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Saturday, February 6, 2010

साक्षात्कार, बोध, अनुभव, प्रमाण



साक्षात्कार के बारे में अभी तक मान्यता है - हम जो आँखों से देखते हैं, वही साक्षात्कार है। इस अनुसन्धान से यह निकला - आँखों से देख भर लेना साक्षात्कार नहीं है, वस्तु समझ में आना साक्षात्कार है। शब्द का अर्थ होता है। शब्द के अर्थ-स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। जैसे - आपका कुछ नाम है। उस नाम के अर्थ-स्वरूप में आप स्वयं हैं। इसी तर्ज में हरेक शब्द के अर्थ-स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। हर शब्द अस्तित्व में एक क्रिया या वास्तविकता को इंगित करता है। वह वस्तु समझ में आना साक्षात्कार है।

प्रकृति की हर वस्तु रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य-स्वरूप है। हर वस्तु को हम रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के संयुक्त स्वरूप में पहचान लेते हैं, उसका नाम है - "साक्षात्कार"। साक्षात्कार के बाद "बोध" होता है। साक्षात्कार के बाद बोध के लिए मनुष्य को कुछ करना नहीं है - वह अपने-आप से होता है। बोध के बाद अनुभव, और अनुभव के बाद प्रमाण अपने आप से होता है। साक्षात्कार यदि सफल होता है, तो बाकि बोध, अनुभव, और प्रमाण अपने आप से होता है। जैसे - आँखों से हम कुछ देखने के बाद अपने आप से देखी हुई चीज को स्वीकारते हैं या अस्वीकारते हैं। यह स्वीकारना और अस्वीकारना अपने आप से होता है। देखने के लिए प्रयास रहता है। देखने के बाद उसको स्वीकारना या अस्वीकारना अपने-आप होता है। ऐसा होता है या नहीं - इसको आप स्वयं बताइये! उसी तरह साक्षात्कार होने पर स्वयं-स्फूर्त बोध होता ही है, अनुभव होता ही है, प्रमाण होता ही है।

अनुभव होने के बाद अनुभव-प्रमाण का बुद्धि में जो बोध होता है - उसका नाम है "ऋतंभरा"। इस तरह अनुभव पूर्वक दुसरे व्यक्ति को बोध कराने का स्वयं में "अधिकार" बनता है। जिस सह-अस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व का अनुभव पूर्वक "ज्ञान" हुआ, उसका प्रमाण है - दूसरे को बोध कराने की ताकत।

वस्तु को जब अस्तित्व में पहचानते हैं तो उसमें पहचानना है - रूप के साथ गुण, गुण के साथ स्व-भाव, स्व-भाव के साथ धर्म। यह पहचान होता है तो हम समझे, नहीं तो क्या समझे? इस तरह पहचानने के लिए "अध्ययन" है। चारों अवस्थाओं का रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म स्पष्ट किया गया है। आकार-आयतन-घन के स्वरूप में "रूप"। सम-विषम-मध्यस्थ के स्वरूप में "गुण"। चारों अवस्थाओं का स्वभाव और धर्म अलग-अलग स्पष्ट किया गया है।

अध्ययन-विधि से ही साक्षात्कार तक पहुँचते हैं। और किसी विधि से साक्षात्कार तक पहुँचते नहीं हैं। इस सभा की पहली घोषणा यही है - अध्ययन विधि को छोड़ करके चारों - रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म - को एक साथ पहचानने का कोई रास्ता नहीं है। यदि यह बिना अध्ययन के समझ में आने की कोई विधि होती तो मुझे अध्ययन-विधि को प्रतिपादित करने की कोई "आवश्यकता" भी नहीं होती।

अस्तित्व के सह-अस्तित्व स्वरूप में होने का अध्ययन कराते हैं। अनुभव पूर्वक हम दूसरों को समझाने योग्य होते हैं, दूसरों को बोध कराने के योग्य होते हैं। इसका नाम दिया - "चेतना विकास"।
मध्यस्थ-दर्शन में अस्तित्व के सह-अस्तित्व स्वरूप में होने का अध्ययन कराते हैं।

सह-अस्तित्व ही है अस्तित्व! "सह-अस्तित्व" शब्द से इंगित वस्तु अस्तित्व ही है। सम्पूर्ण अस्तित्व सह-अस्तित्व स्वरूपी है। सह-अस्तित्व कहीं "छुपा हुआ" नहीं है, किसी के "कब्जे" में नहीं है। अस्तित्व "स्वाभाविक" रूप में सह-अस्तित्व है। अस्तित्व "मानव कृत" रूप में सह-अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व का स्वाभाविक रूप में सह-अस्तित्व होना समझ में आना ही साक्षात्कार है। "समझदारी" के रूप में साक्षात्कार होता है। बोध होना = समझदारी को बल मिला। अनुभव में समझदारी पूर्ण हुआ। इसका नाम है - दृष्टा पद।

