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Saturday, February 20, 2010

जीवन और शरीर का सम्बन्ध - भाग १




शरीर है ही, जीवन है ही, अस्तित्व है ही - उसको मैंने, आपने या इस दर्शन ने नहीं बनाया है.  जो है, उसका मैंने दर्शन किया है.  जो नहीं है, उसका मैंने दर्शन नहीं किया है.

भौतिकवाद कहता है - जो पहले नहीं था, वह उन्होंने कर दिखाया है.  सहअस्तित्ववाद कहता है - जो हमेशा से था ही, उसी को हम करते हैं.  दोनों में अंतर यही है.  जो नहीं है, उसको आप और हम कर ही नहीं सकते.  यह सोचने की बात है.

प्रश्न:  गर्भ में जब शिशु रहता है, उसके जीवन और माँ के जीवन में कैसे तालमेल बैठता है?

उत्तर: पाँच माह का गर्भ होने के बाद, शिशु का जीवन गर्भ में शिशु-शरीर को संचालित करना शुरू करता है.  माँ जो बातें बोलती/सुनती है - उसको शिशु सुनता ही रहता है, वह शिशु के अवगाहन में आता ही रहता है.  यही गर्भ संस्कार है.  इसके लिए गर्भ में जब तक शिशु है तब तक शिशु में क्या संस्कार डालना है, इसको माँ द्वारा समझे रहना आवश्यक है.  उसके लिए माँ का समझदारी से संपन्न होने के अलावा और कोई तरीका नहीं है.

गर्भ में रहते तक माँ का जीवन शिशु के जीवन द्वारा उसके ज्ञानवाही तंत्र को तंत्रित करने में कोई अड़चन नहीं बनता है.  शिशु का शरीर और उसके जीवन का कार्यक्षेत्र गर्भाशय तक ही सीमित रहता है.  माँ के मेधस तंत्र से शिशु का जीवन कोई सम्बन्ध नहीं रखता है, या व्यवधान नहीं करता है.  इस तरह से दोनों जीवनों की निश्चित कार्य प्रणाली बन जाती है.  ये दोनों जीवन एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं, उनका सुखद सहवास होता है.  फलस्वरूप श्रेष्ठतम रचना के रूप में शिशु धरती को मिलता है, मानव परंपरा को मिलता है.  माँ की गोद में आता है.  यह पूरी तरह हस्तक्षेप से मुक्त प्राकृतिक विधि है.

प्रश्न: जीवन मेधस के साथ कैसे कार्य करता है?

उत्तर: मेधस तंत्र एक बहुत महत्त्वपूर्ण रचना है.  उससे सूक्ष्म भौतिक-रासायनिक तंत्र कुछ भी नहीं है.  यह शरीर में सूक्ष्मतम अंग है.  दूध पर मलाई को पलटाये तो जैसा दिखता है - वैसा यह दिखता है.  पूरा मेधस एक रसायन जल में तैरता रहता है.  उसमे असंख्य प्राणकोशाएं तंतु के रूप में बने रहते हैं.  इन तंतुओं पर दो एंटीना जैसे (मूंछ जैसे!) बने रहते हैं.  जब कभी जीवन मेधस तंत्र को तंत्रित करना चाहता है, तब वह इस रसायन जल पर अपने उद्देश्य की तरंग को पैदा करता है.  उस संकेत को वो एंटीना जैसे निकले हुए तंतु ग्रहण कर लेते हैं.  कम से कम दो तंतु एक संकेत को ग्रहण करते हैं.  उसके बाद उससे सम्बंधित संवेदनाएं अपने आप से स्पष्ट होने लगती हैं.

जीवन जब कभी भी स्वयं को संप्रेषित करता है - मेधस जिस रासायनिक जल में डूबा रहता है, उसी पर वह अपनी तरंग को व्यक्त करता है.  उसके प्रतिक्रिया में वही तंतु जो उसके संकेत को पढ़े थे, पुनः तरंग को पैदा करते हैं - उसको जीवन स्वीकार लेता है, या पढ़ लेता है.  इस प्रकार जीवन और शरीर का सम्बन्ध बना रहता है.

यह मन में सर्वप्रथम शरीर से संवेदना की स्वीकृति और मन द्वारा संवेदनशील विधि से शरीर को तंत्रित करने की प्रणाली है.  संज्ञानशीलता पूर्वक भी उसी प्रकार उसी तंत्र से जीवन स्वयं को संप्रेषित करता है.

इसके अलावा एक और बात - जीवन पूरे शरीर को जीवंत बनाए रखता है.  जीवन एक परमाणु है.  यह जीवन परमाणु शरीर में प्राणकोशाओं का जो रक्त, मांस, मज्जा, स्नायु आदि का ताना-बाना बना हुआ है, उसके बीच के छिद्रों में से पूरे शरीर में संचार किया रहता है.  पूरे शरीर में जीवन के संचार किये रहने से शरीर का हर अंग हमको जीवंत दिखता है.  आदमी सोया रहता है तब भी शरीर जीवंत रहता है.

जीवंत रहने के लिए प्राणकोशिकाओं से बने छलनी जैसे ताना-बाना से संचार करना और मेधस तंत्र पर अपने संकेतों को प्रसारित करना और उससे संकेतों को ग्रहण करना - ये जीवन के प्रधान कार्य हैं.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी, १९९९)

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