहुँचते ही वे मुझसे कहे - "तुम्हारी प्रस्तुति का आधार क्या है? जो बात तुम कह रहे हो - यह किसी सिद्धांत पर आधारित है या नहीं?"
इससे मुझको ऐसा झलका, ये पूछ रहे हैं - "मैं किस परम्परा के आधार पर बात कर रहा हूँ? -उसको लेकर मेरा उदगार चाह रहे हैं। " किंतु मेरी बात किसी परम्परा पर आधारित नहीं रहा।
इसका सीधा उत्तर मैंने दिया - "मेरी बात का आधार है - सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व। और इस बात का प्रमाण मैं स्वयं हूँ।" इस प्रकार से मैं प्रस्तुत हुआ।
इस प्रकार वहाँ के जो तत्कालीन विद्वान थे - उनमें से कुछ लोगों को सुनकर काफी अच्छा लगा, तो कुछ को लगा यह बिल्कुल पाखंडी आदमी है - बस बात करने वाला है। ऐसा दो तरह की बात हुई। इसके बाद उनसे मंगल-मैत्री, ज्ञान-अर्जन करने-कराने की बातचीत शुरू हुई। अंततोगत्वा IIT में यह प्रवृत्ति बनी - "यह कुछ सही चीज़ है, इस पर प्रयोग करके देखना चाहिए।"
उनमें से एक आदमी - रण सिंह, जो हमारे पास यहाँ बैठे हैं - वहाँ से तत्काल resign किए, और मेरे पास ६ महीने अमरकंटक में आ कर रहे। ६ महीने हमारे पास रह कर उन्होंने जितनी भी स्वयं में जिज्ञासाएं थी उनके उत्तर पा कर के अपने में ऐसा महसूस किया कि हमको कुछ समझ में बात आ गयी। उसको प्रयोग करने के लिए वे अपने में तैय्यारी कर लिए, और ये अपने ढंग से अब तक प्रयोग कर भी रहे हैं। इनके धैर्य में अब तक कोई घाटा नहीं आया। ऐसा भी नहीं आया, हम जो अब तक समझे हैं - वह ग़लत हो गया। यह दोनों नहीं आने से धैर्य भी रहा, अपनी समझ पर विश्वास भी रहा - और उसके आधार पर आप अपने में अभी तक जुटे हैं। बिजनौर और आस-पास के गावों में उनका पहले से भी पहचान था, ये पहले से वहाँ के स्थापित व्यक्ति रहे। इनके बात पर वहाँ के लोगों की आस्था है, उसके आधार पर लोग उनकी बात सुनते हैं और आस्था प्रकट करते हैं।
इनके जुड़ने के बाद IIT में सत्य जी जुड़े। IIT में सबसे अधिक बुद्धिमान, विद्वान जिसे माना जाए - ऐसे थे यशपाल सत्य। वे fission fusion के विद्वान थे - उनको वह व्यवहारिक नहीं दिखा। उससे उनको संतोष नहीं हुआ। वे इस विद्या को पा कर इतना गद-गद हुए! उन्होंने बहुत सारे उपनिषद् आदि पढ़े थे - उसके आधार पर उन्होंने बताया - "विगत में यह सब कहा है - यह बात (मध्यस्थ-दर्शन) उससे आगे की चीज है।" वे बहुत कुछ आगे करने वाले थे, पर संयोग-वश उनका हमसे वियोग हो गया।
उसके बाद कानपूर में एक संस्था तैयार हुई - उसके प्रधान व्यक्ति गणेश बागरिया रहे। वह कार्यक्रम अभी तक चल रहा है। उसके बाद रायपुर में एक और संस्था चली - उसमें और आगे बढ़ने की बात आयी। वहाँ भी लोग काफी जुड़े हैं, और प्रयत्न कर रहे हैं। इस तरह जगह-जगह पर प्रयत्न चल रहे हैं।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
Friday, January 2, 2009
अनुसंधान क्यों, क्या, और कैसे - भाग-३
साक्षात्कार पूर्वक मुझ को पता चला : -
(१) हर मानव जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में है।
(२) जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है।
(३) जीवन में दो और पूर्णतायें - क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता - मानव परम्परा में ही घटित होता है।
मुझको यह समझ में आया - मनुष्य जीव-चेतना वश भ्रमित हो कर संकट से घिर जाता है। फ़िर मानव-चेतना पूर्वक सुखी होना होता है - यही क्रिया पूर्णता है। इस तरह पता चला - जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है। मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है। देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतर है। यह अनुभव होने के बाद मैं अपने में सुद्रढ़ हुआ। जागृति का अधिकार मुझे मिल गया।
जागृति के अधिकार के फलस्वरूप पता चला - मनुष्य भ्रम-वश ही बंधन की पीड़ा से पीड़ित है। क्या चीज है भ्रम या बंधन? वह है - अति-व्याप्ति दोष (अधिमुल्यन करना) , अना-व्याप्ति दोष (अवमूल्यन करना) , और अव्याप्ति दोष (निर्मुल्यन करना) । इन तीन दोषों से ही हम संकट में फंसते हैं। छल, कपट, दंभ, पाखण्ड - यह अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, और अव्याप्ति दोषों का प्रदर्शन है। दूसरी विधि से जो हम फंसे हैं - वह है - द्रोह, विद्रोह, शोषण, और युद्ध। इस तरह मनुष्य इन दो भंवरों में फंस गया। इसके पहले साम-दाम-दंड-भेद का भंवर बना ही रहा। इस तरह मानव एक साथ तीन भवरों में फंसा हुआ है। मनुष्य जाति कैसे जी पा रही है - आप ही सोच लो!
