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Sunday, February 21, 2010

जीवन और शरीर का सम्बन्ध - भाग २




साँस लेना, दिल धड़कना आदि क्रियावाही तंत्र का कार्यकलाप है, जिसका केंद्र है - ह्रदय.  ह्रदय से रक्त संचालित होता है.  रक्त संचालित होने से फेफड़ों की क्रिया है - जिससे साँस लेना-छोड़ना बनता है.  यह सब क्रियावाही तंत्र का कार्यकलाप है जिसमे मेधस व ज्ञानवाही तंत्र का कुछ रोल नहीं है.  जीवन द्वारा इनको जीवंत बनाए रखना पर्याप्त है.  

प्रश्न: क्रोध की स्थिति में जो हमारी धड़कन तेज हो जाती है, वह कैसे होता है?

उत्तर: जीवन के आवेशित होने पर ज्ञानवाही तंत्र उत्तेजित हो जाता है, जिससे क्रियावाही तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है.  जैसे - साँस का तेज़ चलने लगना, साँस का गर्म हो जाना, चक्कर आने लगना.  यह और ज्यादा बढ़ने पर रक्तचाप बढ़ जाता है.  और ज्यादा होने पर ह्रदय अवरोध हो जाता है.  किसी अवधि से अधिक आवेशित होने पर शरीर मर भी जाता है.

शरीर तो जीवन की गति या मनोगति से चल नहीं सकता.  एक अवधि तक शरीर जीवन के आवेश को सहन कर पाता है, उससे अधिक होने पर स्वाभाविक है शरीर का कोई न कोई अंग काम करना बंद कर देता है.  

कोई न कोई संवेदनाओं के अतिरेक - अतिविरोध या अतिसम्मोहन - होने पर ही क्रोध या आवेश होता है.  और किसी विधि से जीवन का आवेशित होना संभव नहीं है.  इससे ज्यादा से ज्यादा ह्रदयतंत्र और श्वसनतंत्र पर प्रभाव पड़ता है.  

शरीर के अनुसार क्रियावाही तंत्र है, जीवन के अनुसार ज्ञानवाही तंत्र है.  इसलिए ज्ञानवाही तंत्र आवेशों को प्रस्तुत करता है.  क्रियावाही तंत्र रोगों को प्रस्तुत करता है.

प्रश्न:  मानव की "सहज गति" में जीवन और शरीर के क्रियाकलाप का क्या स्वरूप है?

उत्तर: मानव की "सहज गति" है - संज्ञानशीलता में संवेदनाएं नियंत्रित रहना.  मानव का सहज गति यही है - जो प्रलोभन (सम्मोहन) और विरोध (भय) से मुक्त है.  इसी सहज स्थिति में मनुष्य स्वस्थ रहता है.

- श्री ए नागराज के साथ संवाद पर आधारित (आन्वरी १९९९)

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