दो अंश का परमाणु भी एक आचरण को प्रस्तुत करता है। दो अंश के जितने भी परमाणु हैं, वे हर देश में एक ही आचरण को प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार तुलसी अपने गुणों को सर्व-देश में एक ही प्रकार से प्रस्तुत करता है। उसी प्रकार गाय अपने स्वभाव को सभी देशों में एक ही प्रकार से प्रस्तुत करता है। जितने भी मृद, पाषाण, मणि, धातु हैं - वे सभी देशों/स्थानों में समान आचरण को प्रस्तुत करते हैं। इस क्रम में मानव का आचरण पहचानने का कोशिश करें - पता चलता है, मानव का आचरण अभी तक ध्रुवीकृत ही नहीं हुआ। आदर्शवादी विधि और भौतिकवादी विधि से मनुष्य इतिहास में सोचा गया है - इन दोनों विधियों से मानव के निश्चित आचरण का स्वरूप ध्रुवीकृत नहीं हुआ।
मानव-चेतना से ही "मानवीयता पूर्ण आचरण" आएगा। जीवचेतना में जीते हुए भी मनुष्य मानवचेतना को चाहता है। मनुष्य शरीर को जीवन चलाता है - इसकी महिमा है, कि मनुष्य न्याय चाहता है, समाधान चाहता है, शान्ति चाहता है। इसका आधार है मनुष्य में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता।
कल्पनाशीलता के आधार पर मनुष्य ने कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग किया। इस तरह मनुष्य ने मनाकार को साकार करने का काम किया - किन्तु मनः स्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु "समाधान" है। समझदारी से समाधान होता है। सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान इन तीनो के मिलने से समझदारी है। इन तीन में से एक भी चीज को हटाया तो समझदारी नहीं है।
एक व्यक्ति जो समाधान पाया उसे हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इसका आधार है - कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता। कल्पनाशीलता में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। जो मैं बोलता हूँ, उसके अर्थ को समझने का अधिकार आपके पास कल्पनाशीलता के रूप में है। अर्थ में तदाकार-तद्रूप हो गया - मतलब समाधान हुआ। अनुभव हो गया, तो प्रमाण हो गया।
समझे हुए, प्रमाणित व्यक्ति के समझाने से समझ में आता है। जैसे - आप और मैं यहाँ बैठे हैं। मैं जो समझाता हूँ, वह आप के समझ में आता है - क्योंकि मैं समझा हुआ हूँ, प्रमाणित हूँ और आप समझना चाहते हैं। कल्पनाशीलता आपके पास भी है, मेरे पास भी है।
संयमकाल में मैंने अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से ही अध्ययन किया था। मैंने सीधे प्रकृति से अध्ययन किया था, आप मुझ से अध्ययन कर रहे हो।
समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप थी। या मेरी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चुप थी। संयम-काल में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता क्रियाशील हुई, तभी तो मैं अध्ययन कर पाया। संयम-काल में मैं सच्चाई के प्रति तदाकार-तद्रूप हुआ। ऐसे तदाकार-तद्रूप होना "ध्यान" देना हुआ कि नहीं? संयम-काल में मैंने आँखे खोल कर ध्यान किया। ऐसे तदाकार-तद्रूप होने का अधिकार आपके पास भी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के रूप में रखा हुआ है। कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता हर व्यक्ति में नियति प्रदत्त विधि से है, या सहअस्तित्व विधि से है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सब में समान रूप से है - चाहे अपने को "ज्ञानी" कहें, "विज्ञानी" कहें, या "अज्ञानी" कहें। इसीलिये मैं कहता हूँ - इस प्रस्ताव को अपना स्वत्व बनाने के लिए सबको समान रूप से परिश्रम करना होगा।