शरीर "देखता" नहीं है। शरीर जीवन द्वारा "देखने" के लिए माध्यम है। इसको "दृष्टि-गोचर" कहते हैं। जीवन में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता निहित है। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं में कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता नहीं है। शब्द के अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के रूप में स्वीकार करने वाली क्रिया है - कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता। वस्तु का स्वरूप (रूप, गुण, स्वभाव, धर्म) हमारी कल्पनाशीलता में आता है। इसको "ज्ञान-गोचर" कहते हैं। अध्ययन कराने वाला अनुभव किये रहता है। अनुभव मूलक विधि से अनुभव-गामी पद्दति बनती है। अनुभव-गामी पद्दति से अध्ययन करने वाले की कल्पना में अनुभव-मूलक विधि से प्रस्तुत बात आ जाती है। कल्पनाशीलता में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। उसी से अध्ययन होता है।

भौतिकवादी विधि से जीता हुआ मनुष्य अपनी कल्पनाशीलता को शरीर-संवेदनाओं के अर्थ में तदाकार-तद्रूप बना कर रखता है। आदर्शवादी विधि से जीता हुआ मनुष्य शरीर-संवेदनाओं को नहीं मानता। शरीर-संवेदनाओं को "नहीं मानने" से बोध नहीं होता।

तदाकार-तद्रूप होने की महिमा कहाँ है? वह क्या वस्तु है जो तदाकार-तद्रूप होती है? जीवन में कल्पनाशीलता को उस वस्तु के स्वरूप में मैंने अनुभव किया है। इसी कल्पनाशीलता के आधार पर हर व्यक्ति अध्ययन कर सकता है।

वैदिक-युग से यही स्वीकारा गया - मनुष्य सुनने योग्य है, और सुनाने योग्य है। इसको "श्रुति" और "स्मृति" कहा। "श्रुति के स्वरूप में हम सुनते हैं, स्मृति के स्वरूप में हम सुनाते हैं।" इस बात को वैदिक-विचार ने अपने ढंग से प्रस्तुत किया। उस वेद-परंपरा से मैं गुजरा हुआ हूँ। सुनने-सुनाने में हमारी कल्पनाशीलता तदाकार-तद्रूप हो जाता है। सुनने-सुनाने के क्रम में ही "उपदेश-विधि" आती है। उपदेश विधि से "प्रमाणित होना" नहीं बनता। मैं यहाँ साधना के लिए आने से पहले उपदेश-विधि से चला हुआ हूँ। इस तरह उपदेश दूसरों को देने के बाद मैंने स्वयं में जांचा - जिस बात का मैं उपदेश दे रहा हूँ, क्या उसमें मैं जी भी रहा हूँ? मैं जो कह रहा हूँ, वह लोगों के लिए कह रहा हूँ - या वह मेरे जीने के लिए भी है? जब मैंने अपने ही उपदेश के अनुरूप स्वयं को प्रमाणित होता हुआ, जीता हुआ नहीं पाया तो मैं व्यथित हुआ। उस व्यथा का शमन करने के लिए ही मैंने यह सब साधना किया, अनुसन्धान किया। अनुसन्धान के फल-स्वरूप में पहले मैं जिस बात का उपदेश देता था, उसी का "विकल्प" मिल गया।

अध्ययन यदि सफल होता है तो स्वाभाविक रूप में बोध होता है। बोध होने के बाद अनुभव होता ही है। अनुभव होने के बाद प्रमाण होता ही है।

अनुभव होना = दृष्टा पद
प्रमाणित होना = जागृति

"दृष्टा पद" में आने के बाद प्रमाणित होने की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप में शुरू होता है। इस ढंग से "मानव चेतना" के उदय होने की बात आती है। इससे कम में मानव-चेतना कभी उदय नहीं होगा, न इससे कम में मानव-चेतना कभी उदय हुआ। मेरे अनुसार अध्ययन-विधि के अलावा और किसी विधि से मानव-चेतना तक पहुँच नहीं सकते, न दूसरी कोई विधि है। तदाकार-तद्रूप विधि ही है। जो कुछ भी तदाकार-तद्रूप विधि से साक्षात्कार होता है, वह चारों अवस्थाएं ही हैं। जब कभी भी हमको साक्षात्कार होगा, हम "दृष्टा पद" में स्थिति हो जायेंगे। दृष्टा पद = अनुभव।

