आदिकाल से, जबसे ईश्वर और ईश्वरीयता की चर्चा वांग्मय में (अर्थात लेख रूप में) अथवा मुखस्थ विधि से परम्परा के रूप में आरम्भ हुआ - तब से "सत्य" शब्द के रूप में सुनना रहा। साथ में यह भी बना रहा - ईश्वर और ईश्वरीयता मानव के समझ में समाने वाली चीज नहीं है। इसके कारण में यह बताया गया - ईश्वर और ईश्वरीयता मानव-कल्पना से बहुत "बड़ा" है। यह मानव-कल्पना में समाती नहीं है। ऐसे उदगार और ध्वनी सुनने में आता है।
इसके आगे ईश्वर और ईश्वरीयता को "ब्रह्म" शब्द से भी इंगित किया गया। "सत्य" शब्द तो रहा ही। सत्य, ज्ञान, ब्रह्म, परमात्मा - ये सब नामो से ईश्वर और ईश्वरीयता को इंगित किया गया। इसकोऔर महिमा-मंडित करने के क्रम में यह बताया गया - "ईश्वर ही अपने संकल्प से बहुत रूप में प्रकट हो गया।" इस क्रम में जो कुछ भी प्रकट है, उसको "जीव" और "जगत" नाम दिया गया।
ईश्वर अपने स्वरूप में "एक" होते हुए अनेक रूप में होने के संकल्प मात्र से जीव और जगत कैसे उत्पन्न हुआ, उसके बारे में लेखन के अनुसार - ब्रह्म से आकाश प्रकट हुआ, आकाश से वायु प्रकट हुआ, वायु से अग्नि प्रकट हुआ, अग्नि से जल प्रकट हुआ, जल से पृथ्वी प्रकट हुआ। इसे भारतीय परम्परा में "पञ्च-तत्व" नाम दिया। "जीव" कैसे पैदा हुआ? उसके उत्तर में भारतीय विचार परम्परा में "माया" के सम्बन्ध में स्वीकृतियां बनी हुई हैं। "माया" कहाँ से आ गया? - इसके सम्बन्ध में कोई मूल प्रबंध उपलब्ध नहीं हुआ। भारतीय सोच-विचार परम्परा में ब्रह्म की परछाई माया पर पडी तब मलिन रजोगुण में हलचल पैदा हुई, जिससे असंख्य जीवों का प्रकटन हुआ। ब्रह्म अपने नज़रों में यह घटना को देखने पर जीवों के ह्रदय में स्वयं "आत्मा" के रूप में विराजमान हो गया! इस घटना को "जीव कारुण्य वश" ब्रह्म स्वयं घटित किया। ऐसी स्वीकृति आलेखों में मिलती है। आगे बताया गया है - जीवों के भोग के लिए पञ्च तत्वों से शरीर निर्मित हुआ।
यहाँ कुछ और तथ्यों का भी उल्लेख करना मालूम हो रहा है। भारत के अतिरिक्त और भी देशों ने जो "बुनियादी" रूप से कुछ कहना चाहा है, उन सबके कथन में "जीव-जगत" की बात आती है। कुछ में जीव और जगत को अलग-अलग न कहते हुए, ऐसा बताया - किसी "महान" की इच्छा से यह संसार पैदा हुआ। भारतीय-विचार में सृष्टि जीव-जगत ईश्वरीय संकल्प और ईश्वर की परछाई के आधार पर निर्मित हुआ। इस प्रकटन विधि को "आगम" नाम दिया। यह जो जीव-जगत प्रकट हुआ, उसके कालान्तर में ईश्वर रुपी सत्ता में विलय होने की बात का भी उल्लेख किया गया है। इस विलय होने को नाम दिया - "निगम"। "आगम" और "निगम" के बीच में जो कुछ भी जीव-जगत भास्-मान है वह "स्वप्न-वत" है; यह सम्पूर्ण वैभव जो भासता है - वह ईश्वर की रहस्यमयी महत्ता है - ऐसा बताया। इन सब मूल बातों के आधार पर भारतीय-परम्परा में ज्ञान और उपासना कर्म-विधियों के रूप