मनुष्य ने जीव-चेतना में जीते हुए जीवों से अच्छा जीने के अर्थ में अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया। इसमें मनुष्य सफल भी हुआ। इस तरह मनुष्य आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरश्रवण, और दूरदर्शन सम्बन्धी सभी वस्तुओं को प्राप्त करने में सफल भी हो गया। इन सब को करने में कल्पनाशीलता का तृप्तिबिंदु न होने से मनुष्य "भोग कार्य" में लग गया। चाहे पढ़े-लिखे हों, या अनपढ़ हों - सब भोगवाद में परस्त हैं।
समाधान पूर्वक जिस दिन से जीना शुरू करते हैं, उस दिन से "मानव चेतना" की शुरुआत है। इसको "गुणात्मक परिवर्तन" या "चेतना विकास" नाम दिया।
कल्पनाशीलता हर व्यक्ति के पास है। अनुभव करने का आधार वही है। कल्पनाशीलता जीवन में है, शरीर में नहीं है। इसी लिए "जीवन जागृति" की बात की है। जीवन जागृति का बिंदु "अनुभव" है। इतने दिन मनुष्य-जाति जो कुछ भी करता रहा, पर यह नहीं किया। मनुष्य के पास पांच विभूतियाँ हैं - रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि। मनुष्य ने इनमें से चार - रूप, बल, पद, और धन - का प्रयोग अपनी कर्मस्वतंत्रता के रहते करके देख किया। "बुद्धि" का प्रयोग अभी तक नहीं किया। बुद्धि का प्रयोग कल्पनाशीलता की तदाकार-तद्रूप विधि को छोड़ कर होगा नहीं। समझदारी के साथ हमको तदाकार-तद्रूप होना है। अभी तक जीव-चेतना में अवैध को वैध मानते हुए सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ तदाकार-तद्रूप रहे। अब एक ही उपाय है - मानव-चेतना को पाया जाए, और उसमें तदाकार-तद्रूपता को पाया जाए।
प्रश्न: आपने जब अध्ययन किया तो आपके पास कोई पूर्व-स्मृतियाँ नहीं थी, सब कुछ clean slate था। जबकि हम जो अध्ययन कर रहे हैं तो हमारे साथ तो बहुत पूर्व-स्मृतियाँ हैं जो इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं, फिर हम आपके जैसे अध्ययन कर सकते हैं, अनुभव तक पहुँच सकते हैं - इस बात पर कैसे विश्वास करें?
उत्तर: आपके पास जो "जिज्ञासा" है - वह समाधि की clean slate से कहीं बड़ी चीज है। जिज्ञासा, समझने की गति, और जीने की निष्ठा - इन तीनो को जोड़ने से उपलब्धि तक पहुँच सकते हैं। जीने की निष्ठा इच्छा शक्ति की बात है। जीने की निष्ठा में कमी के मूल में आपके पूर्वाग्रह ही हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
मानव-चेतना से ही "मानवीयता पूर्ण आचरण" आएगा। जीवचेतना में जीते हुए भी मनुष्य मानवचेतना को चाहता है। मनुष्य शरीर को जीवन चलाता है - इसकी महिमा है, कि मनुष्य न्याय चाहता है, समाधान चाहता है, शान्ति चाहता है। इसका आधार है मनुष्य में पायी जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता।
कल्पनाशीलता के आधार पर मनुष्य ने कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग किया। इस तरह मनुष्य ने मनाकार को साकार करने का काम किया - किन्तु मनः स्वस्थता का भाग वीरान पड़ा रहा। कल्पनाशीलता का तृप्ति-बिंदु "समाधान" है। समझदारी से समाधान होता है। सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन-ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान इन तीनो के मिलने से समझदारी है। इन तीन में से एक भी चीज को हटाया तो समझदारी नहीं है।
एक व्यक्ति जो समाधान पाया उसे हर व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इसका आधार है - कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता। कल्पनाशीलता में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। जो मैं बोलता हूँ, उसके अर्थ को समझने का अधिकार आपके पास कल्पनाशीलता के रूप में है। अर्थ में तदाकार-तद्रूप हो गया - मतलब समाधान हुआ। अनुभव हो गया, तो प्रमाण हो गया।
