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Monday, December 24, 2018

प्रकृति की इकाइयों में परस्पर पहचान का स्वरूप

कुछ दिन पहले मेरी साधन भाई से दर्शन के कुछ मुद्दों पर स्पष्टता पाने के लिए बात हुई थी।  उसी के continuation में।  आशा है कि यह आपके लिए उपयोगी होगी।

प्रश्न:  इकाइयों का उनकी परस्परता में निर्वाह उनका सम्बन्ध की पहचान पूर्वक है या एक का दूसरे पर प्रभाव वश उनकी बाध्यता है?  इसको कैसे देखें?

उत्तर: पहली इकाई के प्रभाव वश दूसरी इकाई का निर्वाह के लिए बाध्य होना और दूसरी इकाई में निर्वाह करने की पात्रता-क्षमता होना ये दोनों ही हैं.  पहली इकाई का प्रभाव है, उसको दूसरी इकाई स्वीकार कर पा रहा है - इसके लिए दूसरी इकाई में पात्रता-क्षमता भी है. 

प्रकटन क्रम के हर स्तर पर निर्वाह है.  परमाणु अंश भी निर्वाह कर रहा है, उससे अग्रिम सभी स्थितियां भी निर्वाह कर रही हैं.  यह निर्वाह करना केवल दूसरे के प्रभाव वश बाध्यता ही नहीं है, सहअस्तित्व विधि से जिस स्थिति में वह है उसके अनुसार उसकी क्षमता भी है.  परस्परता या वातावरण बाध्यता है.  निर्वाह करना इकाई की क्षमता है, जो उसकी श्रम पूर्वक अर्जित है.  जैसे -पदार्थावस्था + श्रम = प्राणावस्था.  प्राणावस्था + श्रम = जीवावस्था.  इस तरह श्रम पूर्वक पहचानने की क्षमता अर्जित हो रही है. 

प्रश्न:  भौतिक-रासायनिक वस्तुएं भी "पहचान" रही हैं - इस भाषा से ऐसा लगता है जैसे उनमे भी जान हो!  इसको कैसे देखें?

उत्तर:  बाबा जी ने सारा मानव भाषा में लिखा है.  भौतिक-रासायनिक वस्तुओं के क्रियाकलाप को भी.  सामान्यतः जड़ उसको कहते हैं जो गति रहित हो.  जबकि हर परमाणु गतिशील है.  यहाँ जड़ की परिभाषा है - पहचानने-निर्वाह करने वाली वस्तु.  सत्ता में संपृक्त होने से हर वस्तु एक तरह से कहें तो "जिन्दा" है!

पहचानना-निर्वाह करना सम्पूर्ण प्रकृति में है.  मानव में जानना-मानना अतिरिक्त है.  जानने-मानने के बाद भी पहचानना-निर्वाह करना ही होता है.  मानव के पहचानने-निर्वाह करने में जो कमी थी उसको ठीक किया है.  बाकी प्रकृति में पहचानने-निर्वाह करने में कमियां ही नहीं हैं.  मानव में जब जानने-मानने के आधार पर पहचानना-निर्वाह करना हुआ तो वह भी व्यवस्था में हो गया. 

प्रश्न:  एक चट्टान में "पहचानना" क्या क्रिया है?

उत्तर: सहअस्तित्व में नियतिक्रम में जो वस्तु समर्पित हो रहा है वही पहचानना है.  जैसे - एक परमाणु अंश अकेला होने पर दूसरे को ढूँढने लगा.  दूसरा मिलने पर एक परमाणु बना लिया.  व्यवस्था में होने की जो यह मूल प्रवृत्ति है, श्रम है - इस स्थिति को ही पहचानना कह रहे हैं.  यह जैसे परमाणु अंश में है, परमाणु में है, वैसे एक चट्टान में भी है.  - दिसंबर 2018

अनुभव पूरा होता है, उसका अभिव्यक्ति क्रम से होता है.




अनुभव पूरा होता है, उसका अभिव्यक्ति क्रम से होता है.  जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन के लिए अनुभव एक साथ ही होता है.  वह क्रम से मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना के रूप में प्रमाणित होता है.  अनुभव होने पर दृष्टा पद में हो गए.  मैं समझ गया हूँ - इस जगह में रहते हैं.  समझा हुए को वितरित करना मानव परंपरा में ही होगा.  इसमें पहले मानव चेतना ही वितरित होगी, फिर देव चेतना, फिर दिव्य चेतना.  ऐसा क्रम बना है.

अनुभव के बिना मानव चेतना आएगा नहीं.  पूरे धरती पर मानव चेतना के प्रमाणित होने के स्वरूप में कम से कम ५% लोग अनुभव संपन्न रहेंगे ही, भले ही बाकी लोग उनका अनुकरण करते रहे.  अनुभव सम्पन्नता के साथ देव चेतना और दिव्य चेतना में प्रमाणित होने का अधिकार बना ही रहता है.  परिस्थितियाँ जैसे-जैसे बनती जाती हैं, वैसे-वैसे उसका प्रकटन होता जाता है.

दिव्यचेतना के धरती पर प्रमाणित होने का अर्थ है - सभी लोग मानव चेतना और देव चेतना में जी रहे हैं.  तभी दिव्य चेतना का वैभव है.  दिव्य चेतना के आने के बाद धरती पर कोई प्रश्न ही नहीं है!  उसके बाद मानव इस धरती को अरबों-खरबों वर्षों तक सुरक्षित रख सकता है.  यह धरती अपने में शून्याकर्षण में है.  यह ख़त्म होने वाला नहीं है.  मानव यदि बर्बाद न करे तो यह धरती सदा के लिए है.

- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Tuesday, December 18, 2018

मध्यस्थ क्रिया और नियति क्रम का अनुसरण

अभी दो-तीन दिन पहले मैं साधन भाई के साथ फोन पर बात कर रहा था, दर्शन के कुछ मुद्दों पर स्पष्टता पाने के लिए...  मुझे लगा यह चर्चा बाकी साथियों के लिए भी उपयोगी होगी, इसलिए आपसे साझा कर रहा हूँ.

प्रश्न: मध्यस्थ क्रिया के स्वरूप का जड़ और चैतन्य में क्या भेद है?

उत्तर:  जड़ परमाणु में मध्यांश द्वारा एक सीमा तक अपने गठन को बनाए रखने का प्रयास है.  उससे ज्यादा आवेश होने पर परमाणु टूट जाता है.  चैतन्य परमाणु (जीवन) में ऐसा है कि परमाणु टूटेगा ही नहीं, उसका गठन टूट ही नहीं सकता. 

परमाणु में मध्यस्थ क्रिया द्वारा ही नियति क्रम का अनुसरण होता है. 

प्रश्न: नियति क्रम का अनुसरण क्या केवल परमाणु में होता है? 

उत्तर: नियतिक्रम को अनुसरण करने की बात परमाणु में ही नहीं, परमाणु अंश में भी है.  परमाणु अंश तभी मिलकर परमाणु का गठन कर लेते हैं.  नियति क्रम को अनुसरण करने की क्रिया स्फूर्ति (अपने आप में) और स्फुरण (बाहर के प्रभाव से) दोनों से होती है.  बाहर से भी होगा तो उसको पहचानने वाला इकाई में होना ही होगा, और उसका श्रेय सर्वप्रथम मध्यस्थ क्रिया को ही है.

प्रश्न: जीवन परमाणु के मध्यांश (आत्मा) में यदि नियतिक्रम को अनुसरण करने की ताकत पहले से ही है तो भ्रम जीवन पर कैसे हावी हो जाता है?

उत्तर: जागृतिक्रम में मन शरीर से जुड़ता है.  शरीर से जुड़ने का मतलब शरीर को चलाता है.  शरीर से मन प्रभावित नहीं होगा तो वह शरीर को चला नहीं पायेगा.  जीवावस्था में शरीर से प्रभावित होने तक की ही बात रहती है.  यहाँ मन में अपने आप से इतनी ताकत नहीं होती, या कल्पनाशीलता/कर्मस्वतंत्रता नहीं होती, कि वह शरीर से कुछ और करा ले.  जीव शरीरों में मेधस तंत्र जितना permit करता है उतना ही जीवन उसके द्वारा प्रकाशित हो पाता है.  इसीलिये जीव वन्शानुषंगी हैं.

जीवन का शरीर द्वारा प्रकाशन की शुरुआत मन से है.  मानव शरीर को चलाने की जब बात है तो उसमे शरीर मूलक और जीवन मूलक दोनों तरह से चलाने का अवकाश रहता है.  शरीर को नहीं सुने तो शरीर को चलाना, जीवित रखना संभव नहीं है.  साथ ही शरीर के सुनने से जीवन को सुख का भास प्रिय-हित-लाभ स्वरूप में भी होने लगता है.  इससे भी जीवन शरीर का ही अनुसरण किये रहता है.

जागृतिक्रम में जीवन में पहले मन का प्रत्यावर्तन होगा, फिर वृत्ति का होगा, फिर चित्त का होगा, फिर बुद्धि और आत्मा का एक साथ प्रत्यावर्तन होगा.  यह क्रम है.  यदि मानव शरीर को चलाने के साथ ही आत्मा का सीधे प्रत्यावर्तन हो जाता तो वन्शानुषंगी जीवावस्था से सीधे संस्करानुषंगी जागृत मानव ही पैदा होता! 

तो मानव जीवन में आत्मा नियतिक्रम के अनुसरण के अर्थ में रहता है, साथ ही मन शरीर से जुड़ा रहता है.  मानव में कल्पनाशीलता/कर्म स्वतंत्रता के चलते उसमे जाग्रति की सम्भावना है, इसलिए मानव में शरीर से अधिक का भी कल्पना/अनुमान बनने लगता है, और जब यह अनुमान/कल्पना (अनुसंधान या अध्ययन पूर्वक) नियति के अनुसार सज जाती है तो आत्मा उस पर अनुभव की मुहर लगा देता है.

जीवन में एक विशेष बात है - इसका मध्यांश, आत्मा जब प्रत्यावर्तित होता है तब व्यापक के महिमा सदृश अन्तर्यामी (स्थिति) होता है।  और जब इसका बाह्य परिवेश मन शरीर (मेधस) मे परावर्तित होता है तब मेधस सदृश वन्शानुषंगीय आचरण प्रस्तुत करता है।
  वस्तुतः मेधस व मन तथा आत्मा  व व्यापक में अंतर अत्यंत सूक्ष्म है।  इसे स्पष्ट करना परम्परा में शेष रहा।  यह अब मध्यस्थ दर्शन में स्पष्ट हुआ है।

(१४ दिसम्बर २०१८)

Wednesday, December 12, 2018

परिवार की बात विगत के शास्त्रों में नहीं है.



बोलना कोई जीना नहीं है.  जीने में समाधान ही होगा, समृद्धि ही होगा - और इसके अलावा कुछ भी नहीं होगा.  बोलना एक 'सूचना' है.  'जीना' प्रमाण है.  जीने में समाधान-समृद्धि ही प्रमाण है - और कुछ प्रमाण होता नहीं है.  आप कहीं से भी ले आओ - मानव लक्ष्य इन दोनों में ही ध्रुवीकृत होता है.  परिवार का डिजाईन समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने से निकलता है.

"परिवार" शब्द मानव परंपरा में है किन्तु शास्त्रों में नहीं है.  शास्त्रों में परिवार की बात करते तो उसका डिजाईन बताना पड़ता!  मध्यस्थ दर्शन के पहले जो कुछ भी शास्त्रों में है - उसमें परिवार का कोई डिजाईन नहीं है.  परिवार का डिजाईन बताने की अर्हता विगत के शास्त्रकारों के पास नहीं है.  वहां "व्यक्ति" से सीधे "समाज" की बात की गयी है.  यहाँ (मध्यस्थ दर्शन) के अलावा परिवार के बारे में कोई चूं नहीं किया है!  परिवार का लिंक ही छूट गया - इसलिए दूरी बनी रही.  सहअस्तित्व विधि को छोड़ करके इस लिंक को कोई नहीं जोड़ सकता.  व्यक्ति और समाज के बीच परिवार एक सेतु है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, December 11, 2018

समाधान समृद्धि का मॉडल multiply हो सकता है.


समझाने वाले का पलड़ा ज्यादा भारी लगता रहे तो समझने वाले को समझ दूर ही लगती रहती है.  अध्यापक यदि दूरी बना के रखे तो उसका multiply होना मुश्किल है.  हमारा उद्देश्य multiply होना है.

मेरी समीक्षा में यह आ गया था कि राम multiply नहीं हुआ - जिसको मैं बहुत पढ़ा था.  कृष्ण multiply नहीं हुआ - जिसकी रंगरेली से लेकर कूटनीति तक मैंने सब पढ़ा है.  गाँधी जी आये - multiply नहीं हुए.  विनोबा आये - multiply नहीं हुए.  बुद्ध आये - multiply नहीं हुए.  महावीर आये - multiply नहीं हुए.  ईसा मसीह आये, वो कीला ठुकवा लिए - multiply नहीं हुए.  हर व्यक्ति कीला ठुकवाने को तैयार नहीं हुआ शायद!

अब इस अनुसन्धान के सफल होने से multiply होने का एक रास्ता बना है.  समाधान-समृद्धि का मॉडल multiply हो सकता है.  मेरे assessment में यह आ गया कि यह सबकी ज़रुरत है, सबको स्वीकृत है.

प्रश्न:  इतना सब ज्ञान जो आप लेकर चल रहे हैं, आपको भारी नहीं लगता?

उत्तर:  कहाँ कुछ भारी है?  अनुभव में कुछ बोझ होता ही नहीं है.  synthesis में बोझ नहीं है.  सब कुछ मूल्यांकन और समीक्षा में आने पर बोझ नहीं है.  समाधान के अर्थ में ही यथास्थिति का समीक्षा हुआ रहता है.  समाधान नहीं हो तो समीक्षा भी नहीं हो सकता.  बोझ तभी तक है जब तक समाधान नहीं है.  इसी आधार पर कह रहे हैं - समाधान-समृद्धि सबको स्वीकार है.  चैन से सोचना, चैन से करना, चैन से सोना, चैन से जीना!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, December 9, 2018

प्रमाणित करते हुए समझना ज्यादा प्रभावशाली तरीका है.



परंपरा में जो नहीं था उसका प्रस्ताव प्रस्तुत करना अनुसंधान है.  प्रस्ताव को समझना शोध है.  समझे बिना हम कुछ भी करते हैं तो वह अधूरा होता है.  समझने के लिए पूरा प्रयत्न होना चाहिए.  समझने में हम धीरे-धीरे भी समझ सकते हैं, जल्दी भी समझ सकते हैं.

प्रश्न:  अभी जो दर्शन के लोकव्यापीकरण के प्रयास चल रहे हैं, आप उनको कैसे देखते हैं?  क्या वे आपकी नज़र में जागृत परंपरा के भ्रूण स्वरूप हैं?

उत्तर:  जागृत परंपरा के लिए जो ज्ञान चाहिए वह मेरे पास है.  उसमें मैं पारंगत हूँ और स्वयं प्रमाण हूँ.  यहाँ से शुरुआत है.  यह इन कार्यक्रमों के जागृत परंपरा के "भ्रूण" होने की बात नहीं है.  आपकी भाषा को ठीक होने की आवश्यकता है.  मैं स्वयं प्रमाण हूँ, उस प्रमाण के multiply होने के लिए ये कार्यक्रम हैं.  multiply होने के क्रम में बहुत सारे लोग शुभ का स्वागत करने के लिए बैठे हैं.  शुभ के लिए शंका करने वाले भी बैठे हैं.  इन दो चैनल में आदमी मिलता है, इसमें हमको कोई आश्चर्य नहीं है.  जो जिस चैनल में जाना चाहता है, जाए!  हम तो किसी को मजबूर करने वाले नहीं हैं कि आप ऐसा ही करो!  आपको जैसा इच्छा हो आप वैसा करो!

प्रश्न: इस तरीके से आप सबके साथ कैसे जुडेंगे?

उत्तर: जिसको ज्यादा ज़रुरत है वो पहले आएगा, उसके बाद वाला उसके पीछे आएगा, उसके बाद वाला उसके पीछे आएगा!  ऐसा मैं अपने में विन्यास लगा लेता हूँ.  इसमें क्या कोई बचेगा?

दो तरीके हैं जुड़ने के - पहला, मॉडल को बनाने के basic/foundation work में शामिल होना है, दूसरा - मॉडल के प्रमाणित होने के बाद शामिल हो जाना है.

प्रश्न: लेकिन अभी स्वयं समझ में पक्के हुए बिना कैसे इसको लेकर कुछ करें?

उत्तर: प्रमाणों के आधार पर हम पक्के होंगे.  (अनुकरण पूर्वक) प्रमाणित करते हुए समझना ज्यादा प्रभावशाली तरीका है.  स्वयं पूरे शोध पूर्वक समझने की जिम्मेदारी लेने वाले तरीके में अपेक्षाकृत कम बल है.

"अच्छा काम करना है" - यह उद्देश्य आप में कहीं न कहीं बन चुका है.  उसके लिए आवश्यक योग्यता अर्जित होने की घटना जब होना है तब घटित हो जाएगा.  इसमें देरी-जल्दी की बात नहीं है.  जितना देर में हम कर लेते हैं, वही हमारी अर्हता है.  जैसे - मैंने भी इस समझ को किसी मुहूर्त में ही हासिल किया और अपने को परिपूर्ण होना स्वीकारा.  अब इसमें मैं देरी क्या गिनूँ, जल्दी क्या गिनूँ?  जब घटित होगा तब गणना हो जाएगा कि कितना समय लगा!  इसमें भविष्यवाणी इतना ही किया जा सकता है - "समझदारी का यह प्रस्ताव है, आवश्यकता के अनुसार आदमी इसको ग्रहण करेगा."

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, December 7, 2018

लोकव्यापीकरण के लिए जीता जागता मॉडल चाहिए

मेरी साधना जब फलवती हुआ तो पता चला यह पूरी बात मेरे अकेले की नहीं है, यह मानव जाति की सम्पदा है.  मानव जाति के पुण्य से यह मुझे हाथ लगा है - यह मैंने स्वीकार लिया.  अब इसको मानव को समर्पित करने की जिम्मेदारी, यानी इसके लोकव्यापीकरण करने की जिम्मेदारी को मैंने स्वीकार लिया.   लोकव्यापीकरण के लिए हर बात का उत्तर चाहिए.  मानव कैसे रहेगा, शिक्षा कैसे रहेगा, संविधान कैसा रहेगा, आचरण कैसा रहेगा.  यह न कम है, न ज्यादा है. 

साधना से वस्तु (समझदारी) प्राप्त करना और उसका लोकव्यापीकरण करना दो अलग-अलग संसार ही है.  लोकव्यापीकरण के लिए जीता जागता मॉडल चाहिए.  साधना में मैं विरक्ति विधि से रहा.  विरक्ति समझदारी का कोई मॉडल नहीं है.  समझदारी का मॉडल है - समाधान समृद्धि.  समझदारी से समाधान संपन्न मैं हो ही गया था, श्रम से समृद्धि का मैंने जुगाड़ कर लिया! 

