नीति "नियति" से सम्बंधित है। नियति का अर्थ है - सह-अस्तित्व। सह-अस्तित्व नित्य प्रगटन-शील है। यही नियति है।
साम्य-सत्ता में सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति क्रियाशील है। भौतिक-क्रिया, रासायनिक-क्रिया, जीवन-क्रिया - इन तीन स्वरूप में प्रकृति क्रियाशील है। प्रकृति की मूल इकाई परमाणु है। परमाणु ही भौतिक-क्रिया, और रासायनिक-क्रिया में भाग लेता है। जीवन क्रिया स्वयं एक गठन-पूर्ण परमाणु है। समस्त प्रकृति सत्ता में डूबे-भीगे-घिरे होने के कारण ऊर्जा-संपन्न, बल-संपन्न, और क्रियाशील है। इसी आधार पर साम्य-सत्ता में संपृक्त प्रकृति का सह-अस्तित्व सहज प्रगटन होता रहता है।
प्रगटन के मूल में है - "मात्रात्मक परिवर्तन" और "गुणात्मक परिवर्तन"। जड़-संसार में मात्रात्मक परिवर्तन के आधार पर गुणात्मक-परिवर्तन होता है। चैतन्य-प्रकृति (जीवन परमाणु) में केवल गुणात्मक-परिवर्तन है। अभी तक चैतन्य-प्रकृति ने गुणात्मक-परिवर्तन का मार्ग पकड़ा ही नहीं था। जीव-चेतना में ही जीता रहा। चींटी भी जीता है, हाथी भी जीता है, मनुष्य भी जीता है। चींटी और हाथी जीव-चेतना में होते हुए भी अपराध के पक्ष में नहीं जीता। मनुष्य जीव-चेतना में होते हुए अपराध के पक्ष में ही जीता है। अब जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य को ठीक माना जाए, या चींटी और हाथी को ठीक माना जाए? इस बात को आत्मीयता के साथ मैं आपसे कह रहा हूँ। मनुष्य-प्रकृति अपने पूरे इतिहास में जीव-चेतना में जीते हुए ह्रास विधि से ही कार्य करता रहा है। यही "चेतना-विकास" की आवश्यकता का निर्णय है। अभी तक मनुष्य ने अपने पूरे इतिहास में "ह्रास" का काम किया या "विकास" का? इसको सोच कर आप ही निर्णय कीजिये!
नीति का मतलब ही है - नियति विधि से निर्णय लेना।
नियति विधि से नियम है।
ज्ञान को प्रमाणित करने वाला मानवीयता पूर्ण आचरण ही मानव के लिए "नियम" है।
ज्ञान का मतलब है - सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान। इस ज्ञान को प्रमाणित करने वाला आचरण ही मानव के लिए "नियम" है।
- अनुभव शिविर जनवरी २०१०, अमरकंटक - बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से।
4 comments:
-स्वयं में व्यवस्था को हम कैसे देख पायें और ५ बल ५ शक्ति की क्रियाओं को विस्तार से समझाइये?
-गुणात्मक भाषा और कारणात्मक भाषा को भी समझाइये?
- हर वस्तु में मूल्य निहित है इसे कैसे समझे?
-स्वयं में व्यवस्था को हम कैसे देख पायें और ५ बल ५ शक्ति की क्रियाओं को विस्तार से समझाइये?
स्वयं में व्यवस्थित होने के बाद ही स्वयं "में" व्यवस्था को हम देख सकते हैं. यदि स्वयं में हम अव्यवस्थित हैं, तो स्वयं में व्यवस्था को कैसे देखेंगे? स्वयं में व्यवस्थित होने के लिए हमें स्वयं "की" व्यवस्था को समझने की ज़रुरत है. उसके लिए पहले "स्वयं" है क्या - उसको पहचानने की ज़रुरत है. उसके लिए प्रस्ताव है - स्वयं "जीवन" है. जो अपने स्वरूप में एक गठन-पूर्ण परमाणु है. जीवन शरीर को जीवंत बनाता है. शरीर एक भौतिक-रासायनिक रचना है. जीवन मनुष्य-शरीर को चलाते हुए कल्पनाशीलता-कर्म-स्वतंत्रता को व्यक्त करता है.
मैं कल्पनाशील हूँ - यह starting point है. कल्पनाशीलता हमारा "अधिकार" है - भ्रमित होते हुए भी. हमारी असली ताक़त कल्पनाशीलता ही है - शरीर नहीं. अभी "स्वयं में व्यवस्था" हमारे "अधिकार" में नहीं आया है. पर कल्पनाशीलता हमको प्राकृतिक विधि से "अधिकार" रूप में प्राप्त है. इस बात को भी हम जांच सकते हैं - हम जो कुछ भी करते हैं, वह केवल और केवल कल्पनाशीलता से ही करते हैं.
