This blog is for Study of Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) propounded by Shree A. Nagraj, Amarkantak. (श्री ए. नागराज द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद के अध्ययन के लिए)
सत्ता में मैं अनुभूत हूँ. सत्ता में मैं समग्रता का अनुभव करता हूँ. सत्ता में समग्रता के साथ मैं व्यवस्था का अनुभव करता हूँ. सत्ता (व्यापक वस्तु) को हरेक परस्परता के बीच प्रमाणित होने की विधि को मैं प्रस्तुत किया हूँ. सत्ता (व्यापक वस्तु) को बोध करने के बाद एक-एक वस्तु को बोध करना बन जाता है. एक-एक वस्तु का बोध करने के लिए उसके रूप, गुण, स्वभाव और धर्म का बोध करना होता है. सत्ता का बोध करने के लिए उसकी सर्वत्र विद्यमानता, पारर्शीयता और पारगामीयता का बोध करने की आवश्यकता है. इसको मैंने अध्ययन कराके देखा है - लोगों को यह बोध होता है. इस आधार पर मैं यह कहता हूँ - सबको यह बोध होगा.
अनुभव दर्शन परम-सत्य के स्वरूप को बताता है. व्यवहार दर्शन न्याय के स्वरूप को बताता है. कर्म दर्शन और अभ्यास दर्शन धर्म-सहज विधि से जीने के स्वरूप को बताता है. ये चारों अध्याय एक दूसरे से अंतर्सम्बंधित हैं.
सत्ता को "अध्यात्म" भी नाम दिया है. सत्ता मध्यस्थ है. अध्यात्म का परिभाषा दिया - सभी आत्माओं का आधार. परमाणु के मध्यांश को आत्मा बताया. आत्मा मध्यस्थ क्रिया करता है. सम-विषम का बाधा आत्मा पर नहीं होता. (जीवन परमाणु में) मध्यस्थ क्रिया के अनुसार बुद्धि, चित्त, वृत्ति और मन काम करने लग जाते हैं, उसको हम जागृति कहते हैं. मैं स्वयं उसका प्रमाण हूँ.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)
अभी तक हम टुकड़े-टुकड़े करके अध्ययन किये हैं. समग्रता में अध्ययन किये नहीं हैं. समग्रता में अध्ययन करना कितना सुगम है, यह मैं आपको बताना चाहता हूँ.
व्यापक वस्तु में एक-एक होने की अवधारणा जब आप में आ जाता है तो उसमे यह भी आता है - मानव भी एक वस्तु है. मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है.
जीवन एक ऐसी अमूल्य वस्तु है जो नियति सहज उपलब्धि है - जिसमे किसी का हस्तक्षेप नहीं है. न तो व्यापक वस्तु इसको बनाने-बिगाड़ने में लगा है. और एक-एक वस्तु जीवन स्वरूप में होने और उसके प्रमाणित होने के लिए निरंतर सहायक है.
जीवन ही अनुभव करने वाली वस्तु है.
जीवन को ही अनुभव करना है - अस्तित्व को सहअस्तित्व स्वरूप में और जीवन को जागृति स्वरूप में.
अनुभव किसी किताब या मशीन या कोई माध्यम में होने वाला नहीं है, अनुभव के लिए हर व्यक्ति ही जिम्मेदार है. मनुष्य अपने को समग्र व्यवस्था में जीने की जिम्मेदारी की कसौटी में अपने अनुभव को जांचेगा.
समग्र व्यवस्था ही नियति है. समग्र व्यवस्था में भागीदार होने के लिए हम समझदार होते हैं. समझदारी पूर्वक व्यवस्था में जीना ही बन पाता है, दूसरा कुछ बनता नहीं है. सहअस्तित्व में अनुभव किये रहना इसके लिए एक आवश्यक मुद्दा है. अनुभव का दृष्ट फल व्यवस्था में भागीदारी ही है. व्यवस्था में भागीदारी करते हुए हम प्रमाणित हो जाते हैं.
जब कभी भी अनुभव होगा सहअस्तित्व में ही होगा. आदर्शवादी विधि में विगत में यह सूचना दिया था - एकांत में, समाधि स्थली में अनुभव होगा. समाधि को भले प्रकार से देखा गया है. उसमे यह निकलता नहीं है. समाधि होने पर यह घोषणा नहीं कर पाते हैं कि मैं अनुभव किया हूँ. हम चुप हो जाते हैं. हम न अपने समझदार होने की घोषणा कर पाते हैं, न अपने नासमझ होने की घोषणा कर पाते हैं.
सहअस्तित्व में अनुभव होने की स्थिति में यह घोषणा करना बनता है कि मैं सहअस्तित्व को समझा हूँ. जीवन का अनुभव होने के बाद जीवन को हम समझे हैं, ऐसा घोषणा हम कर सकते हैं. जीवन का अनुभव होने के आधार पर हमारा न्याय-धर्म-सत्य को प्रमाणित करना बन जाता है. अस्तित्व में अनुभव होने के आधार पर समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना बन जाता है.
सहअस्तित्व में अनुभव पूर्वक मानव के जागृति के अर्थ में सभी प्रयत्न का अभीप्सा, आवश्यकता पूरा हो जाता है. इससे ज्यादा कुछ होता नहीं, इससे कम में आदमी प्रमाणित नहीं हो पाता. यही ज्ञानावस्था की सर्वोच्च उपलब्धि है जो परम्परा स्वरूप में प्रमाणित होती है.
जागृत होने के मूल में मानव द्वारा साक्षात्कार में जागृति और भ्रम की लक्ष्मण रेखा को देख लेना है. सही और गलती की लक्ष्मण रेखा को देख लेना है. इस पार भ्रम है, उस पार जागृति है - यह स्पष्ट हो जाता है. इस पार अन्याय है, उस पार न्याय है - यह स्पष्ट हो जाता है. इस पार समस्या है, उस पार समाधान है - यह स्पष्ट हो जाता है. इस पार असत्य है, उस पार सत्य है - यह स्पष्ट हो जाता है. यही साक्षात्कार की महिमा है. साक्षात्कार होने पर उसकी इस महिमा के आधार पर हम कुछ भी योजना बनाएं फिर वह प्रमाणित होने के अर्थ में ही बना पाते हैं. इस साक्षात्कार को प्रमाणित करने के लिए ही योजना होती है. चाहे कुछ भी कर लो! अंततोगत्वा मनुष्य के लिए प्रमाणित करने के लिए अपरिहार्यता हो जाती है, फिर प्रमाणित होना बन जाता है.
मनुष्य के लिए अनुभव मूलक विधि से जीना आवश्यक है और अनुभवगामी पद्दति से अध्ययन कराना भी आवश्यक है. जो हम अनुभव किये रहते हैं, उसको प्रमाणित करने के लिए अनुभवगामी पद्दति की योजना बनाते ही हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)
जीवन का वैभव समझ आने पर यह स्पष्ट होता है - मानव कितना बड़ा है! अभी तक मानव को जो किताबों द्वारा और मशीन द्वारा देखने का प्रयास करते रहे, वह क्या बचपना था ऐसा मूल्यांकन करना बन जाता है. जीवन को समझने के घाट को मनुष्य ही पार करता है. कोई गधा, घोडा, कुत्ता, बिल्ली इसको नहीं समझ सकता. जबकि अभी आप मनुष्य को गधे, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली के समकक्ष मानके शिक्षा में भाषा सिखाते हो, कार्य प्रणाली सिखाते हो, नीति शतक सुनाते हो! हम ऐसा करते हुए कितने बुद्धिमान हैं, आप ही मूल्याङ्कन करो!
समझदारी के बाद हमारी पहले की सारी बैसाखियाँ छूट जाती हैं, सारे भ्रम टूट जाते हैं, सारे अतिवाद ध्वस्त हो जाते हैं. हम स्वच्छंद हो जाते हैं. ऐसे स्वच्छंद मानव मैं भी हूँ, आप भी हो सकते हैं, समग्र मानव ऐसे ही प्रमाणित हो सकते हैं. सर्वशुभ की संभावना को जो मैंने परिकल्पना में देखा, योजना में देखा, कार्ययोजना में देखा - वह यही है.
दर्शन का मतलब है - समझना. समझने का पहला सीढ़ी है - साक्षात्कार या सच्चाई पहचान में आ जाना. दूसरा सीढ़ी है - वह स्वीकार हो जाना, बोध हो जाना. तीसरा सीढ़ी है - अनुभव हो जाना या तृप्ति मिल जाना. साक्षात्कार और बोध का तृप्ति बिंदु है अनुभव. वही कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु भी है. यहीं "कर्म करते समय स्वतन्त्र और फल भोगते समय परतंत्र" वाली बात का निराकरण हो जाता है. हम कर्म करते समय भी स्वतन्त्र हो जाते हैं, फल भोगते समय भी स्वतन्त्र हो जाते हैं. वो कैसे हो जाता है, इसको ऐसे समझ सकते हैं. भ्रम का कर्म-फल समस्या ही होता है, उसको कोई बांटने जाए तो कोई लेता नहीं है. (कोई हमारा दिया हुआ लेगा नहीं तो उसको भोगने के लिए हम परतंत्र हो गये.) जबकि जागृति का कर्म-फल समाधान ही होता है, उसको हर कोई हर जगह अपनाने के लिए तैयार रहता है. इस ढंग से हम जागृति के कर्म को जितना चाहे बाँट सकते हैं. (इस तरह जागृत व्यक्ति अपने कर्म के फल के प्रति आश्वस्त है, और उसको भोगने के प्रति स्वतन्त्र है) इसी आधार पर जागृत मानव के पास अपनी आवश्यकता से अधिक फल पैदा करने की कर्म-प्रणाली आती है. आवश्यकताये कम हो जाती हैं, संभावनाएं अधिक हो जाती हैं. जागृति के इस आधार को छोड़ कर आप कुछ भी करो वह शरीर से, शरीर संवेदनाओं से ही जुड़ा रहेगा. शरीर संवेदनाओं से जुड़ी कार्य प्रणाली कहीं न कहीं कुंठित होता है. कहीं न कहीं वह काला दीवाल तक पहुँच जाता है.
