अभी दो-तीन दिन पहले मैं साधन भाई के साथ फोन पर बात कर रहा था, दर्शन के कुछ मुद्दों पर स्पष्टता पाने के लिए... मुझे लगा यह चर्चा बाकी साथियों के लिए भी उपयोगी होगी, इसलिए आपसे साझा कर रहा हूँ.
प्रश्न: मध्यस्थ क्रिया के स्वरूप का जड़ और चैतन्य में क्या भेद है?
उत्तर: जड़ परमाणु में मध्यांश द्वारा एक सीमा तक अपने गठन को बनाए रखने का प्रयास है. उससे ज्यादा आवेश होने पर परमाणु टूट जाता है. चैतन्य परमाणु (जीवन) में ऐसा है कि परमाणु टूटेगा ही नहीं, उसका गठन टूट ही नहीं सकता.
परमाणु में मध्यस्थ क्रिया द्वारा ही नियति क्रम का अनुसरण होता है.
प्रश्न: नियति क्रम का अनुसरण क्या केवल परमाणु में होता है?
उत्तर: नियतिक्रम को अनुसरण करने की बात परमाणु में ही नहीं, परमाणु अंश में भी है. परमाणु अंश तभी मिलकर परमाणु का गठन कर लेते हैं. नियति क्रम को अनुसरण करने की क्रिया स्फूर्ति (अपने आप में) और स्फुरण (बाहर के प्रभाव से) दोनों से होती है. बाहर से भी होगा तो उसको पहचानने वाला इकाई में होना ही होगा, और उसका श्रेय सर्वप्रथम मध्यस्थ क्रिया को ही है.
प्रश्न: जीवन परमाणु के मध्यांश (आत्मा) में यदि नियतिक्रम को अनुसरण करने की ताकत पहले से ही है तो भ्रम जीवन पर कैसे हावी हो जाता है?
उत्तर: जागृतिक्रम में मन शरीर से जुड़ता है. शरीर से जुड़ने का मतलब शरीर को चलाता है. शरीर से मन प्रभावित नहीं होगा तो वह शरीर को चला नहीं पायेगा. जीवावस्था में शरीर से प्रभावित होने तक की ही बात रहती है. यहाँ मन में अपने आप से इतनी ताकत नहीं होती, या कल्पनाशीलता/कर्मस्वतंत्रता नहीं होती, कि वह शरीर से कुछ और करा ले. जीव शरीरों में मेधस तंत्र जितना permit करता है उतना ही जीवन उसके द्वारा प्रकाशित हो पाता है. इसीलिये जीव वन्शानुषंगी हैं.
जीवन का शरीर द्वारा प्रकाशन की शुरुआत मन से है. मानव शरीर को चलाने की जब बात है तो उसमे शरीर मूलक और जीवन मूलक दोनों तरह से चलाने का अवकाश रहता है. शरीर को नहीं सुने तो शरीर को चलाना, जीवित रखना संभव नहीं है. साथ ही शरीर के सुनने से जीवन को सुख का भास प्रिय-हित-लाभ स्वरूप में भी होने लगता है. इससे भी जीवन शरीर का ही अनुसरण किये रहता है.
जागृतिक्रम में जीवन में पहले मन का प्रत्यावर्तन होगा, फिर वृत्ति का होगा, फिर चित्त का होगा, फिर बुद्धि और आत्मा का एक साथ प्रत्यावर्तन होगा. यह क्रम है. यदि मानव शरीर को चलाने के साथ ही आत्मा का सीधे प्रत्यावर्तन हो जाता तो वन्शानुषंगी जीवावस्था से सीधे संस्करानुषंगी जागृत मानव ही पैदा होता!
तो मानव जीवन में आत्मा नियतिक्रम के अनुसरण के अर्थ में रहता है, साथ ही मन शरीर से जुड़ा रहता है. मानव में कल्पनाशीलता/कर्म स्वतंत्रता के चलते उसमे जाग्रति की सम्भावना है, इसलिए मानव में शरीर से अधिक का भी कल्पना/अनुमान बनने लगता है, और जब यह अनुमान/कल्पना (अनुसंधान या अध्ययन पूर्वक) नियति के अनुसार सज जाती है तो आत्मा उस पर अनुभव की मुहर लगा देता है.
जीवन में एक विशेष बात है - इसका मध्यांश, आत्मा जब प्रत्यावर्तित होता है तब व्यापक के महिमा सदृश अन्तर्यामी (स्थिति) होता है। और जब इसका बाह्य परिवेश मन शरीर (मेधस) मे परावर्तित होता है तब मेधस सदृश वन्शानुषंगीय आचरण प्रस्तुत करता है।
वस्तुतः मेधस व मन तथा आत्मा व व्यापक में अंतर अत्यंत सूक्ष्म है। इसे स्पष्ट करना परम्परा में शेष रहा। यह अब मध्यस्थ दर्शन में स्पष्ट हुआ है।
(१४ दिसम्बर २०१८)
प्रश्न: मध्यस्थ क्रिया के स्वरूप का जड़ और चैतन्य में क्या भेद है?