में जो भी आदेश, उपदेश, संदेश मनुष्य को संकेत के रूप में दिए गए हैं वे सभी "जीव-जगत पर भरोसा न करने की बात" में पूरा होते है। यह प्रस्तुति लोगों को तर्क-संगत भी लगती है, जिससे ऐसी स्वीकृतियां पुष्ट भी होती हैं। इन सभी आदेश, उपदेश, संदेश रुपी प्रेरणाओं और तर्क से हुई पुष्टियों के आधार पर मानव अनेक प्रकार से "आगम", "निगम", "माया", "आत्मा", "मोक्ष" और "बंधन" के सूत्रों को प्रकाशित करता रहा है। इन सब सूत्रों की सार बात यह है - "एक ही ब्रह्म जो रहस्यमय है, उन्ही के संकल्प से जीव-जगत पैदा हुआ, जो कालांतर में उसी ब्रह्म की इच्छा से उसी ब्रह्म में समा जाएगा।" "ब्रह्म में समा जाएगा" - इसको "समाधि" नाम दिया। समाधि तक पहुँचने के लिए अनेक प्रक्रियाएं वांग्मय रूप में प्रस्तुत की गयी हैं।
सार रूप में - समाधि में ही "परम-ज्ञान" संपन्न होने का आश्वासन है। ज्ञान को वाणियों से अथवा शब्दों से संप्रेषित करना सम्भव नहीं है - ऐसा बताया गया है। ज्ञान अपने स्वरूप में अव्यक्त रहना बताया गया है। यह सब विगत में बतायी गयी भाषा है। इस पर शोध और अनुसंधान करने की प्रवृत्तियां पहले से ही लोगों में रहा है। इसी के आधार पर समाधि के लिए मैंने अपने को प्रस्तुत किया।
समाधि की स्थिति में मुझे कोई ज्ञान नहीं हुआ। जबकि - शास्त्रों में, और बुजुर्गों ने मुझे यही बताया था - समाधि में अज्ञात ज्ञात होता है। शास्त्रों के अनुसार, बुजुर्गों के अनुसार - समाधि की स्थिति में देश, काल, और शरीर का ज्ञान नहीं रहता है। इतनी बात सच्चा होना मुझे समझ में आया। समाधि में जो मेरी जिज्ञासा थी कि "क्या बंधन और मोक्ष का कारण एक ही वस्तु है, या अलग-अलग वस्तु है?" - उसका उत्तर नहीं मिला।
पूरा वैदिक वांग्मय में इस बात की पुष्टि की है कि एक ही वस्तु (ब्रह्म) बंधन और मोक्ष का कारण है। ब्रह्म को सत्य, ईश्वर, ज्ञान, परमात्मा - यह सब नाम दिया गया है। यदि बंधन और मोक्ष का कारण एक ही वस्तु है तो उस वस्तु का इतना बड़े अपराध के रूप में शुरू करने का क्या कारण है? एक ही वस्तु बंधन और मोक्ष का कारण होना मुझे स्वीकार नहीं हुआ। सामान्य-ज्ञान से भी यह पता चलता है - बंधन मोक्ष का कारण नहीं हो सकता। दूसरे, मोक्ष-महिमा बंधन का कारण नहीं हो सकती। इसमें ब्रह्म पर "दोहरेपन" का आरोप स्पष्ट होता है। किसी भी मनुष्य को दोहरा-व्यक्तित्व स्वीकार नहीं है।
अभी संसार में किसी भी सामान्य व्यक्ति से यदि हम सर्वेक्षण करें और पूछें - "आप निश्चित व्यक्तित्व से संतुष्ट होते हैं, या दोहरे व्यक्तित्व से संतुष्ट होते हैं?" इसके उत्तर में सर्वाधिक व्यक्तियों का उदगार "निश्चित व्यक्तित्व" के पक्ष में ही सुनने को मिलता है। इससे पता चलता है - तमाम गलतियों और अपराधों से भरी हुई परम्पराओं का अनुयायी होते हुए भी सामान्य-व्यक्ति उनसे उभरना