दूसरे - हमारी कल्पनाशीलता से हम जो करते हैं, उसके मूल में हममे "व्यवस्था की चाहत" या "सुख की चाहत" समाई हुई है. यह जीवन में है. इससे जीवन को अलग नहीं किया जा सकता. यह हमारा धर्म है. यह चाहत ही हमारी अध्ययन या अनुसंधान करने की आवश्यकता है. हमारे हर काम के मूल में यह चाहत है.
जीवन में ५ बल और ५ शक्ति के बारे में इस ब्लॉग पर ही अनेक स्थानों पर विस्तार से वर्णन किया गया है.
-गुणात्मक भाषा और कारणात्मक भाषा को भी समझाइये?
भाषा को मनुष्य उपयोग करता है. ताकि अर्थ एक से दूसरे को पहुँच सके. कारण-गुण-गणित के संयुक्त रूप में मानव-भाषा है. कारणात्मक भाषा से प्रयोजन संप्रेषित होता है. वास्तविकताएं क्यों हैं, और कैसे हैं - यह कारणात्मक भाषा से सप्रेषित होता है. मध्यस्थ-दर्शन कारणात्मक-भाषा से लिखा गया है. व्यवस्था में जीने के लिए मनुष्य को क्या करना है, क्या नहीं करना है - यह गुणात्मक-भाषा से संप्रेषित होता है. जीने के क्रम में गिनती की आवश्यकता होती है - उसको गनितात्मक भाषा से संप्रेषित करते हैं.
- हर वस्तु में मूल्य निहित है इसे कैसे समझे?
वस्तु का मूल्य वस्तु में निहित होगा या वस्तु से बाहर होगा? मेरा मूल्य या मेरा स्व-भाव मुझ में निहित है - यह मुझ से बाहर नहीं है. सेब के फल का मूल्य सेब के फल में निहित है - उस पर लगे bar-code पर नहीं. मनुष्य में (जीवन में) मूल्य निहित रहते हैं. अनुभव पूर्वक वे स्थापित मूल्य उजागर हो जाते हैं - प्रमाणित हो जाते हैं. मनुष्य के अलावा सारी प्रकृति अपने मूल्यों को उजागर किये ही हुए है. मनुष्य अपनी स्थिति के अनुसार वस्तुओं का मूल्यांकन करता है. मनुष्य अपना स्वयं का भी मूल्यांकन करता है, दूसरों का भी मूल्यांकन करता है, भौतिक-रासायनिक वस्तुओं का भी मूल्यांकन करता है. यह मूल्यांकन यदि गलत होता है - मतलब ज्यादा, कम, या गलत होता है - तो उसका मतलब है, मनुष्य भ्रमित है. यदि यह मूल्यांकन सही होता है तो उसका मतलब है - मनुष्य जागृत है.
आपके सभी उत्तर बहुत ही सरल भाषा में हैं और बहुत ही संतुष्ट करने वाले हैं पर ऐसा क्यूँ होता हे कि शब्द रूप में अर्थ स्पष्ट होने के बाद भी वास्तविकता से इतने दूर क्यूँ है जीना क्यूँ नहीं बनता है
यह स्थिति तो मेरे साथ भी है. :) मुझे लगता है, यदि वास्तविकता दूर लगती है, जीना नहीं बन पा रहा है - इसका मतलब है - "अभी और "समझना" शेष है". इसको "श्रम का क्षोभ" भी कहते हैं. मैं अपनी पहले की पोस्ट से 2-3 बिंदु यहाँ फिर से पेस्ट कर रहा हूँ.
(12) सब कुछ समझने-करने के बाद भी कुछ और समझने-करने की ज़रुरत मुझ में है, ऐसा मुझे लगना - ही मेरे "श्रम का क्षोभ" है। श्रम का क्षोभ ही "विश्राम की तृषा" है। विश्राम की तृषा ही मनुष्य में "सुख की चाहत" है। यही पुनर्प्रयास के लिए स्वयं में "आवश्यकता" है।
(१३) "मैं सब कुछ समझ चुका हूँ और अब समझ को जीने में प्रमाणित कर सकता हूँ" - यह स्थिति स्वयं में निरंतरता के रूप में बन जाना ही "श्रम का विश्राम" है। ऐसा होने पर - मनुष्य द्वारा बहुत कुछ "करने" के बाद भी और "करने" के लिए उत्साह स्वयं में बना रहता है। यही "समझ के करने" का मतलब है।
(१४) "समझ के करने" का गंतव्य है - "अखंड-समाज" और "सार्वभौम-व्यवस्था" का धरती पर स्थापित होना। यही नियति-क्रम का लक्ष्य है - इसलिए यही "गति का गंतव्य" है।
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