अनुभव होने के बाद आत्मा अभिव्यक्तिशील हो जाती है। जीवन परमाणु के मध्यांश का नाम है - "आत्मा"।

शास्त्रों में समाधि की स्थिति में अज्ञात ज्ञात होने की बात लिखा है। समाधि की स्थिति को मैंने देखा है। समाधि में कुछ ज्ञान नहीं होता। फिर समाधि में क्या "देखा"? यह देखा - मेरे आशा-विचार-इच्छा चुप हो गए। दूसरे यह देखा - समय (काल), शरीर, और स्थान (देश) का ज्ञान नहीं रहा।

आशा-विचार-इच्छा जब चुप थी तो देखने वाला कौन था?

समाधि की स्थिति में मुझे ज्ञान नहीं था - "कौन" देखता है। आज मैं - अनुभव-सम्पन्नता के साथ - कह सकता हूँ, मेरी बुद्धि और आत्मा ही मेरी आशा-विचार-इच्छा की चुप्पी को देखने वाला था। समाधि की स्थिति में मुझे भूत और भविष्य से पीड़ा और वर्तमान से विरोध नहीं रहा। समाधि के बाद संयम के बाद मैं अध्ययन पूर्वक "दृष्टा पद" में स्थित हुआ, अनुभव-संपन्न हुआ।

सह-अस्तित्व में दृष्टा पद। सह-अस्तित्व में अनुभव। सह-अस्तित्व क्यों है, कैसा है? चारों अवस्थाएं क्यों हैं, कैसे हैं? इसका उत्तर मुझे मिल गया। इस उत्तर से मैं तृप्त हुआ। इस तृप्ति को व्यक्त करने के लिए, व्याख्या करने के लिए, संसार को समझाने के लिए मैंने भाषा में सूत्रित किया - दृष्टा-पद कहाँ है? अनुभव कहाँ है? प्रमाण कहाँ है? प्रमाण-परंपरा कैसा है? इस सब को मैंने भाषा में सूत्रित किया।

दृष्टा-पद प्रतिष्ठा तक पहुँचने के लिए पुरुषार्थ है। उसके बाद परमार्थ है। पुरुषार्थ के साथ तर्क जुड़ा है। परमार्थ के साथ तर्क नहीं है। परमार्थ में तर्क पहुँचता ही नहीं है। परमार्थ में हर क्यों और कैसे का उत्तर ही है फिर। परमार्थ में जीना ही जागृति का स्वरूप है। इस प्रकार हम मानव-परंपरा में जागृति को प्रमाणित कर सकते हैं - यदि "इच्छा" हो तो! अपने में ऐसा करने की "इच्छा" होना ही इसकी सफलता का आधार है, दूसरा कुछ भी नहीं है। "हर व्यक्ति शुभ चाहता है" - इसी आधार पर अध्ययन कराने के कार्यक्रम की शुरुआत किये हैं।

पठन के बाद अध्ययन। अध्ययन की शुरुआत साक्षात्कार से है। अध्ययन का फल "दृष्टा पद प्रतिष्ठा" है। "दृष्टा पद" में प्रतिष्ठित होने के बाद प्रमाणित होना स्वाभाविक है। यह आवश्यक है, या अनावश्यक है - इसको आप सोचिये!

प्रश्न: साक्षात्कार होने के बाद बोध होने पर "और क्या" समझ में आता है - जो साक्षात्कार में नहीं आया था, उसके बाद अनुभव होने पर "और क्या" समझ में आता है - जो बोध में नहीं आया था?

उत्तर: साक्षात्कार में जो समझ आता है वही बोध और अनुभव में "पक्का" हो जाता है। उसके अलावा कुछ नहीं। साक्षात्कार में "रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म" चारों पहुँचता है। रूप में भौतिक-रूप और चैतन्य-रूप (जीवन) दोनों शामिल हैं। "रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म" - समग्र अस्तित्व में जो नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य है - उसको इंगित करने के लिए है। उसका साक्षात्कार होता है। बुद्धि में धर्म और सत्य पहुँचता है। बाकी सब साक्षात्कार तक रह जाता है। और फिर अनुभव में सह-अस्तित्व स्वरूपी सत्य ही पहुँचता है। 

जड़ समझ में आ जाए तो फल समझ में आता है। 
या - फल समझ में आ जाए तो जड़ को समझने की आवश्यकता बनती है। 