यह जो ज्ञान मुझे हुआ - यह १९७५ में हुआ। यह ज्ञान होने पर मैंने स्वीकारा - यह मेरे अकेले का ज्ञान नहीं है। यह मानव का ज्ञान है। मानव के पुण्य वश ही यह घटित हुआ है। इसलिए मानव को इसे अर्पित करना है। उसके बाद मनुष्य के साथ संपर्क करने का कोशिश किया। कोशिश करने के क्रम में कुछ लोगों ने कहा - "तुम आशावादी हो!" कुछ ने कहा - "समय से पहले तुम यह बात कर रहे हो।" कुछ ने कहा - "जैसे और कई विचार आए - तुम्हारा भी यह एक विचार है - थोड़ी देर बाद यह भी ख़त्म हो जायेगा। " इन तीन प्रकार की opinions आयी। मैं चिंतन-मनन करता रहा, और उसी के साथ अच्छे-अच्छे लोगों से मिलन होते ही रहे। धीरे-धीरे मुझको यह धैर्य हुआ कि इस बात की आवश्यकता मानव-परम्परा को है।
उसके बाद १९९० से हमने शुरू किया कि इसे सटीक विधि से एक शैक्षणिक प्रणाली के रूप में लोगों के सम्मुख रखा जाए। उसमें दो-तीन जगह में इस बात के प्रयोग हुए हैं, काफी बुद्दिमान लोग इसमें सोचने के लिए तत्पर हुए हैं। यह आज तक की घटित घटनाएं यहाँ तक पहुँची हैं।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
(१) हर मानव जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप में है।
(२) जीवन एक गठन-पूर्ण परमाणु है।
(३) जीवन में दो और पूर्णतायें - क्रिया-पूर्णता और आचरण-पूर्णता - मानव परम्परा में ही घटित होता है।
मुझको यह समझ में आया - मनुष्य जीव-चेतना वश भ्रमित हो कर संकट से घिर जाता है। फ़िर मानव-चेतना पूर्वक सुखी होना होता है - यही क्रिया पूर्णता है। इस तरह पता चला - जीव-चेतना से मानव-चेतना श्रेष्ठ है। मानव-चेतना से देव-चेतना श्रेष्ठतर है। देव-चेतना से दिव्य-चेतना श्रेष्ठतर है। यह अनुभव होने के बाद मैं अपने में सुद्रढ़ हुआ। जागृति का अधिकार मुझे मिल गया।
जागृति के अधिकार के फलस्वरूप पता चला - मनुष्य भ्रम-वश ही बंधन की पीड़ा से पीड़ित है। क्या चीज है भ्रम या बंधन? वह है - अति-व्याप्ति दोष (अधिमुल्यन करना) , अना-व्याप्ति दोष (अवमूल्यन करना) , और अव्याप्ति दोष (निर्मुल्यन करना) । इन तीन दोषों से ही हम संकट में फंसते हैं। छल, कपट, दंभ, पाखण्ड - यह अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, और अव्याप्ति दोषों का प्रदर्शन है। दूसरी विधि से जो हम फंसे हैं - वह है - द्रोह, विद्रोह, शोषण, और युद्ध। इस तरह मनुष्य इन दो भंवरों में फंस गया। इसके पहले साम-दाम-दंड-भेद का भंवर बना ही रहा। इस तरह मानव एक साथ तीन भवरों में फंसा हुआ है। मनुष्य जाति कैसे जी पा रही है - आप ही सोच लो!