अनुभव पूर्वक ही हम अपनी बात को ठोस ढंग से प्रस्तुत कर पाते हैं. अनुभव से पहले हम प्रस्तुत तो होते हैं, पर वह ठोसपन हमारी प्रस्तुति में नहीं आता है. हमें ऐसा कुछ कहना पड़ता है - किताब में ऐसा लिखा है, यंत्र ऐसा बताता है, आदि. सन्दर्भ (reference) को बता कर हमे अपना सारा भाषा प्रयोग करना पड़ता है.
- श्री ए नागराज के साथ सम्वाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)
इसके बाद 'साक्षात्कार' और 'चित्रण' की बात है. चित्रण में स्मृतियाँ होती हैं. शब्दों की, रूप की स्मृतियाँ होती हैं - किन्तु स्वभाव और धर्म की स्मृतियाँ नहीं होती। स्वभाव और धर्म का साक्षात्कार ही होता है. स्मृति से स्वभाव/धर्म को पहचाना नहीं जा सकता। शब्दों की सीमा में इनको पहचाना नहीं जा सकता। स्वभाव-धर्म अर्थ है - जिसका साक्षात्कार होता है. जैसे - मानव का धर्म सुख है. सुख शब्द की सीमा में नहीं आता. सुख साक्षात्कार में आता है, बोध में आता है, अनुभव में आता है. सुख अनुभव में आने पर संकल्प द्वारा प्रवर्तित होकर हम उसको प्रमाणित करते हैं.
मानव संबंधों में निर्वाह होने के लिए मानव का स्वभाव/धर्म साक्षात्कार होना अनिवार्य है.
साक्षात्कार होता है तो बोध (अवधारणा) होता ही है. (अवधारणा) बोध को प्रमाणित करने के लिए हम तत्पर होते हैं तो अनुभव होता ही है. फिर अनुभव के तारतम्यता में सही जीवन क्रियाएं होने लगती हैं. अनुभव आत्मा में होता है.
अनुभव मूलक विधि से जब हम कार्यक्रम को बनाते हैं, चित्रण करते हैं तो वह न्याय-धर्म-सत्य के अर्थ में ही होता है. इससे संवेदनाएं जो होते हैं, वे इसमें नियंत्रित हो जाते हैं. चिंतन पूर्वक हम जी रहे हैं या नहीं इसकी जांच यही है - संवेदनाएं नियंत्रित हुआ या नहीं। इसको हर व्यक्ति स्वयं में जांच सकता है. इसको जांचने का अधिकार जितना मुझे है उतना ही आपको भी है. संवेदनाएं न्याय-धर्म-सत्य की चौखट से बाहर भागते हैं तो वे नियंत्रित नहीं हैं. यही वह जगह है जहां दोहरे व्यक्तित्व का सम्भावना मर जाता है. मनुष्य में दोहरे व्यक्तित्व का मृत्यु स्थली यही है. जिस क्षण में हम संज्ञानशीलता में अपनी संवेदनाओं को नियंत्रित पाते हैं, उसी क्षण में दोहरे व्यक्तित्व की मृत्यु होती है. दोहरा व्यक्तित्व भ्रम का सबसे बड़ा कवच है. यहीं "भ्रम" और "जागृति" का नीर-क्षीर न्याय हो पाता है. "सही" और "गलत" का लक्ष्मण रेखा भी यहीं बनता है. इस बात को हम अच्छी तरह से पहचान सकते हैं. "सही" और "गलत" का भेद जब प्रस्तुत करते हैं तो सही तो सभी को स्वीकार हो जाता है. भ्रमित आदमी को भी सही स्वीकार होता है. भ्रमित आदमी को सही स्वीकृत होने पर सही में उसकी निष्ठा होने के लिए साक्षात्कार होना आवश्यक है.
संवेदनाएं नियंत्रित होने की इस कसौटी से यदि हम उभर पाते हैं तो न्याय-धर्म-सत्य का बोध होता ही है. यह अध्ययन-क्रम में होने वाली प्रक्रिया ही है. इस कसौटी से पार निकलने के बाद हम अपने संबंधों में स्थिर हो जाते हैं, स्थित हो जाते हैं, निश्चल हो जाते हैं. न्याय-धर्म-सत्य का जैसे ही बोध होता है तो अपने संबंधों का निर्वाह करने में हम सक्षम हो जाते हैं. संबंधों के संबोधन तो हम अभी भी करते हैं - जैसे माँ, पिता, भाई आदि - किन्तु भ्रमित रहने तक उनमे हमारे विश्वास के निर्वाह की निरंतरता नहीं बन पाती। संबंधों में विश्वास का निर्वाह होने के लिए न्याय-धर्म-सत्य का साक्षात्कार होना आवश्यक है.
इस प्रकार जीवन के वैभव को आप बोध कर सकते हैं. इस बोध को प्रमाणित करने के लिए हम स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त होते हैं तो अनुभव होता ही है. फिर अनुभव से सम्पूर्ण जीवन अभिभूत हो जाता है. अर्थात अनुभव के स्वरूप में जीवन की सभी क्रियाएं होने लगती हैं.
चिंतन में यदि हम स्वयं को नियंत्रित होना पा लिए तो व्यवहार में हम नियंत्रित होना पा ही जाते हैं. चिन्तन में हम यदि समाधानित होते हैं तो व्यवहार में समाधानित होना पाते ही हैं. चिन्तन में हम यदि न्यायिक होते हैं तो व्यवहार में न्यायिक होना पाते ही हैं. इसको मैंने शतशः देखा है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)
मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है. यद्यपि अनेक जीव भी जीवन और शरीर के संयुक्त स्वरूप हैं, किन्तु मानव ही समझने योग्य और प्रमाणित करने योग्य है. मनुष्य की शरीर रचना में सप्त धातुओं का संतुलन है और समृद्धि पूर्ण मेधस है जिससे जीवन अपनी जागृति को व्यक्त कर सकता है. इससे कम समृद्ध मेधस और सप्त धातुओं का संतुलन जीव संसार में है. उससे पहले भौतिक-रासायनिक संसार में मेधस-तंत्र का कोई लक्षण, प्रकाशन व प्रमाण नहीं है. यह चिंतन मानव से ज्यादा सम्बंधित है. मानव ही जागृति को प्रमाणित करने योग्य है. बाकी रासायनिक-भौतिक संसार यांत्रिक रूप में कार्य कर रहा है. इसके बावजूद ये त्व सहित व्यवस्था को प्रमाणित करते हैं, यह आपको यकीन दिलाया है. मनुष्य ही एक मात्र ऐसी इकाई है जो अपनी त्व सहित व्यवस्था को अभी तक आये दो चिन्तनो - आदर्शवाद और भौतिकवाद द्वारा - पहचान नहीं पाया है. अब इस नए चिंतन द्वारा हम मानव के त्व सहित व्यवस्था स्वरूप को पहचान सकते हैं.
मानव के अस्तित्व में होने का प्रयोजन है - सहअस्तित्व सहज प्रमाणों को प्रस्तुत करना. प्रमाणों को प्रस्तुत करना ही मानव का व्यवस्था में जीने का स्वरूप है. व्यवस्था में भागीदारी स्वरूपी प्रमाण की ही निरंतरता होती है.
शरीर की रचना गर्भाशय में होती है, जबकि जीवन अपने स्वरूप में एक गठनपूर्ण परमाणु है जो गठनपूर्णता संक्रमण को प्राप्त है. भौतिक परमाणु और जीवन परमाणु में अंतर है - जीवन परमाणु भार बंधन और अणु बंधन से मुक्त है. जीवन परमाणु में गठनपूर्णता के साथ ही सम्पूर्ण समझदारी को व्यक्त करने की संभावना भ्रूण अवस्था में होता है. उसके बाद जीव संसार में जीवन कुछ व्यक्त होता है, फिर मानव संसार में जीवन कुछ और व्यक्त होता है. आज की स्थिति में मानव जागृति को पूर्णतया व्यक्त करने योग्य हो गए हैं. यह कहने का आधार है - जैसे मैं समझ गया, प्रमाणित हुआ, वैसे आप भी समझ सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं. उसी प्रकार सम्पूर्ण मानव जाति समझ कर प्रमाणित कर सकती है, इस बात का आश्वासन इसमें मिलता है.
गठनपूर्ण परमाणु की विशेषता उसमे परिणाम का अमरत्व है. गठनपूर्ण परमाणु की दूसरी महिमा अक्षय बल और शक्ति सम्पन्नता है. अक्षयता को हम इस प्रकार अपने में जांच सकते हैं - जीवन में कल्पनाशीलता है, हम कितना भी कल्पना करें - और कल्पना करने की पूंजी बना ही रहता है. हम कितना भी आशा करें - और आशा करने की पूंजी बना ही रहता है. हम कितना भी विचार करें - और विचार करने की पूंजी बना ही रहता है. हम कितना भी संकल्प करें - और करने की पूंजी बना ही रहता है. हम कितना भी निष्ठा करें - और निष्ठान्वित होने की पूंजी बना ही रहता है. जितना हम इन शक्तियों को प्रमाणित करते हैं ये उतने ही ज्यादा और प्रखर और सटीक होते जाते हैं.
हर मनुष्य जीवन रूप में समान है. हर जीवन की गठनपूर्णता समान है. हर जीवन की अक्षय बल और शक्ति सम्पन्नता समान है. हर जीवन का लक्ष्य समान है.
जीवन लक्ष्य सुख-शान्ति-संतोष-आनंद है. मानव लक्ष्य समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व है. मानव जीवन का अध्ययन शरीर के साथ रह कर ही करेगा और जीवन जागृति को प्रमाणित करेगा. जागृति मानव परंपरा में ही प्रमाणित हो सकती है. यह मानव कुल का मौलिक वरदान है. मानव कुल अपने इस मौलिक वरदान तक पहुँच नहीं पाए थे, उस तक पहुँचने का रास्ता इस दर्शन से मिल गया.
बल को हम स्थिति में देखते हैं, और शक्ति को गति में देखते हैं. जैसे - 'आस्वादन' स्थिति है. 'चयन' गति है. आस्वादन हमारी/आपकी स्थिति में ही हो पाता है. आस्वादन के लिए चयन कहीं न कहीं बाहर से ही होता है, इसलिए यह गति में होता है.
संवेदनाओं के आस्वादन के आधार पर चयन होना एक विधि है - जिसको 'भ्रम' कहा.
