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Friday, February 5, 2010

नियम और प्रमाण

साम्य-सत्ता में संपृक्त प्रकृति सह-अस्तित्व का मूल स्वरूप है। अस्तित्व में प्रकृति को साम्य-सत्ता से अलग देख पाने का कोई खाका ही नहीं है।

भौतिकवादी विधि से भी सह-अस्तित्व का ज्ञान नहीं है। आदर्शवादी विधि से भी सह-अस्तित्व का ज्ञान नहीं है।

ब्रह्म-वादियों ने कहा - ब्रह्म स्वयं कहता है - "एकोहम द्वितियोनास्ति"। मतलब सब कुछ ब्रह्म ही है - दूसरा कुछ नहीं है। पूरा का पूरा प्रकृति ब्रह्म में विलय होता है। दूसरा वाक्य - "एकोहम बहु श्यामा"। मतलब - ब्रह्म स्वयं कल्पना किया - मैं एक होते हुए अनेक हो जाऊँगा। उससे जीव-जगत पैदा होने की "परिकल्पना" दी गयी। सच्चाई यह है - अस्तित्व में कल्पनाशीलता केवल ज्ञान-अवस्था के मनुष्य के पास है। उसी आधार पर मनुष्य ने ही इसे लिखा।

आदर्शवाद ने नियम "ईश्वरीय" हैं - यह बताया। ईश्वर कहाँ है? - यह पूछने पर आदर्शवादी उसको समझा नहीं पाए। आदर्शवाद ने "नियम" का प्रमाण मनुष्य को नहीं माना। शास्त्र को प्रमाण माना। गीता में भी यही कहा गया है।

भौतिकवाद में विज्ञानियों ने बताया - मनुष्य नियम की अवधारणा देता है। मानव-कृत नियमो को प्रमाणित करने के लिए मानव पर्याप्त नहीं है - ऐसा बताया। मानव-कृत नियमो को प्रमाणित करने के लिए "यंत्र" चाहिए। यंत्र से जब तक प्रमाणित नहीं होता उसको "अवधारणा" कहते हैं। यंत्र से प्रमाणित होने के बाद उसको "सिद्धांत" कह देते हैं। इस तरह भौतिकवाद ने यंत्र को प्रमाण माना, मनुष्य को प्रमाण नहीं माना।

मनुष्य को प्रमाण का आधार नहीं मानना ही मन-मानी का आधार हुआ।

मध्यस्थ-दर्शन में कहा गया है - मनुष्य ही प्रमाण का आधार है। मानव ही ज्ञान-अवस्था में है। मनुष्य में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता होने के आधार पर वह ज्ञान-अवस्था की इकाई है। मनुष्य जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता जीवन का स्वत्व है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के आधार पर तदाकार-तद्रूप होने की योग्यता हर मानव में रखा है। इसके आधार पर सच्चाई को समझना बनता है। मनुष्य अभी तक अपनी कल्पनशीलता के तृप्ति-बिंदु को पाया नहीं है। ज्ञान में अनुभव ही मनुष्य की कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु है। उसी के लिए मध्यस्थ-दर्शन के अध्ययन का प्रस्ताव है। ज्ञान में अनुभव को प्रमाणित करने वाला "मानवीयता पूर्ण आचरण" ही नियम है। आचरण ही नियम है। मानवीयता पूर्ण आचरण ही ज्ञान का प्रमाण है।

अब आप बताइये - इस प्रस्तुति में तर्क करने की, शंका करने की, बदलने की, नकारने की जगह कहाँ है?

- अनुभव शिविर २०१०, अमरकंटक - बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से।

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