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Saturday, December 1, 2018

नियम - नियंत्रण - संतुलन



समग्रता के साथ ही अस्तित्व साक्षात्कार होता है.  पूरा अस्तित्व सहअस्तित्व स्वरूप में साक्षात्कार होना, फिर उसके विस्तार में चारों अवस्थाओं के स्वरूप में व्यवस्था का साक्षात्कार होना.

मानव नियति विधि से चारों अवस्थाओं के शाश्वत अंतर्संबंधों को पहचानता है और कार्य-व्यव्हार विधि से उनसे अपने सम्बन्ध को पहचानता है, और प्रमाणित करता है.

पदार्थावस्था से ज्ञानावस्था तक जो प्रकटन हुआ है, उसमे शाश्वत अंतर्संबंध हैं.  अध्ययन = इन शाश्वत अंतर्संबंधों को पहचानना और उसके अनुसार अपने आचरण (उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता) को निर्धारित कर लेना.

अध्ययन विधि में क्रम से साक्षात्कार होता है.  अनुक्रम से यह पूरा समझ में आता है.  अनुक्रम का अर्थ है - मानव के साथ जीव संसार, वनस्पति संसार, पदार्थ संसार कैसा अनुप्राणित है, इसको समझना.  सबके साथ हम जो जुड़े हैं, इन जुड़ी हुई कड़ियों (अंतर्संबंधों) को पहचान लेना.  इन कड़ियों (अंतर्संबंधों) को पहचानने के बाद निर्वाह कर लेना ही "सम्बन्ध" है.  इससे मानवेत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन और मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य प्रमाणित होगा.  प्रयोजन सिद्ध होगा, निरंतरता बनी रहेगी.  मानव अपराध मुक्त हो कर जी पायेगा, धरती को तंग करने की आवश्यकता समाप्त होगी, धरती के अपने में सुधरने का अवसर बनेगा, मानव जाति के शाश्वत स्वरूप में धरती पर रहने की संभावना उदय होगी.  इसको हम "सर्वशुभ" मानते हैं.  सर्वशुभ का वैभव यह है.  सर्वशुभ को काट कर स्वशुभ को प्रमाणित करना बनता ही नहीं है.  आज तक किसी ने भी इसको प्रमाणित नहीं किया.

सहअस्तित्व में तदाकार होने पर उसी स्वरूप में मानव जीने के योग्य हो जाता है, प्रमाणित हो जाता है.  सहअस्तित्व में तदाकार होने पर वस्तु के आचरण के साथ तदाकार होकर नियम को पहचानते हैं.  आचरण की निरंतरता में तदाकार हो कर नियंत्रण को पहचानते हैं.  आचरण की निरंतरता ही परंपरा स्वरूप में होती है.  उपयोगिता-पूरकता में तदाकार होने पर संतुलन को पहचानते हैं.  जैसे - दो अंश का परमाणु एक निश्चित आचरण को करता है.  दो अंश के सभी परमाणु उसी आचरण को करते हैं, जो परिणामानुषंगी परंपरा के स्वरूप में नियंत्रित है.  इसी तरह हरेक वस्तु में एक के साथ आचरण और परंपरा स्वरूप में आचरण की निरंतरता है.

पदार्थावस्था में परिणाम अनुषंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  प्राणावस्था में बीजानुषंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  जीवावस्था में वंशानुशंगी परंपरा है, जिसमे कोई व्यतिरेक नहीं है.  मानव तक पहुंचे तो मानव का पता ही नहीं है कि उसका नियंत्रण कैसे होगा?  एक-एक आदमी हज़ारों समस्याओं का पुलिंदा है!  सहअस्तित्व विधि से पता चला न्याय पूर्वक मानव का निश्चित आचरण है.  समाधान (धर्म) पूर्वक नियंत्रण है.  सत्य पूर्वक संतुलन है.  मानव में - न्याय ही नियम है, धर्म ही नियंत्रण है, सत्य ही संतुलन है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (अगस्त २००६, अमरकंटक)

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