जैसे - सेब का फल यहाँ रखा है, उसका जड़ तो यहाँ नहीं है। इस फल का जड़ कहीं होगा - ऐसा कल्पना में आता है। यह जो सामने रखा है, वह झाड पर उगा हुआ फल है, कागज़ की बनी हुई आकृति है, या मिट्टी की बनी हुई आकृति है - यह हमको पता चलता है। कागज़ या मिट्टी से फल जैसे आकार में बना कर, रंग-रोगन लगा कर बनाया हो - उसको हम "कृत्रिम फल" कहते हैं। "वास्तविक फल" झाड पर ही पकता है। आज भी वास्तविकता पर विश्वास करना बनता है, कृत्रिमता पर विश्वास करना बनता नहीं है। 

यदि कृत्रिम फल से तृप्त हो सकते होते, तो उसे भी मान लेते! किन्तु कृत्रिम-फल से तृप्ति होती नहीं है। अभी तक तो हुआ नहीं है। कल हो जाए तो स्वागतीय है! यह मंगल-मैत्री पूर्वक की गयी प्रस्तुति है। इसमें दादागिरी कुछ भी नहीं है। आप इसे ही मानो - ऐसा कोई आग्रह नहीं है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता का अधिकार सबके पास है। इनका प्रयोग करके हम साक्षात्कार, बोध, अनुभव करके प्रमाणित होते हैं - मूल मुद्दा इतना ही है!

चारों अवस्थाओं का रूप-गुण-स्वभाव-धर्म जो साक्षात्कार हुआ, उसको अनुभव-मूलक विधि से प्रमाणित करने की आवश्यकता है। संसार को इसकी "सूचना" देने की आवश्यकता है। संसार को इसे "समझाने" की आवश्यकता है। सूचना किताब से होता है - मनुष्य के समझाने से समझ आता है। 

हमारे कहने, करने, और जीने में कितना अंतर है - उस पर ध्यान जाने से ही समझने के लिए जिज्ञासा स्वयं में उदय होती है। स्व-निरीक्षण से ही जिज्ञासा उदय होती है। जिज्ञासा के आधार पर ही अध्ययन होता है। जिज्ञासा की तीव्रता के साथ अध्ययन करने पर साक्षात्कार होता है।

प्रश्न: किसी व्यक्ति में तीव्र जिज्ञासा हो, पर वह अध्ययन न करे - क्या उसको सह-अस्तित्व साक्षात्कार हो सकता है?

उत्तर: बिना अध्ययन किये कोई सच्चाई साक्षात्कार नहीं हो सकता! दूसरा तरीका है - अनुसंधान। अनुसन्धान के लिए समाधि और संयम है। समाधि में तो कोई ज्ञान होगा नहीं! यदि आपकी जिज्ञासा सह-अस्तित्व विधि से ठीक है (या दुसरे शब्दों में - नियति विधि से ठीक है) तो आपको समाधि-संयम विधि से साक्षात्कार होगा। संयम में भी जैसे मैंने धारणा, ध्यान, समाधि के क्रम को उलटा कर संयम किया - उसी विधि से होगा, और किसी विधि से नहीं होगा।

अनुभव-मूलक विधि पहले भी धरती पर प्रस्तुत हुआ है - ऐसा हम कह नहीं सकते, क्योंकि उसकी कोई गवाही नहीं मिलती। समाधि पहले भी बहुत लोगों को हुआ है। उनमें से कुछ लोगों को "उपदेश विधि" में भी प्रवृत्ति हुआ है। किन्तु "प्रमाण" प्रस्तुत करने में सर्वथा असमर्थ है - क्योंकि सब कोई समाधि-संयम-अनुसंधान करेगा नहीं! सबका उस रास्ते से गुजर पाना "अव्यवहारिक" है। आदमी के "सहीपन" का आदमी के इतिहास में "प्रमाण" कहाँ है? अध्ययन-विधि के बिना "प्रमाण" का कोई मतलब ही नहीं निकलता। अध्ययन विधि केवल "व्यवहारिक" है। सब तक जो पहुँच सके, वह अध्ययन-विधि ही है। श्रुति-स्मृति विधि पर्याप्त नहीं हुआ, इसलिए अध्ययन-विधि प्रस्तावित है।

मध्यस्थ-दर्शन में सह-अस्तित्व को "परम सत्य" होना घोषित किया गया है।

"ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या" के स्थान पर "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत" प्रस्तावित है। कितने भी परिणाम हों, जगत रहेगा ही।