यह जो ज्ञान मुझे हुआ - यह १९७५ में हुआ। यह ज्ञान होने पर मैंने स्वीकारा - यह मेरे अकेले का ज्ञान नहीं है। यह मानव का ज्ञान है। मानव के पुण्य वश ही यह घटित हुआ है। इसलिए मानव को इसे अर्पित करना है। उसके बाद मनुष्य के साथ संपर्क करने का कोशिश किया। कोशिश करने के क्रम में कुछ लोगों ने कहा - "तुम आशावादी हो!" कुछ ने कहा - "समय से पहले तुम यह बात कर रहे हो।" कुछ ने कहा - "जैसे और कई विचार आए - तुम्हारा भी यह एक विचार है - थोड़ी देर बाद यह भी ख़त्म हो जायेगा। " इन तीन प्रकार की opinions आयी। मैं चिंतन-मनन करता रहा, और उसी के साथ अच्छे-अच्छे लोगों से मिलन होते ही रहे। धीरे-धीरे मुझको यह धैर्य हुआ कि इस बात की आवश्यकता मानव-परम्परा को है।
उसके बाद १९९० से हमने शुरू किया कि इसे सटीक विधि से एक शैक्षणिक प्रणाली के रूप में लोगों के सम्मुख रखा जाए। उसमें दो-तीन जगह में इस बात के प्रयोग हुए हैं, काफी बुद्दिमान लोग इसमें सोचने के लिए तत्पर हुए हैं। यह आज तक की घटित घटनाएं यहाँ तक पहुँची हैं।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
अनुसंधान क्यों, क्या, और कैसे - भाग-२
सबसे परामर्श करके मैंने समाधि के लिए जाने का निष्कर्ष लिया। निष्कर्ष में तो मैं आ ही गया था - कि मुझको यह करना ही है, एक शरीर यात्रा इसमें अर्पित करना ही है। मैंने कुछ तिथि निश्चित किया कि इस तिथि में चले जायेंगे। तब तक अपने सभी क्रियाकलापों, लेन-देन आदि सब को पूरा करने में मैं लगा। इसी बीच में मेरी माँ का देहांत हो गया। यह १९४७ के अंत में हुआ। और १९४८ के आरम्भ में मेरे पिता का भी शरीर शांत हो गया। वहाँ की परम्परा के अनुसार १ वर्ष तक मरणोत्तर कर्मो में सम्मान देते हैं, ऐसी आस्था रखते हैं। उसको मैंने पूरा किया। वह सब पूरा होने पर १९५० में हम यहाँ अमरकंटक पहुँच गए।
अमरकंटक - इस पावन स्थली पर पहुँच कर हमको बहुत अच्छा लगा। यहाँ के लोग, हवा, पानी, जंगल, जानवर, धरती - इन सबके साथ हमारी सानुकूलता बनी। वहाँ जो २००-२५० लोग उस समय थे - उनके साथ भी हमारा स्नेह और विशवास पूर्वक जीने का आधार बना। हमको ऐसा लगा - वहाँ जितने भी लोग हैं, वे सभी हमारे अभिभावक हैं, संरक्षक है। ये सभी बात सानुकूल होने पर मैं साधना कर पाया। यह सानुकूलताएं जो अपने आप में मुझ को सुलभ हुई, (उसका कारण) मैंने माना - यह नियति का देन है, बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद है, या मानव का पुण्य है।
यह सब होने के बाद अपनी साधना में मैं तत्पर हुआ, उसके लिए किया-धरा, उस सब में २० वर्ष लगे। २० वर्ष बाद मैं समाधि की स्थिति में पहुँच गया।
समाधि की स्थिति में मैंने पाया - मेरा आशा, विचार, इच्छा जो दौड़ता रहता था - "मुझे कुछ चाहिए", "मुझे कुछ करना है", "मेरे पास कुछ है" - ये तीनो पूरा का पूरा चुप हो गए। ये चुप होने के बाद आदमी को कोई संकट तो होता नहीं है। आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाने के बाद संकट काहे को होगा? ये चुप होने के बाद मैं हर दिन इंतज़ार करता रहा - आज ब्रह्म ज्ञान होगा, आज होगा... ऐसा करते करते कई महीने इंतज़ार में बीत गए।
समाधि में मुझको ब्रह्म-ज्ञान नहीं हुआ।
समाधि में ब्रह्म-ज्ञान नहीं होता - इसको मेरे कहने भर से कौन मानने वाला है? शास्त्रों में तो इसके विपरीत लिखा है। समाधि मुझ को हुआ है या नहीं - इसका गवाही देने के लिए मैंने "संयम" किया। संयम के द्वारा समाधि का गवाही हो जाता है। फ़िर संयम करने का संकल्प ले कर मैं लग गया।