मानव जाति के पुण्य से मैं यह दर्शन को पाया हूँ, मानव जाति के पुण्य से यह सफल भी होगा.  मानव जाति में शुभ स्वरूप में जीने की अपेक्षा रही है, पर शुभ का मॉडल नहीं रहा.  अब मॉडल आ गया.  minimum model को मैं जी कर प्रमाणित किया हूँ.  अब अगला स्टेप है - कम से कम १०० परिवार इस समझ को एक गाँव में स्वराज्य व्यवस्था के स्वरूप को प्रमाणित करें और १२वीं तक एक शिक्षा संस्था को स्थापित करें.  इसके बाद संसार में इसका ध्यानाकर्षण शुरू होगा.  उसके बाद १०० परिवार से विश्व परिवार तक कैसे प्रमाणित होंगे, इसको सोचेंगे.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक) 

दासत्व से मुक्ति

दासत्व से मुक्ति स्वावलंबन से आता है.  स्वावलंबन समाधान से आता है.  स्वावलंबन की चर्चा कब से हो रही है - पर क्या स्वावलंबन हो पाया?  अभी कुछ भी चोरी, सेंधमारी, लूटमारी, जानमारी करके पैसे कमा लेने को स्वावलंबन कहते हैं.  इस ढंग से क्या कोई स्वावलंबन होता है?

प्रश्न:  स्वावलंबन क्या है?

उत्तर: हमारे परिवार के शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज गति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जितना चाहिए उतना सामान्याकांक्षा या महत्त्वाकांक्षा संबंधी कोई भी वस्तु का उत्पादन कर लेना.  समाधान के बिना स्वावलंबन को इस प्रकार पहचानने का प्रवृत्ति ही नहीं बनता.  समाधान के बिना सेंधमारी, लूटमारी, जानमारी का ही प्रवृत्ति रहता है. 

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक) 

Thursday, December 6, 2018

साधन के साथ ही हम प्रमाणित होते हैं.



समझदारी के साथ व्यवस्था में भागीदारी करने का स्वीकृति हो जाती है.

समृद्धि के साथ ही समझदारी का प्रमाण दूर-दूर तक फैलता है.  प्रमाण गति के साथ है - जिसमे शरीर पोषण है, संरक्षण है, और समाज गति है.  समाज व्यवस्था में भागीदारी करने के लिए साधन चाहिए.  साधन के साथ ही हम प्रमाणित होते हैं.  साधन को छोड़ कर हम प्रमाणित नहीं होते. 

जीवन शरीर नामक साधन के साथ ही होता है - तब ही मानव संज्ञा बनता है.  शरीर का पोषण आवश्यक है.  संरक्षण आवश्यक है.  तब ही समाज गति संभव है. 

प्रश्न: साधन की आवश्यकता की मात्रा का कैसे निश्चयन करेंगे?

उत्तर:  एक व्यक्ति सोचता है - ग्राम परिवार व्यवस्था में भागीदारी करेंगे.  दूसरा व्यक्ति सोचता है - विश्व परिवार व्यवस्था में भागीदारी करेंगे.  दोनों संभव है.  जिस स्तर तक जिसका भागीदारी करने का अभिलाषा होता है उसके अनुसार साधन संपन्न होना उसका आवश्यकता होता है. 

आवश्यकता की मात्रा को सबके लिए समान किया नहीं जा सकता.   प्रयोजन के अर्थ में हर परिवार की आवश्यकताएं "सीमित" हैं, लेकिन हर परिवार की आवश्यकताएं "समान" नहीं हैं.  मार्क्स यहीं फेल हुआ.  उसने नारा दिया था -"मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार भोग करे, क्षमता के अनुसार श्रम करे".  वह सफल नहीं हुआ - क्योंकि आवश्यकता का ध्रुवीकरण नहीं हुआ.  (समझदारी के बिना) किसको क्या नहीं चाहिए?  आवश्यकता का ध्रुवीकरण नहीं हुआ क्योंकि अपनी प्रयोजनीयता पता नहीं है, सदुपयोगीयता पता नहीं है, उपयोगिता पता नहीं है.

मध्यस्थ दर्शन से निकला - मनुष्य अपनी उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता को प्रमाणित करने के क्रम में समाज गति को अपनाता है.  समाजगति को अपनाने में जिसको जितना विशालता में भागीदारी करना है, उसको उतना साधन की आवश्यकता है.  उसको श्रम पूर्वक उत्पादन कर लो! 

जितना जिसका उपकार करने की अभिलाषा है, उतना साधन की मात्रा से संपन्न होने की उसकी  आवश्यकता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, December 4, 2018

मानव जाति जब कभी भी इस विकल्पात्मक प्रस्ताव को अपनाएगा तो एक बार तो पश्चात्ताप करेगा.



परिवर्तनशील वास्तविकताओं की ओर मानव का ध्यान शायद गया है.  नित्य/शाश्वत तथ्यों पर ध्यान गया नहीं है.  अध्यात्मवादियों ने इसके लिए पुरजोर कोशिश किया, पर वह लोकगम्य हुआ नहीं.  उनको उपलब्धि हुआ होता तो लोकगम्य हुआ ही होता!

अभी तक जितना मानव जाति गड़बड़ किये हैं, उसका परिणाम होगा ही.  अब पुनर्विचार करने पर मानव में मानसिक रूप में व्यथा के रूप में प्रायश्चित्त होगा ही.   यह सभी परम्पराओं के साथ होगा.  मानव जाति जब कभी भी इस विकल्पात्मक प्रस्ताव को अपनाएगा तो एक बार तो पश्चात्ताप करेगा.

मैं स्वयं उसी तरह (वेद विचार) को लेकर १० वर्ष तक पश्चात्ताप से गुजरा.  वैदिक विचार में ज्ञान को ही ब्रह्म, पवित्र, सर्वज्ञ और पूर्ण बताया.  फिर बताया ज्ञान अव्यक्त और अनिर्वचनीय है.

ज्ञान पर कौन पर्दा डाल दिया?

ज्ञान को लेकर शर्माने की क्या ज़रुरत थी?

ज्ञान को अव्यक्त रहने का क्या ज़रुरत था?

मेरे इन अड़भंगे सवालों से काफी संकट हुआ.

उसके बाद संविधान को देखा तो उसमे पाया कि राष्ट्रीय चरित्र व्याख्यायित ही नहीं है.  उस समय (१९४९-५०) मैंने वेदमूर्तियों को इकठ्ठा करके पूछा - आप इसको लिख कर दे दो!  यह सही समय है.  सुराष्ट्र के बारे में हम जो हर दिन परायण करते ही हैं - "प्रादुर्भूतो  सुराष्ट्रेस्मिन  कीर्तिमृद्धिम  ददातु  में" (श्री सूक्तं), उससे राष्ट्रीयता क्या है - यह लिख कर दे दो.  उसमे वे एक लाइन लिख कर नहीं दे पाए.  यह मेरी व्यथा का दूसरा कारण हुआ.

१० वर्ष इसको झेलने के बाद मैंने निर्णय किया - इसको अंत ही किया जाए.  या तो यह शरीर यात्रा अंत होगी या समाधान ही निकलेगा!

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, December 2, 2018

साम्य ऊर्जा संपन्न होने से हर वस्तु में कार्य ऊर्जा को पहचानने का गुण है.



इकाई ऊर्जा संपन्न है, इसलिए क्रियाशील है.  व्यापक सत्ता साम्य ऊर्जा है, जिसमें संपृक्त रहने से इकाई क्रियाशील है.  इकाई के क्रियाशील होने से कार्य ऊर्जा होगा ही. 

साम्य ऊर्जा इकाई नहीं है, न यह इकाई में बंध पाता है.  पारगामी होने के आधार पर साम्य ऊर्जा इकाई में बंध नहीं पाता.  साम्य ऊर्जा इकाई में परिवर्तित नहीं होता है.  इसी आधार पर इसे साम्य ऊर्जा नाम दिया है.

अभी विज्ञान ऊर्जा को जो पहचाना है, वह कार्य ऊर्जा ही है.  विज्ञान अभी साम्य ऊर्जा को नहीं पहचाना है.  स्थिति में नित्य वर्तमान ऊर्जा को विज्ञान नहीं पहचान पाता है.  विज्ञान ने कार्य ऊर्जा को बर्बादी करने के स्वरूप में ही पहचाना है, आबादी के रूप में पहचाना नहीं है.  अभी करोड़ों आदमी विज्ञान की रोशनी में चल रहा है, यह कितना कष्टदायी बात है - आप सोच लो! 

साम्य ऊर्जा पहचान आने के बाद कार्य ऊर्जा के प्रयोजन को हम पहचान सकते हैं.  कार्य ऊर्जा का प्रयोजन है - अस्तित्व में प्रकटनशीलता.  अगली अवस्था को प्रकट करने के रूप में.  पिछली अवस्था में अगली अवस्था का भ्रूण समाया रहता है, तभी अगली अवस्था प्रकट हुई.  पदार्थावस्था ही प्राणावस्था स्वरूप में प्रकट हुई.  प्राणावस्था ही जीवावस्था स्वरूप में प्रकट हुई.  जीवावस्था ही ज्ञानावस्था के शरीर स्वरूप में प्रकट हुई. 

कार्य ऊर्जा मात्रा के साथ ही है.  हर मात्रा स्वयं में साम्य ऊर्जा संपन्न रहता ही है.  इसलिए हर मात्रा कार्य ऊर्जा को पहचानने योग्य है, हर अवस्था में. 

साम्य ऊर्जा संपन्न होने से हर वस्तु में कार्य ऊर्जा को पहचानने का गुण है.  इसके प्रमाण में हम शमशान में मुर्दा को जलाने ले जाते हैं.  मुर्दा ऊर्जा संपन्न था, इसलिए चिता की आग को पहचान लिया और उसके निर्वाह में जल गया.  दूसरा उदाहरण: चूल्हे में दाल को पकाने रखते हैं.  दाल ऊर्जा संपन्न थी, इसलिए चूल्हे की लकड़ी की कार्य ऊर्जा को पहचान लिया, और इस पहचान के निर्वाह में दाल पक गयी. 

प्रश्न:  मानव भी तो एक मात्रा है, मानव अपने व्यवहार में कार्यऊर्जा को कैसे पहचानता है?

उत्तर: मानव मानव के साथ बात करता है.  किसी बात पर नाराज होता है, किसी पर प्रसन्न होता है, किसी बात को स्वीकारता है, किसी को अस्वीकारता है.  यह कार्य ऊर्जा की ही परस्पर पहचान पूर्वक है.  साम्य ऊर्जा संपन्न होने के कारण यह सब कार्य करने की योग्यता हममे आ गयी.  साम्य ऊर्जा को समझने के लिए सहअस्तित्ववादी विधि से प्रेरणा है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Saturday, December 1, 2018

नियम - नियंत्रण - संतुलन



समग्रता के साथ ही अस्तित्व साक्षात्कार होता है.  पूरा अस्तित्व सहअस्तित्व स्वरूप में साक्षात्कार होना, फिर उसके विस्तार में चारों अवस्थाओं के स्वरूप में व्यवस्था का साक्षात्कार होना.

मानव नियति विधि से चारों अवस्थाओं के शाश्वत अंतर्संबंधों को पहचानता है और कार्य-व्यव्हार विधि से उनसे अपने सम्बन्ध को पहचानता है, और प्रमाणित करता है.

पदार्थावस्था से ज्ञानावस्था तक जो प्रकटन हुआ है, उसमे शाश्वत अंतर्संबंध हैं.  अध्ययन = इन शाश्वत अंतर्संबंधों को पहचानना और उसके अनुसार अपने आचरण (उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता) को निर्धारित कर लेना.

अध्ययन विधि में क्रम से साक्षात्कार होता है.  अनुक्रम से यह पूरा समझ में आता है.  अनुक्रम का अर्थ है - मानव के साथ जीव संसार, वनस्पति संसार, पदार्थ संसार कैसा अनुप्राणित है, इसको समझना.  सबके साथ हम जो जुड़े हैं, इन जुड़ी हुई कड़ियों (अंतर्संबंधों) को पहचान लेना.  इन कड़ियों (अंतर्संबंधों) को पहचानने के बाद निर्वाह कर लेना ही "सम्बन्ध" है.  इससे मानवेत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन और मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित होगा.  प्रयोजन सिद्ध होगा, निरंतरता बनी रहेगी.  मानव अपराध मुक्त हो कर जी पायेगा, धरती को तंग करने की आवश्यकता समाप्त होगी, धरती के अपने में सुधरने का अवसर बनेगा, मानव जाति के शाश्वत स्वरूप में धरती पर रहने की संभावना उदय होगी.  इसको हम "सर्वशुभ" मानते हैं.  सर्वशुभ का वैभव यह है.  सर्वशुभ को काट कर स्वशुभ को प्रमाणित करना बनता ही नहीं है.  आज तक किसी ने भी इसको प्रमाणित नहीं किया.

सहअस्तित्व में तदाकार होने पर उसी स्वरूप में मानव जीने के योग्य हो जाता है, प्रमाणित हो जाता है.  सहअस्तित्व में तदाकार होने पर वस्तु के आचरण के साथ तदाकार होकर नियम को पहचानते हैं.  आचरण की निरंतरता में तदाकार हो कर नियंत्रण को पहचानते हैं.  आचरण की निरंतरता ही परंपरा स्वरूप में होती है.  उपयोगिता-पूरकता में तदाकार होने पर संतुलन को पहचानते हैं.  जैसे - दो अंश का परमाणु एक निश्चित आचरण को करता है.  दो अंश के सभी परमाणु उसी आचरण को करते हैं, जो परिणामानुषंगी परंपरा के स्वरूप में नियंत्रित है.  इसी तरह हरेक वस्तु में एक के साथ आचरण और परंपरा स्वरूप में आचरण की निरंतरता है.

पदार्थावस्था में परिणाम अनुषंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  प्राणावस्था में बीजानुषंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  जीवावस्था में वंशानुशंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  मानव तक पहुंचे तो मानव का पता ही नहीं है कि उसका नियंत्रण कैसे होगा?  एक-एक आदमी हज़ारों समस्याओं का पुलिंदा है!  सहअस्तित्व विधि से पता चला न्याय पूर्वक मानव का निश्चित आचरण है.  समाधान (धर्म) पूर्वक नियंत्रण है.  सत्य पूर्वक संतुलन है.  मानव में - न्याय ही नियम है, धर्म ही नियंत्रण है, सत्य ही संतुलन है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, November 30, 2018

प्रकृति में परस्पर पहचान का स्वरूप



भौतिक रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में जो दूरियाँ रहती है, वह स्वयं व्यापक वस्तु (सत्ता) ही है.  जहाँ भौतिक रासायनिक वस्तुएं हैं वहाँ भी व्यापक वस्तु पारगामी विधि से यथावत है. 

प्रश्न: प्रकृति की वस्तुओं की परस्परता में परस्पर पहचान में व्यापक वस्तु का क्या रोल है?

उत्तर: व्यापक वस्तु की पारदर्शीयता - जिससे वस्तुएं/इकाइयां एक दूसरे को पहचान सकती हैं.  पहचानने के लिए जो ताकत है वह वस्तुओं के बीच में रखा है.  व्यापक वस्तु ही पहचानने की अच्छी निश्चित दूरी है.  दूरी बीच में न हो तो पहचान होता ही नहीं है.  जैसे - मैंने इस वस्तु को छुआ, यह स्पर्श ज्ञान मुझे मेरे हाथ और इस वस्तु के बीच दूरी के आधार पर हो रहा है.  स्पर्श में वस्तुओं के बीच दूरी रहता ही है.  यदि हाथ और वस्तु के बीच में दूरी नहीं होती तो इनको अलग किया ही नहीं जा सकता था.  परस्परता में दूरी नहीं है तो स्पर्श ज्ञान भी नहीं है. 

प्रश्न: प्रकृति की वस्तुओं के परस्पर पहचान का क्या स्वरूप है?

उत्तर: वस्तुएं एक दूसरे को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध विधि से पहचानती हैं.  इन पाँच प्रकार से पहचानने की विधियाँ हैं. 

इनमे सर्वप्रथम स्पर्श विधि से पहचान का प्रकटन है.  एक परमाणु अंश दूसरे परमाणु अंश को स्पर्श विधि से पहचानता है.  स्पर्श स्वीकृति के आधार पर परमाणु अंश परमाणु की व्यवस्था में भागीदारी करने में तत्पर हो गए.

स्पर्श के बाद गंध के आधार पर पहचान का प्रकटन हुआ.  गंध के आधार पर सभी प्राणकोशाएं काम करते हैं.  एक ही भूमि से गन्ने का जड़ अपने पोषण की वस्तु ले लेता है, धतूरे का जड़ अपने पोषण की वस्तु ले लेता है.  यह गंध के आधार पर होता है. 

शब्द या ध्वनि  के आधार पर पहचान का भ्रूण स्वरूप जीवों में हुआ, जिसका मानव में पूरा प्रकटन हो गया.

रूप का "होना" जीवों में पहचान में आता है.  मानव में रूप का "होना" और "रहना" (आचरण) दोनों पहचान में आता है.  इस तरह रूप के आधार पर पहचानने का भ्रूण स्वरूप जीवों में हुआ, जिसका प्रकटन मानव में हुआ.

रस के आधार पर अपने आहार की पहचान जीव संसार में हुई.  जिसमे दो प्रजाति हुई - शाकाहारी और मांसाहारी.  शाकाहारी जीव अपने आहार को पूरा पहचानते हैं, मांसाहारी अपने आहार को पूरा नहीं पहचानते.  मांसाहारी जीव भूख लगने के समय कुछ भी खा लेते है, इसीलिये इनको क्रूर कहा.  मांसाहारी जीवों में ऐसा नहीं होता कि यही आहार करेंगे, दूसरा आहार नहीं करेंगे. 

इस तरह प्रकृति में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पूर्वक पहचान का क्रमशः प्रकटन हुआ.  इतने से मानव का चार विषयों और पांच संवेदनाओं की सीमा में रूचि मूलक जीना बन गया, जिसको "जीव चेतना" कहा.  ऐसे जीने से समस्याएं हुई जिससे मानव चेतना की आवश्यकता बनी.  मानव चेतना के लिए यह प्रस्ताव है.  मानव चेतना में संज्ञानीयता पूर्वक हर वस्तु को उसके प्रयोजन के अर्थ में पहचानते हैं, जिससे मूल्य मूलक और लक्ष्य मूलक जीना बनता है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)



Saturday, November 24, 2018

हर अगली अवस्था का भ्रूण उसकी पिछली अवस्था में बनता है


पदार्थावस्था में जितने प्रजाति के परमाणु होना था, उनका प्रकटन होने के बाद उसमे यौगिक क्रिया का भ्रूण बना.  भ्रूण बनने का अर्थ है - पदार्थावस्था में प्राणावस्था को प्रकट करने की आवश्यकता बन गयी.  प्राणावस्था प्रकट होने की पृष्ठभूमि को हम "भ्रूण" कह रहे हैं.

प्रश्न: भ्रूण वस्तु के रूप में क्या है?

उत्तर: जो प्रकट हो सकता है, उसको भ्रूण कहते हैं.  जैसे- आम की डाल पर उसके फूल लगने से पहले उसका भ्रूण उस डाल में बनता है.

इसी तरह सभी स्थितियों में पर-रूप का भ्रूण पूर्व-रूप में निहित रहता है.  जैसे - पानी एक यौगिक है, जो एक जलने वाले और एक जलाने वाले वस्तु के योग से प्रकट हुआ है.  इन दोनों परमाणुओं में एक दूसरे से मिलने की आवश्यकता जो बना, वही भ्रूण है.

यह समझ में आने पर आदमी का अहंकार काफी शांत हो जाता है.  नहीं तो आदमी अपनी शेखी बघारने में लगा रहता है.  इस बात को गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है.