आदर्शवाद ने मनुष्य को "अभ्यास" में लगाया, यह कह कर - "भक्ति करो, विरक्त हो जाओ - जिससे स्वर्ग और मोक्ष मिलेगा।" अंतिम-लक्ष्य स्वर्ग और मोक्ष ही है - ऐसा आदर्शवाद में बताया गया है। स्वर्ग और मोक्ष धरती पर है, या "और कहीं" है - तो बताया - "और कहीं" है। उसके लिए तमाम कल्पनाशीलता का प्रयोग करते हुए "दिव्य लोक" का वर्णन किया। भौतिकवाद बनाम विज्ञान ने भी धरती पर स्वर्ग का कोई स्वरूप है - ऐसा नहीं बताया। "ताकतवर ही जीने योग्य है" - ऐसा भौतिकवाद प्रतिपादित किया।

मैंने भौतिकवादी और आदर्शवादी "विचारधारा" का समीक्षा ही प्रस्तुत किया है। भौतिकवादी और आदर्शवादी व्यक्ति को छोड़ रखा है। इन दोनों विचार-धाराओं द्वारा मानव का अध्ययन नहीं हुआ। मानव का अध्ययन करने की जिस व्यक्ति को आवश्यकता हो - वे मध्यस्थ-दर्शन का अध्ययन करके देख सकते हैं।

"रहस्य" से हम कुछ पा नहीं सकते। 
संग्रह-सुविधा से हम तृप्त हो नहीं सकते॥ 

लोहार का चोट इतना ही है। इसके आगे कहा -

प्रतीक प्राप्ति नहीं है, उपमा उपलब्धि नहीं है। 

इस पर आप सभी सोच सकते हैं, अपना मंतव्य व्यक्त कर सकते हैं।

आपमें कल्पनाशीलता है या नहीं? - आप ही बताइये! मनुष्य में कल्पनाशीलता होने का प्रमाण इस धरती पर दिखता है या नहीं?

मनुष्य जब धरती पर प्रगट हुआ तब न फूस का झोपडी होता था, न २०० मंजिल का इमारत। अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर ही मनुष्य गुफा से निकल कर झोपडी में रहने लगा। उसके बाद कबीले के खप्पर के मकान, महल, फिर २०० मंजिल की इमारतें... मनुष्य जो कल्पनाशीलता प्रकाशित करता है, वह जीवन में निहित है। कल्पनाशीलता से मनुष्य शून्य में आकार बना डालता है। मनुष्य जो ये इमारतें बनाया है, यान-वाहन बनाया है - शून्य में बनाया है, या और कहीं बनाया है? कल्पनाशीलता का प्रयोग करते-करते मनुष्य आज जहां है, वहां पहुंचा है। अंततोगत्वा पता चला - मनुष्य या तो "अपराध" में फंस गया, या "रहस्य" में फंस गया। अब "स्पष्टता" की आवश्यकता है।

"स्पष्टता" की एक झांकी मैंने आपके सामने प्रस्तुत किया। मेरे इस प्रस्तुत करने में भी कल्पनाशीलता जुड़ा हुआ है। अनुभव के साथ कल्पनाशीलता जुड़ा है। अनुभव के लिए (या अध्ययन के लिए) भी कल्पनाशीलता ही चाहिए।

अनुभव के बाद मनुष्य "ईमानदार" होता है। अनुभव से पहले मनुष्य का ईमानदार होना बनेगा नहीं। ईमानदार नहीं होगा, तो जिम्मेवारी भी लेगा नहीं। जिम्मेवारी नहीं लेगा तो भागीदारी तो दूर की बात है।

ज्ञान नर-नारियों में समान रूप से पहुंचेगा। नर-नारियों में ज्ञान समान रूप से पहुँचने की गवाही के आधार पर उनमें "समान अधिकार" होते हैं। ऐसे समझदार परिवार में ही समझदारी से समाधान, और श्रम से समृद्धि प्रमाणित होती है।