पंतांजलि योग-सूत्र में संयम के लिए विभूति-पाद में जो कुछ भी लिखा है - वह कोई ज्ञान के लिए नहीं है। "अज्ञात को ज्ञात" और "अप्राप्त को प्राप्त" करने के उद्देश्य की पहले से घंटी बजती रही। उसमें से "अप्राप्त को प्राप्त करने" को लेकर मेरी कोई जिज्ञासा नहीं रही। मुझको ऐसा महसूस ही नहीं हुआ - मेरे पास कुछ अप्राप्त है। अभाव मुझको स्पर्श ही नहीं किया था। अप्राप्त को प्राप्त करने की मुझ में कोई जिज्ञासा नहीं रही, आवश्यकता भी नहीं रही। इसको आप मेरा पागलपन भी कह सकते हैं, मेरी सच्चाई भी कह सकते हैं। अब क्या किया जाए? अज्ञात को ज्ञात कैसे किया जाए - यही बात हुई। उस सन्दर्भ में लिखा है - "धारणा-ध्यान-समाधिः त्रयम एकत्रत्वा संयमः"। ऐसा एक लाइन लिखा है। उसको मैंने उलटाया। "समाधि-ध्यान-धारणा त्रयम एकत्रत्वा संयमः" - ऐसा मैंने दूसरा लाइन तैयार किया। अप्राप्त को प्राप्त करने की एक भी विधि को मुझे नहीं अपनाना है - ऐसा मैंने सोचा। अज्ञात को ज्ञात करना उसके उल्टा विधि से होगा - उस विधि से करके देखा जाए! ऐसा मेरा मन पहुँचा। और फ़िर उसको मैंने किया।
यह करने पर एक वर्ष में मैं उस जगह पर पहुँचा जहाँ - अस्तित्व कैसा है, क्यों है? और मानव कैसा है, क्यों है? - इन दोनों का उत्तर मुझे मिल गया। इन दोनों ध्रुवों के बीच में संसार का जो कुछ भी क्रिया-कलाप है - भौतिक, रासायनिक, और जीवन क्रियाकलाप - उसका मुझे साक्षात्कार हुआ। साक्षात्कार होने पर मैं संतुष्ट हुआ।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
अमरकंटक - इस पावन स्थली पर पहुँच कर हमको बहुत अच्छा लगा। यहाँ के लोग, हवा, पानी, जंगल, जानवर, धरती - इन सबके साथ हमारी सानुकूलता बनी। वहाँ जो २००-२५० लोग उस समय थे - उनके साथ भी हमारा स्नेह और विशवास पूर्वक जीने का आधार बना। हमको ऐसा लगा - वहाँ जितने भी लोग हैं, वे सभी हमारे अभिभावक हैं, संरक्षक है। ये सभी बात सानुकूल होने पर मैं साधना कर पाया। यह सानुकूलताएं जो अपने आप में मुझ को सुलभ हुई, (उसका कारण) मैंने माना - यह नियति का देन है, बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद है, या मानव का पुण्य है।
यह सब होने के बाद अपनी साधना में मैं तत्पर हुआ, उसके लिए किया-धरा, उस सब में २० वर्ष लगे। २० वर्ष बाद मैं समाधि की स्थिति में पहुँच गया।
समाधि की स्थिति में मैंने पाया - मेरा आशा, विचार, इच्छा जो दौड़ता रहता था - "मुझे कुछ चाहिए", "मुझे कुछ करना है", "मेरे पास कुछ है" - ये तीनो पूरा का पूरा चुप हो गए। ये चुप होने के बाद आदमी को कोई संकट तो होता नहीं है। आशा-विचार-इच्छा चुप हो जाने के बाद संकट काहे को होगा? ये चुप होने के बाद मैं हर दिन इंतज़ार करता रहा - आज ब्रह्म ज्ञान होगा, आज होगा... ऐसा करते करते कई महीने इंतज़ार में बीत गए।
समाधि में मुझको ब्रह्म-ज्ञान नहीं हुआ।
समाधि में ब्रह्म-ज्ञान नहीं होता - इसको मेरे कहने भर से कौन मानने वाला है? शास्त्रों में तो इसके विपरीत लिखा है। समाधि मुझ को हुआ है या नहीं - इसका गवाही देने के लिए मैंने "संयम" किया। संयम के द्वारा समाधि का गवाही हो जाता है। फ़िर संयम करने का संकल्प ले कर मैं लग गया।