उत्तर: जड़ परमाणु में मध्यांश द्वारा एक सीमा तक अपने गठन को बनाए रखने का प्रयास है. उससे ज्यादा आवेश होने पर परमाणु टूट जाता है. चैतन्य परमाणु (जीवन) में ऐसा है कि परमाणु टूटेगा ही नहीं, उसका गठन टूट ही नहीं सकता.
परमाणु में मध्यस्थ क्रिया द्वारा ही नियति क्रम का अनुसरण होता है.
प्रश्न: नियति क्रम का अनुसरण क्या केवल परमाणु में होता है?
उत्तर: नियतिक्रम को अनुसरण करने की बात परमाणु में ही नहीं, परमाणु अंश में भी है. परमाणु अंश तभी मिलकर परमाणु का गठन कर लेते हैं. नियति क्रम को अनुसरण करने की क्रिया स्फूर्ति (अपने आप में) और स्फुरण (बाहर के प्रभाव से) दोनों से होती है. बाहर से भी होगा तो उसको पहचानने वाला इकाई में होना ही होगा, और उसका श्रेय सर्वप्रथम मध्यस्थ क्रिया को ही है.
प्रश्न: जीवन परमाणु के मध्यांश (आत्मा) में यदि नियतिक्रम को अनुसरण करने की ताकत पहले से ही है तो भ्रम जीवन पर कैसे हावी हो जाता है?
उत्तर: जागृतिक्रम में मन शरीर से जुड़ता है. शरीर से जुड़ने का मतलब शरीर को चलाता है. शरीर से मन प्रभावित नहीं होगा तो वह शरीर को चला नहीं पायेगा. जीवावस्था में शरीर से प्रभावित होने तक की ही बात रहती है. यहाँ मन में अपने आप से इतनी ताकत नहीं होती, या कल्पनाशीलता/कर्मस्वतंत्रता नहीं होती, कि वह शरीर से कुछ और करा ले. जीव शरीरों में मेधस तंत्र जितना permit करता है उतना ही जीवन उसके द्वारा प्रकाशित हो पाता है. इसीलिये जीव वन्शानुषंगी हैं.
जीवन का शरीर द्वारा प्रकाशन की शुरुआत मन से है. मानव शरीर को चलाने की जब बात है तो उसमे शरीर मूलक और जीवन मूलक दोनों तरह से चलाने का अवकाश रहता है. शरीर को नहीं सुने तो शरीर को चलाना, जीवित रखना संभव नहीं है. साथ ही शरीर के सुनने से जीवन को सुख का भास प्रिय-हित-लाभ स्वरूप में भी होने लगता है. इससे भी जीवन शरीर का ही अनुसरण किये रहता है.
जागृतिक्रम में जीवन में पहले मन का प्रत्यावर्तन होगा, फिर वृत्ति का होगा, फिर चित्त का होगा, फिर बुद्धि और आत्मा का एक साथ प्रत्यावर्तन होगा. यह क्रम है. यदि मानव शरीर को चलाने के साथ ही आत्मा का सीधे प्रत्यावर्तन हो जाता तो वन्शानुषंगी जीवावस्था से सीधे संस्करानुषंगी जागृत मानव ही पैदा होता!
तो मानव जीवन में आत्मा नियतिक्रम के अनुसरण के अर्थ में रहता है, साथ ही मन शरीर से जुड़ा रहता है. मानव में कल्पनाशीलता/कर्म स्वतंत्रता के चलते उसमे जाग्रति की सम्भावना है, इसलिए मानव में शरीर से अधिक का भी कल्पना/अनुमान बनने लगता है, और जब यह अनुमान/कल्पना (अनुसंधान या अध्ययन पूर्वक) नियति के अनुसार सज जाती है तो आत्मा उस पर अनुभव की मुहर लगा देता है.
जीवन में एक विशेष बात है - इसका मध्यांश, आत्मा जब प्रत्यावर्तित होता है तब व्यापक के महिमा सदृश अन्तर्यामी (स्थिति) होता है। और जब इसका बाह्य परिवेश मन शरीर (मेधस) मे परावर्तित होता है तब मेधस सदृश वन्शानुषंगीय आचरण प्रस्तुत करता है।
वस्तुतः मेधस व मन तथा आत्मा व व्यापक में अंतर अत्यंत सूक्ष्म है। इसे स्पष्ट करना परम्परा में शेष रहा। यह अब मध्यस्थ दर्शन में स्पष्ट हुआ है।
(१४ दिसम्बर २०१८)
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