मिलन को योग संज्ञा है.  एक दूसरे से मिलने के बाद "ऐक्य" या "सहवास" स्वरूप में हो जाते हैं.  एक दूसरे से मिलने के बाद अलग-अलग स्वरूप पता नहीं चले उसे ऐक्य कहा.  जैसे - अपना-अपना आचरण छोड़ कर जलने वाला और जलाने वाला वस्तु एक तीसरे आचरण (प्यास बुझाने वाला) को अपना लिए, और जल का प्रकटन हुआ.  यह एक सहज नियंत्रण का स्वरूप है.  यह यदि समझ में आता है तो आदमी में अभी जो प्रकृति का नियंत्रण करने का शेखचिल्ली है वह समाप्त हो जाता है. 

प्रकृति में नियति विधि से "होना" और "रहना" का प्रकटन है.  होने और रहने के स्वरूप में यह सम्पूर्ण सहअस्तित्व है.  हर वस्तु होने और रहने के स्वरूप में है.  होना चार अवस्थाओं के स्वरूप में है.  रहना - त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी.  इसमें मानव की सबसे विडंबनात्मक स्थिति है.  अभी तक मानव जीवचेतना में जीते हुए पशुमानव/राक्षसमानव स्वरूप में जिया है, उससे उठा नहीं है.  कमर सीधा हुआ नहीं है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Wednesday, November 21, 2018

योग-संयोग न हो, ऐसा कोई स्थिति ही नहीं है



सत्ता में संपृक्त प्रकृति के कारण योग-संयोग है.  सारी क्रियाएं इसी प्रकार हैं.

मानव शरीर यात्रा के सुगम बने रहने के लिए भी योग-संयोग चाहिए.  जैसे हवा चाहिए ही.  हवा नहीं हो मानव शरीर सुरक्षित नहीं रहेगा.

योग-संयोग न हो, ऐसा कोई स्थिति ही नहीं है.  ऐसी कोई स्थिति को हम पहचान नहीं पायेंगे जिसमे योग-संयोग न हो.

प्रश्न:  योग-संयोग के साथ-साथ प्रकृति में वियोग भी देखा जाता है.  उसका क्या प्रयोजन है?

उत्तर: वियोग का प्रयोजन है - संतुलन!  चारों अवस्थाओं के बने रहने के लिए.  जैसे - मांसाहारी जीवों का होना जंगल में जीवों के संतुलन के लिए आंकलित होता है.  आहार विधि से ही शाकाहारी और मांसाहारी जीवों में संतुलन है.  मारक (विषैली) वनस्पतियों का होना भी संतुलन के लिए आंकलित होता है.

सारक-मारक वनस्पति और शाकाहारी-मांसाहारी जीवों का प्रकटन योग-संयोग विधि से होता है.  योग-संयोग सदा रहता ही है, इसलिए घटित होता है.  योग-संयोग घटित होता है जिससे चारों अवस्थाओं में संतुलन बने रहता है.  घटना, योग और संयोग ये पूरा का पूरा चारों अवस्थाओं के बने रहने के लिए है.  यदि इस ज्ञान के आधार पर मानव विचार करता है तो उसके कार्यों का फल-परिणाम सकारात्मक होता है. 

सहअस्तित्व नित्य प्रभावी सिद्धांत के आधार पर योग-संयोग की उपलब्धता निश्चित होने पर सफलताएं होते हैं.

जैसे - धरती पर एक जलने वाला वस्तु और एक जलाने वाला वस्तु दोनों एक निश्चित मात्रा में मिलने से पानी का प्रकटन होता है.  दोनों की मात्रा में यदि घट-बढ़ होता है तो पानी नहीं होगा.  धरती पर इनकी निश्चित मात्रा को क्या कोई बनाता है?  अच्छे ढंग से इसको सोच लो!  यह एक मुद्दा पर्याप्त है अस्तित्व में योग-संयोग के महत्त्व को समझने के लिए.  सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है इस आधार पर योग-संयोग पूर्वक ये वस्तुएं निश्चित अनुपात में बनती हैं.  सहअस्तित्व को ही चारों अवस्थाओं के स्वरूप में प्रकट होना है.  चारों अवस्थाओं के स्वरूप में प्रकट होने पर ही सहअस्तित्व का वैभव है.  इससे कम में होता नहीं है.

धरती पर चारों अवस्थाओं का प्रकटन होना है और उनका बने रहना है, इसके आधार पर धरती पर सारा योग-संयोग है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक) 

Tuesday, November 20, 2018

सहअस्तित्व में योग-संयोग




प्रश्न: एक वृक्ष के सभी बीज अंकुरित नहीं हो जाते, एक जीव की सभी संतानें अपनी पूरी आयु जी नहीं पाती - यह हमको प्रकृति में दिखता है, वैसे ही सभी परमाणु गठनपूर्ण हो कर जीवन पद प्रतिष्ठा में नहीं हो पाते.  यह कैसे होता है?  यह किस नियम से होता है?

उत्तर:  यह योग-संयोग नियम से होता है.  योग-संयोग सहअस्तित्व पूर्वक निश्चित होता है.  सम्पूर्ण योग-संयोग सहअस्तित्व पर निर्भर है. 

मिलन का नाम है योग.  हर वस्तु का अन्य वस्तुओं के साथ मिलन विधि या योग विधि बना ही रहता है.  जैसे - बीज का मिट्टी से मिलन योग है.  पानी से मिलना योग है.  हवा से मिलना योग है.  खाद-गोबर मिलना योग है.  ये सब मिलकरके योग है.  इन सब में से कुछ भी मिलने से रह जाए तो विरोधाभास होता है. 

सहअस्तित्व बने रहने, चारों अवस्थाएं बने रहने के लिए प्रकृति में यह नियंत्रण है.

प्रश्न:  यह नियंत्रण होता कैसे है?  बिना किसी नियंत्रण करने वाले के यह नियंत्रण कैसे हो रहा है?

उत्तर: प्रकृति में नियंत्रण स्वयंस्फूर्त रहता है.  अभी नियंत्रण को हम अपनी हविस के रूप में मानते हैं.  किन्तु सहअस्तित्व (सत्ता में संपृक्त प्रकृति) में जो नियंत्रण है वह चारों अवस्थाओं के बने रहने के अर्थ में है.  यह इसका नियति है.  सहअस्तित्व का नियति इतना है.

प्रश्न: तो इस नियंत्रण के चलते जो बीज अंकुरित नहीं हुआ, या जो शिशु अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया - क्या उसका शोषण नहीं हुआ?

उत्तर: वहां योग ठीक नहीं हुआ.  यह बिल्कुल स्पष्ट बात है.  कोई भी वस्तु के रहने के लिए योग-संयोग विधि बना है.  जैसे - आप हम यहाँ रह रहे हैं.  इसके साथ यह घर है, हवा है, पानी है, खाना है - यह सब संयोग है.  इन सब के एकत्रित होने से हमारा रहना हो पाता है.  इनमे से कोई भी कम होने पर या तो हम रोगी होते हैं या दुखी होते हैं.  उसी प्रकार हर वस्तु के साथ योग है, संयोग है.  सहअस्तित्व स्वरूपी नियम अपने आप में सिद्ध है.  चारों अवस्थाएं सहअस्तित्व में ही प्रकट हैं.  इन चारों अवस्थाओं का बने रहना सहअस्तित्व का उद्देश्य है.  नियति विधि यही है.  नियति विधि से ही सहअस्तित्व सिद्धांत और योग-संयोग सिद्धांत आता है.

प्रश्न: अस्पतालों में जो भ्रूण-हत्या करते हैं, उसके बारे में आपका क्या मंतव्य है?

उत्तर: यह आदमी का हविस है.  योग हो गया उसको विच्छेद करने का उपाय खोज लिया आदमी ने.  मनुष्य के इस कुकर्म को कुछ लोग सही भी मानते हैं, कुछ गलत भी मानते हैं.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Sunday, November 11, 2018

किताब के साथ पारंगत व्यक्ति का होना आवश्यक है




वांग्मय और उसको पढने वाला - इन दोनों के बीच में एक पारंगत व्यक्ति भी होता है.  पारंगत व्यक्ति को भुलावा दे कर हम केवल वांग्मय से कभी पार नहीं पायेंगे.  पारंगत व्यक्ति ही मार्गदर्शन करेगा - misinterpretation (अधूरा/गलत अनुमान) को right interpretation (सही अनुमान) में परिवर्तित करने के लिए.  जीव चेतना के प्रभाव वश ही misinterpretation होता है.  पिछले २० वर्षों में यह सब मेरे सर्वेक्षण में आ चुका है, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है.

किताब सूचना है.  सूचना से अर्थ ग्रहण करने का अधिकार हर व्यक्ति के पास है.  इस अधिकार को सफल बनाने के लिए पारंगत व्यक्ति है.  इन तीनो के योग में इस की परंपरा चलेगी.

प्रश्न:  अनुभव मानव के कितना "दूर" है या कितना "पास" है?

उत्तर: अनुभव हर मनुष्य के पास ही है.  "समीचीन" इसका नाम दिया है.  अनुभव करने की इच्छा मानव में होना है.   अनुभव मूलक विधि से ही मानव मानवीयता को प्रमाणित करेंगे.  यदि यह निष्कर्ष निकलता है तो मन लगना शुरू हो जाएगा.  इस निष्कर्ष के निकलने से पहले प्रस्ताव में कमी निकालने में मन लगा रहता है.  कमी निकालना कोई अध्ययन नहीं है.

प्रश्न:  पर यदि हमको कोई कमी दिखता है तो क्या करें?

उत्तर: उस कमी को आप मुझे बताइये.  यदि मेरे लिखे हुए में कुछ ठीक करना होगा तो वो मैं कर दूंगा.  यदि उस "कमी" में आपने जीव चेतना का कोई अर्थ लगाया होगा तो मैं उसको ठीक कर दूंगा.  यह मेरा काम ही है. 

प्रश्न:  अनुभव में कितना समय है, क्या इसको कुछ कहा जा सकता है?

उत्तर: यह हमारी चाहत (इच्छा) पर ही है.  हम चाहते हैं तो यह अभी है.  हम नहीं चाहते हैं तो इसमें अभी समय  है.  चाहत में वरीयता आने पर देर नहीं लगता.  अनुभव को यदि प्राथमिकता में ला पाते हैं तो उसमे समय लगने का मतलब ही नहीं है.  हमारा ध्यान कई जगह बंटा हुआ है, इसलिए यह वरीयता में नहीं है. 

सच्चाई समीचीन है.  सच्चाई की समीचीनता को स्वीकारने तक मानव में इधर-उधर का भटकाव रखा ही है.  सच्चाई को स्वीकारने के लिए अध्ययन है.  अध्ययन में मन लगाना ही पड़ता है.  अर्थ जब अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझ आ जाता है तो आदमी पार पा जाता है. 

मैंने भी इतना ही किया है.  अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के रूप में पहचाना है.  उसी के अनुरूप परिभाषाएं दी हैं.  सारी परिभाषाएं अस्तित्व में वस्तु को इंगित करती हैं.  इंगित होने का अधिकार हर मानव में है.  मानव की इस मौलिकता को समाप्त नहीं किया जा सकता.  उपदेशवाद/ईश्वरवाद/आदर्शवाद ने मानव की इस मौलिकता का अवमूल्यन किया.  उपभोक्तावाद/भौतिकवाद ने मानव की इस मौलिकता का निर्मूल्यन किया.  इसको nutshell (सार संक्षेप) में ला करके हमको निष्कर्ष निकालना है - सार्थकता क्या है?  सार्थकता के प्रति अपने में समर्पण होने की आवश्यकता है.  इस ढंग से हम एक अच्छी स्थिति तक पहुँच सकते हैं.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, November 9, 2018

स्त्रोत की ओर ध्यानाकर्षण


जीवन विद्या योजना इस अनुसंधान की "सूचना" को जनसामान्य तक पहुंचाने का एक कार्यक्रम है.  उससे लोगों में उत्साह होता है.  उत्साहित लोगों को अध्ययन में लगाना चाहिए.  व्यक्तिवाद के आधार पर ही आप लोगों को अध्ययन में नहीं लगाओगे.  जीवचेतना से व्यक्तिवाद आया ही है. 

प्रश्न:  यह व्यक्तिवाद कैसे हुआ?

उत्तर: जीवन विद्या को आप अपने अधिकार से प्रबोधित किये.  इसके स्त्रोत की ओर आपने ध्यान नहीं दिलाया, मतलब आप स्वयं इसके आचार्य हुए.  यह व्यक्तिवाद हुआ या नहीं?

प्रश्न: होना क्या चाहिए?

उत्तर: स्त्रोत की ओर ध्यानाकर्षण.  स्त्रोत भाषा रूप में है - मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद, अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन.  "मानव केन्द्रित" मतलब मानव समझदार हो सकता है, मानव के समझदार होने की विधि है, और मानव के समझ को प्रमाणित करने की विधि है.

रहस्य मूलक ईश्वर केन्द्रित चिंतन का मतलब है - कोई मानव समझदार नहीं होगा.  अस्थिरता-अनिश्चयता मूलक वस्तु केन्द्रित चिंतन का मतलब - सकल अपराध हर व्यक्ति कर सकता है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

मानव चेतना और जीव चेतना के बीच में एक संक्रमण रेखा है.


पहले जो दो वाद आये (आदर्शवाद और भौतिकवाद) - उनसे यदि कोई निष्कर्ष निकलता है तो निकाल लो.  यदि निष्कर्ष नहीं निकलता है तो विकल्प को समझो.  ईमानदारी से समझना होगा.  इसमें केवल पूछताछ करना पर्याप्त नहीं है.  समझना आवश्यक है.  (मानव चेतना पूर्वक) क्या समझते हैं, क्या सोचते हैं, क्या करते हैं और क्या जीते हैं -  इन चारों भागों में तद्रूप-तदाकार होने की अर्हता हर मानव में है. 

इस पूरी बात में किसी भी बात को हम condemn करते हैं, कि ये बात हमको suit नहीं करता - तो हम रुक जाते हैं.  जबकि मानव चेतना के इस प्रस्ताव की कोई भी बात जीव चेतना से suit नहीं करता.  ऐसा कोई भी मुद्दा नहीं है जहाँ जीव चेतना से राजी करता हो मानव चेतना.  मानव चेतना और जीव चेतना के बीच में एक संक्रमण रेखा है.  एक तरफ अपने-पराये की दीवारें हैं, दूसरे तरफ अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति है.  अपना-पराया रहते तक न स्वतंत्रता है, न स्वराज्य है. अपना-पराया है तो स्वतंत्रता नहीं है.  घटना विधि से हम जैसे-तैसे परिस्थितियों का सामना करते रहते हैं. 

मैं समझा हूँ, सोचता हूँ, जीता हूँ, अनुभव किया हूँ - इन चारों विधाओं में मैं समाधानित हूँ.  इस अनुरूप जीने से अपना-पराया से मुक्ति होता है. 

प्रश्न:  आपके अनुरूप मैं कैसे जी सकता हूँ?

उत्तर:  आप समझ कर ऐसे जी सकते हैं.  मैं जो समझा हूँ वो समझाता हूँ.  मेरे पास समझाने का अधिकार है.  यदि हम समझे न होते तो कभी समझा नहीं सकते थे.  हम समझे होते हैं तो समझाते ही हैं.  समझना क्या है?  सहअस्तित्व को समझना है, जीवन को समझना है, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना है.  समझना है या नहीं समझना है - पहले इसी को निर्णय कर लिया जाए.  समझना है तो यह पूरा रास्ता ठीक है.  नहीं समझना है तो इसकी ज़रुरत ही नहीं है.  इसका नाम लेने की भी ज़रुरत नहीं है.  फिर तो जो मानवजाति अभी कर रहा है वही ठीक है. 

इसमें किसको क्या तकलीफ है?  इसको सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर आप जाँच कर देख लीजिये.  इसमें कोई छेद आपको नहीं मिलेगा.  इसके स्वीकार होने या स्वीकार नहीं होने की बात है. 

प्रश्न:  मुझे यह स्वीकार क्यों नहीं होता?

उत्तर:  पहले से आप अपना कोई design बनाए हो, उसमे adjust होता है तो आपको यह स्वीकार होता है - नहीं तो नहीं स्वीकार होता.  जीव चेतना में अभी तक आप जो जीते रहे उसके साथ adjustment बैठाने का इसमें कोई सूत्र नहीं है.  अभी जो कर रहे हैं उसके बदले में ऐसे जीने का अधिकार है मानव में.  समस्या के स्थान पर समाधानित होने की व्यवस्था है.  विपन्नता के स्थान पर सम्पन्नता पूर्वक जीने की व्यवस्था है.  वितृष्णा के स्थान पर सच्चाई के प्रति जिज्ञासु होने की व्यवस्था है.  दासता और विवशता पूर्वक काम करने के स्थान पर स्वतंत्रता पूर्वक स्वयंस्फूर्त जीने की व्यवस्था है.  अभी के संसार में ९९.९% लोग व्यापार और नौकरी में व्यस्त हैं.  तो हमे ७०० करोड़ लोगों की अभी की स्वीकृति के "विकल्प" की बात करनी है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

minimum beautiful model

सहअस्तित्व ही परम सत्य है.  सहअस्तित्व विधि से सर्वमानव का एक मानसिकता में जीना बन जाता है.  भ्रम में जीते हुए एक मानसिकता हो नहीं सकता.  मानसिकताओं में टकराव बना ही रहता है.  जैसे - व्यापार में दो संस्थाओं का, दो व्यापारियों का एक मन नहीं होता, उनकी नीतियां अलग अलग होती हैं.  इसको आप लोग दावे के साथ सत्यापित कर सकते हो. 

मैं जो दावा करता हूँ - पहला, सहअस्तित्व को देखे होने का दावा करता हूँ.  दूसरा, सहअस्तित्व में जीने का दावा करता हूँ.  तीसरा, सहअस्तित्व में जीने के आधार पर व्यवस्था में जीने का दावा करता हूँ.  ये तीन दावा है मेरे पास!  सहअस्तित्व में जीने में समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी तीनो समाहित हैं.  इन तीनों का निर्वाह मैं करता ही हूँ.  अभी इतने लोग मेरे संपर्क में आये पर एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने जवाब नहीं दिया हो.  उनका तृप्त होना या नहीं होना अलग चीज़ है.  एक समय तक आप अतृप्त रहेंगे, फिर तृप्त होंगे - यह हो सकता है.  किन्तु मैंने जवाब नहीं दिया - यह नहीं हुआ. 

मैंने अपने आप को minimum beautiful model के स्वरूप में प्रस्तुत किया है.  इससे आगे और अच्छा करने की संभावना रखी ही है!  यदि समझें तो!  इसका आधार है - मुझसे जो आपने सुना उसके अर्थ में जाने का अधिकार आपही के पास है.  मैं जैसा समझा हूँ उसको सूचना के रूप में आपको प्रस्तुत कर सकता हूँ.  भाषा में इससे ज्यादा नहीं हो सकता.  मैं जो समझा हूँ, सोचता हूँ, करता हूँ, और जीता हूँ - इन चार बातों का भाषाकरण है.  उसमें से जो मैं करता हूँ - वह आपको पहले पकड़ में आता है.  मैं जो जीता हूँ, उसको पकड़ने के लिए आपको ज्यादा जोर मन पड़ता है.  मैं जो सोचता हूँ, उसको पकड़ने के लिए उससे ज्यादा मन लगाना पड़ता है.  जो मैं समझता हूँ, उससे भी ज्यादा.  ये चार स्तर हैं मन लगाने के.  अध्ययन में मन लगाना पड़ता है.  यही ध्यान है.  अध्ययन में मन लगाने का प्रमाण है - ये चारों बात समझ में आना. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

परिवार का महत्त्व

प्रश्न: कृपया परिवार के महत्त्व को समझाइये.