पंतांजलि योग-सूत्र में संयम के लिए विभूति-पाद में जो कुछ भी लिखा है - वह कोई ज्ञान के लिए नहीं है। "अज्ञात को ज्ञात" और "अप्राप्त को प्राप्त" करने के उद्देश्य की पहले से घंटी बजती रही। उसमें से "अप्राप्त को प्राप्त करने" को लेकर मेरी कोई जिज्ञासा नहीं रही। मुझको ऐसा महसूस ही नहीं हुआ - मेरे पास कुछ अप्राप्त है। अभाव मुझको स्पर्श ही नहीं किया था। अप्राप्त को प्राप्त करने की मुझ में कोई जिज्ञासा नहीं रही, आवश्यकता भी नहीं रही। इसको आप मेरा पागलपन भी कह सकते हैं, मेरी सच्चाई भी कह सकते हैं। अब क्या किया जाए? अज्ञात को ज्ञात कैसे किया जाए - यही बात हुई। उस सन्दर्भ में लिखा है - "धारणा-ध्यान-समाधिः त्रयम एकत्रत्वा संयमः"। ऐसा एक लाइन लिखा है। उसको मैंने उलटाया। "समाधि-ध्यान-धारणा त्रयम एकत्रत्वा संयमः" - ऐसा मैंने दूसरा लाइन तैयार किया। अप्राप्त को प्राप्त करने की एक भी विधि को मुझे नहीं अपनाना है - ऐसा मैंने सोचा। अज्ञात को ज्ञात करना उसके उल्टा विधि से होगा - उस विधि से करके देखा जाए! ऐसा मेरा मन पहुँचा। और फ़िर उसको मैंने किया।
यह करने पर एक वर्ष में मैं उस जगह पर पहुँचा जहाँ - अस्तित्व कैसा है, क्यों है? और मानव कैसा है, क्यों है? - इन दोनों का उत्तर मुझे मिल गया। इन दोनों ध्रुवों के बीच में संसार का जो कुछ भी क्रिया-कलाप है - भौतिक, रासायनिक, और जीवन क्रियाकलाप - उसका मुझे साक्षात्कार हुआ। साक्षात्कार होने पर मैं संतुष्ट हुआ।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
अनुसंधान क्यों, क्या, और कैसे - भाग-१
यह जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन सुखद, सुंदर, सौभाग्य-पूर्ण हो - यह मेरी शुभ कामना है। मूल में मुझे यह बताने के लिए कहा गया है की इस अनुसंधान को करने का "संकट" मुझे कैसे आ गया? यह अनुसंधान हुआ कैसे? इस अनुसंधान को "विकल्प" स्वरूप में प्रस्तुत करने की क्या ज़रूरत आ गयी थी? इन सब बातों पर ध्यान दिलाने के लिए यह मेरी प्रस्तुति है।
मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा - मेरी शरीर-यात्रा ईश्वर-वादी विचार के अनुसार विद्वान कहलाने वाले वेद-मूर्ती परिवार में शुरू हुई। उस परिवार में मैंने पलने से लेकर ६-७ वर्ष या १० वर्ष तक वेद-विचार के अलावा कुछ श्रवण किया ही नहीं। या ऐसा कह सकते हैं - दूसरी कोई बात मेरे मन में पहुँची ही नहीं। मेरी आयु जब ५ वर्ष रही होगी - तब बहुत सारे बड़े-बुजुर्ग लोग मुझे प्रणाम किया करते थे। मुझ में यह विचार आया - "मुझको ये लोग प्रणाम करते हैं - इनको मैंने ऐसा क्या दे दिया है? ये लोग क्यों मुझे प्रणाम करते हैं?" मैंने इस बारे में अपने घर-परिवार, माता-पिता, भाइयों, मामा के साथ बात की तो वे उसका मखौल उडाते रहे। यह सब चलते चलते १०-१२ वर्ष बाद मुझको इस बात का बोध हुआ, ये लोग मेरे परिवार का सम्मान करते हैं - और उसी आधार पर मेरा सम्मान करते हैं। यह जो मुझ में निष्कर्ष निकला उससे इस बात की मुझ में प्रतिज्ञा बनी, हमारा परिवार जो सम्मान और प्रतिष्ठा बनाया है, उसको बरबाद करने का अधिकार मुझको नहीं है।