समझे हुए, प्रमाणित व्यक्ति के समझाने से समझ में आता है। जैसे - आप और मैं यहाँ बैठे हैं। मैं जो समझाता हूँ, वह आप के समझ में आता है - क्योंकि मैं समझा हुआ हूँ, प्रमाणित हूँ और आप समझना चाहते हैं। कल्पनाशीलता आपके पास भी है, मेरे पास भी है।
संयमकाल में मैंने अपनी कल्पनाशीलता के प्रयोग से ही अध्ययन किया था। मैंने सीधे प्रकृति से अध्ययन किया था, आप मुझ से अध्ययन कर रहे हो।
समाधि में मेरी आशा-विचार-इच्छा चुप थी। या मेरी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता चुप थी। संयम-काल में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता क्रियाशील हुई, तभी तो मैं अध्ययन कर पाया। संयम-काल में मैं सच्चाई के प्रति तदाकार-तद्रूप हुआ। ऐसे तदाकार-तद्रूप होना "ध्यान" देना हुआ कि नहीं? संयम-काल में मैंने आँखे खोल कर ध्यान किया। ऐसे तदाकार-तद्रूप होने का अधिकार आपके पास भी कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के रूप में रखा हुआ है। कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता हर व्यक्ति में नियति प्रदत्त विधि से है, या सहअस्तित्व विधि से है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता सब में समान रूप से है - चाहे अपने को "ज्ञानी" कहें, "विज्ञानी" कहें, या "अज्ञानी" कहें। इसीलिये मैं कहता हूँ - इस प्रस्ताव को अपना स्वत्व बनाने के लिए सबको समान रूप से परिश्रम करना होगा।
मनुष्य ने जीव-चेतना में जीते हुए जीवों से अच्छा जीने के अर्थ में अपनी कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का प्रयोग किया। इसमें मनुष्य सफल भी हुआ। इस तरह मनुष्य आहार, आवास, अलंकार, दूरगमन, दूरश्रवण, और दूरदर्शन सम्बन्धी सभी वस्तुओं को प्राप्त करने में सफल भी हो गया। इन सब को करने में कल्पनाशीलता का तृप्तिबिंदु न होने से मनुष्य "भोग कार्य" में लग गया। चाहे पढ़े-लिखे हों, या अनपढ़ हों - सब भोगवाद में परस्त हैं।
समाधान पूर्वक जिस दिन से जीना शुरू करते हैं, उस दिन से "मानव चेतना" की शुरुआत है। इसको "गुणात्मक परिवर्तन" या "चेतना विकास" नाम दिया।
कल्पनाशीलता हर व्यक्ति के पास है। अनुभव करने का आधार वही है। कल्पनाशीलता जीवन में है, शरीर में नहीं है। इसी लिए "जीवन जागृति" की बात की है। जीवन जागृति का बिंदु "अनुभव" है। इतने दिन मनुष्य-जाति जो कुछ भी करता रहा, पर यह नहीं किया। मनुष्य के पास पांच विभूतियाँ हैं - रूप, बल, पद, धन, और बुद्धि। मनुष्य ने इनमें से चार - रूप, बल, पद, और धन - का प्रयोग अपनी कर्मस्वतंत्रता के रहते करके देख किया। "बुद्धि" का प्रयोग अभी तक नहीं किया। बुद्धि का प्रयोग कल्पनाशीलता की तदाकार-तद्रूप विधि को छोड़ कर होगा नहीं। समझदारी के साथ हमको तदाकार-तद्रूप होना है। अभी तक जीव-चेतना में अवैध को वैध मानते हुए सुविधा-संग्रह लक्ष्य के साथ तदाकार-तद्रूप रहे। अब एक ही उपाय है - मानव-चेतना को पाया जाए, और उसमें तदाकार-तद्रूपता को पाया जाए।
प्रश्न: आपने जब अध्ययन किया तो आपके पास कोई पूर्व-स्मृतियाँ नहीं थी, सब कुछ clean slate था। जबकि हम जो अध्ययन कर रहे हैं तो हमारे साथ तो बहुत पूर्व-स्मृतियाँ हैं जो इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं, फिर हम आपके जैसे अध्ययन कर सकते हैं, अनुभव तक पहुँच सकते हैं - इस बात पर कैसे विश्वास करें?
उत्तर: आपके पास जो "जिज्ञासा" है - वह समाधि की clean slate से कहीं बड़ी चीज है। जिज्ञासा, समझने की गति, और जीने की निष्ठा - इन तीनो को जोड़ने से उपलब्धि तक पहुँच सकते हैं। जीने की निष्ठा इच्छा शक्ति की बात है। जीने की निष्ठा में कमी के मूल में आपके पूर्वाग्रह ही हैं।
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)
1 comment:
Thank you so much.
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