चाहता है। अभी सम्पूर्ण धरती पर "सामान्य व्यक्तियों" की संख्या ज्यादा है। "विशेष व्यक्ति" कम हैं। "विशेष व्यक्ति" ही धर्म-गद्दी, राज्य-गद्दी, और व्यापार-गद्दी को संभाले हुए हैं। ये तीन गद्दियाँ सामन्य-व्यक्तियों को डुबाने के लिए तीन-भंवर बनाए पड़े हैं। पहला भंवर है - छल, कपट, दंभ, पाखण्ड। दूसरा भंवर - साम, दाम, दंड, भेद। तीसरा भंवर - द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्ध। "विशेष व्यक्तियों" के द्वारा इतने प्रयासों के बावजूद "सामान्य व्यक्ति" कम से कम ४९% इन भंवरों से अछूता रहा है।
सटीक जीने की इच्छा "मध्यम कोटि" के आदमी में आज भी देखने को मिलता है। मध्यम-कोटि की मानसिकता ही है - न्याय के प्रति तीव्र इच्छा रहना। मध्यम-कोटि के व्यक्तियों को ही "सामान्य व्यक्ति" माना जाता है। "उच्च कोटि" के व्यक्ति के रूप में आजकल उनको पहचाना जाता है - जिनके पास सर्वोपरि पैसा हो, जो सर्वोपरि पद में बैठे हों। इन्ही के द्वारा उपरोक्त तीन-भंवर तैयार हुए हैं। "उच्च कोटि" के लोगों के पास सटीक जीने का कोई खाका ही नहीं है।
इसके अलावा एक और तबका है, जिसकी चर्चा शेष रह गयी है - उसको परम्परा में "निम्न कोटि" कहा गया है। दूसरी भाषा में "सर्वहारा" कहा गया है। तीसरी भाषा में "निरीह" कहा गया है। चौथी भाषा में "पापी" कहा गया है। पांचवी भाषा में "अज्ञानी" कहा गया है। ऐसे लोगों के लिए राज-गद्दी की आवाज है - "अपने अधिकारों को पहचानो, सरकारी योजनाओं का लाभ उठाओ!" ऐसे लोगों के लिए धर्म-गद्दी की आवाज़ है - "भगवान्, ईश्वर, गुरु, महापुरुष, देवताओं के प्रति शरणागत भाव में आस्था रखें, उद्धार हो जाओगे!" ऐसे लोगों के लिए शिक्षा-गद्दी की आवाज है - "पिछड़े रह कर कोई कल्याण नहीं है, आगे बढ़ना है। आगे बढ़ने के लिए संघर्ष ही है।" संघर्ष का मतलब है - अपराध-प्रयास, छीना-झपटी का प्रयास, सेंध-मारी, जान-मारी, लूट-मारी का प्रयास। ऐसे लोगों के लिए व्यापार-गद्दी का आवाज है - "जल्दी व्यापार में लग जाओ, लाभ से तरबतर हो जाओ!" इस प्रकार इन चार गद्दियों की आवाज संयुक्त रूप में यह इंगित करता है - "मनमानी करो, पकड़ में मत आओ! अफवाह (आरोप-प्रत्यारोप) के चक्कर में मत पड़ो!" दूसरे शब्दों में - "अपराध सब-कुछ करो, पर सोच के करो! प्रतिष्ठित रहने के लिए।"
"मानवीयता" की पहचान होने पर हम मानव-जाति को नाम दे सकते हैं - ज्ञानी, अज्ञानी, और विज्ञानी। इससे "विशेष", "सामान्य", और "निम्न" - ये सब भाषाएँ समाप्त हो जाते हैं। इन भाषाओँ का प्रयोग करते हुए सच्चाई और समानता को पहचानना मुश्किल है। ये तीन नाम (ज्ञानी, विज्ञानी, अज्ञानी) परंपरागत वर्ग-वादी, समुदाय-वादी, व्यक्ति-वादी मानसिकता की संतुष्टि के लिए दिया गया है। समझदारी संपन्न विधि से यदि नाम हो सकता है, तो वह है - केवल मानव। चेतना-विकास - मूल्य शिक्षा में पारंगत होने के उपरान्त ही सम्पूर्ण समुदायों के रूप में पहचान में आने वाले सभी व्यक्ति "मानव" के नाम से ही इंगित होगा। हम मानव प्रकारांतर से परेशानी में जो फंसे हैं - उनका कल्याण केवल समझदारी से है, जो सभी के लिए समान रूप से आवश्यक है।