उत्तर: परिवार संबंधों में जीने का स्वरूप है.  संबंधों के नाम आपको विदित हैं.  इन संबंधों का प्रयोजन समझ में आता है तो उनका निर्वाह होता है.  संबंधों का प्रयोजन समझ नहीं आता है तो हम सम्बन्धियों को अपनी सुविधा के लिए उपयोग करते हैं.  एक छत के नीचे दस व्यक्तियों का "होना" तो बन जाता है, "जीना" नहीं बन पाता.  सब अपने-अपने तरीके से जीते रहते हैं.

मानव के व्यवस्था में जीने का पहला सोपान परिवार है.  परिवार में साथ जीने के लिए आचरण में एकरूपता आवश्यक है.  आचरण ही नियम है.

हर वस्तु में आचरण ही नियम है.  आदर्शवाद और भौतिकवाद ने मानव के आचरण को नियम नहीं माना.  मानव को पहले अपने आचरण को पहचानने की आवश्यकता है.  आचरण को पहचानने के बाद मूल्य, चरित्र, नैतिकता व्याख्यायित होता है.  इन तीनों को लेकर यदि हम परिवार में सफल  हो जाते हैं तो परिवार के संबंधों में फिर कोई मतभेद नहीं रहता.  यदि सभी परिवारजन मानवीयता पूर्ण आचरण में जीते हैं और समाधान से वैभवित हो जाते हैं तो परिवार में कोई समस्या नहीं रहती.  समाधान के बिना समस्या जाता नहीं है.  हर मुद्दे पर समाधान चाहिए!

शरीर यात्रा पर्यंत भौतिक समृद्धि एक समाधान है.  शरीर यात्रा में भौतिक वस्तुएं किसलिए हैं?  - शरीर पोषण, संरक्षण और समाज गति के लिए.  इस तरह सूत्र ने चारों तरफ अपना पैर जमा लिया.   समाज गति है -  व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी.  परिवार में पहले व्यवस्था है.  मानव लक्ष्य का आधा भाग वहीं प्रमाणित हो गया.  मानव लक्ष्य चार हैं - समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व प्रमाणित होना.

समाधान परिवार में ही है.  परिवार में हर व्यक्ति का समाधानित होना आवश्यक है.  यह शिक्षा विधि से होगा.  जैसे - आप यदि शिक्षित हैं तो आप जो मुखरित होते हैं वह शिक्षा ही है.  आप यदि भ्रमित हैं तो आप जो मुखरित होते हैं वह भ्रम ही है.  हर मानव का हैसियत इतना ही है.  जन्मने से पहले और मरने के बाद क्या होता है - इसमें पड़ने की आवश्यकता नहीं है.  मानव की हैसियत के स्वरूप को समझने और प्रमाणित करने की आवश्यकता है.  वह है - समाधान समृद्धि पूर्वक परिवार में जीना.  हर नर-नारी को समाधानित होने का समान अधिकार है.  यह पहला मानवाधिकार है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Monday, November 5, 2018

सहअस्तित्व विधि से सर्वमानव एक मानसिकता में जी सकता है



- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Saturday, November 3, 2018

मानव चेतना में परिवर्तित होना संभव है



मानव चेतना में परिवर्तित होना संभव है - आचरण विधि से, संविधान विधि से, अध्ययन विधि से, और व्यवस्था विधि से.  मूल वस्तु इसमें अध्ययन है.  अध्ययन विधि से मानव चेतना में परिवर्तित हुए और मानवीयता पूर्ण आचरण में पक्का हो गए.  मानवीयता पूर्ण आचरण में मूल्य, चरित्र, नैतिकता तीनो आ गयी.  अब उसका कहीं भी आक्षेप नहीं हो सकता.  इससे इसके multiply होने की सम्भावना आ गयी.  आक्षेप विहीन आचरण यदि हो तो वह multiply होगा या नहीं?  जैसे एक वृक्ष से अनेक बीज हो कर अनेक वृक्ष हो जाते हैं, वैसे ही मानवीयता का multiply होना ही मानव का बीज है.

इसमें सिद्धांत है - "त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी".  इसी सिद्धांत में हमको पार पड़ना होगा.  इसकी अनदेखी करेंगे तो हम फंसे ही रहेंगे.

मैं एक बार एक बड़े अधिकारी से मिला था उन्होंने कहा - "हम अभी जैसे रहते हैं वैसे रहते रहे और हम मानव चेतना में परिवर्तित हो जाएँ, ऐसा आप कुछ बात बताइये".  यह कैसे हो सकता है भला!  आप कुछ भी अनाचार-व्यभिचार करते रहे और साथ में सुधर भी जाएँ - यह हो नहीं सकता.  अपने द्वारा होने वाले अतिवाद का आंकलन करना आवश्यक है.  सुविधा-संग्रह एक अतिवाद है.  भक्ति-विरक्ति एक अतिवाद है.  इन दोनों अतिवादों ने मानव को बर्बाद किया.

प्रश्न: भक्ति-विरक्ति ने लोगों को कैसे बर्बाद किया?

उत्तर:  भक्ति-विरक्ति में वे ही लोग गए जो अपने आप को बहुत अच्छा मानते रहे.  ऐसे लोगों को अन्य लोग भी विद्वान मानते रहे, सम्मान देते रहे.  ये लोग अपने पत्नी-बच्चों को छोड़ कर सन्यासी हो गए, जिससे उनका परिवार क्षति-ग्रस्त हो गया.  इस ढंग से भक्ति-विरक्ति से लोग बर्बाद हुए.

अभी सुविधा-संग्रह के दरवाजे पर ज्ञानी-विज्ञानी-अज्ञानी तीनो भिखारी बने खड़े हैं.  इनमे से ज्ञानी और विज्ञानी ज्यादा चालाक होते होंगे, अज्ञानी कम चालाक होते होंगे.  लेकिन तीनो समान रूप से दरिद्र हैं.  दरिद्रता से मुक्ति पाने की सम्भावना तीनो में समान है.  लेकिन इस दरिद्रता से मुक्ति पाने के लिए ज्ञानी और विज्ञानी को अज्ञानी की तुलना में ज्यादा परिश्रम करना पड़ेगा, क्योंकि उनकी मानसिकता में ज्यादा कचड़ा है.  मैं इस प्रस्ताव को लेकर ज्ञानी कहलाने वालों के पास भी गया हूँ, विज्ञानी कहलाने वालों के पास भी गया हूँ, अज्ञानी कहलाने वालों के पास भी गया हूँ.  इनमें से मैंने पाया विज्ञान background वाले लोगों को यह प्रस्ताव तत्काल स्वीकार होता है.  इसका कारण है - ज्ञानियों ने तर्क को नकारा.  जबकि विज्ञान ने तर्क को खूब अपनाया और अपने अध्ययन को systematic माना.  विज्ञान ने यंत्र को प्रमाणीकरण का आधार मानते हुए जो यंत्र के पकड़ में आता है उसको object (अध्ययन की वस्तु) कहा, और जो यंत्र के पकड़ में नहीं आता है उसको object नहीं माना.  (इस तरह विज्ञान विधि से मानव का अध्ययन छूट गया)  अब इस प्रस्ताव में तर्क के साथ systematic अध्ययन भी है और स्वयं को एक object के रूप में पहचानने की बात भी है. (इसलिए यह विज्ञानियों को जल्दी रंगता है)

यहाँ मूल बात है - अपना भरोसा सुविधा-संग्रह से समाधान-समृद्धि में shift होना.  यह मुख्य बात है.  यह जिसका shift हो गया, वो पार पा गया.  जिसका shift नहीं हुआ, वह प्रयास कर रहा है!

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Friday, November 2, 2018

आगे की पीढ़ी आगे



आप लोगों की पुण्यशीलता आपके लिए काम कर गया!  पुण्यशीलता का मतलब है - सच्चाई के स्वीकृति के लिए आतुरता.  सच्चाई की स्वीकृति के लिए मैं जितना आतुर-कातुर था, आप लोग उससे आगे हैं.  आतुरता की गति आप में मुझसे आगे है.  आपके आगे आने वाली पीढी में इससे ज्यादा गति होगा.

प्रश्न: लेकिन आपके जैसी ईमानदारी हमको पाना दूर जैसे लगता है...

उत्तर: सच्चाई को पाना अभी आसान इसलिए नहीं है क्योंकि दस जगह में आपकी उंगलियाँ फंसी हैं.  (जैसे जैसे परंपरा बनती है) आगे पीढ़ी में उंगलियाँ कम फंसा होता जाएगा.  मैं ऐसा सोच के चल रहा हूँ.  यह गलत नहीं है.  अभी भी आप देख सकते हैं - वृद्ध पीढी में सबसे कम, प्रौढ़ पीढी में उससे अधिक, और युवा पीढी में सबसे अधिक इस बात को अपनाने के लिए तैयारी दिखती है.

श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Wednesday, October 31, 2018

पहले मानव का हैसियत को पूरा प्रमाणित करो, फिर जीवन का हैसियत भी समझ में आएगा.


पहले मानव का हैसियत को पूरा प्रमाणित करो, फिर जीवन का हैसियत भी समझ में आएगा.  मेरा सोच तो ऐसा ही है.  मानव की हैसियत को प्रमाणित करने से पहले यदि हम आगे की बात करते हैं तो सब मनगढ़ंत ही होगा.  पहले स्थूल रूप में समाधान, फिर सूक्ष्म रूप में समाधान, फिर कारण रूप में समाधान.  इसमें किसको क्या तकलीफ है?  पहले शरीर और जीवन के संयुक्त स्वरूप को समझने/जीने से पहले आगे की बात हो नहीं सकती. 

मानव की हैसियत को समझना/जीना छोड़ कर यदि जीवन की हैसियत को समझने/जीने का प्रयास करते हैं तो या तो असमर्थता में जाते हैं या अपराध में जाते हैं.  या तो दूसरों को दोष देने/निंदा करने में जाते हैं या स्वयं को मूर्ख मान लेते हैं - ये दोनों गलत हैं. 

विधिवत बात है - चारों अवस्थाओं में परस्पर उपयोगिता-पूरकता प्रमाणित होने के बाद जीवन का हैसियत अपने आप से समझ में आता है.  पहले मानव चेतना स्पष्ट हो जाए (जीने में आ जाए), फिर देवचेतना और दिव्यचेतना उनसे जुड़ी ही हुई है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Tuesday, October 30, 2018

काल और क्रिया दोनों को समाधि हज़म किया रहता है.



वेदान्त परंपरा में बताया गया है - साधन चतुष्टय सम्पन्नता के बाद श्रवण करने का पात्रता होता है.  चार महावाक्यों को श्रवण करने से मनन-निधिध्यासन होता है.  मनन-निधिध्यासन का मतलब है - समाधि.  "समाधि में अज्ञात ज्ञात होता है" - यह लेख में भी लिखा है.  हमारे समय में रमण मह्रिषी और जिनका भी हम सम्मान करते थे - उनकी भाषा में भी यह था.

मैंने पाया - समाधि में कोई अज्ञात ज्ञात होता नहीं है.  जो ज्ञात था, वह समाप्त-प्रायः हो जाता है.  समाधि की अवस्था में सुख-दुःख का भास् नहीं होता.  मैं जब समाधि की अवस्था में बैठा था तब एक दरवाजा मेरी पीठ पर गिरा, उसकी नोक से पीठ में एक इंच गड्ढा हो गया.  समाधि अवस्था से उठने पर जब शरीर का अध्यास हुआ तब दर्द का पता चला - कम से कम आधा घंटे बाद!  इन सब गवाहियों के साथ मैं विश्वास दिलाना चाहता हूँ - समाधि होता है, यह सही है.  बुजुर्गों ने जो बताया था, वह गलत नहीं है.  लेकिन समाधि होने की प्रक्रिया fixed नहीं है, न उसको हम fix कर सकते हैं.  मैं समाधि-संपन्न व्यक्ति हूँ - फिर भी मैं ऐसा कह रहा हूँ.  मैं समाधि की प्रक्रिया को fix नहीं कर सकता हूँ.  इतने काल में, इस क्रिया से संतुष्टि होगी - इसको हम कह नहीं सकते.  यह अनिश्चयता है.  काल और क्रिया दोनों को समाधि हज़म किया रहता है. 

प्रश्न:  संयम में क्या होता है?

उत्तर: संयम में क्रिया साक्षात्कार होने लगता है.  स्थिति साक्षात्कार, गति साक्षात्कार, वस्तु साक्षात्कार - ये तीन बात हैं.  इसमें से स्थिति साक्षात्कार और गति साक्षात्कार पूरा हो जाता है.  स्थिति साक्षात्कार = सारा अस्तित्व कैसे है, यह पहचान होना.  गति साक्षात्कार = क्यों है, यह पहचान होना.  क्यों और कैसे का उत्तर हो जाता है.  यही सत्य बोध का मतलब है.  यह बोध होने के बाद अनुभव तो होता ही है.  अनुभव की फिर निरंतरता है.  पूरा जीवन अनुभव में तद्रूप हो जाता है.  सदा-सदा संगीत, सदा-सदा सत्य, सदा-सदा समाधान, सदा-सदा न्याय.  अब ईंटा खिसकने की कोई जगह ही नहीं है!

यह जो मैंने बताया वह आपको बोध हो गया, या बोध होने में सहायक हुआ - तो यह सार्थक हो गया.  सूचना तो हो गयी.  अध्ययन विधि से शब्द के अर्थ को ग्रहण करने की विधि से यह पूरा हो जाएगा. 

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

Thursday, October 18, 2018

उत्पादन और व्यवस्था

अभी हम व्यापार परंपरा में हैं, संघर्ष परंपरा में हैं, या उपभोग परंपरा में हैं, और आशय के स्तर पर सुविधा-संग्रह परंपरा में हैं.  इसमें उत्पादन का जिक्र ही नहीं है.  यहाँ उत्पादन व्यापार ही है.  व्यक्ति उत्पादन, उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता में प्रमाणित होता है.  अभी सारा उत्पादन व्यापार में समर्पित है, जिसमे जितने हाथों से वस्तु निकलती है उसका दाम उतना बढ़ता जाता है.  इस तरह उत्पादक और उपभोक्ता के बीच जो दलाली है, उससे दाम बढ़ता गया.  इससे मानव का जीना दूभर होता जा रहा है. 

राष्ट्रीय नीति ऐसा होना चाहिए कि हर परिवार अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर सके और उत्पादित वस्तुओं का विनिमय कर सके.  राष्ट्र में ऐसी व्यवस्था के लिए दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था प्रस्तावित है. 

परिवार में समझदारी के उपरान्त अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना बन जाता है.  समझदारी से समाधान होता है, फलस्वरूप आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना बनता है.  बिना समझदारी के कोई अपनी आवश्यकता का निर्णय नहीं कर पाता है.  आवश्यकता ही निर्णय नहीं हुई हो तो आवश्यकता से अधिक उत्पादन क्या करेगा?

मानव में जो निपुणता, कुशलता विकसित हो गयी है, उसको सर्वसुलभ करने की आवश्यकता है.  इन दोनों के सुलभ होने के उपरान्त श्रम से समृद्ध होना सुलभ हो जाता है.

वर्तमान शिक्षा और व्यवस्था में यह कुछ प्रमाणित होना नहीं है.  तृप्ति बिंदु इसमें कुछ मिलना नहीं है तो इसमें कब तक सिर कूटा जाए?  विकल्प चाहिए!  विकल्प है - दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था.  इस व्यवस्था का मूल परिवार ही है.  परिवार में ही मानव समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व पूर्वक जीना चाहता है.  हर मानव में इसकी चाहत है.  इस चाहत को पूरा करने के लिए हर व्यक्ति समझदार हो जाए. 

- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००७, अमरकंटक)

Monday, October 8, 2018

संयम काल में अध्ययन




- श्रद्धेय श्री ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (जनवरी २००७, अमरकंटक) 

Tuesday, September 18, 2018

मध्यस्थ दर्शन के लोकव्यापीकरण की तीन योजनायें

अनुसंधान पूर्वक श्रद्धेय ए नागराज जी  (बाबा जी) ने मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद (बनाम अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन) को आदर्शवाद और भौतिकवाद के “विकल्प” के स्वरूप में प्रस्तुत किया.  इस दर्शन के लोकव्यापीकरण के लिए तीन योजनाओं को भी प्रस्तुत किया, जिनके शीर्षक निम्न अनुसार हैं.

(१) जीवन विद्या योजना
(२) शिक्षा का मानवीयकरण योजना
(३) परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना

ये तीन योजनायें हैं, और यही तीन योजनायें हैं.  मध्यस्थ दर्शन से जुड़े सभी कार्यक्रम इन तीन योजनाओं से सम्बद्ध हैं.  इन योजनाओं के क्रियान्वयन का क्रम है - पहले जीवन विद्या योजना है, फिर शिक्षा का मानवीयकरण योजना है, फिर परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना है.  लेकिन इन योजनाओं के सूत्रपात का क्रम इससे उल्टा है. यह भेद समझना आवश्यक है.

बाबा जी साधना-समाधि-संयम पूर्वक अनुभव सम्पन्न हुए और मानवीयता पूर्ण आचरण में स्थित हुए, और इसके बाद समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने के स्वरूप में अपने परिवार को स्थापित किये – और अपने जीने को ही “प्रमाण” के स्वरूप में घोषित किया और प्रस्तुत किया.  इस तरह परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना का सूत्रपात सबसे पहले हुआ.  मानवीयता पूर्ण आचरण का ही विस्तार है - दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था.  बाबा जी ने स्वयं उसके सूत्र-व्याख्या स्वरूप में शरीर यात्रा पर्यंत जिया.  यह आधार या reference है - मध्यस्थ दर्शन पर आधारित स्वराज्य व्यवस्था के किसी भी कार्यक्रम का.

 उसके बाद उन्होंने अनुसंधान पूर्वक प्राप्त समझ/ज्ञान/जानकारी का भाषाकरण शुरू किया.  इस तरह मानवीयता पूर्ण आचरण के साथ भाषा/परिभाषा जुडी.  यह दूसरे लोगों के लिए अध्ययन की वस्तु बनी.  इस तरह उन्होंने अनुभवमूलक विधि से अनुभवगामी पद्दति को तैयार किया.  पूरा वांग्मय दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान को लिखा गया.  साथ में परिभाषा संहिता को जोड़ा गया – इसमें शब्द परंपरा से लिए गए लेकिन उनका अर्थ उन्होंने इस विकल्प के अनुसार परिभाषित किया.  इस पूरे वांग्मय को “चेतना विकास - मूल्य शिक्षा” की वस्तु कहा और बताया कि यह मध्यस्थ दर्शन पर आधारित विकल्पात्मक शिक्षा की मूल वस्तु है.  उनके साथ जिज्ञासु जो जुड़े उन्होंने उनको इसका अध्ययन कराना शुरू कर दिया.  इस तरह शिक्षा के मानवीयकरण योजना के स्वरूप का सूत्र-पात हुआ.  आगे चल के उन्होंने अभ्युदय संस्थान अछोटी में अध्ययन शिविरों की शुरुआत कर दी, जो बाद में अन्य स्थानों पर भी शुरू हो गए.  इस तरह यह आधार या reference बना - मध्यस्थ दर्शन पर आधारित किसी भी शिक्षा के कार्यक्रम का.

