जीवन का वैभव समझ आने पर यह स्पष्ट होता है - मानव कितना बड़ा है! अभी तक मानव को जो किताबों द्वारा और मशीन द्वारा देखने का प्रयास करते रहे, वह क्या बचपना था ऐसा मूल्यांकन करना बन जाता है. जीवन को समझने के घाट को मनुष्य ही पार करता है. कोई गधा, घोडा, कुत्ता, बिल्ली इसको नहीं समझ सकता. जबकि अभी आप मनुष्य को गधे, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली के समकक्ष मानके शिक्षा में भाषा सिखाते हो, कार्य प्रणाली सिखाते हो, नीति शतक सुनाते हो! हम ऐसा करते हुए कितने बुद्धिमान हैं, आप ही मूल्याङ्कन करो!
समझदारी के बाद हमारी पहले की सारी बैसाखियाँ छूट जाती हैं, सारे भ्रम टूट जाते हैं, सारे अतिवाद ध्वस्त हो जाते हैं. हम स्वच्छंद हो जाते हैं. ऐसे स्वच्छंद मानव मैं भी हूँ, आप भी हो सकते हैं, समग्र मानव ऐसे ही प्रमाणित हो सकते हैं. सर्वशुभ की संभावना को जो मैंने परिकल्पना में देखा, योजना में देखा, कार्ययोजना में देखा - वह यही है.
दर्शन का मतलब है - समझना. समझने का पहला सीढ़ी है - साक्षात्कार या सच्चाई पहचान में आ जाना. दूसरा सीढ़ी है - वह स्वीकार हो जाना, बोध हो जाना. तीसरा सीढ़ी है - अनुभव हो जाना या तृप्ति मिल जाना. साक्षात्कार और बोध का तृप्ति बिंदु है अनुभव. वही कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु भी है. यहीं "कर्म करते समय स्वतन्त्र और फल भोगते समय परतंत्र" वाली बात का निराकरण हो जाता है. हम कर्म करते समय भी स्वतन्त्र हो जाते हैं, फल भोगते समय भी स्वतन्त्र हो जाते हैं. वो कैसे हो जाता है, इसको ऐसे समझ सकते हैं. भ्रम का कर्म-फल समस्या ही होता है, उसको कोई बांटने जाए तो कोई लेता नहीं है. (कोई हमारा दिया हुआ लेगा नहीं तो उसको भोगने के लिए हम परतंत्र हो गये.) जबकि जागृति का कर्म-फल समाधान ही होता है, उसको हर कोई हर जगह अपनाने के लिए तैयार रहता है. इस ढंग से हम जागृति के कर्म को जितना चाहे बाँट सकते हैं. (इस तरह जागृत व्यक्ति अपने कर्म के फल के प्रति आश्वस्त है, और उसको भोगने के प्रति स्वतन्त्र है) इसी आधार पर जागृत मानव के पास अपनी आवश्यकता से अधिक फल पैदा करने की कर्म-प्रणाली आती है. आवश्यकताये कम हो जाती हैं, संभावनाएं अधिक हो जाती हैं. जागृति के इस आधार को छोड़ कर आप कुछ भी करो वह शरीर से, शरीर संवेदनाओं से ही जुड़ा रहेगा. शरीर संवेदनाओं से जुड़ी कार्य प्रणाली कहीं न कहीं कुंठित होता है. कहीं न कहीं वह काला दीवाल तक पहुँच जाता है.
अनुभव पूर्वक ही हम अपनी बात को ठोस ढंग से प्रस्तुत कर पाते हैं. अनुभव से पहले हम प्रस्तुत तो होते हैं, पर वह ठोसपन हमारी प्रस्तुति में नहीं आता है. हमें ऐसा कुछ कहना पड़ता है - किताब में ऐसा लिखा है, यंत्र ऐसा बताता है, आदि. सन्दर्भ (reference) को बता कर हमे अपना सारा भाषा प्रयोग करना पड़ता है.
- श्री ए नागराज के साथ सम्वाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)
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