अनुभव के बाद हम दूसरे को अपने "प्रतिरूप" स्वरूप में बनाने योग्य होते हैं। "ईमानदार मानव" के स्वरूप में अपनी संतान की प्रतिभा और व्यक्तित्व का विकास कर सकते हैं। उसके पहले यह नहीं हो सकता। जब मैंने इस सब को पाया तो मैंने अपनी पत्नी को समझाने का प्रस्ताव रखा। मेरी पत्नी ने साधना-काल में मेरी इतनी सेवा की थी - इसलिए सर्व-प्रथम उन्ही को समझाने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने एक वाक्य कहा - "तुम संसार को तारते रहो - मैं सेवा करती रहूँगी।" जब मेरे लिए सर्वोपरि व्यक्ति ने ऐसा कह दिया, तो मैं सोचने लगा - किसके पास जाएँ, किसको समझायें? इसका उत्तर अपने-आप से आया - जो समझ सकते हैं, उनके पास जाया जाए। फिर मेरी ही कल्पनाशीलता से प्रत्युत्तर आया - "कुआ प्यासे के पास आता है।" इसका उत्तर पुनः आया -"अब विज्ञान के आधार पर घर घर में नल से पानी पहुँच गया है।" इस तर्क से मैंने निर्णय लिया - "समझना चाहने वाला मेरे पास भी आ सकता है, मैं समझने वाले के पास भी जा सकता हूँ।" फिर मैं जूझ गया! आज मैं इस स्थिति में पहुँच गया कि मैं जांच रहा हूँ - मेरा प्रतिरूप कितना तैयार हुआ? "मैं अनुभव किया हूँ, मैं समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता हूँ" - इस सत्यापन को करने वाले कितने लोग हो गए, इसको जांचने की स्थिति में मैं पहुँच गया हूँ। उसी उद्देश्य से इस अनुभव-शिविर का आयोजन है।

मेरी शरीर यात्रा का ९० वर्ष व्ययतीत हो चूका है। शरीर को कितना भी रोटी खिलाओ, शरीर अमर होता नहीं है। शरीर नश्वर है, जीवन अमर है - इस सच्चाई को मैं जान गया हूँ, समझ गया हूँ, जी कर देखा हूँ। इस आधार पर मैं जांच रहा हूँ, आगे की पीढियां इस प्रस्ताव को "पवित्रता" पूर्वक ले जाने के लिए कितने लोग अनुभव-मूलक विधि से तैयार हुए हैं। उन्ही के कन्धों पर यह प्रस्ताव "पवित्रता" पूर्वक आगे चलेगा।

मेरे ऐसा कहने में क्या कोई अपने-पराये का दूरी है?

प्रत्येक एक अपने रूप, गुण, स्व-भाव, और धर्म के साथ "सम्पूर्ण" है। इस "सम्पूर्णता" की गवाही है - इकाई का स्वयं में व्यवस्था होना, समग्र-व्यवस्था में भागीदारी करना। इसके साथ यह भी है - मनुष्य का अभी स्वयं में व्यवस्था होना, और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना प्रतीक्षित है। अभी तक मनुष्य केवल "व्यक्तिवादी" और "समुदायवादी" विधि से ही जिया है। व्यक्तिवादी विधि से या समुदायवादी विधि से "अखंड समाज" नहीं बन सकता। 

"अखंड समाज" के स्वरूप को जब मैंने IIT Delhi में प्रस्तुत किया तो वहां के लोगों ने पूछा - "एक व्यक्ति की बात को हम कैसे "सही" मान लें?" उसके लिए मेरा उनको यही कहना है - आप सब मिल करके अनुसन्धान करो, समाधि-संयम करो, पता लगाओ! इतनी उच्च कोटि के संस्थान में, इतनी सिरफिरी बात! इससे बड़ा "सिरफिरी" बात क्या हो सकती है? इसमें उनसे लड़ने-भिड़ने की कोई बात नहीं है। ठीक है, आगे चल कर वे समझेंगे! आज नहीं तो कल समझेंगे!

सह-अस्तित्व प्रस्ताव की सूचना के आधार पर साक्षात्कार में रूप, गुण, स्व-भाव, धर्म के अविभाज्य स्वरूप में होने की स्वीकृति होती है। साक्षात्कार में रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म संयुक्त रूप में दिखा। इन चारों में से रूप और गुण चित्त में रह जाता है। चारों अवस्थाओं के लिए रूप और गुण की व्याख्या एक ही है। आकार, आयतन और घन के स्वरूप में "रूप"। सम, विषम, और मध्यस्थ के स्वरूप में "गुण"। स्वभाव और धर्म बोध में गए। बोध पूर्वक जब अनुभव हुआ तो अनुभव में धर्म आया, स्वभाव बुद्धि में निहित रहा। 

सह-अस्तित्व में धर्म अनुभव होता है। धर्म अनुभव में आने के बाद प्रमाणित करने के लिए जब गए तो बुद्धि में स्वभाव जुड़ गया। वह जब चित्त में आया तो रूप और गुण दोनों जुड़ गए। इस तरह रूप, गुण, स्वभाव, और धर्म जुड़ने पर हम प्रमाणित करने के लिए चित्रण करना शुरू किये। इस तरह "अनुभव-मूलक विधि" से चित्रण किया तो "अनुभव गामी पद्दति" आ गयी। 