मूल्यों के आस्वादन के आधार पर चयन होना दूसरी विधि है - जिसको 'जागृति' कहा.
उसके बाद विचारों में विश्लेषण हमारे नज़रिए (दृष्टि) पर आधारित रहती है. मानव के पास दो नज़रिए (दृष्टियाँ) हैं तुलन करने के लिए (१) प्रिय-हित-लाभ, (२) न्याय-धर्म-सत्य. तुलन का नजरिया हमारी/आपकी स्थिति है. विश्लेषण बाहर की ओर या गति है.
प्रिय-हित-लाभ दृष्टियों से तुलन करके विश्लेषण करना इन्द्रिय-सापेक्ष है - जिसको 'भ्रम' कहा.
न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों से तुलन करके विश्लेषण करना अनुभव के आधार पर है - जिसको 'जागृति' कहा
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)
मिट्टी से लेकर मनुष्य तक किसी भी वस्तु को आप देख लीजिये - उसका "होना" देखा जाता है, उसका "रहना" पाया जाता है। सभी जड़-चैतन्य प्रकृति का होना-रहना पाया जाता है। मनुष्य का नियति-विधि से प्रगटन-क्रम में धरती पर "होना" देखा जाता है। मनुष्य के अभी तक के इतिहास में उसका जीव-चेतना विधि से "रहना" पाया जाता है।
मिट्टी का होना-रहना देख कर मनुष्य का मानवीयता स्वरूप में रहना बनेगा नहीं। मिट्टी का होना-रहना मानव के लिए अनुकरणीय नहीं है। जानवर का होना-रहना मनुष्य के लिए अनुकरणीय नहीं है। मनुष्य-प्रकृति जीव-संसार के बाद धरती पर प्रगट हुआ। मनुष्य-प्रकृति ने अपनी मौलिकता को अभी तक पहचाना नहीं है। मनुष्य-प्रकृति जब अपनी मौलिकता को पहचानेगा तभी मानव-चेतना विधि से जियेगा। मनुष्य की मौलिकता "मानवीयता" ही है। मनुष्य-प्रकृति द्वारा अपनी मौलिकता को पहचान कराने के लिए ही मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
प्रश्न: आपके अनुसार प्रचलित-विज्ञान का शोध-अनुसंधान कहाँ पर फेल हो रहा है?
उत्तर: यह बहुत ही विशाल और जटिल प्रश्न है, फिर भी इसको लेकर मैं अपने निष्कर्ष को बताऊंगा. विज्ञान विधा से आप जो सोचते हो उसमे मेरा कोई हस्तक्षेप नहीं है - किन्तु वैसा अस्तित्व में है नहीं, वह प्रमाणित नहीं होता है. इतना ही इसका सम्मानजनक उत्तर है.
यह कहाँ से ऐसा हो गया? इसके बारे में मेरा सोचना ऐसा है - विज्ञान विधि से अभी तक जितना भी उपलब्धि हुआ है उससे "जीवन" की पहचान नहीं हुई. जिस विधि से विज्ञान चल रहा है, उससे वे जीवन को पहचान ही नहीं सकते. विज्ञान विधि controlled conditions में काम करती है. उनके controlled conditions में जीवन पहचान में आएगा नहीं. वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में controlled conditions जो है - वह जीवन ने ही तैयार किया है! जीवन अपने से छोटी चीज़ ही बनाता है. छोटी चीज़ में बड़ी चीज़ समाता नहीं है. तर्कसंगत विधि से यदि आप संतुष्ट होना चाहें तो इसका यही उत्तर है. तर्कसंगत विधि से संतुष्ट नहीं होना चाहते हैं तो आपकी आरती उतारने के अलावा हम और क्या कर सकते हैं!
विज्ञान संसार जीवन को पहचान नहीं पाया. प्राणकोशिकाओं की क्रिया को वो जीवन समझता है - इसीलिये उसी सीमा में मानव के सभी गुणों की व्याख्या करना चाहता है. ऐसा करते हुए उनको दो सौ वर्ष बीत चुके हैं, पर वे सफल नहीं हो पाए हैं. करोडो वर्ष भी प्रयत्न करें तो भी प्राणकोशाओं की सीमा में मानव के गुणों की व्याख्या होने वाला नहीं है. जीवन को समझने के बाद ही मानव के गुणों को पहचाना जा सकता है - इसके पहले नहीं. चैतन्यता DNA-RNA सीमा में नहीं है. चैतन्यता जीवन का वैभव है.
मैंने जीवन को देखा है, प्राणकोशाओं को भी देखा है, अणुओं को भी देखा है, परमाणु को भी देखा है, परमाणु में निहित अंशों को भी देखा है. उसके बाद क्या बचता है? इस सत्यता को आप स्वीकारें तो आगे कुछ अनुसंधान करने का कार्यक्रम बनता है. जीवन परमाणु को पहचानना बहुत ज़रूरी है. जीवन का जो स्वरूप है, कार्य प्रणाली है, लक्ष्य है - इन सब चीज़ों को पहचानने की ज़रुरत है. उसके बिना विज्ञान की पूर्णता नहीं हो सकती.
जीवन को पहचाने बिना ज्ञान की पूर्णता भी नहीं हो सकती. आदर्शवाद ने जीवन के स्थान पर आत्मा-परमात्मा का परिकल्पना दिया जो प्रमाणित नहीं हुआ. वैसे ही विज्ञान भी जीवन के स्थान पर DNA-RNA की परिकल्पना देते हैं, पर उससे होता नहीं है. अब इनको ले कर क्या किया जाए?
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)
ज्ञानवाही तंत्र और क्रियावाही तंत्र पूरे शरीर में फैले हैं. क्रियावाही तंत्र का संचालन सोते समय भी होता है, बेहोशी में भी होता है. संवेदनाओं को जब भी प्रमाणित करना होता है - वह ज्ञानवाही तंत्र द्वारा ही होता है. चिकित्सा विज्ञान में ज्ञानवाही तंत्र को ही sensory function और क्रियावाही तंत्र को ही motor function कहते हैं.
प्रश्न: ज्ञानवाही तंत्र और क्रियावाही तंत्र का संयोजन कहाँ पर है?
उत्तर: ज्ञानवाही और क्रियावाही तंत्र का संयोजन मेधस में है. मानव शरीर रचना एक सम्पूर्ण है. इस सम्पूर्णता के अंगभूत इसकी एक-एक क्रियाएं होती हैं. ज्ञानवाही तंत्र के आवेशित होने पर क्रियावाही तंत्र का आवेशित होना इसी संयोजन के आधार पर होता है.
प्रश्न: प्राण-वायु का क्या स्वरूप है?
उत्तर: फेंफडों में जा कर के छन के शरीर की सम्पूर्ण प्राणकोशिकाओं के लिए जो वायु की ज़रुरत है - उसका नाम है प्राण-वायु. प्राण-वायु के अलावा हमारे नाक-मुंह से कुछ भी अन्दर पहुँचता है, उसको फेंफडे छान देते हैं. छान करके जितना प्राणवायु प्राणकोशिकाओं के लिए आवश्यक है उसको रक्त द्वारा भेज देता है. रक्त शरीर के हर स्थान पर पहुँचता है, जहाँ प्राणकोशिकाएं उस प्राणवायु का सेवन करते हैं, और स्वस्थ रहते हैं. मेधस में भी प्राणवायु इसी विधि से पहुँचता है.
प्राणवायु न मिलने पर प्राणकोशिकाएं मर जाते हैं. प्राणकोशिकाओं को जिस प्रकार की वायु चाहिए उसकी संप्राप्ति के लिए प्राणतंत्र है. यह प्राणतंत्र फेंफडे से सम्बंधित है. फेंफडे में ही वायु का संशोधन होता है. प्राणवायु अलग करने के बाद वह शरीर की सभी प्राणकोशिकाओं के लिए सुगम हो जाता है. प्राणकोशिकाओं से निष्काषित और हमारे भोजन को पचाने के बाद "अपान वायु" तैयार होता है. अपान वायु का शरीर द्वारा निष्कासन हो जाता है. इसी को हम "प्राणवायु संचार विधि" कहते हैं.
व्यवस्था सब सिलसिले से है. इसमें सब एक ईंटा के बाद दूसरा ईंटा जुड़ा हुआ है. कहीं कोई छेद नहीं है.
श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी, १९९९)
साँस लेना, दिल धड़कना आदि क्रियावाही तंत्र का कार्यकलाप है, जिसका केंद्र है - ह्रदय. ह्रदय से रक्त संचालित होता है. रक्त संचालित होने से फेफड़ों की क्रिया है - जिससे साँस लेना-छोड़ना बनता है. यह सब क्रियावाही तंत्र का कार्यकलाप है जिसमे मेधस व ज्ञानवाही तंत्र का कुछ रोल नहीं है. जीवन द्वारा इनको जीवंत बनाए रखना पर्याप्त है.
प्रश्न: क्रोध की स्थिति में जो हमारी धड़कन तेज हो जाती है, वह कैसे होता है?
उत्तर: जीवन के आवेशित होने पर ज्ञानवाही तंत्र उत्तेजित हो जाता है, जिससे क्रियावाही तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है. जैसे - साँस का तेज़ चलने लगना, साँस का गर्म हो जाना, चक्कर आने लगना. यह और ज्यादा बढ़ने पर रक्तचाप बढ़ जाता है. और ज्यादा होने पर ह्रदय अवरोध हो जाता है. किसी अवधि से अधिक आवेशित होने पर शरीर मर भी जाता है.
शरीर तो जीवन की गति या मनोगति से चल नहीं सकता. एक अवधि तक शरीर जीवन के आवेश को सहन कर पाता है, उससे अधिक होने पर स्वाभाविक है शरीर का कोई न कोई अंग काम करना बंद कर देता है.
कोई न कोई संवेदनाओं के अतिरेक - अतिविरोध या अतिसम्मोहन - होने पर ही क्रोध या आवेश होता है. और किसी विधि से जीवन का आवेशित होना संभव नहीं है. इससे ज्यादा से ज्यादा ह्रदयतंत्र और श्वसनतंत्र पर प्रभाव पड़ता है.
शरीर के अनुसार क्रियावाही तंत्र है, जीवन के अनुसार ज्ञानवाही तंत्र है. इसलिए ज्ञानवाही तंत्र आवेशों को प्रस्तुत करता है. क्रियावाही तंत्र रोगों को प्रस्तुत करता है.
