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Friday, November 9, 2018

मानव चेतना और जीव चेतना के बीच में एक संक्रमण रेखा है.


पहले जो दो वाद आये (आदर्शवाद और भौतिकवाद) - उनसे यदि कोई निष्कर्ष निकलता है तो निकाल लो.  यदि निष्कर्ष नहीं निकलता है तो विकल्प को समझो.  ईमानदारी से समझना होगा.  इसमें केवल पूछताछ करना पर्याप्त नहीं है.  समझना आवश्यक है.  (मानव चेतना पूर्वक) क्या समझते हैं, क्या सोचते हैं, क्या करते हैं और क्या जीते हैं -  इन चारों भागों में तद्रूप-तदाकार होने की अर्हता हर मानव में है. 

इस पूरी बात में किसी भी बात को हम condemn करते हैं, कि ये बात हमको suit नहीं करता - तो हम रुक जाते हैं.  जबकि मानव चेतना के इस प्रस्ताव की कोई भी बात जीव चेतना से suit नहीं करता.  ऐसा कोई भी मुद्दा नहीं है जहाँ जीव चेतना से राजी करता हो मानव चेतना.  मानव चेतना और जीव चेतना के बीच में एक संक्रमण रेखा है.  एक तरफ अपने-पराये की दीवारें हैं, दूसरे तरफ अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति है.  अपना-पराया रहते तक न स्वतंत्रता है, न स्वराज्य है. अपना-पराया है तो स्वतंत्रता नहीं है.  घटना विधि से हम जैसे-तैसे परिस्थितियों का सामना करते रहते हैं. 

मैं समझा हूँ, सोचता हूँ, जीता हूँ, अनुभव किया हूँ - इन चारों विधाओं में मैं समाधानित हूँ.  इस अनुरूप जीने से अपना-पराया से मुक्ति होता है. 

प्रश्न:  आपके अनुरूप मैं कैसे जी सकता हूँ?

उत्तर:  आप समझ कर ऐसे जी सकते हैं.  मैं जो समझा हूँ वो समझाता हूँ.  मेरे पास समझाने का अधिकार है.  यदि हम समझे न होते तो कभी समझा नहीं सकते थे.  हम समझे होते हैं तो समझाते ही हैं.  समझना क्या है?  सहअस्तित्व को समझना है, जीवन को समझना है, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझना है.  समझना है या नहीं समझना है - पहले इसी को निर्णय कर लिया जाए.  समझना है तो यह पूरा रास्ता ठीक है.  नहीं समझना है तो इसकी ज़रुरत ही नहीं है.  इसका नाम लेने की भी ज़रुरत नहीं है.  फिर तो जो मानवजाति अभी कर रहा है वही ठीक है. 

इसमें किसको क्या तकलीफ है?  इसको सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर आप जाँच कर देख लीजिये.  इसमें कोई छेद आपको नहीं मिलेगा.  इसके स्वीकार होने या स्वीकार नहीं होने की बात है. 

प्रश्न:  मुझे यह स्वीकार क्यों नहीं होता?

उत्तर:  पहले से आप अपना कोई design बनाए हो, उसमे adjust होता है तो आपको यह स्वीकार होता है - नहीं तो नहीं स्वीकार होता.  जीव चेतना में अभी तक आप जो जीते रहे उसके साथ adjustment बैठाने का इसमें कोई सूत्र नहीं है.  अभी जो कर रहे हैं उसके बदले में ऐसे जीने का अधिकार है मानव में.  समस्या के स्थान पर समाधानित होने की व्यवस्था है.  विपन्नता के स्थान पर सम्पन्नता पूर्वक जीने की व्यवस्था है.  वितृष्णा के स्थान पर सच्चाई के प्रति जिज्ञासु होने की व्यवस्था है.  दासता और विवशता पूर्वक काम करने के स्थान पर स्वतंत्रता पूर्वक स्वयंस्फूर्त जीने की व्यवस्था है.  अभी के संसार में ९९.९% लोग व्यापार और नौकरी में व्यस्त हैं.  तो हमे ७०० करोड़ लोगों की अभी की स्वीकृति के "विकल्प" की बात करनी है. 

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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