वांग्मय और उसको पढने वाला - इन दोनों के बीच में एक पारंगत व्यक्ति भी होता है. पारंगत व्यक्ति को भुलावा दे कर हम केवल वांग्मय से कभी पार नहीं पायेंगे. पारंगत व्यक्ति ही मार्गदर्शन करेगा - misinterpretation (अधूरा/गलत अनुमान) को right interpretation (सही अनुमान) में परिवर्तित करने के लिए. जीव चेतना के प्रभाव वश ही misinterpretation होता है. पिछले २० वर्षों में यह सब मेरे सर्वेक्षण में आ चुका है, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है.
किताब सूचना है. सूचना से अर्थ ग्रहण करने का अधिकार हर व्यक्ति के पास है. इस अधिकार को सफल बनाने के लिए पारंगत व्यक्ति है. इन तीनो के योग में इस की परंपरा चलेगी.
प्रश्न: अनुभव मानव के कितना "दूर" है या कितना "पास" है?
उत्तर: अनुभव हर मनुष्य के पास ही है. "समीचीन" इसका नाम दिया है. अनुभव करने की इच्छा मानव में होना है. अनुभव मूलक विधि से ही मानव मानवीयता को प्रमाणित करेंगे. यदि यह निष्कर्ष निकलता है तो मन लगना शुरू हो जाएगा. इस निष्कर्ष के निकलने से पहले प्रस्ताव में कमी निकालने में मन लगा रहता है. कमी निकालना कोई अध्ययन नहीं है.
प्रश्न: पर यदि हमको कोई कमी दिखता है तो क्या करें?
उत्तर: उस कमी को आप मुझे बताइये. यदि मेरे लिखे हुए में कुछ ठीक करना होगा तो वो मैं कर दूंगा. यदि उस "कमी" में आपने जीव चेतना का कोई अर्थ लगाया होगा तो मैं उसको ठीक कर दूंगा. यह मेरा काम ही है.
प्रश्न: अनुभव में कितना समय है, क्या इसको कुछ कहा जा सकता है?
उत्तर: यह हमारी चाहत (इच्छा) पर ही है. हम चाहते हैं तो यह अभी है. हम नहीं चाहते हैं तो इसमें अभी समय है. चाहत में वरीयता आने पर देर नहीं लगता. अनुभव को यदि प्राथमिकता में ला पाते हैं तो उसमे समय लगने का मतलब ही नहीं है. हमारा ध्यान कई जगह बंटा हुआ है, इसलिए यह वरीयता में नहीं है.
सच्चाई समीचीन है. सच्चाई की समीचीनता को स्वीकारने तक मानव में इधर-उधर का भटकाव रखा ही है. सच्चाई को स्वीकारने के लिए अध्ययन है. अध्ययन में मन लगाना ही पड़ता है. अर्थ जब अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझ आ जाता है तो आदमी पार पा जाता है.
मैंने भी इतना ही किया है. अर्थ को अस्तित्व में वस्तु के रूप में पहचाना है. उसी के अनुरूप परिभाषाएं दी हैं. सारी परिभाषाएं अस्तित्व में वस्तु को इंगित करती हैं. इंगित होने का अधिकार हर मानव में है. मानव की इस मौलिकता को समाप्त नहीं किया जा सकता. उपदेशवाद/ईश्वरवाद/आदर्शवाद ने मानव की इस मौलिकता का अवमूल्यन किया. उपभोक्तावाद/भौतिकवाद ने मानव की इस मौलिकता का निर्मूल्यन किया. इसको nutshell (सार संक्षेप) में ला करके हमको निष्कर्ष निकालना है - सार्थकता क्या है? सार्थकता के प्रति अपने में समर्पण होने की आवश्यकता है. इस ढंग से हम एक अच्छी स्थिति तक पहुँच सकते हैं.
- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)
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