प्रश्न: मानव की "सहज गति" में जीवन और शरीर के क्रियाकलाप का क्या स्वरूप है?
उत्तर: मानव की "सहज गति" है - संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहना. मानव का सहज गति यही है - जो प्रलोभन (सम्मोहन) और विरोध (भय) से मुक्त है. इसी सहज स्थिति में मनुष्य स्वस्थ रहता है.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी १९९९)
शरीर है ही, जीवन है ही, अस्तित्व है ही - उसको मैंने, आपने या इस दर्शन ने नहीं बनाया है. जो है, उसका मैंने दर्शन किया है. जो नहीं है, उसका मैंने दर्शन नहीं किया है.
भौतिकवाद कहता है - जो पहले नहीं था, वह उन्होंने कर दिखाया है. सहअस्तित्ववाद कहता है - जो हमेशा से था ही, उसी को हम करते हैं. दोनों में अंतर यही है. जो नहीं है, उसको आप और हम कर ही नहीं सकते. यह सोचने की बात है. प्रश्न: गर्भ में जब शिशु रहता है, उसके जीवन और माँ के जीवन में कैसे तालमेल बैठता है?
उत्तर: पाँच माह का गर्भ होने के बाद, शिशु का जीवन गर्भ में शिशु-शरीर को संचालित करना शुरू करता है. माँ जो बातें बोलती/सुनती है - उसको शिशु सुनता ही रहता है, वह शिशु के अवगाहन में आता ही रहता है. यही गर्भ संस्कार है. इसके लिए गर्भ में जब तक शिशु है तब तक शिशु में क्या संस्कार डालना है, इसको माँ द्वारा समझे रहना आवश्यक है. उसके लिए माँ का समझदारी से संपन्न होने के अलावा और कोई तरीका नहीं है.
गर्भ में रहते तक माँ का जीवन शिशु के जीवन द्वारा उसके ज्ञानवाही तंत्र को तंत्रित करने में कोई अड़चन नहीं बनता है. शिशु का शरीर और उसके जीवन का कार्यक्षेत्र गर्भाशय तक ही सीमित रहता है. माँ के मेधस तंत्र से शिशु का जीवन कोई सम्बन्ध नहीं रखता है, या व्यवधान नहीं करता है. इस तरह से दोनों जीवनों की निश्चित कार्य प्रणाली बन जाती है. ये दोनों जीवन एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं, उनका सुखद सहवास होता है. फलस्वरूप श्रेष्ठतम रचना के रूप में शिशु धरती को मिलता है, मानव परंपरा को मिलता है. माँ की गोद में आता है. यह पूरी तरह हस्तक्षेप से मुक्त प्राकृतिक विधि है. प्रश्न: जीवन मेधस के साथ कैसे कार्य करता है?
उत्तर: मेधस तंत्र एक बहुत महत्त्वपूर्ण रचना है. उससे सूक्ष्म भौतिक-रासायनिक तंत्र कुछ भी नहीं है. यह शरीर में सूक्ष्मतम अंग है. दूध पर मलाई को पलटाये तो जैसा दिखता है - वैसा यह दिखता है. पूरा मेधस एक रसायन जल में तैरता रहता है. उसमे असंख्य प्राणकोशाएं तंतु के रूप में बने रहते हैं. इन तंतुओं पर दो एंटीना जैसे (मूंछ जैसे!) बने रहते हैं. जब कभी जीवन मेधस तंत्र को तंत्रित करना चाहता है, तब वह इस रसायन जल पर अपने उद्देश्य की तरंग को पैदा करता है. उस संकेत को वो एंटीना जैसे निकले हुए तंतु ग्रहण कर लेते हैं. कम से कम दो तंतु एक संकेत को ग्रहण करते हैं. उसके बाद उससे सम्बंधित संवेदनाएं अपने आप से स्पष्ट होने लगती हैं.
जीवन जब कभी भी स्वयं को संप्रेषित करता है - मेधस जिस रासायनिक जल में डूबा रहता है, उसी पर वह अपनी तरंग को व्यक्त करता है. उसके प्रतिक्रिया में वही तंतु जो उसके संकेत को पढ़े थे, पुनः तरंग को पैदा करते हैं - उसको जीवन स्वीकार लेता है, या पढ़ लेता है. इस प्रकार जीवन और शरीर का सम्बन्ध बना रहता है.
यह मन में सर्वप्रथम शरीर से संवेदना की स्वीकृति और मन द्वारा संवेदनशील विधि से शरीर को तंत्रित करने की प्रणाली है. संज्ञानशीलता पूर्वक भी उसी प्रकार उसी तंत्र से जीवन स्वयं को संप्रेषित करता है.
इसके अलावा एक और बात - जीवन पूरे शरीर को जीवंत बनाए रखता है. जीवन एक परमाणु है. यह जीवन परमाणु शरीर में प्राणकोशाओं का जो रक्त, मांस, मज्जा, स्नायु आदि का ताना-बाना बना हुआ है, उसके बीच के छिद्रों में से पूरे शरीर में संचार किया रहता है. पूरे शरीर में जीवन के संचार किये रहने से शरीर का हर अंग हमको जीवंत दिखता है. आदमी सोया रहता है तब भी शरीर जीवंत रहता है.
जीवंत रहने के लिए प्राणकोशिकाओं से बने छलनी जैसे ताना-बाना से संचार करना और मेधस तंत्र पर अपने संकेतों को प्रसारित करना और उससे संकेतों को ग्रहण करना - ये जीवन के प्रधान कार्य हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी, १९९९)
दो अंश का परमाणु भी एक आचरण को प्रस्तुत करता है। दो अंश के जितने भी परमाणु हैं, वे हर देश में एक ही आचरण को प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार तुलसी अपने गुणों को सर्व-देश में एक ही प्रकार से प्रस्तुत करता है। उसी प्रकार गाय अपने स्वभाव को सभी देशों में एक ही प्रकार से प्रस्तुत करता है। जितने भी मृद, पाषाण, मणि, धातु हैं - वे सभी देशों/स्थानों में समान आचरण को प्रस्तुत करते हैं। इस क्रम में मानव का आचरण पहचानने का कोशिश करें - पता चलता है, मानव का आचरण अभी तक ध्रुवीकृत ही नहीं हुआ। आदर्शवादी विधि और भौतिकवादी विधि से मनुष्य इतिहास में सोचा गया है - इन दोनों विधियों से मानव के निश्चित आचरण का स्वरूप ध्रुवीकृत नहीं हुआ।
मानव-चेतना से ही "मानवीयता पूर्ण आचरण" आएगा। जीवचेतना में जीते हुए भी मनुष्य मानवचेतना को चाहता है। मनुष्य शरीर को जीवन चलाता है - इसकी महिमा है, कि मनुष्य न्याय चाहता है, समाधान चाहता है, शान्ति चाहता है। इसका आधार है मनुष्य में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता।
कल्पनाशीलता के आधार पर मनुष्य ने कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग किया। इस तरह मनुष्य ने मनाकार को साकार करने का काम किया - किन्तु मनः स्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु "समाधान" है। समझदारी से समाधान होता है। सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान इन तीनो के मिलने से समझदारी है। इन तीन में से एक भी चीज को हटाया तो समझदारी नहीं है।
एक व्यक्ति जो समाधान पाया उसे हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इसका आधार है - कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता। कल्पनाशीलता में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। जो मैं बोलता हूँ, उसके अर्थ को समझने का अधिकार आपके पास कल्पनाशीलता के रूप में है। अर्थ में तदाकार-तद्रूप हो गया - मतलब समाधान हुआ। अनुभव हो गया, तो प्रमाण हो गया।
समझे हुए, प्रमाणित व्यक्ति के समझाने से समझ में आता है। जैसे - आप और मैं यहाँ बैठे हैं। मैं जो समझाता हूँ, वह आप के समझ में आता है - क्योंकि मैं समझा हुआ हूँ, प्रमाणित हूँ और आप समझना चाहते हैं। कल्पनाशीलता आपके पास भी है, मेरे पास भी है।
संयमकाल में मैंने अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से ही अध्ययन किया था। मैंने सीधे प्रकृति से अध्ययन किया था, आप मुझ से अध्ययन कर रहे हो।
समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप थी। या मेरी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चुप थी। संयम-काल में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता क्रियाशील हुई, तभी तो मैं अध्ययन कर पाया। संयम-काल में मैं सच्चाई के प्रति तदाकार-तद्रूप हुआ। ऐसे तदाकार-तद्रूप होना "ध्यान" देना हुआ कि नहीं? संयम-काल में मैंने आँखे खोल कर ध्यान किया। ऐसे तदाकार-तद्रूप होने का अधिकार आपके पास भी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के रूप में रखा हुआ है। कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता हर व्यक्ति में नियति प्रदत्त विधि से है, या सहअस्तित्व विधि से है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सब में समान रूप से है - चाहे अपने को "ज्ञानी" कहें, "विज्ञानी" कहें, या "अज्ञानी" कहें। इसीलिये मैं कहता हूँ - इस प्रस्ताव को अपना स्वत्व बनाने के लिए सबको समान रूप से परिश्रम करना होगा।
मनुष्य ने जीव-चेतना में जीते हुए जीवों से अच्छा जीने के अर्थ में अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया। इसमें मनुष्य सफल भी हुआ। इस तरह मनुष्य आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरश्रवण, और दूरदर्शन सम्बन्धी सभी वस्तुओं को प्राप्त करने में सफल भी हो गया। इन सब को करने में कल्पनाशीलता का तृप्तिबिंदु न होने से मनुष्य "भोग कार्य" में लग गया। चाहे पढ़े-लिखे हों, या अनपढ़ हों - सब भोगवाद में परस्त हैं।
समाधान पूर्वक जिस दिन से जीना शुरू करते हैं, उस दिन से "मानव चेतना" की शुरुआत है। इसको "गुणात्मक परिवर्तन" या "चेतना विकास" नाम दिया।
कल्पनाशीलता हर व्यक्ति के पास है। अनुभव करने का आधार वही है। कल्पनाशीलता जीवन में है, शरीर में नहीं है। इसी लिए "जीवन जागृति" की बात की है। जीवन जागृति का बिंदु "अनुभव" है। इतने दिन मनुष्य-जाति जो कुछ भी करता रहा, पर यह नहीं किया। मनुष्य के पास पांच विभूतियाँ हैं - रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि। मनुष्य ने इनमें से चार - रूप, बल, पद, और धन - का प्रयोग अपनी कर्मस्वतंत्रता के रहते करके देख किया। "बुद्धि" का प्रयोग अभी तक नहीं किया। बुद्धि का प्रयोग कल्पनाशीलता की तदाकार-तद्रूप विधि को छोड़ कर होगा नहीं। समझदारी के साथ हमको तदाकार-तद्रूप होना है। अभी तक जीव-चेतना में अवैध को वैध मानते हुए सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ तदाकार-तद्रूप रहे। अब एक ही उपाय है - मानव-चेतना को पाया जाए, और उसमें तदाकार-तद्रूपता को पाया जाए। प्रश्न: आपने जब अध्ययन किया तो आपके पास कोई पूर्व-स्मृतियाँ नहीं थी, सब कुछ clean slate था। जबकि हम जो अध्ययन कर रहे हैं तो हमारे साथ तो बहुत पूर्व-स्मृतियाँ हैं जो इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं, फिर हम आपके जैसे अध्ययन कर सकते हैं, अनुभव तक पहुँच सकते हैं - इस बात पर कैसे विश्वास करें?
