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Sunday, February 21, 2010

जीवन और शरीर का सम्बन्ध - भाग ४




प्रश्न: आपके अनुसार प्रचलित-विज्ञान का शोध-अनुसंधान कहाँ पर फेल हो रहा है?

उत्तर:  यह बहुत ही विशाल और जटिल प्रश्न है, फिर भी इसको लेकर मैं अपने निष्कर्ष को बताऊंगा.  विज्ञान विधा से आप जो सोचते हो उसमे मेरा कोई हस्तक्षेप नहीं है - किन्तु वैसा अस्तित्व में है नहीं, वह प्रमाणित नहीं होता है.  इतना ही इसका सम्मानजनक उत्तर है.

यह कहाँ से ऐसा हो गया?  इसके बारे में मेरा सोचना ऐसा है - विज्ञान विधि से अभी तक जितना भी उपलब्धि हुआ है उससे "जीवन" की पहचान नहीं हुई.  जिस विधि से विज्ञान चल रहा है, उससे वे जीवन को पहचान ही नहीं सकते.  विज्ञान विधि controlled conditions में काम करती है.  उनके controlled conditions में जीवन पहचान में आएगा नहीं.  वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में controlled conditions जो है - वह जीवन ने ही तैयार किया है!  जीवन अपने से छोटी चीज़ ही बनाता है.  छोटी चीज़ में बड़ी चीज़ समाता नहीं है.  तर्कसंगत विधि से यदि आप संतुष्ट होना चाहें तो इसका यही उत्तर है.  तर्कसंगत विधि से संतुष्ट नहीं होना चाहते हैं तो आपकी आरती उतारने के अलावा हम और क्या कर सकते हैं!

विज्ञान संसार जीवन को पहचान नहीं पाया.  प्राणकोशिकाओं की क्रिया को वो जीवन समझता है - इसीलिये उसी सीमा में मानव के सभी गुणों की व्याख्या करना चाहता है.  ऐसा करते हुए उनको दो सौ वर्ष बीत चुके हैं, पर वे सफल नहीं हो पाए हैं.  करोडो वर्ष भी प्रयत्न करें तो भी प्राणकोशाओं की सीमा में मानव के गुणों की व्याख्या होने वाला नहीं है.  जीवन को समझने के बाद ही मानव के गुणों को पहचाना जा सकता है - इसके पहले नहीं.  चैतन्यता DNA-RNA सीमा में नहीं है.  चैतन्यता जीवन का वैभव है.

मैंने जीवन को देखा है, प्राणकोशाओं को भी देखा है, अणुओं को भी देखा है, परमाणु को भी देखा है, परमाणु में निहित अंशों को भी देखा है.  उसके बाद क्या बचता है?  इस सत्यता को आप स्वीकारें तो आगे कुछ अनुसंधान करने का कार्यक्रम बनता है.  जीवन परमाणु को पहचानना बहुत ज़रूरी है.  जीवन का जो स्वरूप है, कार्य प्रणाली है, लक्ष्य है - इन सब चीज़ों को पहचानने की ज़रुरत है.  उसके बिना विज्ञान की पूर्णता नहीं हो सकती.

जीवन को पहचाने बिना ज्ञान की पूर्णता भी नहीं हो सकती.  आदर्शवाद ने जीवन के स्थान पर आत्मा-परमात्मा का परिकल्पना दिया जो प्रमाणित नहीं हुआ.  वैसे ही विज्ञान भी जीवन के स्थान पर DNA-RNA की परिकल्पना देते हैं, पर उससे होता नहीं है.  अब इनको ले कर क्या किया जाए?

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (सितम्बर १९९९, आन्वरी)

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