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Saturday, February 27, 2010

जीवन के शक्ति और बल - भाग २



इसके बाद 'साक्षात्कार' और 'चित्रण' की बात है.  चित्रण में स्मृतियाँ होती हैं.  शब्दों की, रूप की स्मृतियाँ होती हैं - किन्तु स्वभाव और धर्म की स्मृतियाँ नहीं होती।  स्वभाव और धर्म का साक्षात्कार ही होता है.  स्मृति से स्वभाव/धर्म को पहचाना नहीं जा सकता।  शब्दों की सीमा में इनको पहचाना नहीं जा सकता।  स्वभाव-धर्म अर्थ है - जिसका साक्षात्कार होता है.  जैसे - मानव का धर्म सुख है.  सुख शब्द की सीमा में नहीं आता.  सुख साक्षात्कार में आता है, बोध में आता है, अनुभव में आता है.  सुख अनुभव में आने पर संकल्प द्वारा प्रवर्तित होकर हम उसको प्रमाणित करते हैं.

मानव संबंधों में निर्वाह होने के लिए मानव का स्वभाव/धर्म साक्षात्कार होना अनिवार्य है.

साक्षात्कार होता है तो बोध (अवधारणा) होता ही है.  (अवधारणा) बोध को प्रमाणित करने के लिए हम तत्पर होते हैं तो अनुभव होता ही है.  फिर अनुभव के तारतम्यता में सही जीवन क्रियाएं होने लगती हैं.  अनुभव आत्मा में होता है. 

अनुभव मूलक विधि से जब हम कार्यक्रम को बनाते हैं, चित्रण करते हैं तो वह न्याय-धर्म-सत्य के अर्थ में ही होता है.  इससे संवेदनाएं जो होते हैं, वे इसमें नियंत्रित हो जाते हैं.  चिंतन पूर्वक हम जी रहे हैं या नहीं इसकी जांच यही है - संवेदनाएं नियंत्रित हुआ या नहीं।  इसको हर व्यक्ति स्वयं में जांच सकता है.  इसको जांचने का अधिकार जितना मुझे है उतना ही आपको भी है.  संवेदनाएं न्याय-धर्म-सत्य की चौखट से बाहर भागते हैं तो वे नियंत्रित नहीं हैं. यही वह जगह है जहां दोहरे व्यक्तित्व का सम्भावना मर जाता है.  मनुष्य में दोहरे व्यक्तित्व का मृत्यु स्थली यही है.  जिस क्षण में हम संज्ञानशीलता में अपनी संवेदनाओं को नियंत्रित पाते हैं, उसी क्षण में दोहरे व्यक्तित्व की मृत्यु होती है.  दोहरा व्यक्तित्व भ्रम का सबसे बड़ा कवच है.  यहीं "भ्रम" और "जागृति" का नीर-क्षीर न्याय हो पाता है.  "सही" और "गलत" का लक्ष्मण रेखा भी यहीं बनता है.  इस बात को हम अच्छी तरह से पहचान सकते हैं.  "सही" और "गलत" का भेद जब प्रस्तुत करते हैं तो सही तो सभी को स्वीकार हो जाता है.  भ्रमित आदमी को भी सही स्वीकार होता है.  भ्रमित आदमी को सही स्वीकृत होने पर सही में उसकी निष्ठा होने के लिए साक्षात्कार होना आवश्यक है.

संवेदनाएं नियंत्रित होने की इस कसौटी से यदि हम उभर पाते हैं तो न्याय-धर्म-सत्य का बोध होता ही है.  यह अध्ययन-क्रम में होने वाली प्रक्रिया ही है.  इस कसौटी से पार निकलने के बाद हम अपने संबंधों में स्थिर हो जाते हैं, स्थित हो जाते हैं, निश्चल हो जाते हैं.  न्याय-धर्म-सत्य का जैसे ही बोध होता है तो अपने संबंधों का निर्वाह करने में हम सक्षम हो जाते हैं.  संबंधों के संबोधन तो हम अभी भी करते हैं - जैसे माँ, पिता, भाई आदि - किन्तु भ्रमित रहने तक उनमे हमारे विश्वास के निर्वाह की निरंतरता नहीं बन पाती।  संबंधों में विश्वास का निर्वाह होने के लिए न्याय-धर्म-सत्य का साक्षात्कार होना आवश्यक है.

इस प्रकार जीवन के वैभव को आप बोध कर सकते हैं.  इस बोध को प्रमाणित करने के लिए हम स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त होते हैं तो अनुभव होता ही है.  फिर अनुभव से सम्पूर्ण जीवन अभिभूत हो जाता है.  अर्थात अनुभव के स्वरूप में जीवन की सभी क्रियाएं होने लगती हैं.  

चिंतन में यदि हम स्वयं को नियंत्रित होना पा लिए तो व्यवहार में हम नियंत्रित होना पा ही जाते हैं.  चिन्तन में हम यदि समाधानित होते हैं तो व्यवहार में समाधानित होना पाते ही हैं.  चिन्तन में हम यदि न्यायिक होते हैं तो व्यवहार में न्यायिक होना पाते ही हैं.  इसको मैंने शतशः देखा है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी आश्रम, १९९९)


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