उत्तर: आपके पास जो "जिज्ञासा" है - वह समाधि की clean slate से कहीं बड़ी चीज है। जिज्ञासा, समझने की गति, और जीने की निष्ठा - इन तीनो को जोड़ने से उपलब्धि तक पहुँच सकते हैं। जीने की निष्ठा इच्छा शक्ति की बात है। जीने की निष्ठा में कमी के मूल में आपके पूर्वाग्रह ही हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
आचरण ही नियम है। नियम प्राकृतिक हैं। मनुष्येत्तर प्रकृति स्वाभाविक रूप में निश्चित आचरण करती है। मनुष्य के आचरण की निश्चयता के स्वरूप को सर्व-देश में समान रूप से पहचान पाना अभी तक संभव नहीं हुआ। मनुष्य अपने आचरण को समझदारी पूर्वक ही "सुनिश्चित" कर सकता है। समझदारी के बिना मनुष्य का आचरण "अनिश्चित" ही रहता है।
मानवीयता पूर्ण आचरण "यांत्रिकता" है या "अनुभव" है?
यांत्रिकता से आशय है जो तर्क द्वारा ही सीमित हो। अनुभव तर्क की सीमा में नहीं है। तर्क अनुभव तक पहुँचने के लिए सहायक है।
यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता जब अनुभव में आता है तब मानवीयता पूर्ण आचरण होता है। इसके पहले नहीं होता। उससे पहले जो "अच्छा लगता है" उसमें लगे रहते हैं, "अच्छा होना" छुटा रहता है।
"अच्छा होना" अनुभव में आता है। "अच्छा लगना" यांत्रिकता में आता है।
यांत्रिकता पांच ज्ञानेन्द्रियों के क्रियाकलाप और जीवन में साड़े चार क्रिया या चित्रण तक ही पहुँचता है।
अनुभव में "अच्छा होना" ही होता है, दूसरा कुछ होता ही नहीं है।
ज्ञानावस्था का मानव ही ज्ञान में अनुभव कर सकता है।
ज्ञान तर्क-संगत होता है, पर ज्ञान तर्क नहीं है। ज्ञान तर्क को संतुष्टि देता है, पर ज्ञान तर्क नहीं है।
तर्क यांत्रिकता तक पहुँचता है, ज्ञान अनुभव तक पहुँचता है।
मानवीयता पूर्ण आचरण जीवन में दसों क्रियाओं के साथ होता है। मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान-मूलक होता है। ज्ञान अनुभव-मूलक होता है। अनुभव मूलक विधि से प्रमाण होता है।
प्रमाण का ही परंपरा बनता है। उसी से ही मत-भेद मुक्ति होता है, अपराध-मुक्ति होता है, भ्रम-मुक्ति होता है, अपने-पराये से मुक्ति होता है।
अनुभव ज्ञान-सम्मत है। यांत्रिकता तर्क-सम्मत है।
मनुष्य के सारे तर्क की पहुँच "अच्छा लगने" और "बुरा लगने" तक ही है। ज्ञान (अनुभव) की पहुँच "अच्छा होने" से लेकर "अच्छा रहने" तक है।
अनुभव है - अनुक्रम से स्वीकृति बनना। अनुक्रम है - सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति। विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति ये सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में हैं। इनको मनुष्य स्वीकारता है, अनुभव करता है। स्वीकृति होने का प्रमाण आचरण में होता है, या आचरण ध्रुवीकृत होता है - जिसको कहा "मानवीयता पूर्ण आचरण"। जिसको प्रमाणित करने का स्वरूप है - "समाधान, समृद्धि"। मैं स्वयं समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ।
मानवीयता पूर्ण आचरण जब परंपरा में आता है तो "निरंतरता" को प्राप्त करता है। मानवीयता पूर्ण आचरण की निरंतरता का स्वरूप है - "अखंड समाज और सार्वभौम-व्यवस्था"।
क्या उचित है? आप ही सोचिये। यह किसी के ऊपर आरोप नहीं है, न किसी का पक्ष है, न विपक्ष है।
इस ढंग का तर्क, इस ढंग का बात-चीत, इस ढंग का संवाद क्या भौतिकवादी विधि से हो पाता है? क्या ऐसा आदर्शवादी विधि से हो पाता है?
इस प्रस्तुति के आगे बेसिर-पैर का तर्क चलेगा नहीं। सारे विश्व के ७०० करोड़ आदमी मिल करके ताकत लगा लें फिर भी इस प्रस्ताव के "ठोस-पन" को हिला नहीं पायेंगे। यह उपलब्धि इतनी "ठोस" होने के आधार पर ही मैंने विश्वास किया कि यह मानव-जाति का सम्पदा है। हर मोड़-मुद्दे पर यह समाधान प्रस्तुत कर सकता है, यह विश्वास होने पर मैंने संसार के साथ जूझना शुरू किया। उसी क्रम में आज आप के सामने पहुंचे हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
साक्षात्कार के बारे में अभी तक मान्यता है - हम जो आँखों से देखते हैं, वही साक्षात्कार है। इस अनुसन्धान से यह निकला - आँखों से देख भर लेना साक्षात्कार नहीं है, वस्तु समझ में आना साक्षात्कार है। शब्द का अर्थ होता है। शब्द के अर्थ-स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। जैसे - आपका कुछ नाम है। उस नाम के अर्थ-स्वरूप में आप स्वयं हैं। इसी तर्ज में हरेक शब्द के अर्थ-स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। हर शब्द अस्तित्व में एक क्रिया या वास्तविकता को इंगित करता है। वह वस्तु समझ में आना साक्षात्कार है।
प्रकृति की हर वस्तु रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य-स्वरूप है। हर वस्तु को हम रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के संयुक्त स्वरूप में पहचान लेते हैं, उसका नाम है - "साक्षात्कार"। साक्षात्कार के बाद "बोध" होता है। साक्षात्कार के बाद बोध के लिए मनुष्य को कुछ करना नहीं है - वह अपने-आप से होता है। बोध के बाद अनुभव, और अनुभव के बाद प्रमाण अपने आप से होता है। साक्षात्कार यदि सफल होता है, तो बाकि बोध, अनुभव, और प्रमाण अपने आप से होता है। जैसे - आँखों से हम कुछ देखने के बाद अपने आप से देखी हुई चीज को स्वीकारते हैं या अस्वीकारते हैं। यह स्वीकारना और अस्वीकारना अपने आप से होता है। देखने के लिए प्रयास रहता है। देखने के बाद उसको स्वीकारना या अस्वीकारना अपने-आप होता है। ऐसा होता है या नहीं - इसको आप स्वयं बताइये! उसी तरह साक्षात्कार होने पर स्वयं-स्फूर्त बोध होता ही है, अनुभव होता ही है, प्रमाण होता ही है।
अनुभव होने के बाद अनुभव-प्रमाण का बुद्धि में जो बोध होता है - उसका नाम है "ऋतंभरा"। इस तरह अनुभव पूर्वक दुसरे व्यक्ति को बोध कराने का स्वयं में "अधिकार" बनता है। जिस सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का अनुभव पूर्वक "ज्ञान" हुआ, उसका प्रमाण है - दूसरे को बोध कराने की ताकत।
वस्तु को जब अस्तित्व में पहचानते हैं तो उसमें पहचानना है - रूप के साथ गुण, गुण के साथ स्व-भाव, स्व-भाव के साथ धर्म। यह पहचान होता है तो हम समझे, नहीं तो क्या समझे? इस तरह पहचानने के लिए "अध्ययन" है। चारों अवस्थाओं का रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म स्पष्ट किया गया है। आकार-आयतन-घन के स्वरूप में "रूप"। सम-विषम-मध्यस्थ के स्वरूप में "गुण"। चारों अवस्थाओं का स्वभाव और धर्म अलग-अलग स्पष्ट किया गया है।
अध्ययन-विधि से ही साक्षात्कार तक पहुँचते हैं। और किसी विधि से साक्षात्कार तक पहुँचते नहीं हैं। इस सभा की पहली घोषणा यही है - अध्ययन विधि को छोड़ करके चारों - रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म - को एक साथ पहचानने का कोई रास्ता नहीं है। यदि यह बिना अध्ययन के समझ में आने की कोई विधि होती तो मुझे अध्ययन-विधि को प्रतिपादित करने की कोई "आवश्यकता" भी नहीं होती।
अस्तित्व के सह-अस्तित्व स्वरूप में होने का अध्ययन कराते हैं। अनुभव पूर्वक हम दूसरों को समझाने योग्य होते हैं, दूसरों को बोध कराने के योग्य होते हैं। इसका नाम दिया - "चेतना विकास"।
मध्यस्थ-दर्शन में अस्तित्व के सह-अस्तित्व स्वरूप में होने का अध्ययन कराते हैं।
सह-अस्तित्व ही है अस्तित्व! "सह-अस्तित्व" शब्द से इंगित वस्तु अस्तित्व ही है। सम्पूर्ण अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व कहीं "छुपा हुआ" नहीं है, किसी के "कब्जे" में नहीं है। अस्तित्व "स्वाभाविक" रूप में सह-अस्तित्व है। अस्तित्व "मानव कृत" रूप में सह-अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व का स्वाभाविक रूप में सह-अस्तित्व होना समझ में आना ही साक्षात्कार है। "समझदारी" के रूप में साक्षात्कार होता है। बोध होना = समझदारी को बल मिला। अनुभव में समझदारी पूर्ण हुआ। इसका नाम है - दृष्टा पद।