उसके बाद मैं वहीं न रुक कर, मेरा परिवार संसार को क्या दे दिया - इस को मैं शोध करने लगा। यह शोध करने पर पता चला - मेरे परिवार की परम्परा में हर पीढी में एक-दो संन्यासी होते ही रहे। उनमें से कई संन्यासी तो ऐसे हुए, जो अपनी समाधी के लिए स्वयं गड्ढा खोद कर मिट्टी डाल कर मर गए। मर जाने के बाद उनके ऊपर चबूतरा बना कर रखे हुए थे। मैंने अपने परिवार-जनों से पूछा "ये हमको क्या दे गए?" इसका उत्तर देने में काफी परेशानी उनको होने लगी। अंततोगत्वा यह बताया - शास्त्रों में "संन्यास" के बारे में लिखा है कि उससे कल्याण होता है। "कल्याण होता है - तो उसका कोई गवाही होगी कि नहीं?" - यहाँ से मैंने शुरू किया। ऐसा शुरू करने पर तकलीफ और बढ़ी। यह बढ़ते-बढ़ते मुझ को अंततोगत्वा समझाया गया - तुम पूरा वेदान्त को समझो। मैं फ़िर वेदान्त को समझने गया।
वेदान्त को मैंने पूरा ठीक समझा। लेकिन उससे तो वही हुआ - "पहले से करेला, ऊपर से नीम चढा!" वेदान्त के अध्ययन से मुझे पता चला - "यह ब्रह्म ही बंधन और मोक्ष का कारण है।"
ब्रह्म-ज्ञान क्या है? - तो रहस्यमय बताया। "ब्रह्म अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है " - यह बात की मुझे सूचना दिए। यदि ब्रह्म अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - तो ऐसी स्थिति में "ब्रह्म-ज्ञान" का क्या मतलब होगा? ऐसा मैं तर्क करने लगा। उस पर मुझे बताया गया - "तुम छोटा मुहँ बड़ी बात करते हो। " इस प्रकार मुझ से मेरे परिवार में काफी संकट गहराया।
ब्रह्म ही बंधन और मोक्ष का कारण कैसे हो गया? मैंने पूछा तो बताया - यह "ब्रह्म-लीला" है। यह सुनने पर मैंने कहा - देखिये, संसार में जो दारु पीते हैं, वे बढ़िया लीला करते हैं। जो पागल हो जाते हैं - उससे बढ़िया लीला करते हैं। क्या ब्रह्म को पागल या दारु पिया हुआ माना जाए? यदि ऐसा नहीं माना जाए - तो उसका तरीका क्या है? यह सब होने पर वे मुझ को समझाए - "इसको समझने के लिए तुमको स्वयं अनुभव करना पड़ेगा।"
क्या अनुभव होता है? - मैंने पूछा।
"समाधि में अनुभव होता है" - उत्तर मिला।
किस बात का अनुभव? - मैंने पूछा।
"ज्ञान का" - यह बात बताये।
यह बताया तो मैंने समाधि के लिए तैय्यारी कर लिया। अपने मन को तैयार किया - कि इसके लिए मुझको यह शरीर यात्रा अर्पित करना है। उस समय मेरी आयु २६-२७ वर्ष रहा होगा। परम्परा को छोड़ कर अपने मन का कुछ करना है - उसके लिए शास्त्रों में "विद्वत-संन्यास" की बात लिखा है। विद्वत-संन्यास के बारे में लिखा है - ऐसा कुछ काम करने के लिए पत्नी का अनुमति चाहिए, माँ का अनुमति चाहिए, और गुरु का अनुमति चाहिए।
उस बारे में मैंने अपने पत्नी से एक गोष्ठी किया, अपना विचार व्यक्त किया - कि इस प्रकार से मेरे मन में ऐसा निश्चय हो रहा है। इसमें तुम्हारा क्या कहना है? "तुम जो निर्णय लोगे उसी के साथ मुझे चलना है।" - ऐसा वह बोली। मैंने बहुत तर्क दिया - इस में यह खतरा हो सकता है, वह हो सकता है, बहुत सारी कल्पना। यह सब बात मैंने की। अंततोगत्वा उनको साथ ही चलना है - यही ठोस निर्णय आया।
उसके बाद मैंने अपनी माँ से बात किया। मेरी माँ मेरे लिए पहले से ही गुरु-तुल्य रही थी। उन्ही से मैंने ज्योतिष और आयुर्वेद सीखा था। उसके आलावा मेरे घर पर "श्री विद्या आगम-तंत्र-उपासना" की परम्परा रही थी, उसका उपदेश उन्हों ने ही मुझे दिया। इसी अर्थ में मेरी माँ मेरे लिए गुरु-तुल्य थी। उनसे पूछा तो वे बताईं - "तुम जो कुछ भी निर्णय लोगे - उससे अच्छा निर्णय लेने वाला इस धरती पर कोई नहीं है। तुम जो निर्णय लो - उसे कर डालो, तुम उसमें सफल होगे।" ऐसा उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया।
