अभी तक हम टुकड़े-टुकड़े करके अध्ययन किये हैं. समग्रता में अध्ययन किये नहीं हैं. समग्रता में अध्ययन करना कितना सुगम है, यह मैं आपको बताना चाहता हूँ.
व्यापक वस्तु में एक-एक होने की अवधारणा जब आप में आ जाता है तो उसमे यह भी आता है - मानव भी एक वस्तु है. मानव जीवन और शरीर का संयुक्त स्वरूप है.
जीवन एक ऐसी अमूल्य वस्तु है जो नियति सहज उपलब्धि है - जिसमे किसी का हस्तक्षेप नहीं है. न तो व्यापक वस्तु इसको बनाने-बिगाड़ने में लगा है. और एक-एक वस्तु जीवन स्वरूप में होने और उसके प्रमाणित होने के लिए निरंतर सहायक है.
जीवन ही अनुभव करने वाली वस्तु है.
जीवन को ही अनुभव करना है - अस्तित्व को सहअस्तित्व स्वरूप में और जीवन को जागृति स्वरूप में.
अनुभव किसी किताब या मशीन या कोई माध्यम में होने वाला नहीं है, अनुभव के लिए हर व्यक्ति ही जिम्मेदार है. मनुष्य अपने को समग्र व्यवस्था में जीने की जिम्मेदारी की कसौटी में अपने अनुभव को जांचेगा.
समग्र व्यवस्था ही नियति है. समग्र व्यवस्था में भागीदार होने के लिए हम समझदार होते हैं. समझदारी पूर्वक व्यवस्था में जीना ही बन पाता है, दूसरा कुछ बनता नहीं है. सहअस्तित्व में अनुभव किये रहना इसके लिए एक आवश्यक मुद्दा है. अनुभव का दृष्ट फल व्यवस्था में भागीदारी ही है. व्यवस्था में भागीदारी करते हुए हम प्रमाणित हो जाते हैं.
जब कभी भी अनुभव होगा सहअस्तित्व में ही होगा. आदर्शवादी विधि में विगत में यह सूचना दिया था - एकांत में, समाधि स्थली में अनुभव होगा. समाधि को भले प्रकार से देखा गया है. उसमे यह निकलता नहीं है. समाधि होने पर यह घोषणा नहीं कर पाते हैं कि मैं अनुभव किया हूँ. हम चुप हो जाते हैं. हम न अपने समझदार होने की घोषणा कर पाते हैं, न अपने नासमझ होने की घोषणा कर पाते हैं.
सहअस्तित्व में अनुभव होने की स्थिति में यह घोषणा करना बनता है कि मैं सहअस्तित्व को समझा हूँ. जीवन का अनुभव होने के बाद जीवन को हम समझे हैं, ऐसा घोषणा हम कर सकते हैं. जीवन का अनुभव होने के आधार पर हमारा न्याय-धर्म-सत्य को प्रमाणित करना बन जाता है. अस्तित्व में अनुभव होने के आधार पर समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना बन जाता है.
सहअस्तित्व में अनुभव पूर्वक मानव के जागृति के अर्थ में सभी प्रयत्न का अभीप्सा, आवश्यकता पूरा हो जाता है. इससे ज्यादा कुछ होता नहीं, इससे कम में आदमी प्रमाणित नहीं हो पाता. यही ज्ञानावस्था की सर्वोच्च उपलब्धि है जो परम्परा स्वरूप में प्रमाणित होती है.
जागृत होने के मूल में मानव द्वारा साक्षात्कार में जागृति और भ्रम की लक्ष्मण रेखा को देख लेना है. सही और गलती की लक्ष्मण रेखा को देख लेना है. इस पार भ्रम है, उस पार जागृति है - यह स्पष्ट हो जाता है. इस पार अन्याय है, उस पार न्याय है - यह स्पष्ट हो जाता है. इस पार समस्या है, उस पार समाधान है - यह स्पष्ट हो जाता है. इस पार असत्य है, उस पार सत्य है - यह स्पष्ट हो जाता है. यही साक्षात्कार की महिमा है. साक्षात्कार होने पर उसकी इस महिमा के आधार पर हम कुछ भी योजना बनाएं फिर वह प्रमाणित होने के अर्थ में ही बना पाते हैं. इस साक्षात्कार को प्रमाणित करने के लिए ही योजना होती है. चाहे कुछ भी कर लो! अंततोगत्वा मनुष्य के लिए प्रमाणित करने के लिए अपरिहार्यता हो जाती है, फिर प्रमाणित होना बन जाता है.
मनुष्य के लिए अनुभव मूलक विधि से जीना आवश्यक है और अनुभवगामी पद्दति से अध्ययन कराना भी आवश्यक है. जो हम अनुभव किये रहते हैं, उसको प्रमाणित करने के लिए अनुभवगामी पद्दति की योजना बनाते ही हैं.
- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)
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