नियति विधि से "नियम" है। आचरण ही नियम है। ज्ञान को प्रमाणित करने वाला "मानवीयता पूर्ण आचरण" ही मानव के लिए "नियम" है। मानव "मानवत्व" हासिल करके ही मानवीयता पूर्ण आचरण (नियम) को कर सकता है। उसके पहले नहीं। मानवत्व से पहले मनुष्य "एक जाति" का होते हुए, "एक धर्म" का होते हुए भी भिन्न-भिन्न आचरण करता है। शरीर-मूलक विधि से सोचने पर सभी मनुष्यों को एक जाति और एक धर्म के रूप में पहचानना संभव नहीं है। शरीर मूलक सोच "भोग" और "संघर्ष" की ओर ही ले जाती है। भोग के लिए शरीर मूलक सोच "व्यक्तिवाद" बन जाती है। व्यक्तिवाद ही आगे जा कर "सम्मान-वाद" में बदल जाता है। संघर्ष के लिए शरीर मूलक सोच "समुदाय-वाद" बन जाती है।
आचरण की निरंतरता ही "नियंत्रण" है। मानव के सन्दर्भ में आचरण की निरंतरता "जागृति की परंपरा" के स्वरूप में है। एक आदमी मानवीयता पूर्ण आचरण (नियम) को प्रमाणित कर दिया - उससे "नियंत्रण" प्रमाणित नहीं हुआ। पीढी से पीढी यदि मानवीयता पूर्ण आचरण (नियम) अंतरित होता है - तब "नियंत्रण" प्रमाणित हुआ। जैसे - मैं इस समझ को पाया। अपने सभी प्रश्नों के उत्तर को पा कर मैं संतुष्ट हो गया। मेरे अकेले के ऐसे संतुष्ट हो जाने से संसार को मुझसे कोई लाभ नहीं हुआ। यह समझ संसार की सम्पदा है, इसे संसार को सौंपना चाहिए। इसी बात को लेकर मैं जूझ गया। जूझते-जूझते आज यहाँ आपके सम्मुख पहुंचे हैं।
स्वयं व्यवस्था में होना, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना - यह "संतुलन" है। जैसे - भौतिक-संसार अपने आप में व्यवस्था होते हुए, अगली अवस्था के लिए पूरक है। इसका नाम है - "संतुलन"। धरती पर सम्पूर्ण मानव-जाति का व्यवस्था में होना और मनुष्येत्तर प्रकृति के लिए पूरक होना - यह मानव के लिए संतुलन का मतलब है।
- अनुभव शिविर २०१०, अमरकंटक - बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित
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