शरीर "देखता" नहीं है। शरीर जीवन द्वारा "देखने" के लिए माध्यम है। इसको "दृष्टि-गोचर" कहते हैं। जीवन में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता निहित है। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता नहीं है। शब्द के अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के रूप में स्वीकार करने वाली क्रिया है - कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता। वस्तु का स्वरूप (रूप, गुण, स्वभाव, धर्म) हमारी कल्पनाशीलता में आता है। इसको "ज्ञान-गोचर" कहते हैं। अध्ययन कराने वाला अनुभव किये रहता है। अनुभव मूलक विधि से अनुभव-गामी पद्दति बनती है। अनुभव-गामी पद्दति से अध्ययन करने वाले की कल्पना में अनुभव-मूलक विधि से प्रस्तुत बात आ जाती है। कल्पनाशीलता में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। उसी से अध्ययन होता है।
भौतिकवादी विधि से जीता हुआ मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता को शरीर-संवेदनाओं के अर्थ में तदाकार-तद्रूप बना कर रखता है। आदर्शवादी विधि से जीता हुआ मनुष्य शरीर-संवेदनाओं को नहीं मानता। शरीर-संवेदनाओं को "नहीं मानने" से बोध नहीं होता।
तदाकार-तद्रूप होने की महिमा कहाँ है? वह क्या वस्तु है जो तदाकार-तद्रूप होती है? जीवन में कल्पनाशीलता को उस वस्तु के स्वरूप में मैंने अनुभव किया है। इसी कल्पनाशीलता के आधार पर हर व्यक्ति अध्ययन कर सकता है।
वैदिक-युग से यही स्वीकारा गया - मनुष्य सुनने योग्य है, और सुनाने योग्य है। इसको "श्रुति" और "स्मृति" कहा। "श्रुति के स्वरूप में हम सुनते हैं, स्मृति के स्वरूप में हम सुनाते हैं।" इस बात को वैदिक-विचार ने अपने ढंग से प्रस्तुत किया। उस वेद-परंपरा से मैं गुजरा हुआ हूँ। सुनने-सुनाने में हमारी कल्पनाशीलता तदाकार-तद्रूप हो जाता है। सुनने-सुनाने के क्रम में ही "उपदेश-विधि" आती है। उपदेश विधि से "प्रमाणित होना" नहीं बनता। मैं यहाँ साधना के लिए आने से पहले उपदेश-विधि से चला हुआ हूँ। इस तरह उपदेश दूसरों को देने के बाद मैंने स्वयं में जांचा - जिस बात का मैं उपदेश दे रहा हूँ, क्या उसमें मैं जी भी रहा हूँ? मैं जो कह रहा हूँ, वह लोगों के लिए कह रहा हूँ - या वह मेरे जीने के लिए भी है? जब मैंने अपने ही उपदेश के अनुरूप स्वयं को प्रमाणित होता हुआ, जीता हुआ नहीं पाया तो मैं व्यथित हुआ। उस व्यथा का शमन करने के लिए ही मैंने यह सब साधना किया, अनुसन्धान किया। अनुसन्धान के फल-स्वरूप में पहले मैं जिस बात का उपदेश देता था, उसी का "विकल्प" मिल गया।
अध्ययन यदि सफल होता है तो स्वाभाविक रूप में बोध होता है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। अनुभव होने के बाद प्रमाण होता ही है।
अनुभव होना = दृष्टा पद
प्रमाणित होना = जागृति
"दृष्टा पद" में आने के बाद प्रमाणित होने की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप में शुरू होता है। इस ढंग से "मानव चेतना" के उदय होने की बात आती है। इससे कम में मानव-चेतना कभी उदय नहीं होगा, न इससे कम में मानव-चेतना कभी उदय हुआ। मेरे अनुसार अध्ययन-विधि के अलावा और किसी विधि से मानव-चेतना तक पहुँच नहीं सकते, न दूसरी कोई विधि है। तदाकार-तद्रूप विधि ही है। जो कुछ भी तदाकार-तद्रूप विधि से साक्षात्कार होता है, वह चारों अवस्थाएं ही हैं। जब कभी भी हमको साक्षात्कार होगा, हम "दृष्टा पद" में स्थिति हो जायेंगे। दृष्टा पद = अनुभव।
अनुभव होने के बाद आत्मा अभिव्यक्तिशील हो जाती है। जीवन परमाणु के मध्यांश का नाम है - "आत्मा"।
शास्त्रों में समाधि की स्थिति में अज्ञात ज्ञात होने की बात लिखा है। समाधि की स्थिति को मैंने देखा है। समाधि में कुछ ज्ञान नहीं होता। फिर समाधि में क्या "देखा"? यह देखा - मेरे आशा-विचार-इच्छा चुप हो गए। दूसरे यह देखा - समय (काल), शरीर, और स्थान (देश) का ज्ञान नहीं रहा।
आशा-विचार-इच्छा जब चुप थी तो देखने वाला कौन था?
समाधि की स्थिति में मुझे ज्ञान नहीं था - "कौन" देखता है। आज मैं - अनुभव-सम्पन्नता के साथ - कह सकता हूँ, मेरी बुद्धि और आत्मा ही मेरी आशा-विचार-इच्छा की चुप्पी को देखने वाला था। समाधि की स्थिति में मुझे भूत और भविष्य से पीड़ा और वर्तमान से विरोध नहीं रहा। समाधि के बाद संयम के बाद मैं अध्ययन पूर्वक "दृष्टा पद" में स्थित हुआ, अनुभव-संपन्न हुआ।
सह-अस्तित्व में दृष्टा पद। सह-अस्तित्व में अनुभव। सह-अस्तित्व क्यों है, कैसा है? चारों अवस्थाएं क्यों हैं, कैसे हैं? इसका उत्तर मुझे मिल गया। इस उत्तर से मैं तृप्त हुआ। इस तृप्ति को व्यक्त करने के लिए, व्याख्या करने के लिए, संसार को समझाने के लिए मैंने भाषा में सूत्रित किया - दृष्टा-पद कहाँ है? अनुभव कहाँ है? प्रमाण कहाँ है? प्रमाण-परंपरा कैसा है? इस सब को मैंने भाषा में सूत्रित किया।
दृष्टा-पद प्रतिष्ठा तक पहुँचने के लिए पुरुषार्थ है। उसके बाद परमार्थ है। पुरुषार्थ के साथ तर्क जुड़ा है। परमार्थ के साथ तर्क नहीं है। परमार्थ में तर्क पहुँचता ही नहीं है। परमार्थ में हर क्यों और कैसे का उत्तर ही है फिर। परमार्थ में जीना ही जागृति का स्वरूप है। इस प्रकार हम मानव-परंपरा में जागृति को प्रमाणित कर सकते हैं - यदि "इच्छा" हो तो! अपने में ऐसा करने की "इच्छा" होना ही इसकी सफलता का आधार है, दूसरा कुछ भी नहीं है। "हर व्यक्ति शुभ चाहता है" - इसी आधार पर अध्ययन कराने के कार्यक्रम की शुरुआत किये हैं।
पठन के बाद अध्ययन। अध्ययन की शुरुआत साक्षात्कार से है। अध्ययन का फल "दृष्टा पद प्रतिष्ठा" है। "दृष्टा पद" में प्रतिष्ठित होने के बाद प्रमाणित होना स्वाभाविक है। यह आवश्यक है, या अनावश्यक है - इसको आप सोचिये!
प्रश्न: साक्षात्कार होने के बाद बोध होने पर "और क्या" समझ में आता है - जो साक्षात्कार में नहीं आया था, उसके बाद अनुभव होने पर "और क्या" समझ में आता है - जो बोध में नहीं आया था?
उत्तर: साक्षात्कार में जो समझ आता है वही बोध और अनुभव में "पक्का" हो जाता है। उसके अलावा कुछ नहीं। साक्षात्कार में "रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म" चारों पहुँचता है। रूप में भौतिक-रूप और चैतन्य-रूप (जीवन) दोनों शामिल हैं। "रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म" - समग्र अस्तित्व में जो नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य है - उसको इंगित करने के लिए है। उसका साक्षात्कार होता है। बुद्धि में धर्म और सत्य पहुँचता है। बाकी सब साक्षात्कार तक रह जाता है। और फिर अनुभव में सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य ही पहुँचता है।
जड़ समझ में आ जाए तो फल समझ में आता है। या - फल समझ में आ जाए तो जड़ को समझने की आवश्यकता बनती है।
जैसे - सेब का फल यहाँ रखा है, उसका जड़ तो यहाँ नहीं है। इस फल का जड़ कहीं होगा - ऐसा कल्पना में आता है। यह जो सामने रखा है, वह झाड पर उगा हुआ फल है, कागज़ की बनी हुई आकृति है, या मिट्टी की बनी हुई आकृति है - यह हमको पता चलता है। कागज़ या मिट्टी से फल जैसे आकार में बना कर, रंग-रोगन लगा कर बनाया हो - उसको हम "कृत्रिम फल" कहते हैं। "वास्तविक फल" झाड पर ही पकता है। आज भी वास्तविकता पर विश्वास करना बनता है, कृत्रिमता पर विश्वास करना बनता नहीं है।
यदि कृत्रिम फल से तृप्त हो सकते होते, तो उसे भी मान लेते! किन्तु कृत्रिम-फल से तृप्ति होती नहीं है। अभी तक तो हुआ नहीं है। कल हो जाए तो स्वागतीय है! यह मंगल-मैत्री पूर्वक की गयी प्रस्तुति है। इसमें दादागिरी कुछ भी नहीं है। आप इसे ही मानो - ऐसा कोई आग्रह नहीं है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का अधिकार सबके पास है। इनका प्रयोग करके हम साक्षात्कार, बोध, अनुभव करके प्रमाणित होते हैं - मूल मुद्दा इतना ही है!
