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Sunday, February 14, 2010

यांत्रिकता या अनुभव

आचरण ही नियम है। नियम प्राकृतिक हैं। मनुष्येत्तर प्रकृति स्वाभाविक रूप में निश्चित आचरण करती है। मनुष्य के आचरण की निश्चयता के स्वरूप को सर्व-देश में समान रूप से पहचान पाना अभी तक संभव नहीं हुआ। मनुष्य अपने आचरण को समझदारी पूर्वक ही "सुनिश्चित" कर सकता है। समझदारी के बिना मनुष्य का आचरण "अनिश्चित" ही रहता है।

मानवीयता पूर्ण आचरण "यांत्रिकता" है या "अनुभव" है?

यांत्रिकता से आशय है जो तर्क द्वारा ही सीमित हो। अनुभव तर्क की सीमा में नहीं है। तर्क अनुभव तक पहुँचने के लिए सहायक है।

यथार्थता, वास्तविकता, और सत्यता जब अनुभव में आता है तब मानवीयता पूर्ण आचरण होता है। इसके पहले नहीं होता। उससे पहले जो "अच्छा लगता है" उसमें लगे रहते हैं, "अच्छा होना" छुटा रहता है।

"अच्छा होना" अनुभव में आता है। "अच्छा लगना" यांत्रिकता में आता है।

यांत्रिकता पांच ज्ञानेन्द्रियों के क्रियाकलाप और जीवन में साड़े चार क्रिया या चित्रण तक ही पहुँचता है।

अनुभव में "अच्छा होना" ही होता है, दूसरा कुछ होता ही नहीं है।

ज्ञानावस्था का मानव ही ज्ञान में अनुभव कर सकता है।

ज्ञान तर्क-संगत होता है, पर ज्ञान तर्क नहीं है। ज्ञान तर्क को संतुष्टि देता है, पर ज्ञान तर्क नहीं है।

तर्क यांत्रिकता तक पहुँचता है, ज्ञान अनुभव तक पहुँचता है।

मानवीयता पूर्ण आचरण जीवन में दसों क्रियाओं के साथ होता है। मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान-मूलक होता है। ज्ञान अनुभव-मूलक होता है। अनुभव मूलक विधि से प्रमाण होता है।

प्रमाण का ही परंपरा बनता है। उसी से ही मत-भेद मुक्ति होता है, अपराध-मुक्ति होता है, भ्रम-मुक्ति होता है, अपने-पराये से मुक्ति होता है।

अनुभव ज्ञान-सम्मत है। यांत्रिकता तर्क-सम्मत है।

मनुष्य के सारे तर्क की पहुँच "अच्छा लगने" और "बुरा लगने" तक ही है। ज्ञान (अनुभव) की पहुँच "अच्छा होने" से लेकर "अच्छा रहने" तक है।

अनुभव है - अनुक्रम से स्वीकृति बनना। अनुक्रम है - सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, जागृति। विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति ये सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में हैं। इनको मनुष्य स्वीकारता है, अनुभव करता है। स्वीकृति होने का प्रमाण आचरण में होता है, या आचरण ध्रुवीकृत होता है - जिसको कहा "मानवीयता पूर्ण आचरण"। जिसको प्रमाणित करने का स्वरूप है - "समाधान, समृद्धि"। मैं स्वयं समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ।

मानवीयता पूर्ण आचरण जब परंपरा में आता है तो "निरंतरता" को प्राप्त करता है। मानवीयता पूर्ण आचरण की निरंतरता का स्वरूप है - "अखंड समाज और सार्वभौम-व्यवस्था"।

क्या उचित है? आप ही सोचिये। यह किसी के ऊपर आरोप नहीं है, न किसी का पक्ष है, न विपक्ष है।

इस ढंग का तर्क, इस ढंग का बात-चीत, इस ढंग का संवाद क्या भौतिकवादी विधि से हो पाता है? क्या ऐसा आदर्शवादी विधि से हो पाता है?

इस प्रस्तुति के आगे बेसिर-पैर का तर्क चलेगा नहीं। सारे विश्व के ७०० करोड़ आदमी मिल करके ताकत लगा लें फिर भी इस प्रस्ताव के "ठोस-पन" को हिला नहीं पायेंगे। यह उपलब्धि इतनी "ठोस" होने के आधार पर ही मैंने विश्वास किया कि यह मानव-जाति का सम्पदा है। हर मोड़-मुद्दे पर यह समाधान प्रस्तुत कर सकता है, यह विश्वास होने पर मैंने संसार के साथ जूझना शुरू किया। उसी क्रम में आज आप के सामने पहुंचे हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००९, अमरकंटक)

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