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Wednesday, February 3, 2010

शिक्षा के लिए विकल्प

आदिकाल से ही मनुष्य-परंपरा में शिक्षा की बात है। यह जंगल-युग से ही है। शिक्षा के बारे में आदमी चर्चा करते ही आया है। इस क्रम में हमारे देश में वैदिक-शिक्षा की बात आयी। दूसरे देश में बाइबिल को शिक्षा में लाने की बात हुई। तीसरे देश में कुरान को शिक्षा में लाने की बात हुई। ऐसे ही विभिन्न प्रकार की शिक्षा-परम्पराएं धरती पर स्थापित हुई। यह क्रम चलते-चलते आज के समय में विज्ञान-शिक्षा का सभी देशों में लोकव्यापीकरण हो चुका है। विज्ञान-शिक्षा से अपेक्षा थी कि इससे सबको तृप्ति मिलेगी, लेकिन इससे तृप्ति मिला नहीं।

अभी तक जो कुछ भी शिक्षा में आया, उसके "विकल्प" के रूप में मध्यस्थ-दर्शन का "चेतना-विकास, मूल्य-शिक्षा" का प्रस्ताव है। जंगल युग से आज तक आदमी जीव-चेतना में जिया है। मनुष्य ने जीव-चेतना में जीते हुए, जीवों से अच्छा जीने के क्रम में शरीर-सुविधा से सम्बंधित सभी वस्तुएं प्राप्त कर लीं। इसमें खाने-पीना, कपडा, मकान, यान-वाहन, दूर-संचार की सभी वस्तुएं शामिल हैं। यह सब होने के बावजूद मनुष्य को शिक्षा से संतुष्टि नहीं मिली। इसका मूल कारण यह है - मनुष्य ज्ञान-अवस्था का है, और उसको जीव-चेतना की शिक्षा से संतुष्टि मिल नहीं सकती। इसलिए "विकसित चेतना" के अध्ययन को शिक्षा में लाने के लिए प्रस्ताव है। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना "विकसित चेतना" है। इस तरह जी कर मनुष्य "कृत-कृत्य" हो सकता है। "कृत-कृत्य" होने का मतलब है - मानव जिस बात के लिए ज्ञान-अवस्था में उदय हुआ है, वह सार्थक होना। इस प्रस्ताव के संपर्क में जो भी आये हैं, उनका यह स्वीकृति है - ऐसा होना बहुत ज़रूरी है।

परिवार में हर व्यक्ति मानव-चेतना में पारंगत हों, देव-चेतना में जी सकें, दिव्य-चेतना को प्रमाणित कर सकें - ऐसा "अधिकार" बन सके। कितने लोग इस तरह पारंगत हुए, कितने लोग इस तरह प्रमाणित हो सकें - इसको पहचानने के लिए इस अनुभव-शिविर का आयोजन है।

"चेतना-विकास" से आशय है - मानव-चेतना में जीने के लिए विश्वास स्वयं में पैदा होना। मानव के लिए मानवत्व ही स्वत्व के रूप में पहचानने की आवश्यकता है। देवत्व और दिव्यत्व श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम हैं। मानवत्व से श्रेष्ठता की शुरुआत है। इस आधार पर इसके लिए पारंगत होने की बात आती है।

मानवत्व का क्रिया-स्वरूप है - मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जी पाना, और मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक जी पाना। यदि ऐसे जीना बन पाता है तो हम परिवार में व्यवस्था पूर्वक जी पाते हैं। मानव-चेतना पूर्वक मनुष्य समाधानित होता है, और परिवार में "समाधान-समृद्धि" प्रमाणित करने योग्य होता है। इस प्रकार मनुष्य के जीने में विषमता समाप्त होता है। विषमता समाप्त होने का पहला मुद्दा है - "नर-नारी में समानता"। समझदारी को ही नर-नारियों में समानता के बिंदु के रूप में पहचाना जा सकता है। यदि इस बिंदु को पाना है, तो मानव-चेतना को अपनाना ही होगा। मानव-चेतना के इस प्रस्ताव को लेकर हम इस घर के बाहर तक तो पहुच गए हैं, पर यह संसार तक पहुँच गया - मैं इस पर अभी विश्वास नहीं करता हूँ। अब हमारी सभी की जिम्मेदारी है - यह प्रस्ताव संसार में जल्दी से जल्दी कैसे पहुंचे। "जल्दी" इसलिए आवश्यक है - क्योंकि धरती बीमार हो चुकी है, प्रदूषण छा गया है, अपराध-प्रवृत्ति बढ़ गयी है, अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी हैं।

आज की स्थिति में सभी देशों को यह चेतावनी हो चुकी है - इसी तरह हम चलते रहे तो धरती बचेगा नहीं! धरती को बचाना है तो मनुष्य का भ्रम-मुक्त, अपराध-मुक्त, और अपने-पराये की दीवारों से मुक्त होना आवश्यक है। अधिकाँश लोग धरती को बचाने के पक्ष में हैं। इने-गिने लोग ही धरती को न बचाने के पक्ष में होंगे। धरती को बचाने के लिए मानव-चेतना के प्रस्ताव को हरेक व्यक्ति के पास ले जाने की ज़रुरत है।

इस प्रस्ताव को स्वीकारने में वृद्ध पीढी को सबसे ज्यादा तालीफ़ है, प्रौढ़ पीढी को उससे कम, कौमार्य पीढी को उससे कम, और बाल्य-पीढी को सबसे कम तकलीफ है। यह हमारे सर्वेक्षण में आया है। तकलीफ का कारण है - उनके पूर्वाग्रह और पूर्वाभ्यास।

विज्ञान-शिक्षा के लोकव्यापीकरण क्रम में सभी देशों में शिक्षा-संस्थाएं स्थापित हो चुके हैं। इस प्रस्ताव को शिक्षा-संस्थाओं में पहुंचाने की आवश्यकता है।

इस प्रस्ताव को शिक्षा-संस्थाओं में पहुंचाने का स्वरूप क्या होगा? इस प्रस्ताव को शुद्धतः पहुंचाने की आवश्यकता है। छत्तीसगढ़ में राज्य-शिक्षा संस्थानों में इस प्रस्ताव को समझाने की शुरुआत की गयी - जिससे "सफलता" की शुरुआत हुई। शिक्षा-संस्थानों के अध्यापक और अधिकारी दोनों इससे सहमत हुए। सहमत होने के बाद अध्ययन शुरू किये।  अध्यापकों द्वारा बच्चों तक यह शिक्षा पहुँचने लगेगी तो हम इस बात का प्रमाण हुआ मानेंगे। यदि छत्तीसगढ़ में यह पूरा पहुँचता है तो आगे दूसरे राज्यों में भी पहुंचेगा।

- अनुभव शिविर, अमरकंटक - जनवरी २०१० - में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से

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