चारों अवस्थाओं का रूप-गुण-स्वभाव-धर्म जो साक्षात्कार हुआ, उसको अनुभव-मूलक विधि से प्रमाणित करने की आवश्यकता है। संसार को इसकी "सूचना" देने की आवश्यकता है। संसार को इसे "समझाने" की आवश्यकता है। सूचना किताब से होता है - मनुष्य के समझाने से समझ आता है। हमारे कहने, करने, और जीने में कितना अंतर है - उस पर ध्यान जाने से ही समझने के लिए जिज्ञासा स्वयं में उदय होती है। स्व-निरीक्षण से ही जिज्ञासा उदय होती है। जिज्ञासा के आधार पर ही अध्ययन होता है। जिज्ञासा की तीव्रता के साथ अध्ययन करने पर साक्षात्कार होता है।
प्रश्न: किसी व्यक्ति में तीव्र जिज्ञासा हो, पर वह अध्ययन न करे - क्या उसको सह-अस्तित्व साक्षात्कार हो सकता है?
उत्तर: बिना अध्ययन किये कोई सच्चाई साक्षात्कार नहीं हो सकता! दूसरा तरीका है - अनुसंधान। अनुसन्धान के लिए समाधि और संयम है। समाधि में तो कोई ज्ञान होगा नहीं! यदि आपकी जिज्ञासा सह-अस्तित्व विधि से ठीक है (या दुसरे शब्दों में - नियति विधि से ठीक है) तो आपको समाधि-संयम विधि से साक्षात्कार होगा। संयम में भी जैसे मैंने धारणा, ध्यान, समाधि के क्रम को उलटा कर संयम किया - उसी विधि से होगा, और किसी विधि से नहीं होगा।
अनुभव-मूलक विधि पहले भी धरती पर प्रस्तुत हुआ है - ऐसा हम कह नहीं सकते, क्योंकि उसकी कोई गवाही नहीं मिलती। समाधि पहले भी बहुत लोगों को हुआ है। उनमें से कुछ लोगों को "उपदेश विधि" में भी प्रवृत्ति हुआ है। किन्तु "प्रमाण" प्रस्तुत करने में सर्वथा असमर्थ है - क्योंकि सब कोई समाधि-संयम-अनुसंधान करेगा नहीं! सबका उस रास्ते से गुजर पाना "अव्यवहारिक" है। आदमी के "सहीपन" का आदमी के इतिहास में "प्रमाण" कहाँ है? अध्ययन-विधि के बिना "प्रमाण" का कोई मतलब ही नहीं निकलता। अध्ययन विधि केवल "व्यवहारिक" है। सब तक जो पहुँच सके, वह अध्ययन-विधि ही है। श्रुति-स्मृति विधि पर्याप्त नहीं हुआ, इसलिए अध्ययन-विधि प्रस्तावित है।
मध्यस्थ-दर्शन में सह-अस्तित्व को "परम सत्य" होना घोषित किया गया है।
"ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या" के स्थान पर "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत" प्रस्तावित है। कितने भी परिणाम हों, जगत रहेगा ही।
आदर्शवाद ने मनुष्य को "अभ्यास" में लगाया, यह कह कर - "भक्ति करो, विरक्त हो जाओ - जिससे स्वर्ग और मोक्ष मिलेगा।" अंतिम-लक्ष्य स्वर्ग और मोक्ष ही है - ऐसा आदर्शवाद में बताया गया है। स्वर्ग और मोक्ष धरती पर है, या "और कहीं" है - तो बताया - "और कहीं" है। उसके लिए तमाम कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए "दिव्य लोक" का वर्णन किया। भौतिकवाद बनाम विज्ञान ने भी धरती पर स्वर्ग का कोई स्वरूप है - ऐसा नहीं बताया। "ताकतवर ही जीने योग्य है" - ऐसा भौतिकवाद प्रतिपादित किया।
मैंने भौतिकवादी और आदर्शवादी "विचारधारा" का समीक्षा ही प्रस्तुत किया है। भौतिकवादी और आदर्शवादी व्यक्ति को छोड़ रखा है। इन दोनों विचार-धाराओं द्वारा मानव का अध्ययन नहीं हुआ। मानव का अध्ययन करने की जिस व्यक्ति को आवश्यकता हो - वे मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन करके देख सकते हैं।
"रहस्य" से हम कुछ पा नहीं सकते। संग्रह-सुविधा से हम तृप्त हो नहीं सकते॥
लोहार का चोट इतना ही है। इसके आगे कहा -
प्रतीक प्राप्ति नहीं है, उपमा उपलब्धि नहीं है।
इस पर आप सभी सोच सकते हैं, अपना मंतव्य व्यक्त कर सकते हैं। आपमें कल्पनाशीलता है या नहीं? - आप ही बताइये! मनुष्य में कल्पनाशीलता होने का प्रमाण इस धरती पर दिखता है या नहीं?
मनुष्य जब धरती पर प्रगट हुआ तब न फूस का झोपडी होता था, न २०० मंजिल का इमारत। अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर ही मनुष्य गुफा से निकल कर झोपडी में रहने लगा। उसके बाद कबीले के खप्पर के मकान, महल, फिर २०० मंजिल की इमारतें... मनुष्य जो कल्पनाशीलता प्रकाशित करता है, वह जीवन में निहित है। कल्पनाशीलता से मनुष्य शून्य में आकार बना डालता है। मनुष्य जो ये इमारतें बनाया है, यान-वाहन बनाया है - शून्य में बनाया है, या और कहीं बनाया है? कल्पनाशीलता का प्रयोग करते-करते मनुष्य आज जहां है, वहां पहुंचा है। अंततोगत्वा पता चला - मनुष्य या तो "अपराध" में फंस गया, या "रहस्य" में फंस गया। अब "स्पष्टता" की आवश्यकता है।
"स्पष्टता" की एक झांकी मैंने आपके सामने प्रस्तुत किया। मेरे इस प्रस्तुत करने में भी कल्पनाशीलता जुड़ा हुआ है। अनुभव के साथ कल्पनाशीलता जुड़ा है। अनुभव के लिए (या अध्ययन के लिए) भी कल्पनाशीलता ही चाहिए।
अनुभव के बाद मनुष्य "ईमानदार" होता है। अनुभव से पहले मनुष्य का ईमानदार होना बनेगा नहीं। ईमानदार नहीं होगा, तो जिम्मेवारी भी लेगा नहीं। जिम्मेवारी नहीं लेगा तो भागीदारी तो दूर की बात है।
ज्ञान नर-नारियों में समान रूप से पहुंचेगा। नर-नारियों में ज्ञान समान रूप से पहुँचने की गवाही के आधार पर उनमें "समान अधिकार" होते हैं। ऐसे समझदार परिवार में ही समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि प्रमाणित होती है।
अनुभव के बाद हम दूसरे को अपने "प्रतिरूप" स्वरूप में बनाने योग्य होते हैं। "ईमानदार मानव" के स्वरूप में अपनी संतान की प्रतिभा और व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं। उसके पहले यह नहीं हो सकता। जब मैंने इस सब को पाया तो मैंने अपनी पत्नी को समझाने का प्रस्ताव रखा। मेरी पत्नी ने साधना-काल में मेरी इतनी सेवा की थी - इसलिए सर्व-प्रथम उन्ही को समझाने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने एक वाक्य कहा - "तुम संसार को तारते रहो - मैं सेवा करती रहूँगी।" जब मेरे लिए सर्वोपरि व्यक्ति ने ऐसा कह दिया, तो मैं सोचने लगा - किसके पास जाएँ, किसको समझायें? इसका उत्तर अपने-आप से आया - जो समझ सकते हैं, उनके पास जाया जाए। फिर मेरी ही कल्पनाशीलता से प्रत्युत्तर आया - "कुआ प्यासे के पास आता है।" इसका उत्तर पुनः आया -"अब विज्ञान के आधार पर घर घर में नल से पानी पहुँच गया है।" इस तर्क से मैंने निर्णय लिया - "समझना चाहने वाला मेरे पास भी आ सकता है, मैं समझने वाले के पास भी जा सकता हूँ।" फिर मैं जूझ गया! आज मैं इस स्थिति में पहुँच गया कि मैं जांच रहा हूँ - मेरा प्रतिरूप कितना तैयार हुआ? "मैं अनुभव किया हूँ, मैं समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ" - इस सत्यापन को करने वाले कितने लोग हो गए, इसको जांचने की स्थिति में मैं पहुँच गया हूँ। उसी उद्देश्य से इस अनुभव-शिविर का आयोजन है।
मेरी शरीर यात्रा का ९० वर्ष व्ययतीत हो चूका है। शरीर को कितना भी रोटी खिलाओ, शरीर अमर होता नहीं है। शरीर नश्वर है, जीवन अमर है - इस सच्चाई को मैं जान गया हूँ, समझ गया हूँ, जी कर देखा हूँ। इस आधार पर मैं जांच रहा हूँ, आगे की पीढियां इस प्रस्ताव को "पवित्रता" पूर्वक ले जाने के लिए कितने लोग अनुभव-मूलक विधि से तैयार हुए हैं। उन्ही के कन्धों पर यह प्रस्ताव "पवित्रता" पूर्वक आगे चलेगा।
मेरे ऐसा कहने में क्या कोई अपने-पराये का दूरी है? प्रत्येक एक अपने रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म के साथ "सम्पूर्ण" है। इस "सम्पूर्णता" की गवाही है - इकाई का स्वयं में व्यवस्था होना, समग्र-व्यवस्था में भागीदारी करना। इसके साथ यह भी है - मनुष्य का अभी स्वयं में व्यवस्था होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना प्रतीक्षित है। अभी तक मनुष्य केवल "व्यक्तिवादी" और "समुदायवादी" विधि से ही जिया है। व्यक्तिवादी विधि से या समुदायवादी विधि से "अखंड समाज" नहीं बन सकता।
"अखंड समाज" के स्वरूप को जब मैंने IIT Delhi में प्रस्तुत किया तो वहां के लोगों ने पूछा - "एक व्यक्ति की बात को हम कैसे "सही" मान लें?" उसके लिए मेरा उनको यही कहना है - आप सब मिल करके अनुसन्धान करो, समाधि-संयम करो, पता लगाओ! इतनी उच्च कोटि के संस्थान में, इतनी सिरफिरी बात! इससे बड़ा "सिरफिरी" बात क्या हो सकती है? इसमें उनसे लड़ने-भिड़ने की कोई बात नहीं है। ठीक है, आगे चल कर वे समझेंगे! आज नहीं तो कल समझेंगे!