तीसरी स्थिति में उन्होंने अब जन संपर्क शुरू किया.   यह बात हर मानव, चाहे वह ज्ञानी हो, विज्ञानी हो, अज्ञानी हो – उसको संप्रेषित होती है या नहीं?  उन्होंने स्वयं जीवन विद्या शिविरों के प्रबोधन की शुरुआत की.  “जीवन विद्या – एक परिचय” पुस्तक उनके द्वारा प्रबोधित एक शिविर ही लिपिबद्ध है.  इस तरह उन्होंने जीवन विद्या योजना का सूत्रपात किया.  साथ ही उन्होंने “जीवन विद्या – अध्ययन बिंदु” नाम की पुस्तिका लिखी – जीवन विद्या के प्रबोधकों के मार्गदर्शन के लिए.   इस तरह यह आधार या reference बना - मध्यस्थ दर्शन पर आधारित किसी भी जन संपर्क कार्यक्रम का.

दर्शन के लोकव्यापीकरण के ये आधार या reference अनुभव मूलक विधि से स्थापित किये गए हैं.  इनकी उपेक्षा या अवहेलना करके हम यदि कुछ भी कार्यक्रम अपने मन से बनाते हैं तो उसका असफल होना निश्चित ही है.  दूसरी ओर यदि हम इन आधारों पर अपने कार्यक्रमों को खड़ा करते हैं तो अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था का साकार होना निश्चित ही है.

इस तरह संक्षेप में –

परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना की शुरुआत = मानवीयता पूर्ण आचरण
शिक्षा का मानवीयकरण योजना की शुरुआत = मानवीयता पूर्ण आचरण + भाषा
जीवन विद्या योजना की शुरुआत = मानवीयता पूर्ण आचरण + भाषा + जनसंपर्क

लोकव्यापीकरण में तीनो योजनाओं का अपना महत्त्व है, और ये तीनो योजनायें साथ-साथ हैं, इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता है.  इसमें केंद्र में है - परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना.  इसी व्यवस्था के अंतर्गत या इस व्यवस्था के आश्रय में मानवीयकृत शिक्षा है, जहाँ शोध होगा और उस शोध की उपलब्धियां जीवन विद्या योजना द्वारा जनसंपर्क पूर्वक जन सामान्य तक पहुंचेगी.  जीवन विद्या योजना अपने में कोई स्वतन्त्र योजना नहीं है – यह अन्य दोनों योजनाओं के आश्रय में है.

व्यवस्था आचरण का ही फैलाव है.  व्यवस्था और शिक्षा अन्योन्याश्रित है.  व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा है, और शिक्षा व्यवस्था के लिए स्त्रोत है.  यहाँ इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यह विकल्पात्मक शिक्षा और विकल्पात्मक व्यवस्था की बात है न कि उसकी जो अभी संसार में व्यवस्था और शिक्षा के नाम पर चल रहा है.  दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के अंतर्गत ही इस विकल्पात्मक शिक्षा के सोपानों की भी पहचान है.  जीवन विद्या योजना एक तरह से इस विकल्पात्मक शिक्षा और व्यवस्था के लिए एक induction program है – जिसमे दर्शन की अवधारणाओं और इस विकल्पात्मक शिक्षा और व्यवस्था का एक परिचय है.  जीवन विद्या शिविर का प्रयोजन है – नए संपर्क में आये लोगों को मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन से जोड़ना.  मध्यस्थ दर्शन का अध्ययन इसके अनुरूप जीने के वातावरण में संभव है.  दस सोपानीय व्यवस्था के अंतर्गत जीने का अभ्यास करते हुए ही मध्यस्थ दर्शन का अध्ययन संभव है.

- राकेश गुप्ता (मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन क्रम में प्रस्तुत.  इसमें सुधार की सम्भावना है - आपके सुझाव अपेक्षित हैं)

Tuesday, September 4, 2018

सत्संग

सत्संग का प्रमाण होता ही है.  सत्य के प्रति जो जिज्ञासा तृप्त हो गया या समझ में आ गया तो सत्संग हुआ.  समझ में नहीं आया तो सत्संग नहीं हुआ, प्रयत्न हुआ.

सत्य के बारे में बातचीत करना सत्संग नहीं है.  सत्य को समझने की जिज्ञासा रखने वाला हो और सत्य को समझाने वाला हो - फिर समझने वाले को समझाया हुआ यदि समझ में आ जाता है तो सत्संग हुआ.  यदि नहीं समझ आया तो सत्संग शेष है, प्रयत्न है.

(१) शब्द के आधार पर सत्संग
(२) शब्द के अर्थ के आधार पर सत्संग
(३) अनुभव के आधार पर सत्संग

अनुभव के आधार पर सत्संग पूरा होता है.  शब्द के आधार पर सत्संग करने की बात आदिकाल से है.  शब्द के अर्थ पर हम गए नहीं.  पहली सीढ़ी हम चढ़ चुके हैं, बाकी दो सीढियाँ चढ़ना बचा हुआ है.

प्रश्न: सत्य को समझे होने का प्रमाण क्या होगा?

उत्तर: समाधान.  सत्य समझ में आ गया तो सर्वतोमुखी समाधान होता ही है.  इसको "अभ्युदय" नाम दिया.  अभ्युदय शब्द वैदिक परंपरा से है.  शब्द परंपरा से हैं, परिभाषा मैंने दी है.  जिसकी इच्छा है वह अध्ययन करेगा.  जिसकी इच्छा नहीं है वह अध्ययन नहीं करेगा.  अध्ययन करने की इच्छा और अध्ययन कराने की ताकत दोनों की आवश्यकता है.  इन दोनों के योगफल में ही अध्ययन है.

प्रश्न:  मानव में समझने की इच्छा का कारण क्या है?

उत्तर: मानव सुख की निरंतरता चाहता है.  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों में सुख भासता है.  इसकी निरंतरता चाहिए - लेकिन संवेदनाओं में सुख की निरंतरता नहीं है.  सुख की निरंतरता की चाहत और उसका प्रमाण केवल मानव में ही है.  सच्चाई में सुख की निरंतरता है, इस परिकल्पना के आधार पर सत्य को समझने की जिज्ञासा है.

प्रश्न: मानव अपनी जिज्ञासा को कैसे पहचान सकता है?

उत्तर: अनुभव मूलक विधि से जीता हुआ व्यक्ति सामने व्यक्ति की जिज्ञासा को समझ सकता है.  सामने व्यक्ति को जब समझ में आता है तब उसको पता चलता है उसकी जिज्ञासा क्या थी और उस जिज्ञासा का उत्तर क्या था.  यही एक छोटी से दीवार है जिसको नाकना है.  जिज्ञासा ही पात्रता है, उसी के आधार पर ग्रहण होता है.  अभी अभिभावक बच्चों की जिज्ञासा को पहचान नहीं पाते हैं, उसको समझ से भर नहीं पाते हैं - इसीलिये बच्चे जैसे ही बड़े होते हैं माँ-बाप से दूर हो जाते हैं. 

हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है.  बचपन में यह जो जिज्ञासा रहता है वह बड़े होते होते कम हो जाता है.  परंपरा से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य के प्रभाव से यह कम हो जाता है.

प्रश्न: क्या सभी बच्चों में जिज्ञासा समान रहती है या हरेक में उनके प्रारब्ध के अनुसार जिज्ञासा होती है?

उत्तर: पहले सत्य को समझने के लिए जो परिश्रम किया वो तो रहेगा ही.  फिर सत्य को समझाने के लिए पूरी बात यहाँ है.

प्रश्न: अनुभव होते तक विद्यार्थी जो कुछ भी "करता है", क्या वह गुरु के प्रभाव में करता है या अपनी स्वीकृति से करता है?

उत्तर: अपनी स्वीकृति से.  गुरु का प्रभाव समझाने तक ही है.  समझ के अनुसार आदमी अपना कार्यक्रम बनाता है.  इससे न ये कम होता है, न ज्यादा होता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २०११, अमरकंटक)

Saturday, September 1, 2018

अध्यास और शक्तियों का अंतर्नियोजन

आपने लिखा है -"जो चैतन्य है वह पहले जड़ था, चैतन्य में जो कुछ भी अध्यास की रेखाएं हैं वे अंकित हैं ही.  यही कारण है कि चैतन्य इकाई अग्रिम विकास चाहती है."  इसको और स्पष्ट कीजिये.

उत्तर: अंकित रहने का मतलब है - जड़ प्रकृति को चैतन्य प्रकृति (जीवन) पहचान सकता है.  चैतन्य द्वारा जड़ को पहचान सकने की ताकत को अध्यास नाम दिया है.

जड़ ही विकसित हो कर चैतन्य पद में संक्रमित हुआ है.  जैसे - जड़ परमाणु अंशों से गठित हैं वैसे ही चैतन्य (जीवन) परमाणु भी अंशों से गठित हैं.  चैतन्य (जीवन) में गठन की तृप्ति है.  जड़ से चैतन्य तो हो गया, पर चैतन्य होने का प्रमाण नहीं हुआ.  यही चैतन्य में अतृप्ति है.  चैतन्य तृप्ति का स्वरूप है - क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता.  इसीलिये चैतन्य (जीवन) अग्रिम विकास के लिए प्रयत्नशील है.

अध्यास की परिभाषा आपने दी है - "मानसिक स्वीकृति सहित संवेदनाओं के अनुकूलता में शारीरिक क्रिया से जो प्रक्रियाएं संपन्न होती हैं उसकी अध्यास संज्ञा है".  इस परिभाषा को समझाइये.

उत्तर: जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने पर संवेदनाएं शरीर द्वारा व्यक्त हुई.  जिससे जीवन ने शरीर को ही जीवन मान लिया.  यही मतलब है इस परिभाषा का.  जीवन में अध्यास से अग्रिम विकास के लिए उसका प्रवृत्त होना हो गया.  अब अग्रिम विकास के लिए आगे जो प्रयास होगा उसका आगे फल मिलेगा.

आपने आगे लिखा है - "जागृति के मूल में मानव कुल के हर इकाई में अपने शक्ति का अंतर्नियोजन आवश्यक है, क्योंकि इकाई की ऊर्जा के बहिर्गमन होने पर ह्रास परिलक्षित होता है तथा ऊर्जा के अन्तर्निहित होने पर जागृति परिलक्षित होती है.  अंतर्नियोजन का तात्पर्य स्वनिरीक्षण-परीक्षण पूर्वक निष्कर्ष निकालना और प्रमाणित करना ही है."  इसको और स्पष्ट कीजिये.

उत्तर: जीवन शक्तियां आशा, विचार, इच्छा, संकल्प स्वरूप में प्रवाहित हो रहे हैं.  तृप्ति के पहले ये शक्तियां यदि बहिर्गमन होती हैं तो वह तृप्ति के पक्ष को ह्रास करता है.  तृप्ति के लिए मानव प्रयत्नशील नहीं होता है, निष्ठा नहीं बनता है.  शक्तियों का अंतर्नियोजन = अध्ययन.  स्वयं का अध्ययन, जीवन का अध्ययन, शरीर का अध्ययन, मानव का अध्ययन, इसके मूल में सहअस्तित्व का अध्ययन, और इसके प्रयोजन रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण का अध्ययन है.

- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)

Thursday, August 2, 2018

दर्शन के लोकव्यापीकरण की दो Approaches

मानव जाति इस धरती पर जब से प्रकट हुआ तब से अब तक वह जीवचेतना में जिया है, मानवचेतना में जिया नहीं है.  जीवचेतना में संवेदनशीलता (शरीर मूलकता) को ही सर्वोच्च मूल्य माना जाता है.  अभी के जो भी systems बने हैं (जैसे – शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार, उत्पादन, विनिमय) वे सभी संवेदनशीलता पर आधारित हैं, जो “अधूरी समझ” है.  इस अधूरी समझ से मानव जाति ने  अच्छे से अच्छे जितने भी डिजाईन/सिस्टम्स बनाए – वे व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अन्तर्राष्ट्र और प्रकृति के साथ व्यवस्था का समीकरण कर पाने में असमर्थ रहे हैं.  इन systems में अव्यवस्था से हुई समस्याओं से “पीड़ा” होना स्वाभाविक है.  इन्ही systems में कार्यरत/जिम्मेदार संवेदनशील लोगों का इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए उपाय तलाशना, कार्यक्रम बनाना स्वाभाविक रहा.  AICTE का induction program, Technical Universities में Human Values Professional Ethics प्रोग्राम, दिल्ली सरकार द्वारा चलाया जाने वाला Happiness Curriculum Program इसके current examples हैं. 
 
सबसे पहली बात – ये सभी कार्यक्रम स्वागतीय हैं.  ये मानव में वर्तमान अव्यवस्था से पीड़ा / व्यवस्था की अपेक्षा / परिवर्तन की कामना के द्योतक हैं. साथ ही ये संसार के लिए मध्यस्थ दर्शन के परिचय के द्वार भी हैं.  इन्ही से ही वे व्यक्ति निकल के आयेंगे जो मध्यस्थ दर्शन को पूरा यथावत अध्ययन करके प्रमाणित करेंगे.  ध्यान से देखें तो हम स्वयं भी इसी विधि से इस दर्शन या बाबा जी से जुड़े.  दर्शन के लोकव्यापीकरण में इनकी अहम् भूमिका है.  निम्न प्रस्तुति को इन कार्यक्रमों और उनको संचालित करने वालों/प्रेरणा देने वालों की आलोचना नहीं माना जाए.  यहाँ आशय है - मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन-अभ्यास में रत लोगों के इन कार्यक्रमों से जुड़ने की approaches को स्पष्ट करना.  फिर कौनसी approach लेना है कौनसी नहीं – इसमें हमारी स्वतंत्रता है.  कौनसी approach को किसमें विलय होना है – इसका भी अनुमान किया जा सकता है.  इसके दो ही approaches हों, ऐसा ज़रूरी नहीं है.  इन दो के बीच अनेक हो ही सकती हैं - किन्तु यह सही है कि "पूरे सही" में सारे "अधूरे सही" का अंततोगत्वा विलय होना निश्चित है.  

इन सभी कार्यक्रमों में साम्यता या इनके common traits:

(१) अभी systems में “शक्ति केन्द्रित शासन” ही प्रचलित है – इसलिए ये सभी कार्यक्रम शासन विधि से ही चलाये जाते हैं.
(२) इन कार्यक्रमों को चलाने वालों (शासन) का लक्ष्य है – इनके systems में शामिल लोगों को systems में ही निहित अव्यवस्था से होने वाली पीड़ा से राहत मिले.  इसके अलावा उनके परोक्ष लक्ष्य भी हो सकते हैं – जैसे व्यक्तिगत यश की कामना, गद्दी पर बने रहने की कामना आदि.
(३) ये कार्यक्रम मध्यस्थ दर्शन के पूरे vision (अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था) के अनुरूप systems में मूलभूत परिवर्तन को नहीं चाहते हैं.  यदि व्यक्तिगत रूप में शासन में बैठे लोग ऐसी कामना भी करते हों तो उसको वो अधिकारिक रूप में किसी मंच से स्पष्ट करने का साहस नहीं कर पाते हैं.  मध्यस्थ दर्शन और उसका पूरा vision उनको स्पष्ट हो – यह भी कहना मुश्किल है.
(४) कार्यक्रम कैसे चलेगा, क्या चलेगा, चलेगा या नहीं  – इसका पूरा control शासन के पास रहता है.  अधिकारी बदल जाने के बाद कार्यक्रम बदल सकता है, या बंद हो सकता है.  शासन के जिस स्तर से काम होता है उसके ऊपर का स्तर राजी न हो तो कार्यक्रम को कभी भी बंद किया जा सकता है, बदला जा सकता है.
(५) इन कार्यक्रमों की “सफलता” का मूल्यांकन शासन द्वारा इसी आधार पर होता है कि लोगों को अव्यवस्था से होने वाली पीड़ा से कितनी राहत मिली.  उनसे इस सफलता को सही से नापना संभव नहीं रहता, क्योंकि उनके पास सफलता का कोई absolute reference नहीं रहता.  इसलिए वे लोगों का general फीडबैक, दूसरे जगह पर पीड़ा से राहत के प्रयासों से तुलना, और अपनी general feeling से किये गए assessment को ही मूल्यांकन मान लेते हैं.  

मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन-अभ्यास में रत लोगों के इन कार्यक्रमों से जुड़ने की दो approaches

Approach – 1: 

(१) इन कार्यक्रमों को चलाने की जिम्मेदारी/control शासन के अनुग्रह से स्वयं पर ले ली जाए.  या शासन में पद पर बैठे व्यक्तियों को बाहर से नियंत्रित किया जाए.
(२) कार्यक्रम को सफल बनाना लक्ष्य माना जाए, न कि दर्शन को!  अपने कार्यक्रम को किसी भी तरह सफल बनाने को ही “संकल्प” माना जाए.  कार्यक्रम को अपना अस्तित्व माना जाए.  कार्यक्रम के मूल्यांकन को अपना मूल्यांकन माना जाए.
(३) कार्यक्रम की आवश्यकता अनुसार दर्शन के प्रस्तावों को selectively use किया जाए.  पूरी बात यथावत न ली जाए.  इसमें अपनी कल्पना से और पिछली परंपरा से या अन्य अभ्यास पद्दतियों के inputs को भी आवश्यकता अनुसार जोड़ा जाए, मिलाया जाए.  
(४) मध्यस्थ दर्शन को धरती पर मानव जाति के अब तक के इतिहास में आये आदर्शवाद और भौतिकवाद के “विकल्प” स्वरूप में न माना जाए, न ऐसे प्रस्तुत किया जाए.  दर्शन के मूल में हुए अनुसंधान, उसके प्रणेता, और उसके पूरे संकल्प और vision के साकार होने में इस कार्यक्रम की उपयोगिता के लिंक को स्पष्ट न किया जाए.  
(५) दर्शन में दिए गए मूल्यांकन फ्रेमवर्क के अनुसार स्वयं की स्थिति को स्पष्ट न किया जाए.  
(६) कार्यक्रम की अनुकूलता के अनुसार दर्शन के लोकव्यापीकरण कार्यक्रम (जैसे – जीवन विद्या योजना, अध्ययन शिविर आदि) को अपने अनुसार डिजाईन कर लिया जाए.  जो अपने डिजाईन के अनुसार न हो, दर्शन के अन्य प्रबोधक आदि, उनको अपने कार्यक्रम में प्रवेश न होने दिया जाए.  
(७) अपने नाम और अपने narrative को आगे रखा जाए.  दर्शन का narrative पीछे या गौण कर दिया जाए.  “बाबा जी या दर्शन का नाम लिया तो प्रोग्राम ही बंद हो जाएगा”,  “हम जो कर रहे हैं, बता रहे हैं – यही सार बात है”, “वस्तु को पकड़ो, व्यक्ति को छोडो!”– यह बताया जाए.