समझदारी से ही समाधान होना प्रमाणित होता है। नासमझी से ही सारी समस्याएं होती हैं।
जो समझदार नहीं हैं, पर स्वयं को समझदार मान लेते हैं - ऐसे लोगों से ही सर्वाधिक समस्याएं मानव-कुल में समाहित हुआ है।
उपरोक्त बात की गवाही में - जितनी भी समस्याएं अभी तक मानव ने घटित कराई हैं, वे सभी का सभी समर्थ-समुदाय या समर्थ-व्यक्ति द्वारा ही घटित कराई गयी हैं। जब इस बात के प्रति हम सुनिश्चित होते हैं तो यह प्रश्न बनता है - वह कौनसा ज्ञान है, कौनसा विवेक है, कौनसा विज्ञान है - जिससे हम सर्वतोमुखी समाधान के अर्थ में जी सकें, प्रमाणित कर सकें, परम्परा के रूप में पुष्ट हो सकें (अर्थात जिसको सभी परिवार अपना सकें) ? भारतीय वैदिक विचार के अनुसार "ज्ञान" को लेकर सभी प्रयास, तप, जप, अभ्यास करने के बाद भी ज्ञान का "स्वांत सुख" के अर्थ में ही सीमित रहना बना। सर्व-सुख के लिए ज्ञान, विवेक, और विज्ञान प्रस्तावित नहीं हो पायी।
एक संयोग पूर्वक, समाधि-संयम पूर्वक अनुसंधानित ज्ञान, विवेक, और विज्ञान सर्व-शुभ के लिए पर्याप्त होना समझ में आ रहा है। सर्व-सुख में व्यक्तिगत सुख समाया ही है। अनुसंधान विधि से निष्पन्न यह ज्ञान (सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान का संयुक्त रूप) व्यवहार में मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना को प्रमाणित करने योग्य है। इस ज्ञान को प्रयोग विधि से प्रमाणित करना सफल हो गया है। इसी निष्कर्ष के आधार पर ही इस ज्ञान के लोकव्यापीकरण की अपेक्षा बनी। इसी कारणवश इसे संसार के सम्मुख "प्रस्ताव" के रूप में रखा है। यह सूचना आपके लिए इसी उद्देश्य से प्रस्तुत है। इसमें पारंगत होने की अपेक्षा और आवश्यकता होने पर आप इसका अध्ययन कर सकते हैं।
इस ज्ञान का लोकव्यापीकरण "अध्ययन विधि" से होने की व्यवस्था है। आज के समय तक अत्याधुनिक प्रचलित विज्ञान शिक्षा विधि से लोकव्यापीकरण हो चुका है। प्रचलित-विज्ञान विधि से मानव का अध्ययन न हो पाने के आधार पर - मानव को "भय" और "प्रलोभन" का पुतला मान कर संग्रह-सुविधा के लिए व्यापार का आडम्बर फैलाया गया है। इसी क्रम में मानव ने अपने स्व-विवेक से बहुत सारे ऐसे संस्थाएं भी बनाया है - जो मानव का अध्ययन कर सकें, मानव सहज अपेक्षाओं को पूरा करने के उद्देश्य से काम कर सकें। लेकिन इनमें भी मानव का अध्ययन संपन्न कराने के लिए अनुकूल पाठ्यक्रम और अध्ययन का संयोग नहीं हो पाया। मानव सहज-अपेक्षा के रूप में सच्चाई को समझने के लिए सदा-सदा से इच्छुक रहा है। इस