उसके बाद श्रृंगेरी के विद्या-पीठ के शंकराचार्य को मैंने अपनी आस्था का केन्द्र बनाया था - उनसे मैंने इस बात का जिक्र किया। उन्होंने बताया - "तुम्हारा संकल्प ठीक है। तुम सफल हो जाओगे। नर्मदा किनारे भजन करो।" ऐसा वे बोले।
यह कुल मिला कर combination बनी। उसके बाद मैंने अपने पिताश्री से बात किया। पिताजी ने यह बताया - तुम वेद मानते हो, अध्यात्म मानते हो, तो जब तक हम जीते हैं - तब तक तुमाहरा जप, यज्ञ, तप सब कुछ हम ही हैं। हमारी सेवा करना ही तुम्हारा धर्म है - ऐसा वे बोले।
उसके बाद अपने ससुरजी से बात किया। वे बोले - तुम ६० वर्ष की आयु के बाद वानप्रस्थ जाना। मैंने धीरे से उनसे पूछा - आपका आयु कितना है? उन्होंने बताया - ६२ वर्ष! मैंने पूछा - फ़िर यहाँ कैसे दिख रहे हो?! सुन कर वे भाग गए! यह भी एक मखौल की बात है।
इस तरह परामर्श के तौर पर मैंने सबसे बात किया - और समाधि के लिए जाने का निष्कर्ष निकाला।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा - मेरी शरीर-यात्रा ईश्वर-वादी विचार के अनुसार विद्वान कहलाने वाले वेद-मूर्ती परिवार में शुरू हुई। उस परिवार में मैंने पलने से लेकर ६-७ वर्ष या १० वर्ष तक वेद-विचार के अलावा कुछ श्रवण किया ही नहीं। या ऐसा कह सकते हैं - दूसरी कोई बात मेरे मन में पहुँची ही नहीं। मेरी आयु जब ५ वर्ष रही होगी - तब बहुत सारे बड़े-बुजुर्ग लोग मुझे प्रणाम किया करते थे। मुझ में यह विचार आया - "मुझको ये लोग प्रणाम करते हैं - इनको मैंने ऐसा क्या दे दिया है? ये लोग क्यों मुझे प्रणाम करते हैं?" मैंने इस बारे में अपने घर-परिवार, माता-पिता, भाइयों, मामा के साथ बात की तो वे उसका मखौल उडाते रहे। यह सब चलते चलते १०-१२ वर्ष बाद मुझको इस बात का बोध हुआ, ये लोग मेरे परिवार का सम्मान करते हैं - और उसी आधार पर मेरा सम्मान करते हैं। यह जो मुझ में निष्कर्ष निकला उससे इस बात की मुझ में प्रतिज्ञा बनी, हमारा परिवार जो सम्मान और प्रतिष्ठा बनाया है, उसको बरबाद करने का अधिकार मुझको नहीं है।
उसके बाद मैं वहीं न रुक कर, मेरा परिवार संसार को क्या दे दिया - इस को मैं शोध करने लगा। यह शोध करने पर पता चला - मेरे परिवार की परम्परा में हर पीढी में एक-दो संन्यासी होते ही रहे। उनमें से कई संन्यासी तो ऐसे हुए, जो अपनी समाधी के लिए स्वयं गड्ढा खोद कर मिट्टी डाल कर मर गए। मर जाने के बाद उनके ऊपर चबूतरा बना कर रखे हुए थे। मैंने अपने परिवार-जनों से पूछा "ये हमको क्या दे गए?" इसका उत्तर देने में काफी परेशानी उनको होने लगी। अंततोगत्वा यह बताया - शास्त्रों में "संन्यास" के बारे में लिखा है कि उससे कल्याण होता है। "कल्याण होता है - तो उसका कोई गवाही होगी कि नहीं?" - यहाँ से मैंने शुरू किया। ऐसा शुरू करने पर तकलीफ और बढ़ी। यह बढ़ते-बढ़ते मुझ को अंततोगत्वा समझाया गया - तुम पूरा वेदान्त को समझो। मैं फ़िर वेदान्त को समझने गया।
वेदान्त को मैंने पूरा ठीक समझा। लेकिन उससे तो वही हुआ - "पहले से करेला, ऊपर से नीम चढा!" वेदान्त के अध्ययन से मुझे पता चला - "यह ब्रह्म ही बंधन और मोक्ष का कारण है।"
ब्रह्म-ज्ञान क्या है? - तो रहस्यमय बताया। "ब्रह्म अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है " - यह बात की मुझे सूचना दिए। यदि ब्रह्म अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है - तो ऐसी स्थिति में "ब्रह्म-ज्ञान" का क्या मतलब होगा? ऐसा मैं तर्क करने लगा। उस पर मुझे बताया गया - "तुम छोटा मुहँ बड़ी बात करते हो। " इस प्रकार मुझ से मेरे परिवार में काफी संकट गहराया।
