परिवर्तनशील वास्तविकताओं की ओर मानव का ध्यान शायद गया है. नित्य/शाश्वत तथ्यों पर ध्यान गया नहीं है. अध्यात्मवादियों ने इसके लिए पुरजोर कोशिश किया, पर वह लोकगम्य हुआ नहीं. उनको उपलब्धि हुआ होता तो लोकगम्य हुआ ही होता!
अभी तक जितना मानव जाति गड़बड़ किये हैं, उसका परिणाम होगा ही. अब पुनर्विचार करने पर मानव में मानसिक रूप में व्यथा के रूप में प्रायश्चित्त होगा ही. यह सभी परम्पराओं के साथ होगा. मानव जाति जब कभी भी इस विकल्पात्मक प्रस्ताव को अपनाएगा तो एक बार तो पश्चात्ताप करेगा.
मैं स्वयं उसी तरह (वेद विचार) को लेकर १० वर्ष तक पश्चात्ताप से गुजरा. वैदिक विचार में ज्ञान को ही ब्रह्म, पवित्र, सर्वज्ञ और पूर्ण बताया. फिर बताया ज्ञान अव्यक्त और अनिर्वचनीय है.
ज्ञान पर कौन पर्दा डाल दिया?
ज्ञान को लेकर शर्माने की क्या ज़रुरत थी?
ज्ञान को अव्यक्त रहने का क्या ज़रुरत था?
मेरे इन अड़भंगे सवालों से काफी संकट हुआ.
उसके बाद संविधान को देखा तो उसमे पाया कि राष्ट्रीय चरित्र व्याख्यायित ही नहीं है. उस समय (१९४९-५०) मैंने वेदमूर्तियों को इकठ्ठा करके पूछा - आप इसको लिख कर दे दो! यह सही समय है. सुराष्ट्र के बारे में हम जो हर दिन परायण करते ही हैं - "प्रादुर्भूतो सुराष्ट्रेस्मिन कीर्तिमृद्धिम ददातु में" (श्री सूक्तं), उससे राष्ट्रीयता क्या है - यह लिख कर दे दो. उसमे वे एक लाइन लिख कर नहीं दे पाए. यह मेरी व्यथा का दूसरा कारण हुआ.
१० वर्ष इसको झेलने के बाद मैंने निर्णय किया - इसको अंत ही किया जाए. या तो यह शरीर यात्रा अंत होगी या समाधान ही निकलेगा!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
अभी तक जितना मानव जाति गड़बड़ किये हैं, उसका परिणाम होगा ही. अब पुनर्विचार करने पर मानव में मानसिक रूप में व्यथा के रूप में प्रायश्चित्त होगा ही. यह सभी परम्पराओं के साथ होगा. मानव जाति जब कभी भी इस विकल्पात्मक प्रस्ताव को अपनाएगा तो एक बार तो पश्चात्ताप करेगा.
मैं स्वयं उसी तरह (वेद विचार) को लेकर १० वर्ष तक पश्चात्ताप से गुजरा. वैदिक विचार में ज्ञान को ही ब्रह्म, पवित्र, सर्वज्ञ और पूर्ण बताया. फिर बताया ज्ञान अव्यक्त और अनिर्वचनीय है.
ज्ञान पर कौन पर्दा डाल दिया?
ज्ञान को लेकर शर्माने की क्या ज़रुरत थी?
ज्ञान को अव्यक्त रहने का क्या ज़रुरत था?
मेरे इन अड़भंगे सवालों से काफी संकट हुआ.
उसके बाद संविधान को देखा तो उसमे पाया कि राष्ट्रीय चरित्र व्याख्यायित ही नहीं है. उस समय (१९४९-५०) मैंने वेदमूर्तियों को इकठ्ठा करके पूछा - आप इसको लिख कर दे दो! यह सही समय है. सुराष्ट्र के बारे में हम जो हर दिन परायण करते ही हैं - "प्रादुर्भूतो सुराष्ट्रेस्मिन कीर्तिमृद्धिम ददातु में" (श्री सूक्तं), उससे राष्ट्रीयता क्या है - यह लिख कर दे दो. उसमे वे एक लाइन लिख कर नहीं दे पाए. यह मेरी व्यथा का दूसरा कारण हुआ.
१० वर्ष इसको झेलने के बाद मैंने निर्णय किया - इसको अंत ही किया जाए. या तो यह शरीर यात्रा अंत होगी या समाधान ही निकलेगा!
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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