Approach – 2: 

(१) इन कार्यक्रमों को चलाने की जिम्मेदारी को शासन और उसके तंत्र पर ही छोड़ा जाए.  अपनी जिम्मेदारी को दर्शन को यथावत प्रस्तुत करने तक ही रखा जाए.   
(२) यदि कार्यक्रम की दिशा दर्शन के vision और उसके स्त्रोत से पूरा जुड़ने की सम्भावना नहीं लगे तो उसको छोड़ दिया जाए. अपने जीने का कार्यक्रम यथावत बना ही रहता है.  संसार के साथ किस कार्यक्रम से जुड़ना है, किससे नहीं जुड़ना है – इसमें अपनी स्वतंत्रता रहे.
(३) मध्यस्थ दर्शन के विद्यार्थियों द्वारा अपना narrative इन कार्यक्रमों और उनकी परिस्थितियों के अनुसार बदला न जाए.  Root to Fruit connection को बनाए रखा जाए.  Root = साधना-समाधि-संयम विधि से श्री ए नागराज द्वारा अनुसंधान पूर्वक मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद का उद्घाटन, मानव जाति के लिए अध्ययन पूर्वक जागृत होने का मार्ग, अखंड-समाज सार्वभौम व्यवस्था का vision, इसको साकार होने के लिए तीन योजनायें. 
Fruit = उन योजनाओं पर चलते हुए दस सोपानीय परिवार मूलक व्यवस्था में जीने का अभ्यास.  अनुकरण-अनुसरण पूर्वक अध्ययन-अभ्यास क्रम में शिक्षा और व्यवस्था को लेकर शोध किया जाना .  इन शोध के results को संसार के सामने स्त्रोत और अपने मूल्यांकन की ईमानदारी के साथ प्रस्तुत किया जाना.
(४) दस सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के सोपानो को अपने जीने में स्थापित किया जाए.  पहले परिवार, फिर परिवार समूह, फिर ग्राम,and so on.  जहां इन सोपानो में स्वयं जीते हुए आवश्यकता के अनुसार reference institutions (शुद्ध बुद्ध संस्थान) को स्थापित किया जाए.
(५) कार्यक्रम को चलाने वालों को उनके सिस्टम्स में अखंडता-सार्वभौमता को पाने के लिए दर्शन पर आधारित मूलभूत परिवर्तनों/ सूत्रों को दिया जाए.  अभी सिस्टम्स में कार्यरत लोग जहां हैं, वहां से सार्वभौम मानव लक्ष्य तक पहुँचने के लिए उपाय/steps सुझाए जाए.  अपने reference institutions और जीने के प्रमाणों से उदाहरण दिया जाए.  दर्शन पर आधारित शोध के results को प्रस्तुत किया जाए.
(६) इस कार्यक्रम में संलग्न जो वर्तमान शासन के सिस्टम्स से निकल के पूरी तरह दर्शन को समझ के जीना चाहते हैं, उनके लिए अपने जैसे व्यवस्था में जीने के अवसर उपलब्ध कराये जाएँ.  हमारा जीने का मॉडल scalable हो.  स्थानीयता से जुड़ा हो.
(७) मध्यस्थ दर्शन के प्रस्तावों और उससे निर्गमित योजनाओं को यथावत प्रस्तावित किया जाए.  अभी के सिस्टम्स के documents में मध्यस्थ दर्शन के नाम, मूल अवधारणाओं और उसके प्रणेता के नाम को पहुँचाया जाए.  
(८) कार्यक्रम को चलाने वाले शासन तंत्र के लोग अपनी सफलता का स्वयं मूल्यांकन करें.  उनको जैसा समझ आया है, उसके अनुसार मध्यस्थ दर्शन के स्त्रोत और उनका अध्ययन करने वालों से जो प्रेरणा मिली उसका दर्शन को श्रेय देने या न देने में वे स्वतन्त्र रहे.  
(९) इस कार्यक्रम से जुड़े मध्यस्थ दर्शन के विद्यार्थी अपना मूल्यांकन इस अर्थ में करें कि वे दर्शन को कितना यथावत पहुंचा पाए.  कार्यक्रम का मूल्यांकन इस अर्थ में किया जाए कि इस कार्यक्रम से दर्शन की तीन योजनाओं के क्रियान्वयन में क्या प्रगति हुई.  इन कार्यक्रमों से कितने लोग वर्तमान सिस्टम्स से निकल के आये, दर्शन को यथावत अध्ययन करके अपने जीने में प्रमाणित करने के लिए.  शासन के सफलता के पैमानों से, या उनके द्वारा की गयी प्रशंसा से अपना मूल्यांकन न करें.

Tuesday, July 3, 2018

क्रिया को अलग करके अनुभव किया ही नहीं जा सकता.



प्रश्न:  क्या यह कहना सही होगा कि जागृति का मूल मुद्दा व्यापकता में अनुभव है?

उत्तर:  व्यापकता में सम्पूर्ण एक एक के सहअस्तित्व में होने का अनुभव है.  व्यापकता में हम तो हैं ही, चारों अवस्थाएं भी व्यापकता में हैं.  यही अनुभूति का सम्पूर्ण वस्तु है.  व्यापकता में अनुभव किया का मतलब है व्यापकता में सम्पूर्ण अस्तित्व का अनुभव किया.  चारो अवस्थाओं का अनुभव किया.  क्रिया को अलग करके अनुभव किया ही नहीं जा सकता.  यदि क्रिया को भुलावा दिया तो हमारा कोई कार्यक्रम ही नहीं है.  क्रिया को भुलावा देने का मतलब हम भी क्रिया से शून्य हो गए.  उसी का नाम है समाधि - या आशा, विचार, इच्छा का चुप हो जाना.

कौन कितने जन्मों में समाधि को प्राप्त करेगा इसको कहा नहीं जा सकता.  किन्तु अध्ययन विधि से एक ही शरीर यात्रा में मानव अपनी समझ को पूर्ण कर सकता है, प्रमाणित कर सकता है, जी सकता है.

आप भले ही इस प्रस्ताव को "अंतिम बात" न मानो.  आगे और भी अनुसंधान हो सकता है ऐसा मान लो.  किन्तु इस अनुसंधान से जो ज्ञात हुआ उसको हृदयंगम करने के बाद ही तो आप इसके आगे कुछ करोगे?  जैसे - मैंने वैदिक विचार को पूरा हृदयंगम किया, फिर उसमे छेद दिखा, उसको पूरा करने के लिए मैंने अनुसन्धान किया.  मेरे प्रस्तुति में कोई छेद दिखता है तो उसको भरने का अर्हता आगे पुण्यशील व्यक्तियों में होगा ही.

आगे की पीढ़ी हमसे अच्छे ही होंगे.  यह केवल उत्साहित करने के लिए नहीं कह रहे हैं, यह सच्चाई भी है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मार्च २००८, अमरकंटक)

स्वयंस्फूर्त और क्रमागत प्रकटन



संयम के लिए समाधि आवश्यक है.  समाधि के बिना संयम होता नहीं है.

प्रश्न: यदि धरती पर समाधि-संयम की विधि ही न विकसित हुई होती तो?

उत्तर: धरती पर मानव क्रमागत विधि से प्रकट हुआ है.  मानव के प्रकट होने के बाद धरती पर क्रमागत विधि से समाधि-संयम विधि का प्रकट होना स्वयंस्फूर्त आता ही है.  मैं जो अभी प्रकट कर रहा हूँ वह उसके आगे की कड़ी के रूप में स्वयंस्फूर्त है.  सच्चाई के प्रति जीवन में प्यास बना ही रहता है.  आशा के आधार पर मानव पहले जीना शुरू करता है, फिर विचार के आधार पर, फिर इच्छा के आधार पर.  इतने में मनाकार को साकार करना हो गया.  पर उससे तृप्ति नहीं मिला.  तृप्ति नहीं मिलने पर दर्द बढ़ना शुरू हुआ.  फिर उससे आगे की बात हुआ.

पहले भी समाधि धरती पर कई लोगों को हुआ.  किन्तु संयम हुआ जिसके फलन में मानव को जिम्मेदार बनाया हो, ऐसा नहीं हुआ.  यदि संयम किन्ही को हुआ भी हो तो उन्होंने ईश्वर को जिम्मेवार बताया, मानव को जिम्मेवार नहीं बताया और बनाया.  यह गलत निकल गया.  इसलिए अपनी बात को विकल्प स्वरूप में प्रस्तुत किया.  पुराना जो लिखा है उसको व्याख्या करने मैं नहीं गया.


- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मार्च २००८, अमरकंटक)

Friday, June 29, 2018

अनुसन्धान और शोध



जागृति के प्रमाणीकरण तक पहुँचने के दो रास्ते हैं: -

(१) जागृत व्यक्ति का अनुसरण-अनुकरण --> अध्ययन --> प्रमाणीकरण
(२) परंपरा में जो उपलब्ध है उसका शोध --> परंपरा की रिक्तता का पता लगना --> अनुसंधान --> प्रमाणीकरण

अनुसन्धान हर व्यक्ति करेगा नहीं, इसलिए वह रास्ता हर व्यक्ति के बलबूते नहीं है.  अध्ययन वाला रास्ता हर व्यक्ति के बलबूते का है.

प्रस्ताव को ज्यूँ का त्यूँ ग्रहण किये बिना अध्ययन होता नहीं है.  इसमें अपनी कल्पना से कुछ और लगाने से गुड़-गोबर ही होता है.

परंपरा में जो नहीं रहा किन्तु उसकी अपेक्षा रही, उस अपेक्षा के अर्थ में अनुसंधान होता है.  परंपरा में जिसकी अपेक्षा ही नहीं है तो काहे के लिए कोई अनुसंधान करेगा? 

प्रश्न:  लेकिन मनुष्य है तो उसमें अपेक्षा होगी ही न?

उत्तर:  वही कह रहे हैं.  मनुष्य में अपेक्षा रही, परम्परा में उस अपेक्षा को पूरा करने का प्रावधान नहीं रहा, इसकी पीड़ा होने से मनुष्य अनुसंधान करता है.  अनुसंधान बिरला व्यक्ति ही करता है, सामान्य आदमी नहीं करता.  परंपरा में क्या रिक्तता है उसको शोध करके पता लगाना सामान्य आदमी का काम नहीं है.  सामान्य आदमी तो जो परंपरा में होता है उसी को लेकर चल देता है, चलके वह कहीं न कहीं कुंठित होता है, निराशित होता है, या आशित होता है - जो अनिश्चित है.

प्रश्न:  सामान्य आदमी जो परंपरा में है उसी को मान के क्यों चल देता है?

उत्तर:  सामान्यतः आदमी सुगमता चाहता है, दुर्गमता नहीं चाहता.  जीव चेतना में ऐसा ही है.  जीव चेतना में जीता हुआ आदमी सामान्यतः जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता है.  जैसे - हाथी अपना पेट भरता है, पर पेट भरने के लिए वस्तु को पैदा करने की जिम्मेदारी नहीं लेता.  चींटी अपना पेट भरता है पर शक्कर बनाने की जिम्मेदारी उसका नहीं है.  ऐसे ही जीव चेतना में जीता हुआ आदमी अपनी जिम्मेदारी से बुचका हुआ है.  जीव चेतना में आदमी सोचता है - हमारा पेट भरने में जानवरों जैसी सुगमता हो जाए!  मानव चेतना में जिम्मेदारी लिए बिना आदमी एक कौर खाना नहीं खा सकता!  जमीन-आसमान का फर्क है दोनों में!  इसको मैं स्वयं अनुभव करके चला आया हूँ.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (मार्च २००८, अमरकंटक)

Tuesday, May 22, 2018

भारतीय परंपरागत दर्शनों की तुलना में मध्यस्थ दर्शन एक विकल्प - डॉ सुरेन्द्र पाठक



भारतीय परंपरागत दर्शनों की तुलना में मध्यस्थ दर्शन एक विकल्प

डॉ. सुरेन्द्र पाठक

मैं भारतीय परंपरा के दर्शनों के एक अध्येयता के रूप में स्वयं को देखता हूं। इसी क्रम में सौभाग्यवश मुझे श्रद्धेय नागराज जी मिलने और मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्व के अध्ययन का अवसर मिला। मैंने विगत 18 वर्षों तक मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद का अध्ययन किया और यह पाया कि इसने मेरी ज्ञान की पिपासा को शांत करने में अप्रतिम योगदान दिया है। मैं श्रद्धेय नागराज जी का ह्रदय से कृतज्ञ हूँ, जिनके सान्निध्य और मार्गदर्शन से मैं ऐसी गहन दार्शनिक  वास्तविकताओं को समझने के लायक बन सकाI  मैं उनके परिवार के सहयोग का भी ह्रदय से आभारी हूँ, साथ ही अमरकंटक की पुण्य भूमि को नमन करना चाहता हूं।  मैं आप सभी को भी मध्यस्थ दर्शन  अस्तित्ववाद के गहन अध्येयता के रूप में ही देखता हूं आप सभी ने गहनता से ना केवल मध्यस्थ दर्शन का अध्ययन किया है वरन् अपनी इस जीवन यात्रा को इसे प्रमाणित करने के लिए अर्पित-समर्पित भी किया है।
इससे पूर्व कि मैं भारतीय दर्शनों और ऋषि परंपरा पर अपने विचार व्यक्त करूंमैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं इनका अधिकारी विद्वान नहीं हूं - लेकिन विगत 20 25 वर्षों से मैंने षड दर्शनों, जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन के मर्म को समझने का प्रयास किया हैबहुत ही आदर के साथ में इसकी समीक्षा, इसकी तुलना और इनकी दार्शनिक सीमाओं को आपके सामने प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा। भारतीय परंपरा के मूल में षड दर्शन प्रतिष्ठित और प्रचलित रहे हैं। इनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व-मीमांसा (कर्म मीमांसा) और उत्तर मीमांसा (ज्ञान मीमांसा) हैं, इसके अतिरिक्त तंत्र, ज्योतिष, गणित व चार्वाक आदि उपदर्शन के रूप में देखने मिलते हैं। भारत में जैन और बौद्ध दर्शन की भी समृद्ध परंपरा रही है। इसी के साथ, सनातन परंपरा में शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर्य और गणपत संप्रदाय परंपराएं भी प्रमुख रूप से हैं इन सभी में अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने के तर्क हैं। जिनका प्रभाव प्रकारांतर से आज भी भारतीय समाज में देखने को मिलता है सबसे पहले षड दर्शन के मूल तत्वों का विश्लेषण करते हैं।

इन दर्शनों में जिन्होंने अपने निष्कर्ष वेद के आधार पर निस्पंद किए हैं, वह आस्तिक दर्शन माने जाते हैं जबकि जैन, बौद्ध और चार्वाक दर्शनों की निष्पत्ति वेदों के आधार पर ना होने के कारण इन्हें नास्तिक दर्शन कहा गया है।

उपरोक्त सभी दर्शनों में मूल रूप से परमात्मा/ब्रह्म, आत्मा, प्रकृति, जगत की उत्पत्ति के सिद्धांत, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि मुद्दों पर तर्कसम्मत विधि से व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं जो ज्यादातर रहस्यात्मक हैं और ये व्याख्याएं मध्यस्थ दर्शन से भिन्न हैं। मध्यस्थ दर्शन में परमात्मा (व्यापक वस्तु), आत्मा (गठनपूर्ण परमाणु का मध्यांश) और प्रकृति (क्रिया समुच्चय) के संबंध में जो अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं वह उपरोक्त सभी दर्शनों से भिन्न हैं और रहस्यात्मक नहीं हैं जिसका मूल उद्देश्य जाग्रत मानव परंपरा में जीने का कार्यक्रम और प्रमाण प्रस्तुत करना है।

उपरोक्त सभी दर्शनों में
1.    परमात्मा और ब्रह्म के संबंध में जो भी अवधारणाएं व्यक्त की गई है उसमें ज्यादातर दर्शन ब्रह्म को या ईश्वर को द्रष्टा-कर्ता-भोक्ता के रूप में और जगत की उत्पत्ति या उत्पत्ति के निमित्त कारण के रूप में प्रतिपादित करते हैं जबकि मध्यस्थ दर्शन में जागृत जीवन को द्रष्टा-कर्ता-भोक्ता के रूप में प्रतिपादित किया गया है।
2.    इनमें से कई दर्शन आत्मा को ही परमात्मा के रूप में और कुछ दर्शनों में आत्मा को एक पृथक तत्व के रूप में दर्शाया गया है जबकि मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद में आत्मा को गठनपूर्ण परमाणु-जीवन में मध्यांश में बताया गया है।
3.    इसी प्रकार से कुछ दर्शन यह प्रतिपादित करते हैं कि प्रकृति की उत्पत्ति ईश्वर से होती है और प्रकृति अंततोगत्वा ईश्वर में या चेतन तत्व में अथवा ब्रह्म में लय हो जाती है। मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद कि प्रकृति (क्रिया/गति) की उत्पत्ति नहीं है और यह शश्वत है  ईश्वर/व्यापक (क्रियाशून्य/स्थिति) नित्य है जीवन अमर है।
4.    इसी प्रकार से मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्व में भाषा रचना का काम भी विकल्पात्मक तरीके से हुआ है। धातु को आधार ना बनाकर परम्परा से मिली ध्वनियों को अनुभव की रौशनी में अर्थ दिए गए हैं। अनुभव को व्यक्त किया जा सका है।
5.    यहां तक कि उत्पत्ति और विलय के लिए साधना पद्धति में तर्क के रूप में यह कहा जाता है कि जागृत, स्वप्न,  सुषुप्ति, तूर्या, तूर्यातीत स्थिति में क्रमशः प्रकृति के विलय का अनुभव है, जो सिद्ध नहीं है। वापस आने पर संसार वैसा ही रहता है। इस दृष्टिकोण से श्रद्धेय नागराज जी ने हम सभी को साधना पद्धति के विकल्प के रूप में अध्ययन अध्यवसाय विधि दी है । इस कारण जो सुषुप्ति, तुरिया और तुरियातीत अवस्थाओं के अनुभव का आशित लाभ मानव परंपरा को नहीं मिल पा रहा था वह मिलने लगा है।   श्रद्धेय नागराज जी द्वारा प्रस्तावित अध्ययन विधि का रास्ता सुगम और मानव के जीने से जुड़ा है और हम सब मानव के रूप में सहअस्तित्व रूपी अनुभव के आधार पर जागृत मानव परंपरा की संभावनाओं को समझ पा रहे हैं और स्वयं को इस रूप में प्रमाणित करने के लिए समर्पित हुए हैं ।  इस दृष्टिकोण से यह प्रस्ताव साधना का विकल्प प्रस्तुत करता है और मानव परंपरा में सर्वे भवंतु सुखना का तथा वसुदेव कुटुंबकम की संभावनाओं को भी प्रकट करता है । इससे पूर्व अनुभव क्षेत्र के विषय में परंपरा में यही उदघोष सुनने को मिलता है कि अनुभव (का क्षेत्र) अनिर्वचनीय है और भाषा में इसे व्यक्त नहीं किया जा सकता ना ही इसे भाषा से समझा जा सकता है।

थोड़ा विस्तार से प्रमुख षड दर्शन में क्या कहा गया है प्रस्तुत है।

1. न्याय दर्शन (महिर्ष अक्षपाद गौतम)
                                                                                     
सृष्टिकर्ता ईश्वर के पक्ष में तर्क

कार्यायोजनधृत्या देः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः। वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः॥[1]