अनुभव-गामी पद्दति से अध्ययन कराते हैं, अनुभव-मूलक विधि से प्रमाणित होते हैं।अभी तक इस पूरी धरती पर जितना भी लिखा हुआ आप पढेंगे, उसमें यह वाक्य नहीं है। कहीं भी खोज लो! वेद-विचार में अध्ययन कराने और प्रमाणित होने की बात नहीं है - और विचारों का क्या कहा जाए? इसको "चुनौती" कहा जाए, "प्रार्थना" कहा जाए, "विनती" कहा जाए - कुछ भी आप इसे नाम दे दो! पर बात तो ऐसा ही है!

दृष्टि-गोचर के साथ ज्ञान-गोचर न हो तो देखा नहीं!
ज्ञान-गोचर के साथ दृष्टि-गोचर न हो तो देखा नहीं!!

इस सिद्धांत पर मैं अटल हूँ! ज्ञान-गोचर को दृष्टि-गोचर भी होना चाहिए। जैसे - मैं ईमानदारी पूर्वक जीता हूँ, तो वह आप को दृष्टि-गोचर होता है। होता है कि नहीं? आप मेरे ईमानदार होने को समझते हो, तभी वह आपको दृष्टि-गोचर होता है। आप उसको नहीं समझते हो, तो आपको वह दृष्टि-गोचर नहीं होता।

भौतिकवाद केवल दृष्टिगोचर को ही लेकर चला, और उसमें "यांत्रिकता" को जोड़ लिया। उससे वह कहाँ पहुँच गया, वह आपके सामने है। आदर्शवाद केवल ज्ञान-गोचर को लेकर चला, और उसके साथ "किताब" को जोड़ लिया। किताब में जो लिखा है, वही ज्ञान है - ऐसा बताने लगा। जबकि किताब में केवल सूचना होता है, ज्ञान होता नहीं है। उपदेश-विधि से ग्रंथों में, किताबों में बहुत कुछ कहा गया। वह उपदेश सार्थक होता हुआ कहाँ है? कहाँ है - आप बताओ? "सत्य बोलो!" - यह कौनसा समुदाय नहीं कहा होगा? मेरी नज़र में सभी धर्म-ग्रन्थ जो कहलाते हैं - वे सत्य बोलने के लिए सहमत हैं। लेकिन सत्य को कौन समझाया? सत्य को समझाए बिना "सत्य बोलो" कह दिया? उपदेश दे दिया? यह कैसे सफल होगा? 

अध्ययन पूर्वक अनुभव तक पहुंचना है। 
अनुभव पूर्वक अध्ययन कराने तक पहुंचना है।

इस प्रकार हम अपना "प्रतिरूप" तैयार कर सकते हैं। यह ज्ञान-विधि से हुआ। जिसका प्रयोजन मनुष्य का "सुखी होना" है। सर्व-मानव सुखी होना चाहता है। आज पैदा हुआ, या कल मरने वाला - दोनों सुखी होना चाहते हैं। 

अभी तक हमारा जो चर्चा हुआ, वह "आवश्यक" है या "अनावश्यक" है - यह भी आपके सोचने के लिए एक मुद्दा है।

"गुण" को मध्यस्थ-दर्शन में सम, विषम, और मध्यस्थ स्वरूप में होना समझाया गया है। प्रकृति की इकाइयां साम्य-ऊर्जा (सत्ता) में संपृक्त हैं, और कार्य-ऊर्जा को प्रकाशित करती हैं। साम्य-ऊर्जा घटता-बढ़ता नहीं है, कार्य-ऊर्जा घटता-बढ़ता है। सम-विषम गुण "कार्य-ऊर्जा" से सम्बंधित हैं। मनुष्य अपनी कार्य-ऊर्जा को जब "उत्पादन कार्य" (मनाकार को साकार करना) में लगाता है और "समझाने" में लगाता है - उसे "सम" गुण कहा। मनुष्य अपनी कार्य-ऊर्जा को विनाश करने में या भ्रमित करने में लगाता है - उसे "विषम" गुण कहा। भ्रमित करने और विनाश करने में स्व-शक्तियों का प्रयोग ही "अपराध" है।