अपेक्षा और इच्छा के अनुकूल प्रस्ताव को रखना एक आवश्यकता बनी रही। अब सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान मानव को शाश्वतीयता के अर्थ में अध्ययन करना सम्भव हो गया है। यह प्रस्ताव "विकल्प" के रूप में इसीलिये प्रस्तुत हुआ है, क्योंकि विगत से प्राप्त भौतिकवाद और आदर्शवाद दोनों विधियों से "स्वयं का अध्ययन" और "समग्र-अस्तित्व का अध्ययन" लोकसुलभ नहीं हो पाया।
सह-अस्तित्व में व्यापक रुपी साम्य-ऊर्जा में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति ऊर्जा-संपन्न है। ऊर्जा-संपन्न होने से जड़-चैतन्य प्रकृति चुम्बकीय-बल संपन्न है। बल-संपन्न होने से ही प्रकृति क्रियाशील है। क्रियाशीलता ही श्रम-गति-परिणाम स्वरूप में वर्तमान है। इसमें जड़-प्रकृति में "रचना-क्रम में विकास" का क्रम, और "परमाणु में विकास-क्रम" पूर्वक गठन-पूर्णता के स्वरूप में विकसित होना स्पष्ट हुआ। गठन-पूर्ण परमाणु ही "जीवन" है। जीवन-महिमा के रूप में आशा, विचार, इच्छा, ऋतंभरा, और प्रमाणों (अर्थात अनुभव-प्रमाणों) के रूप में अध्ययन करने की विधि स्पष्ट हुई।
"सच्चाई" अपने स्वरूप में सह-अस्तित्व ही है। सह-अस्तित्व में अनुभव होना ही "ज्ञान" है। "ज्ञेय" सह-अस्तित्व ही है। "ज्ञाता" जीवन है। इस प्रकार ज्ञाता, ज्ञान, और ज्ञेय तीनो स्पष्ट होता है। इस मुद्दे पर विगत में ज्ञान-वादी या ब्रह्म-वादी परम्परा में "अनुभव" शब्द का प्रयोग किया गया है। इस परम्परा में कहा गया है - "समाधि में अनुभव होता है।"
अनुभव करने वाली वस्तु के बारे में कौन अनुभव करेगा? - यह बात विगत के अनुसार स्पष्ट नहीं रहा। विगत में "जीव" और "आत्मा" की बात की गयी है। जीव के ह्रदय में ब्रह्म स्वयं आत्मा के स्वरूप में बैठा है - ऐसा कहा गया है। इस विधि से जीव अध्ययन करता है, या आत्मा अध्ययन करता है? - यह प्रश्न बनता ही है। इस विधि से आत्मा के अध्ययन करने की बात युक्ति-संगत या तर्क-संगत हो नहीं पाती - क्योंकि आत्मा को "अज्ञानी" कहना बनता नहीं है। जीव माया का स्वरूप है - और माया का अध्ययन करने की तमीज से संपन्न होना सम्भव नहीं है। ऐसा तर्क हो जाता है। अब इस स्थिति में जीव और आत्मा के संयुक्त रूप में अध्ययन होने की चर्चा हो सकता है। शरीर को इस विधि में पञ्च-भूतों का संयुक्त स्वरूप बता चुके हैं। पञ्च-भूतों का भी अध्ययन जैसी चीज के लिए साधन होना तर्क-संगत नहीं लगता। इस लिए आदर्शवादी विधि से मानव में, मानव से, मानव के लिए अध्ययन की संभावना पर विश्वास करना बनता नहीं है। आदर्शवादी विधि से - मनुष्य को सच्चाई का अध्ययन करने का अधिकार नहीं है। आदर्शवादी विधि से - सच्चाई को अध्ययन करने योग्य स्थिति-परिस्थिति मनुष्य के साथ जुड़ा नहीं है। इसी क्रम में शास्त्रों में मनुष्य को "अल्पज्ञ" कहा है - संभवतः इसी संकट से कहा हो!
