आपने लिखा है -"जो चैतन्य है वह पहले जड़ था, चैतन्य में जो कुछ भी अध्यास की रेखाएं हैं वे अंकित हैं ही. यही कारण है कि चैतन्य इकाई अग्रिम विकास चाहती है." इसको और स्पष्ट कीजिये.
उत्तर: अंकित रहने का मतलब है - जड़ प्रकृति को चैतन्य प्रकृति (जीवन) पहचान सकता है. चैतन्य द्वारा जड़ को पहचान सकने की ताकत को अध्यास नाम दिया है.
जड़ ही विकसित हो कर चैतन्य पद में संक्रमित हुआ है. जैसे - जड़ परमाणु अंशों से गठित हैं वैसे ही चैतन्य (जीवन) परमाणु भी अंशों से गठित हैं. चैतन्य (जीवन) में गठन की तृप्ति है. जड़ से चैतन्य तो हो गया, पर चैतन्य होने का प्रमाण नहीं हुआ. यही चैतन्य में अतृप्ति है. चैतन्य तृप्ति का स्वरूप है - क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता. इसीलिये चैतन्य (जीवन) अग्रिम विकास के लिए प्रयत्नशील है.
अध्यास की परिभाषा आपने दी है - "मानसिक स्वीकृति सहित संवेदनाओं के अनुकूलता में शारीरिक क्रिया से जो प्रक्रियाएं संपन्न होती हैं उसकी अध्यास संज्ञा है". इस परिभाषा को समझाइये.
उत्तर: जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने पर संवेदनाएं शरीर द्वारा व्यक्त हुई. जिससे जीवन ने शरीर को ही जीवन मान लिया. यही मतलब है इस परिभाषा का. जीवन में अध्यास से अग्रिम विकास के लिए उसका प्रवृत्त होना हो गया. अब अग्रिम विकास के लिए आगे जो प्रयास होगा उसका आगे फल मिलेगा.
आपने आगे लिखा है - "जागृति के मूल में मानव कुल के हर इकाई में अपने शक्ति का अंतर्नियोजन आवश्यक है, क्योंकि इकाई की ऊर्जा के बहिर्गमन होने पर ह्रास परिलक्षित होता है तथा ऊर्जा के अन्तर्निहित होने पर जागृति परिलक्षित होती है. अंतर्नियोजन का तात्पर्य स्वनिरीक्षण-परीक्षण पूर्वक निष्कर्ष निकालना और प्रमाणित करना ही है." इसको और स्पष्ट कीजिये.
उत्तर: जीवन शक्तियां आशा, विचार, इच्छा, संकल्प स्वरूप में प्रवाहित हो रहे हैं. तृप्ति के पहले ये शक्तियां यदि बहिर्गमन होती हैं तो वह तृप्ति के पक्ष को ह्रास करता है. तृप्ति के लिए मानव प्रयत्नशील नहीं होता है, निष्ठा नहीं बनता है. शक्तियों का अंतर्नियोजन = अध्ययन. स्वयं का अध्ययन, जीवन का अध्ययन, शरीर का अध्ययन, मानव का अध्ययन, इसके मूल में सहअस्तित्व का अध्ययन, और इसके प्रयोजन रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण का अध्ययन है.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
उत्तर: अंकित रहने का मतलब है - जड़ प्रकृति को चैतन्य प्रकृति (जीवन) पहचान सकता है. चैतन्य द्वारा जड़ को पहचान सकने की ताकत को अध्यास नाम दिया है.
जड़ ही विकसित हो कर चैतन्य पद में संक्रमित हुआ है. जैसे - जड़ परमाणु अंशों से गठित हैं वैसे ही चैतन्य (जीवन) परमाणु भी अंशों से गठित हैं. चैतन्य (जीवन) में गठन की तृप्ति है. जड़ से चैतन्य तो हो गया, पर चैतन्य होने का प्रमाण नहीं हुआ. यही चैतन्य में अतृप्ति है. चैतन्य तृप्ति का स्वरूप है - क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता. इसीलिये चैतन्य (जीवन) अग्रिम विकास के लिए प्रयत्नशील है.
अध्यास की परिभाषा आपने दी है - "मानसिक स्वीकृति सहित संवेदनाओं के अनुकूलता में शारीरिक क्रिया से जो प्रक्रियाएं संपन्न होती हैं उसकी अध्यास संज्ञा है". इस परिभाषा को समझाइये.
उत्तर: जीवन द्वारा शरीर को जीवंत बनाने पर संवेदनाएं शरीर द्वारा व्यक्त हुई. जिससे जीवन ने शरीर को ही जीवन मान लिया. यही मतलब है इस परिभाषा का. जीवन में अध्यास से अग्रिम विकास के लिए उसका प्रवृत्त होना हो गया. अब अग्रिम विकास के लिए आगे जो प्रयास होगा उसका आगे फल मिलेगा.
आपने आगे लिखा है - "जागृति के मूल में मानव कुल के हर इकाई में अपने शक्ति का अंतर्नियोजन आवश्यक है, क्योंकि इकाई की ऊर्जा के बहिर्गमन होने पर ह्रास परिलक्षित होता है तथा ऊर्जा के अन्तर्निहित होने पर जागृति परिलक्षित होती है. अंतर्नियोजन का तात्पर्य स्वनिरीक्षण-परीक्षण पूर्वक निष्कर्ष निकालना और प्रमाणित करना ही है." इसको और स्पष्ट कीजिये.
उत्तर: जीवन शक्तियां आशा, विचार, इच्छा, संकल्प स्वरूप में प्रवाहित हो रहे हैं. तृप्ति के पहले ये शक्तियां यदि बहिर्गमन होती हैं तो वह तृप्ति के पक्ष को ह्रास करता है. तृप्ति के लिए मानव प्रयत्नशील नहीं होता है, निष्ठा नहीं बनता है. शक्तियों का अंतर्नियोजन = अध्ययन. स्वयं का अध्ययन, जीवन का अध्ययन, शरीर का अध्ययन, मानव का अध्ययन, इसके मूल में सहअस्तित्व का अध्ययन, और इसके प्रयोजन रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण का अध्ययन है.
- श्रद्धेय ए नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००८, अमरकंटक)
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