ब्रह्म ही बंधन और मोक्ष का कारण कैसे हो गया? मैंने पूछा तो बताया - यह "ब्रह्म-लीला" है। यह सुनने पर मैंने कहा - देखिये, संसार में जो दारु पीते हैं, वे बढ़िया लीला करते हैं। जो पागल हो जाते हैं - उससे बढ़िया लीला करते हैं। क्या ब्रह्म को पागल या दारु पिया हुआ माना जाए? यदि ऐसा नहीं माना जाए - तो उसका तरीका क्या है? यह सब होने पर वे मुझ को समझाए - "इसको समझने के लिए तुमको स्वयं अनुभव करना पड़ेगा।"
क्या अनुभव होता है? - मैंने पूछा।
"समाधि में अनुभव होता है" - उत्तर मिला।
किस बात का अनुभव? - मैंने पूछा।
"ज्ञान का" - यह बात बताये।
यह बताया तो मैंने समाधि के लिए तैय्यारी कर लिया। अपने मन को तैयार किया - कि इसके लिए मुझको यह शरीर यात्रा अर्पित करना है। उस समय मेरी आयु २६-२७ वर्ष रहा होगा। परम्परा को छोड़ कर अपने मन का कुछ करना है - उसके लिए शास्त्रों में "विद्वत-संन्यास" की बात लिखा है। विद्वत-संन्यास के बारे में लिखा है - ऐसा कुछ काम करने के लिए पत्नी का अनुमति चाहिए, माँ का अनुमति चाहिए, और गुरु का अनुमति चाहिए।
उस बारे में मैंने अपने पत्नी से एक गोष्ठी किया, अपना विचार व्यक्त किया - कि इस प्रकार से मेरे मन में ऐसा निश्चय हो रहा है। इसमें तुम्हारा क्या कहना है? "तुम जो निर्णय लोगे उसी के साथ मुझे चलना है।" - ऐसा वह बोली। मैंने बहुत तर्क दिया - इस में यह खतरा हो सकता है, वह हो सकता है, बहुत सारी कल्पना। यह सब बात मैंने की। अंततोगत्वा उनको साथ ही चलना है - यही ठोस निर्णय आया।
उसके बाद मैंने अपनी माँ से बात किया। मेरी माँ मेरे लिए पहले से ही गुरु-तुल्य रही थी। उन्ही से मैंने ज्योतिष और आयुर्वेद सीखा था। उसके आलावा मेरे घर पर "श्री विद्या आगम-तंत्र-उपासना" की परम्परा रही थी, उसका उपदेश उन्हों ने ही मुझे दिया। इसी अर्थ में मेरी माँ मेरे लिए गुरु-तुल्य थी। उनसे पूछा तो वे बताईं - "तुम जो कुछ भी निर्णय लोगे - उससे अच्छा निर्णय लेने वाला इस धरती पर कोई नहीं है। तुम जो निर्णय लो - उसे कर डालो, तुम उसमें सफल होगे।" ऐसा उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया।
उसके बाद श्रृंगेरी के विद्या-पीठ के शंकराचार्य को मैंने अपनी आस्था का केन्द्र बनाया था - उनसे मैंने इस बात का जिक्र किया। उन्होंने बताया - "तुम्हारा संकल्प ठीक है। तुम सफल हो जाओगे। नर्मदा किनारे भजन करो।" ऐसा वे बोले।
यह कुल मिला कर combination बनी। उसके बाद मैंने अपने पिताश्री से बात किया। पिताजी ने यह बताया - तुम वेद मानते हो, अध्यात्म मानते हो, तो जब तक हम जीते हैं - तब तक तुमाहरा जप, यज्ञ, तप सब कुछ हम ही हैं। हमारी सेवा करना ही तुम्हारा धर्म है - ऐसा वे बोले।
उसके बाद अपने ससुरजी से बात किया। वे बोले - तुम ६० वर्ष की आयु के बाद वानप्रस्थ जाना। मैंने धीरे से उनसे पूछा - आपका आयु कितना है? उन्होंने बताया - ६२ वर्ष! मैंने पूछा - फ़िर यहाँ कैसे दिख रहे हो?! सुन कर वे भाग गए! यह भी एक मखौल की बात है।
इस तरह परामर्श के तौर पर मैंने सबसे बात किया - और समाधि के लिए जाने का निष्कर्ष निकाला।
- अक्टूबर २००५ मसूरी में जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन में बाबा श्री नागराज शर्मा के संबोधन पर आधारित।
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