सह-अस्तित्व प्रस्ताव की सूचना के आधार पर साक्षात्कार में रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म के अविभाज्य स्वरूप में होने की स्वीकृति होती है। साक्षात्कार में रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म संयुक्त रूप में दिखा। इन चारों में से रूप और गुण चित्त में रह जाता है। चारों अवस्थाओं के लिए रूप और गुण की व्याख्या एक ही है। आकार, आयतन और घन के स्वरूप में "रूप"। सम, विषम, और मध्यस्थ के स्वरूप में "गुण"। स्वभाव और धर्म बोध में गए। बोध पूर्वक जब अनुभव हुआ तो अनुभव में धर्म आया, स्वभाव बुद्धि में निहित रहा।
सह-अस्तित्व में धर्म अनुभव होता है। धर्म अनुभव में आने के बाद प्रमाणित करने के लिए जब गए तो बुद्धि में स्वभाव जुड़ गया। वह जब चित्त में आया तो रूप और गुण दोनों जुड़ गए। इस तरह रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म जुड़ने पर हम प्रमाणित करने के लिए चित्रण करना शुरू किये। इस तरह "अनुभव-मूलक विधि" से चित्रण किया तो "अनुभव गामी पद्दति" आ गयी।
अनुभव-गामी पद्दति से अध्ययन कराते हैं, अनुभव-मूलक विधि से प्रमाणित होते हैं।अभी तक इस पूरी धरती पर जितना भी लिखा हुआ आप पढेंगे, उसमें यह वाक्य नहीं है। कहीं भी खोज लो! वेद-विचार में अध्ययन कराने और प्रमाणित होने की बात नहीं है - और विचारों का क्या कहा जाए? इसको "चुनौती" कहा जाए, "प्रार्थना" कहा जाए, "विनती" कहा जाए - कुछ भी आप इसे नाम दे दो! पर बात तो ऐसा ही है!
दृष्टि-गोचर के साथ ज्ञान-गोचर न हो तो देखा नहीं! ज्ञान-गोचर के साथ दृष्टि-गोचर न हो तो देखा नहीं!!
इस सिद्धांत पर मैं अटल हूँ! ज्ञान-गोचर को दृष्टि-गोचर भी होना चाहिए। जैसे - मैं ईमानदारी पूर्वक जीता हूँ, तो वह आप को दृष्टि-गोचर होता है। होता है कि नहीं? आप मेरे ईमानदार होने को समझते हो, तभी वह आपको दृष्टि-गोचर होता है। आप उसको नहीं समझते हो, तो आपको वह दृष्टि-गोचर नहीं होता।
भौतिकवाद केवल दृष्टिगोचर को ही लेकर चला, और उसमें "यांत्रिकता" को जोड़ लिया। उससे वह कहाँ पहुँच गया, वह आपके सामने है। आदर्शवाद केवल ज्ञान-गोचर को लेकर चला, और उसके साथ "किताब" को जोड़ लिया। किताब में जो लिखा है, वही ज्ञान है - ऐसा बताने लगा। जबकि किताब में केवल सूचना होता है, ज्ञान होता नहीं है। उपदेश-विधि से ग्रंथों में, किताबों में बहुत कुछ कहा गया। वह उपदेश सार्थक होता हुआ कहाँ है? कहाँ है - आप बताओ? "सत्य बोलो!" - यह कौनसा समुदाय नहीं कहा होगा? मेरी नज़र में सभी धर्म-ग्रन्थ जो कहलाते हैं - वे सत्य बोलने के लिए सहमत हैं। लेकिन सत्य को कौन समझाया? सत्य को समझाए बिना "सत्य बोलो" कह दिया? उपदेश दे दिया? यह कैसे सफल होगा?
अध्ययन पूर्वक अनुभव तक पहुंचना है। अनुभव पूर्वक अध्ययन कराने तक पहुंचना है।
इस प्रकार हम अपना "प्रतिरूप" तैयार कर सकते हैं। यह ज्ञान-विधि से हुआ। जिसका प्रयोजन मनुष्य का "सुखी होना" है। सर्व-मानव सुखी होना चाहता है। आज पैदा हुआ, या कल मरने वाला - दोनों सुखी होना चाहते हैं।
अभी तक हमारा जो चर्चा हुआ, वह "आवश्यक" है या "अनावश्यक" है - यह भी आपके सोचने के लिए एक मुद्दा है। "गुण" को मध्यस्थ-दर्शन में सम, विषम, और मध्यस्थ स्वरूप में होना समझाया गया है। प्रकृति की इकाइयां साम्य-ऊर्जा (सत्ता) में संपृक्त हैं, और कार्य-ऊर्जा को प्रकाशित करती हैं। साम्य-ऊर्जा घटता-बढ़ता नहीं है, कार्य-ऊर्जा घटता-बढ़ता है। सम-विषम गुण "कार्य-ऊर्जा" से सम्बंधित हैं। मनुष्य अपनी कार्य-ऊर्जा को जब "उत्पादन कार्य" (मनाकार को साकार करना) में लगाता है और "समझाने" में लगाता है - उसे "सम" गुण कहा। मनुष्य अपनी कार्य-ऊर्जा को विनाश करने में या भ्रमित करने में लगाता है - उसे "विषम" गुण कहा। भ्रमित करने और विनाश करने में स्व-शक्तियों का प्रयोग ही "अपराध" है।
"रूप" तथा सम और विषम "गुण" चित्त तक ही रहते हैं। उसके बाद बोध में "स्वभाव" और "धर्म" चला जाता है। उसके बाद बुद्धि में स्वभाव रुक जाता है, और फिर धर्म अनुभव में आता है।
मैंने चारों अवस्थाओं के धर्म को किस प्रकार अनुभव किया, उसी को बताया है।
मध्यस्थ दर्शन से पूर्व क्या किसी ने पदार्थ-अवस्था के "धर्म" को पहचान कर किसी ने कहीं लिखा भी है? प्राण-अवस्था के "धर्म" को पहचान कर कहीं लिखा है? जीव-अवस्था के "धर्म" को पहचान कर कहीं लिखा है? मानव के "धर्म" को पहचान कर कहीं लिखा है?
आज तक प्रकृति की सभी अवस्थाओं के धर्म को लिखा नहीं गया - क्योंकि धर्म आज तक अनुभव में आया नहीं है। यही इस अनुसंधान का drastic effect है।
प्रश्न: ऐसे कैसे कहा जाए?
उत्तर: अनुभव के आधार पर कहा जाए। अनुभव के अलावा ऐसे कहने का और कोई विधि नहीं है। आप अध्ययन पूर्वक अनुभव कीजिये - और संसार को बताइये। यह और ऐसे प्रश्न-उत्तर का "कर्म-काण्ड" सब IIT Delhi में हो चुका है। प्रश्न: "मूल्यों का साक्षात्कार" से क्या आशय है?
उत्तर: मूल्य जीवन का स्वाभाविक रूप से "प्रकटन" है। अभी भी जब एक माँ संतान को अपने शरीर का प्रतिरूप "मान" लेती है, तो उसमें ममता का अपने-आप से प्रकटन होता है। अपनी संतान के प्रति ऐसी ममता का प्रगटन जीवों में भी होता है। मनुष्य में ममता जब "व्यवस्था" के अर्थ में समझ आती है, तो ही सार्थक हो पाती है। यदि संतान को शरीर के प्रतिरूप ही मानते हैं तो ममता थोड़े समय तक रहती है, फिर समाप्त हो जाती है।
मूल्यों का कोई साक्षात्कार नहीं होता, मूल्यों का "प्रकटन" होता है।अनुभव-मूलक विधि से जीवन में निहित मूल्य प्रकट होते हैं, प्रमाणित होते हैं। जीवन में जब धर्म अनुभव में आता है, उसके बाद मूल्यों की प्रकटन-शीलता शुरू हो जाती है। मानव-धर्म सुख है।
एक तरफ "स्वयं में अनुभव" है, दूसरी तरफ "समग्र व्यवस्था" है। इन दोनों के बीच में "मूल्यों का प्रकटन" है।
इसीलिये मैं बारम्बार कहता हूँ - "चेतना विकास" के साथ ही "मूल्य शिक्षा" है।
प्रश्न: तो क्या "मूल्यों का प्रकटन" अनुभव के बाद है?
उत्तर: अनुभव के बाद ही मूल्यों का प्रकटन है। अनुभव से पहले मूल्यों का प्रकटन कहाँ होने वाला है?
ईर्ष्या-द्वेष से पचा हुआ मनुष्य क्या "मूल्यों का प्रकटन" करेगा? अपने-पराये की दीवारें बनाते हुए क्या "मूल्यों का प्रकटन" होता है? अपराध को वैध मानते हुए क्या "मूल्यों का प्रकटन" होता है? होता हो तो आप करा दो!
भ्रम का विकल्प जागृति है।
जागृति की आवश्यकता भ्रम के आधार पर ही है।
जागृति के बाद भ्रम रहता नहीं है।
भ्रम नहीं रहता तो जीवन से मूल्यों का प्रकटन अपने आप से होता है।
अभी तक मनुष्य के इतिहास में जितना भी देखा गया, समझा गया, किया गया - उसमें ईमानदारी एक "चाहत" के रूप में है। आचरण के रूप में ईमानदारी आज तक मनुष्य के इतिहास में नहीं है। व्यवहार के रूप में ईमानदारी आज तक मनुष्य इतिहास में नहीं है। शिक्षा में ईमानदारी आज तक मनुष्य इतिहास में नहीं है। व्यवस्था में ईमानदारी आज तक मनुष्य-इतिहास में नहीं है। संविधानो में ईमानदारी आज तक मनुष्य-इतिहास में नहीं है। व्यापार में कितना ईमानदारी है - यह आप सब लोग जानते ही हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित (अनुभव शिविर २०१०, अमरकंटक)