न्याय दर्शन के अनुसार यह जगत् कार्य है अतः इसका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। जगत् में सामंजस्य एवं समन्वय इसके चेतन कर्ता से आता है। अतः सर्वज्ञ चेतन ईश्वर इस जगत् के निमित्त कारण एवं प्रायोजक कर्ता हैं। आयोजनात्- जड़ होने से परमाणुओं में आद्य स्पन्दन नहीं हो सकता और बिना स्पंदन के परमाणु द्वयणुक आदि नहीं बना सकते। जड़ होने से अदृष्ट भी स्वयं परमाणुओं में गतिसंचार नहीं कर सकता। अतः परमाणुओं में आद्यस्पन्दन का संचार करने के लिए तथा उन्हें द्वयणुकादि बनाने के लिए चेतन ईश्वर की आवश्यकता है। जिस प्रकार इस जगत् की सृष्टि के लिए चेतन सृष्टिकर्ता आवश्यक है, उसी प्रकार इस जगत् को धारण करने के लिए एवं इसका प्रलय में संहार करने के लिए चेतन धर्ता एवं संहर्ता की आवश्यकता है। यह कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर है। पदों में अपने अर्थों को अभिव्यक्त करने की शक्ति ईश्वर से आती है। "इस पद से यह अर्थ बोद्धव्य है", यह ईश्वर-संकेत पद-शक्ति है। संख्याविशेषात्- नैयायिकों के अनुसार द्वयणुक का परिणाम उसके घटक दो अणुओं के परिमाण्डल्य से उत्पन्न नहीं होता, अपितु दो अणुओं की संख्या से उत्पन्न होता है। संख्या का प्रत्यय चेतन द्रष्टा से सम्बद्ध है, सृष्टि के समय जीवात्मायें जड़ द्रव्य रूप में स्थित हैं एवं अदृष्ट, परमाणु, काल, दिक्, मन आदि सब जड़ हैं। अतः दो की संख्या के प्रत्यय के लिए चेतन ईश्वर की सत्ता आवश्यक है। अदृष्ट जीवों के शुभाशुभ कर्मसंस्कारों का आगार है। ये संचित संस्कार फलोन्मुख होकर जीवों को कर्मफल भोग कराने के प्रयोजन से सृष्टि के हेतु बनते हैं। किन्तु अदृष्ट जड़ है, अतः उसे सर्वज्ञ ईश्वर के निर्देशन तथा संचालन की आवश्यकता है। अतः अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।
2.    वैशेषिक दर्शन (महिर्ष कणाद)

कणाद कृत वैशेषिकसूत्रों में ईश्वर का स्पष्टोल्लेख नहीं हुआ है। "तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्" अर्थात् तद्वचन होने से वेद का प्रामाण्य है। इस वैशेषिकसूत्र में "तद्वचन" का अर्थ कुछ विद्वानों ने "ईश्वरवचन" किया है। किन्तु तद्वचन का अर्थ ऋषिवचन भी हो सकता है। तथापि प्रशस्तपाद से लेकर बाद के ग्रन्थकारों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकारी है एवं कुछ ने उसकी सिद्धि के लिए प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ और पूर्ण हैं। ईश्वर अचेतन, अदृष्ट के संचालक हैं। ईश्वर इस जगत् के निमित्तकारण और परमाणु उपादान कारण हैं। अनेक परमाणु और अनेक आत्मद्रव्य नित्य एवं स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में ईश्वर के साथ हैं; ईश्वर इनको उत्पन्न नहीं करते क्योंकि नित्य होने से ये उत्पत्ति-विनाश-रहित हैं तथा ईश्वर के साथ आत्मद्रव्यों का भी कोई घनिष्ठ संबंध नहीं है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय, अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में सञ्चरित कर देना; और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है। उत्पन्न होनेवाले जीवों के कल्याण के लिए परमात्मा में सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, जिससे जीवों के अदृष्ट कार्योन्मुख हो जाते हैं। परमाणुओं में एक प्रकार की क्रिया उत्पन्न हो जाती है, जिससे एक परमाणु, दूसरे परमाणु से संयुक्त हो जाते हैं। दो परमाणुओं के संयोग से एक "द्रव्यणुक" उत्पन्न होता है। पार्थिव शरीर को उत्पन्न करने के लिए जो दो परमाणु इकट्ठे होते हैं वे पार्थिव परमाणु हैं। वे दोनों उत्पन्न हुए "दव्यणुक" के समवायिकारण हैं। उन दोनों का संयोग असमवायिकारण है और अदृष्ट, ईश्वर की इच्छा, आदि निमित्तकारण हैं। 

वैशेषिक मत में समस्त विश्व "भाव और अभाव" इन दो विभागों में विभाजित है।

इनमें "भाव" के छह विभाग किए गए हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, तथा समवाय।
अभाव : किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का "अभाव" है। इसके चार भेद हैं
  • प्राग् अभाव कार्य उत्पन्न होने के पहले कारण में उस कर्य का न रहना,
  • प्रध्वंस अभाव कार्य के नाश होने पर उस कार्य का न रहना,
  • अत्यंत अभाव तीनों कालों में जिसका सर्वथा अभाव हो,
  • अन्योन्य अभाव परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।

द्रव्य : जिसमें "द्रव्यत्व जाति, वह द्रव्य है। कार्य के समवायिकरण को द्रव्य कहते हैं। द्रव्य गुणों का आश्रय है।
  • पृथ्वी, जल, तेजस, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मनस् ये नौ "द्रव्य हैं।
  • इनमें से प्रथम चार (पृथ्वी, जल, तेजस, वायु) द्रव्यों के नित्य और अनित्य, दो भेद हैं।
  • नित्यरूप को "परमाणु" तथा अनित्य रूप को कार्य कहते हैं। चारों भूतों के उस हिस्से को "परमाणु" कहते हैं जिसका पुन: भाग किया जा सके, अतएव यह नित्य है। पृथ्वीपरमाणु के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं के गुण भी नित्य है।

गुण : कार्य का असमवायीकरण "गुण" है। रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह (चिकनापन), शब्द, ज्ञान, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म अधर्म तथा संस्कार ये चौबीस गुण के भेद हैं। इनमें से रूप, गंध, रस, स्पर्श, स्नेह, स्वाभाविक द्रवत्व, शब्द तथा ज्ञान से लेकर संस्कार पर्यंत, ये "वैशेषिक गुण" हैं, अवशिष्ट साधारण गुण हैं। गुण द्रव्य ही में रहते हैं।

कर्म : क्रिया को "कर्म" कहते हैं। , ये पाँच "कर्म" के भेद हैं। ऊपर फेंकना, नीचे फेंकना, सिकुड़ना, फैलाना तथा (अन्य प्रकार के) गमन, जैसे भ्रमण, स्पंदन, रेचन, आदि। कर्म द्रव्य ही में रहता है।

सामान्य:  अनेक वस्तुओं में एक सी बुद्धि होती है, उसके कारण प्रत्येक घट में जो "यह घट है" इस एक सी बुद्धि का कारण उसमें रहने वाला "सामान्य" है, जिसे वस्तु के नाम के आगे "त्व" लगाकर कहा जाता है, जैसे - घटत्व, पटत्व। "त्व" से उस जाति का ज्ञान होता है। यह नित्य है और द्रव्य, गुण तथा कर्म में रहता है। अधिक स्थान में रहने वाला "सामान्य", "परसामान्य" या "सत्तासामान्य" कहा जाता है।  सत्तासामान्य द्रव्य, गुण तथा कर्म इन तीनों में रहता है। प्रत्येक वस्तु में रहने वाला तथा अव्यापक जो सामान्य हो, वह "अपर सामान्य" या "सामान्य विशेष" कहा जाता है। एक वस्तु को दूसरी वस्तु से पृथक् करना सामान्य का अर्थ है।

विशेष : द्रव्यों के अंतिम विभाग में रहनेवाला तथा नित्य द्रव्यों में रहनेवाला "विशेष" कहलाता है। नित्य द्रव्यों में परस्पर भेद करनेवाला एकमात्र यही पदार्थ है। यह अनंत है।

समवाय : एक प्रकार का संबंध है, जो अवयव और अवयवी, गुण और गुणी, क्रिया और क्रियावान् जाति और व्यक्ति तथा विशेष और नित्य द्रव्य के बीच रता है। वह एक है और नित्य भी है।

आत्मा : वैशेषिक दर्शन

कणाद ने आत्मा के द्रव्यत्व का विश्लेषण करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि
  • प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तर विकार, सुख-दु:ख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न नामक लिंगों से आत्मा का अनुमान होता है।
  • ज्ञान आदि गुणों का आश्रय होने के कारण आत्मा एक द्रव्य है और किसी अवान्तर (अपर सामान्य) द्रव्य का आरम्भक न होने के कारण नित्य है।
  • आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। रूप आदि के समान ज्ञान भी एक गुण है। उसका भी आश्रय कोई द्रव्य होना चाहिए।
  • पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्य ज्ञान के आश्रय नहीं है। अत: परिशेषानुमान से जो द्रव्य ज्ञान का आश्रय है, उसको आत्मा कहा जाता है।
  • ज्ञानादि के आश्रयभूत द्रव्य की आत्मसंज्ञा वेद विहित है। इस वेद विहित आत्मा का अन्य आठ द्रव्यों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता।
  • 'अहम्' शब्द का आत्मवाचित्व सुप्रसिद्ध है। 'मैं देवदत्त हूँ' ऐसे वाक्यों में शरीर में अहम की प्रतीति उपचारवश होती है। प्रत्येक आत्मा में सुख, दु:ख की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप से होती है। अत: जीवात्मा एक नहीं अपितु अनेक हैं, नाना हैं।[2]

3.  सांख्य दर्शन  (महिर्ष कपिल)

इस दर्शन के कुछ टीकाकारों ने ईश्वर की सत्ता का निषेध किया है। उनका तर्क है- ईश्वर चेतन है, अतः इस जड़ जगत् का कारण नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर की सत्ता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती. या तो ईश्वर स्वतन्त्र और सर्वशक्तिमान् नहीं है, या फिर वह उदार और दयालु नहीं है, अन्यथा दुःख, शोक, वैषम्यादि से युक्त इस जगत् को क्यों उत्पन्न करता? यदि ईश्वर कर्म-सिद्धान्त से नियन्त्रित है, तो स्वतन्त्र नहीं है और कर्मसिद्धान्त को न मानने पर सृष्टि वैचित्र्य सिद्ध नहीं हो सकता। पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना करना युक्तियुक्त नहीं है।

प्राचीनतम सांख्य ईश्वर को 26वाँ तत्व मानता रहा होगा। इसके साक्ष्य महाभारत, भागवत इत्यादि प्राचीन साहित्य में प्राप्त होते हैं। यदि यह अनुमान यथार्थ हो तो सांख्य को मूलत: ईश्वरवादी दर्शन मानना होगा। परंतु परवर्ती सांख्य ईश्वर को कोई स्थान नहीं देता। इसी से परवर्ती साहित्य में वह निरीश्वरवादी दर्शन के रूप में ही उल्लिखित मिलता है।

सांख्य में आत्मा 

सांख्य दृश्यमान विश्व को प्रकृति-पुरुष मूलक मानता है। उसकी दृष्टि से केवल चेतन या केवल अचेतन पदार्थ के आधार पर इस चिदविदात्मक जगत् की संतोषप्रद व्याख्या नहीं की जा सकती। इसीलिए लौकायतिक आदि जड़वादी दर्शनों की भाँति सांख्य न केवल जड़ पदार्थ ही मानता है और न अनेक वेदांत संप्रदायों की भाँति वह केवल चिन्मात्र ब्रह्म या आत्मा को ही जगत् का मूल मानता है। अपितु जीवन या जगत् में प्राप्त होने वाले जड़ एवं चेतन, दोनों ही रूपों के मूल रूप से जड़ प्रकृति, एवं चिन्मात्र पुरुष इन दो तत्वों की सत्ता मानता है
आत्मा (पुरुष) (1)
अंत:करण         (3) : मन, बुद्धि, अहंकार
ज्ञानेन्द्रियाँ        (5) : नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कर्ण
कर्मेन्द्रियाँ         (5) : पाद, हस्त, उपस्थ, पायु, वाक्
तन्मात्रायें         (5) : गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द
महाभूत            (5) : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश

प्रकृति से महत् या बुद्धि, उससे अहंकार,
तामस अहंकार से पंच-तन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवं
सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय तथा उभयात्मक मन) और
अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, तेजस्, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत,
इस प्रकार तेईस तत्व क्रमश: उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से सांख्य दर्शन 25 तत्व मानता है।

4.    योग दर्शन (महिर्ष पतंजलि)

योग दर्शन में 'ईश्वर', हालाँकि सांख्य और योग दोनों पूरक दर्शन हैं किन्तु योगदर्शन ईश्वर की सत्ता स्वीकार करता है। पतञ्जलि ने ईश्वर का लक्षण बताया है- "क्लेशकर्मविपाकाराशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः" अर्थात् क्लेश, कर्म, विपाक (कर्मफल) और आशय (कर्म-संस्कार) से सर्वथा अस्पृष्ट पुरुष-विशेष ईश्वर है। यह योग-प्रतिपादित ईश्वर एक विशेष पुरुष है; वह जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, नियन्ता नहीं है। असंख्य नित्य पुरुष तथा नित्य अचेतन प्रकृति स्वतन्त्र तत्त्वों के रूप में ईश्वर के साथ-साथ विद्यमान हैं। साक्षात् रूप में ईश्वर का प्रकृति से या पुरुष के बन्धन और मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं है।
योगदर्शन, सांख्य की तरह द्वैतवादी है। सांख्य के तत्त्वमीमांसा को पूर्ण रूप से स्वीकारते हुए उसमें केवल 'ईश्वर' को जोड़ देता है। इसलिये योगदर्शन को 'सेश्वर सांख्य' कहते हैं और सांख्य को 'निरीश्वर सांख्य' कहा जाता है।[3]

योग दर्शन में आत्मा

असम्प्रज्ञात समाधि : निरुद्ध दशा में असम्प्रज्ञात समाधि का उदय होता है, जब चित्त की समस्त वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं। यहाँ कोई भी आलम्बन नहीं रहता। अत: इसे असम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है। असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था-पूर्णतया प्राप्त होने पर 'आत्मा' अर्थात् 'द्रष्टा' केवल 'चैतन्य' स्वरूप से ही स्थित रहता है। 'आत्मा' स्वभावत: निर्विकार होने पर भी विकार 'चित्त' में हुआ करते हैं। उस कारण (आत्मा), चित्त की तत्तद्वृत्तियों की सरूपता को प्राप्त हुआ सा अविद्यादोष के कारण प्रतीत होता है।

'सबीज समाधि' में चित्त की प्रज्ञा 'सत्य' का ही ग्रहण करता है, विपरीत ज्ञान रहता ही नहीं। इसीलिये  उस प्रज्ञा को 'ऋतंभरा प्रज्ञा' कहा गया है। इस प्रज्ञा से क्रमश: पर-वैराग्य के द्वारा 'निर्बीज समाधि' का लाभ होता है। उस अवस्था में 'आत्मा' केवल अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है। तब 'पुरुष' को 'मुक्त' समझना चाहिए। ध्येय वस्तु का ज्ञान बने रहने के कारण पूर्व समाधि को 'सम्प्रज्ञात' और ध्येय, ध्यान, ध्याता के एकाकार हो जाने से द्वितीय समाधि को 'असम्प्रज्ञात' कहा जाता है। योग दर्शन का चरमलक्ष्य है आत्म-दर्शन।

कैवल्यविमर्श : ‘कैवल्य योग का चरम फल है। केवलशब्द से ष्यञ्प्रत्यय करके कैवल्यपद की निष्पत्ति होती है। एक शब्द में इसका अर्थ पूर्ण पृथक्ताअथवा अत्यन्त भिन्नताहै। यहाँ प्रकृति से आत्मा का पार्थक्य अभिप्रेत है। मूलत: पृथक् दो पदार्थों की अभेद-प्रतीति अविद्यावश होती है। अत: विद्या से अभेद-प्रतीति छिन्न होती है, ऐसा सिद्धान्त है।

5. मीमांसा दर्शन (महिर्ष जैमिनी)

मीमांसाका आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते है :- अधातो धर्मजिज्ञासा॥ अब धर्म करणीय कर्म के जानने की जिज्ञासा है। इस जिज्ञासा का उत्तर देने के लिए यह पूर्ण 16 अध्याय और 64 पादोंवाला ग्रन्थ रचा गया है। धर्म एक विस्तृत अर्थवाला शब्द है।  धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में की गयी है। वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटी में यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों-कर्म का समावेश हो जाता है।
शास्त्रोक्त प्रत्येक कार्य-कर्म यज्ञ ही है। सभी प्रकार के कर्मों की व्याख्या इस दर्शन शास्त्र में है। ज्ञान उपलब्धि के जिन छह साधनों की चर्चा इसमें की गई है, वे है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। मीमांसा दर्शन के अनुसार वेद अपौरूषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है और वेद-प्रतिपादित अर्थ को ही धर्म कहा गया है।

मीमांसा सिद्धान्त में वक्तव्य के दो विभाग हैं :-
पहला है, अपरिहार्य विधि जिसमें उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग और अधिकार विधियां शामिल है।
दूसरा विभाग है, अर्थवाद जिसमें स्तुति और व्याख्या की प्रधानता है।

मीमांसा दर्शन नैयायिकों के समान विधि मुख से ईश्वर का समर्थन अैर निरीश्वर सांख्यवादियों के समान निषेध भी नहीं करता, किंतु "संबंधाक्षेपपरिहार" ग्रंथ में कुमारिल भट्ट (लगभग 670 ई)  ने शब्दार्थ के संबंध का कर्ता ईश्वर का निराकरण किया है। अभिप्राय यह है कि संबंध का कर्ता ईश्वर नहीं है। उपर्युक्त वचनों को स्वीकार कर लोकप्रसिद्धि है कि मीमांसक निरीश्वरवादी है।

कुमारिल भट्ट, नंदीश्वर आदि मीमांसकों ने अनुमानसिद्ध ईश्वर का निराकरण किया है और वेदसिद्ध ईश्वर को स्वीकार किया है। वस्तुतः मीमांसा वेद से सिद्ध ब्रह्म अथवा ईश्वर को स्वीकार करता ही है।

मैक्समूलर मत के पक्षपाती कुछ भारतीय विद्वान् भी इसे दर्शन कहने में संकोच करते हैं, क्योंकि न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और वेदांत में जिस प्रकार तत् तत् प्रकरणों में प्रमाण और प्रमेयों के द्वारा आत्मा-अनात्मा, बंध मोक्ष आदि का मुख्य रूप से विवेचन मिलता है, वैसा मीमांसा दर्शन के सूत्र, भाष्य और वार्तिक आदि में दृष्टिगोचर नहीं होता।

देवता संबंध विषयक विचार:

वेदविहित यज्ञादि कर्म द्रव्य और देवता इन दो से साध्य हैं। द्रव्य दध्यादि है और देवता शास्त्रैक समधिगम्य है। अर्थात् विधि वाक्य को ही देवता माना जाता है। यहाँ देवता के विषय में तीन पक्ष स्वीकार किया गया है। अर्थ देवता, शब्द विशिष्ट अर्थ देवता और शब्द देवता हैं। इन तीनों में अंतिम पक्ष ही सिद्धांत है, क्योंकि अर्थ का स्मरण शब्द के द्वारा हुआ करता है। अतएव शब्द की प्रथम उपस्थिति होने के कारण शब्द ही देवता माना गया है।

उदाहरणार्थ "इंद्राय स्वाहा, तक्षकाय स्वाहा" शब्दों में इंद्राय और तक्षकाय ये चतुर्थांत पद ही देवता हैं। अर्थ को देवता स्वीकार करने वाले व्यक्ति भी शब्द की उपेक्षा नहीं कर सकते। अत: तीनों पक्षों में शब्द मुख्य होने के कारण शब्द को ही देवता स्वीकार किया है। यहाँ पर एक नियम है - विधि वाक्य में जो देवतावाचक शब्द है उसका आवाहन, त्याग और सूक्त वाक्य आदि में उच्चारण करना चाहिए, न कि उसके पर्यायवाची शब्दों को। उदाहरणार्थ "आग्नेयमष्टाकपालम्" में अग्नि के पर्यायवाची "जातवेदस" शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उक्त बातों से विदित होता है कि "शब्दमयी देवता" ही मीमांसा दर्शन का सिद्धांत है।