"रूप" तथा सम और विषम "गुण" चित्त तक ही रहते हैं। उसके बाद बोध में "स्वभाव" और "धर्म" चला जाता है। उसके बाद बुद्धि में स्वभाव रुक जाता है, और फिर धर्म अनुभव में आता है।

मैंने चारों अवस्थाओं के धर्म को किस प्रकार अनुभव किया, उसी को बताया है।

मध्यस्थ दर्शन से पूर्व क्या किसी ने पदार्थ-अवस्था के "धर्म" को पहचान कर किसी ने कहीं लिखा भी है? प्राण-अवस्था के "धर्म" को पहचान कर कहीं लिखा है? जीव-अवस्था के "धर्म" को पहचान कर कहीं लिखा है? मानव के "धर्म" को पहचान कर कहीं लिखा है? 

आज तक प्रकृति की सभी अवस्थाओं के धर्म को लिखा नहीं गया - क्योंकि धर्म आज तक अनुभव में आया नहीं है। यही इस अनुसंधान का drastic effect है। 

प्रश्न: ऐसे कैसे कहा जाए? 

उत्तर: अनुभव के आधार पर कहा जाए। अनुभव के अलावा ऐसे कहने का और कोई विधि नहीं है। आप अध्ययन पूर्वक अनुभव कीजिये - और संसार को बताइये। यह और ऐसे प्रश्न-उत्तर का "कर्म-काण्ड" सब IIT Delhi में हो चुका है। 

प्रश्न: "मूल्यों का साक्षात्कार" से क्या आशय है?

उत्तर: मूल्य जीवन का स्वाभाविक रूप से "प्रकटन" है। अभी भी जब एक माँ संतान को अपने शरीर का प्रतिरूप "मान" लेती है, तो उसमें ममता का अपने-आप से प्रकटन होता है। अपनी संतान के प्रति ऐसी ममता का प्रगटन जीवों में भी होता है। मनुष्य में ममता जब "व्यवस्था" के अर्थ में समझ आती है, तो ही सार्थक हो पाती है। यदि संतान को शरीर के प्रतिरूप ही मानते हैं तो ममता थोड़े समय तक रहती है, फिर समाप्त हो जाती है।

मूल्यों का कोई साक्षात्कार नहीं होता, मूल्यों का "प्रकटन" होता है। अनुभव-मूलक विधि से जीवन में निहित मूल्य प्रकट होते हैं, प्रमाणित होते हैं। जीवन में जब धर्म अनुभव में आता है, उसके बाद मूल्यों की प्रकटन-शीलता शुरू हो जाती है। मानव-धर्म सुख है।

एक तरफ "स्वयं में अनुभव" है, दूसरी तरफ "समग्र व्यवस्था" है। इन दोनों के बीच में "मूल्यों का प्रकटन" है।

इसीलिये मैं बारम्बार कहता हूँ - "चेतना विकास" के साथ ही "मूल्य शिक्षा" है।

प्रश्न: तो क्या "मूल्यों का प्रकटन" अनुभव के बाद है?

उत्तर: अनुभव के बाद ही मूल्यों का प्रकटन है। अनुभव से पहले मूल्यों का प्रकटन कहाँ होने वाला है?

ईर्ष्या-द्वेष से पचा हुआ मनुष्य क्या "मूल्यों का प्रकटन" करेगा? अपने-पराये की दीवारें बनाते हुए क्या "मूल्यों का प्रकटन" होता है? अपराध को वैध मानते हुए क्या "मूल्यों का प्रकटन" होता है? होता हो तो आप करा दो!

भ्रम का विकल्प जागृति है। 

जागृति की आवश्यकता भ्रम के आधार पर ही है। 

जागृति के बाद भ्रम रहता नहीं है। 

भ्रम नहीं रहता तो जीवन से मूल्यों का प्रकटन अपने आप से होता है।

अभी तक मनुष्य के इतिहास में जितना भी देखा गया, समझा गया, किया गया - उसमें ईमानदारी एक "चाहत" के रूप में है। आचरण के रूप में ईमानदारी आज तक मनुष्य के इतिहास में नहीं है। व्यवहार के रूप में ईमानदारी आज तक मनुष्य इतिहास में नहीं है। शिक्षा में ईमानदारी आज तक मनुष्य इतिहास में नहीं है। व्यवस्था में ईमानदारी आज तक मनुष्य-इतिहास में नहीं है। संविधानो में ईमानदारी आज तक मनुष्य-इतिहास में नहीं है। व्यापार में कितना ईमानदारी है - यह आप सब लोग जानते ही हैं।

- बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन पर आधारित (अनुभव शिविर २०१०, अमरकंटक)

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