5.   उत्तर मीमांसा/वेदान्त (ज्ञान मीमांसा-महिर्ष बादरायण)

ब्रह्य-जिज्ञासा। ब्रह्यसूत्र का प्रथम सूत्र ही है :- अथातो ब्रह्यजिज्ञासा॥  अर्थात ब्रह्म को  जानने की लालसा-इच्छा-जिज्ञासा।

इस जिज्ञासा का चित्रण श्वेताश्वर उपनिषद् में बहुत बहुत भली-भाँति किया गया है। उपनिषद् का प्रथम मंत्र है-
ब्रह्यवादिनो वदन्ति :-

किं कारणं ब्रह्य कुत: स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा:।
अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्यविदो व्यवस्थाम्॥ 

अर्थात ब्रह्म का वर्णन करने वाले कहते हैं,  इस (जगत्) का कारण क्या है? हम कहाँ से उत्पन्न हुए हैं ? कहाँ स्थित और कैसे स्थित हैं ? यह सुख-दु:ख क्यों होता है ? ब्रह्म की जिज्ञासा करने वाला यह जानने चाहते हैं कि जो उत्पन्न हुआ है वह सब क्या है, क्यों हैं, कैसे है ? इत्यादि।

पहली जिज्ञासा कर्म धर्म की जिज्ञासा थी और दूसरी जिज्ञासा जगत् का मूल कारण जानने ज्ञान की थी।
इस दूसरी जिज्ञासा का उत्तर ही ब्रह्म सूत्र अर्थात् उत्तर मीमांसा है। चूँकि यह दर्शन वेद के परम ओर अन्तिम तात्पर्य का दिग्दर्शन कराता है, इसलिए इसे वेदान्त दर्शन के नाम से ही जाना जाता हैं

वेदस्य अन्त: अन्तिमो भाग ति वेदान्त:॥  
परमात्मा जो अपने शब्द रूप में तत्वों से संयुक्त होकर भासता है, परन्तु उसका अपना शुद्ध रूप नेति-नेति शब्दों से ही व्यक्त होता है। यह दर्शन भी वेद के कहे मन्त्रों की व्याख्या में ही है।

उत्तर मीमांसा/वेदान्त अनुसार ईश्वर

उत्तर मीमांसा/वेदान्त अनुसार ईश्वर की सत्ता तर्क से सिद्ध नहीं की जा सकती। ईश्वर के पक्ष में जितने प्रबल तर्क दिये जा सकते हैं उतने ही प्रबल तर्क उनके विपक्ष में भी दिये जा सकते हैं। तथा, बुद्धि पक्ष-विपक्ष के तुल्य-बल तर्कों से ईश्वर की सिद्धि या असिद्धि नहीं कर सकती। ईश्वर केवल श्रुति-प्रमाण से सिद्ध होता है; अनुमान की गति ईश्वर तक नहीं है।

ब्रह्मसूत्र के प्रवर्तक महिर्ष बादरायण है। इस दर्शन में चार अध्याय, प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद (कुल १६ पाद) और सूत्रों की संख्या ५५५ है। इसमें बताया गया है कि तीन ब्रह्य अर्थात् मूल पदार्थ है-प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा। तीनों अनादि है। इनका आदि-अन्त नहीं। तीनों ब्रह्य कहाते है और जिसमें ये तीनों विद्यमान है अर्थात् जगत् वह परम ब्रह्य है। प्रकृति जो जगत् का उपादान कारण है, परमाणुरूप है जो त्रिट (तीन शक्तियो-सत्व, राजस् और तमस् का गुट) है। इन तीनों अनादि पदार्थों का वर्णन ब्रह्यसूत्र (उत्तर मीमांसा) में है। जीवात्मा का वर्णन करते हुए इसके जन्म-मरण के बन्धन में आने का वर्णन भी ब्रह्यसूत्र में है। साथ ही मरण-जन्म से छुटकारा पाने का भी वर्णन है। परमात्मा जो अपने शबत रूप में तत्वों से संयुक्त होकर भासता है, परन्तु उसका अपना शुद्ध रूप नेति-नेति  (यह नहीं, यह नहीं) शब्दों से ही व्यक्त होता है।

ब्रह्म सूत्र को वेदान्तशास्त्र अथवा उत्तर (ब्रह्म) मीमांसा का आधार ग्रन्थ माना जाता है। इसके रचयिता बादरायण कहे जाते हैं। बादरायण से पूर्व भी वेदान्त के आचार्य हो गये हैं, सात आचार्यों के नाम तो इस ग्रन्थ में ही प्राप्त हैं। इसका विषय है- 'ब्रह्म का विचार'

ब्रह्मसूत्र के अध्यायों का वर्णन इस प्रकार हैं-

     प्रथम अध्याय का नाम 'समन्वय' है, इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों का समन्वय ब्रह्म में किया गया है।
     दूसरे अध्याय का साधारण नाम 'अविरोध' है।
     इसके प्रथम पाद में स्वमतप्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का परिहार किया गया है।
     द्वितीय पाद में विरुद्ध मतों के प्रति दोषारोपण किया गया है।
     तृतीय पाद में ब्रह्म से तत्वों की उत्पत्ति कही गयी है।
     चतुर्थ पाद में भूतविषयक श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है।
     तृतीय अध्याय का साधारण नाम 'साधन' है। इसमें जीव और ब्रह्म के लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश किया गया है।
     चतुर्थ अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारतम्य पर विचार किया गया है।
     ब्रह्मसूत्र पर सभी वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य, टीका व वृत्तियाँ लिखी हैं। इनमें गम्भीरता, प्रांजलता, सौष्ठव और प्रसाद गुणों की अधिकता के कारण शांकर भाष्य सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है। इसका नाम 'शारीरक भाष्य' है।

उत्तर मीमांसा/वेदान्त (ज्ञान मीमांसा) काल में निम्नांकित छह मत प्रतिष्ठित है

v  अद्वैत वेदान्त                  गौडपाद (300 ई.) तथा उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (700 ई.) 
v  विशिष्टाद्वैत वेदान्त                      रामानुज रामानुजाचार्य (1017 -1137) 
v  द्वैत वैदांत                                  श्री मध्वाचार्य  (1197 ई.)
v  द्वैताद्वैत वेदान्त               निम्बार्काचार्य (11 वीं शताब्दी) 
v  शुद्धाद्वैत वेदान्त             वल्लभाचार्य (1479 ई.)
v  अचिंत्य भेदाभेद वेदान्त   महाप्रभु चैतन्य (1485-1533 ई.)

अद्वैत वेदान्त-गौडपाद (300 ई.) तथा उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (700 ई.)

ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और जगत्‌ को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। नाशवान्‌ जगत तत्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा तत्वत: नहीं है। जाग्रत और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत्‌ में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अत: इससे परे तुरीयावस्था को जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत्‌ से कोई संबंध नहीं होता और जीव को पुन: नश्वर जगत्‌ में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास से प्राप्त होती है।
ब्रह्म-जीव-जगत्‌ में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत्‌ जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी अज्ञान के कारण जीव जगत्‌ को अपने से पृथक्‌ समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत्‌ का ज्ञान होने पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है।
परंतु बौद्धों की तरह वेदान्त में जीव को जगत्‌ का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम सत्य है, उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की तुरीयावस्था भेदज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को ब्रह्म कहते हैं।

विशिष्टाद्वैत वेदान्त - रामानुजाचार्य ने (11वीं शताब्दी)
शंकर मत के विपरीत यह कहा कि ईश्वर (ब्रह्म) स्वतंत्र तत्व है परंतु जीव भी सत्य है, मिथ्या नहीं। ये जीव ईश्वर के साथ संबद्ध हैं। उनका यह संबंध भी अज्ञान के कारण नहीं है, वह वास्तविक है। मोक्ष होने पर भी जीव की स्वतंत्र सत्ता रहती है। भौतिक जगत्‌ और जीव अलग अलग रूप से सत्य हैं परंतु ईश्वर की सत्यता इनकी सत्यता से विलक्षण है। ब्रह्म पूर्ण है, जगत्‌ जड़ है, जीव अज्ञान और दु:ख से घिरा है। ये तीनों मिलकर एकाकार हो जाते हैं क्योंकि जगत्‌ और जीव ब्रह्म के शरीर हैं और ब्रह्म इनकी आत्मा तथा नियंता है। ब्रह्म से पृथक्‌ इनका अस्तित्व नहीं है, ये ब्रह्म की सेवा करने के लिए ही हैं। इस दर्शन में अद्वैत की जगह बहुत्व की कल्पना है परंतु ब्रह्म अनेक में एकता स्थापित करनेवाला एक तत्व है। बहुत्व से विशिष्ट अद्वय ब्रह्म का प्रतिपादन करने के कारण इसे विशिष्टाद्वैत कहा जाता है।

विशिष्टाद्वैत मत में भेदरहित ज्ञान असंभव माना गया है। इसीलिए शंकर का शुद्ध अद्वय ब्रह्म इस मत में ग्राह्य नहीं है। ब्रह्म सविशेष है और उसकी विशेषता इसमें है कि उसमें सभी सत्‌ गुण विद्यामान हैं। अत: ब्रह्म वास्तव में शरीरी ईश्वर है। सभी वैयक्तिक आत्माएँ सत्य हैं और इन्हीं से ब्रह्म का शरीर निर्मित है। ये ब्रह्म में, मोक्ष हाने पर, लीन नहीं होतीं; इनका अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहता है। इस तरह ब्रह्म अनेकता में एकता स्थापित करनेवाला सूत्र है। यही ब्रह्म प्रलय काल में सूक्ष्मभूत और आत्माओं के साथ कारण रूप में स्थित रहता है परंतु सृष्टिकाल में सूक्ष्म स्थूल रूप धारण कर लेता है। यही कार्य ब्रह्म कहा जाता है। अनंत ज्ञान और आनंद से युक्त ब्रह्म को नारायण कहते हैं जो लक्ष्मी (शक्ति) के साथ बैकुंठ में निवास करते हैं। भक्ति के द्वारा इस नारायण के समीप पहुँचा जा सकता है। सर्वोत्तम भक्ति नारायण के प्रसाद से प्राप्त होती है और यह भगवद्ज्ञानमय है। भक्ति मार्ग में जाति-वर्ण-गत भेद का स्थान नहीं है। सबके लिए भगवत्प्राप्ति का यह राजमार्ग है।

द्वैत वैदांत - श्री मध्वाचार्य (1197 ई.)

द्वैत वेदान्त में पाँच भेदों को आधार माना जाता है- जीव ईश्वर, जीव जीव, जीव जगत्‌, ईश्वर जगत्‌, जगत्‌ जगत्‌। इनमें भेद स्वत: सिद्ध है। भेद के बिना वस्तु की स्थिति असंभव है। जगत्‌ और जीव ईश्वर से पृथक्‌ हैं किंतु ईश्वर द्वारा नियंत्रित हैं। सगुण ईश्वर जगत्‌ का स्रष्टा, पालक और संहारक है।

भक्ति से प्रसन्न होनेवाले ईश्वर के इशारे पर ही सृष्टि का खेल चलता है। यद्यपि जीव स्वभावत: ज्ञानमय और आनंदमय है परंतु शरीर, मन आदि के संसर्ग से इसे दु:ख भोगना पड़ता है। यह संसर्ग कर्मों के परिणामस्वरूप होता है। जीव ईश्वरनियंत्रित होने पर भी कर्ता और फलभोक्ता है। ईश्वर में नित्य प्रेम ही भक्ति है जिससे जीव मुक्त होकर, ईश्वर के समीप स्थित होकर, आनंदभोग करता है।

भौतिक जगत्‌ ईश्वर के अधीन है और ईश्वर की इच्छा से ही सृष्टि और प्रलय में यह क्रमश: स्थूल और सूक्ष्म अवस्था में स्थित होता है।  रामानुज की तरह मध्व जीव और जगत्‌ को ब्रह्म का शरीर नहीं मानते। ये स्वत:स्थित तत्व हैं। उनमें परस्पर भेद वास्तविक है। ईश्वर केवल इनका नियंत्रण करता है। इस दर्शन में ब्रह्म जगत्‌ का निमित्त कारण है, प्रकृति (भौतिक तत्व) उपादान कारण है।

द्वैताद्वैत वेदान्त-निंबार्क (11 वीं शताब्दी)

निंबार्क का दर्शन रामानुज से अत्यधिक प्रभावित है। जीव ज्ञान स्वरूप तथा ज्ञान का आधार है। जीव और ज्ञान में धर्मी-धर्म-भाव-संबध अथवा भेदाभेद संबंध माना गया है। यही ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। ईश्वर जीव का नियंता, भर्ता और साक्षी है। भक्ति से ज्ञान का उदय होने पर संसार के दु:ख से मुक्त जीव ईश्वर का सामीप्य प्राप्त करता है। अप्राकृत भूत से ईश्वर का शरीर तथा प्राकृत भूत से जगत्का निर्माण हुआ है। काल तीसरा भूत माना गया है। ईश्वर को कृष्ण राधा के रूप में माना गया है। जीव और भूत इसी के अंग हैं। यही उपादान और निमित कारण है। जीव-जगत्तथा ईश्वर में भेद भी है अभेद भी है। यदि जीव-जगत्तथा ईश्वर एक होते तो ईश्वर को भी जीव की तरह कष्ट भोगना पड़ता। यदि भिन्न होते तो ईश्वर सर्वव्यापी सर्वांतरात्मा कैसे कहलाता?

शुद्धाद्वैत वेदान्त- वल्लभाचार्य (1479 ई.)

वल्लभाचार्य के इस मत में ब्रह्म स्वतंत्र तत्व है। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण ही ब्रह्म हैं और जीव तथा जगत्उनके अंश हैं। वही अणोरणीयान्तथा महतो महीयान्है। वह एक भी है, नाना भी है। वही अपनी इच्छा से अपने आप को जीव और जगत्के नाना रूपों में प्रकट करता है। माया उसकी शक्ति है जिसी सहायता से वह एक से अनेक होता है। परंतु अनेक मिथ्या नहीं है। श्रीकृष्ण से जीव-जगत्की स्वभावत: उत्पत्ति होती है। इस उत्पत्ति से श्रीकृष्ण में कोई विकार नहीं उत्पन्न होता।

जीव-जगत्तथा ईश्वर का संबंध चिनगारी आग का सबंध है। ईश्वर के प्रति स्नेह भक्ति है। सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य लेकर ईश्वर में राग लगाना जीव का कर्तव्य है। ईश्वर के अनुग्रह से ही यह भक्ति प्राप्य है, भक्त होना जीव के अपने वश में नहीं है। ईश्वर जब प्रसन्न हो जाते हैं तो जीव को (अंश) अपने भीतर ले लेते हैं या अपने पास नित्यसुख का उपभोग करने के लिए रख लेते हैं। इस भक्तिमार्ग को पुष्टिमार्ग भी कहते हैं।

अचिंत्य भेदाभेद वेदान्त-महाप्रभु चैतन्य (1485-1533 ई.)

महाप्रभु चैतन्य के इस संप्रदाय में अनंत गुणनिधान, सच्चिदानंद श्रीकृष्ण परब्रह्म माने गए हैं। ब्रह्म भेदातीत हैं। परंतु अपनी शक्ति से वह जीव और जगत्के रूप में आविर्भूत होता है। ये ब्रह्म से भिन्न और अभिन्न हैं। अपने आपमें वह निमित्त कारण है परंतु शक्ति से संपर्क होने के कारण वह उपादान कारण भी है। उसकी तटस्थशक्ति से जीवों का तथा मायाशक्ति से जगत्का निर्माण होता है। जीव अनंत और अणु रूप हैं। यह सूर्य की किरणों की तरह ईश्वर पर निर्भर हैं। संसार उसी का प्रकाश है अत: मिथ्या नहीं है। मोक्ष में जीव का अज्ञान नष्ट होता है पर संसार बना रहता है। सारी अभिलाषाओं को छोड़कर कृष्ण का अनुसेवन ही भक्ति है।

वेदशास्त्रानुमोदित मार्ग से ईश्वरभक्ति के अनंतर जब जीव ईश्वर के रंग में रँग जाता है तब वास्तविक भक्ति होती है जिसे रुचि या रागानुगा भक्ति कहते हैं। राधा की भक्ति सर्वोत्कृष्ट है। वृंदावन धाम में सर्वदा कृष्ण का आनंदपूर्ण प्रेम प्राप्त करना ही मोक्ष है

ईश्वर में विश्वास सम्बन्धी अनेक सिद्धान्त प्रचलित हैं -
·         ईश्वरवाद (Theism)
·         बहुदेववाद (Polytheism)
·         एकेश्वरवाद (Monotheism)
·         तटस्थेश्वरवाद (deism)
·         सर्वेश्वरवाद (Pantheism)
·         निमित्तोपादानेश्वरवाद (Panentheism) 
गैर-ईश्वरवाद (Non-Theism)
·         अनीश्वरवाद (Atheism)
·         अज्ञेयवाद (agnosticism)
·         संदेहवाद (skeptism)

वैदिक और पाश्चात्य मतों में परमेश्वर की अवधारणा में यह गहरा अन्तर है

ईसाई धर्म :परमेश्वर एक में तीन है और साथ ही साथ तीन में एक है -- परमपिता, ईश्वरपुत्र ईसा मसीह और पवित्र आत्मा।

इस्लाम धर्म : वो ईश्वर को अल्लाह कहते हैं।   "अल्लाह" का अर्थ होता है "एकमात्र उपास्य ईश्वर" यानी अल्लाह का अर्थ सिर्फ ईश्वर है, कोई विशेष नाम रूप रंग नहीं ॥

हिन्दू धर्म : वेद के अनुसार व्यक्ति के भीतर पुरुष ईश्वर ही है। परमेश्वर एक ही है। वेद के अनुसार ईश्वर भीतर और परे दोनों है जबकि पाश्चात्य धर्मों के अनुसार ईश्वर केवल परे है।

ईश्वर परब्रह्म का सगुण रूप है। वैष्णव लोग विष्णु को ही ईश्वर मानते है, तो शैव शिव को।

योग सूत्र में पतञ्जलि लिखते है - "क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः"
                   
(क्लेष, कर्म, विपाक और आशय से अछूता (अप्रभावित) वह विशेष पुरुष है।) 
ईश्वर प्राणी द्वारा मानी जाने वाली एक कल्पना है इसमे कुछ लोग विश्वास करते है तो कुछ नही।
जैन धर्म : में अरिहन्त और सिद्ध (शुद्ध आत्माएँ) ही भगवान है। जैन दर्शन के अनुसार इस सृष्टि को किसी ने नहीं बनाया।

इस प्रकार हम कह सकते है कि मध्यस्थ दर्शन और परम्परा में प्रचलित परमात्मा, आत्मा और प्रकति विषयक मान्यताएं एक जैसी नहीं हैं।

डॉ सुरेन्द्र पाठक



[1]  न्यायकुसुमाञ्जलि. ५.१
[2] आत्माश्रय: प्रकाशों बुद्धि:, स.ष. पृ. 76

[3] भारतीय दर्शन की रूपरेखा (प्रो हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा), पृष्ट २७०