इस प्रकार आदर्शवादी विधि से मानव-परम्परा के अथक प्रयासों के बाद भी अभी तक मानव सच्चाई को अध्ययन करने में असमर्थ रहा है।
आदर्शवाद के बाद जो भौतिकवाद प्रभावित हुआ, वह सर्व-मानव में स्वीकार हुआ। लेकिन उसके बावजूद भौतिकवाद का सच्चाई से कोई लेन-देन नहीं रहा। दोनों विचारधाराओं के सच्चाई का अध्ययन न करा पाने से मानव-परम्परा सच्चाई से वंचित रहा।
इसी के साथ यह भी सर्वेक्षण में आता है - आदर्शवाद ने शब्द, शास्त्र, और आप्त-वाक्यों को "प्रमाण" माना है, लेकिन मानव को "प्रमाण" का आधार नहीं माना। "आप्त-पुरूष" मानव से अतिदूर वाला वस्तु हो गयी। इस प्रकार कुछ और भ्रम-जाल ही मानव-परम्परा को हाथ लगा।
मानव अपने यथा-स्थिति में, अर्थात भ्रमित अवस्था में, अथवा जीव-चेतना में जीते हुए स्थिति में भी "सच्चाई" का प्यासा है। इस तथ्य का परीक्षण करने के लिए हम संवाद विधि से लोगों के साथ संभाषण कर सकते हैं। संभाषण करने में पूछने पर - "सच्चाई चाहिए या झूठ?", इसके उत्तर में सच्चाई के पक्ष में ९९% लोगों की सहमति है। सच्चाई के "प्रमाण" के बारे में जब पूछा जाता है तो इसके उत्तर में कुछ प्रतिशत लोग कहते हैं - "सच्चाई मनुष्य-परम्परा में अध्ययन विधि से स्पष्ट नहीं हुआ।" अत्यल्प प्रतिशत लोग यह कहते हैं - "जीने के लिए सच्चाई आवश्यक नहीं है।" ऐसे सर्वेक्षण से पता चलता है - मनुष्य-परम्परा में सच्चाई अध्ययन-सुलभ नहीं हुआ। इसी रिक्तता वश विकल्पात्मक विधि से यह सच्चाई के अध्ययन का प्रस्ताव प्रस्तुत है।
विकल्पात्मक अध्ययन प्रस्ताव में सर्व-प्रथम मानव का अध्ययन जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में होता है। मानव सह-अस्तित्व सहज प्रकटन का प्रमाण है। मानव जीव-संसार के समृद्ध होने के बाद ही प्रकट हुआ है। मानव जब से प्रकट हुआ है, जीव-चेतना विधि से ही जिया है। मानव के जीव-चेतना विधि से जीने के कारण ही धरती बीमार हुई है। मानव अब पुनर्विचार की स्थिति में पहुँच चुका है - यह मेरी मान्यता है। पुनर्विचार की स्थिति तो बन गयी है - भले ही पुनर्विचार करने के लिए मानव-जाति अभी तैयार न हुआ हो!
हर मानव सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक समझदारी से संपन्न होने योग्य इकाई है। हर नर-नारी का सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक पारंगत होना सम्भव है।
सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक हर नर-नारी का समझदारी से समाधान संपन्न होना सहज है। ऐसे समाधान-संपन्न हर परिवार में श्रम से समृद्धि प्रमाणित होना भावी है। समझदार परिवार में "निश्चित आवश्यकताओं" का सहज रूप में समझ में आना स्वाभाविक है। परिवार की "निश्चित आवश्यकताओं" से अधिक उत्पादन करना एक-एक व्यक्ति के अधिकार की चीज है। समझदार परिवार में समृद्धि से होने वाली तृप्ति का स्वरूप है - परिवार में उपयोग, समाज में सदुपयोग, और व्यवस्था में प्रयोजनशील होना।
मन की संतुष्टि समाधान पूर्वक होती है। समाधान पूर्वक मनः स्वस्थता के साथ शरीर का भी स्वस्थ रहना देखा जाता है। स्वस्थ-शरीर और मनः स्वस्थता के योगफल में अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था मानव-परम्परा में मानव-चेतना, देव-चेतना, और दिव्य-चेतना के रूप में प्रमाणित होती है। यही "चेतना-विकास" का अभिप्राय है।
मानव जब समाधान-समृद्धि पूर्वक व्यवस्था में जीता है, तभी उसमें "उपकार" की प्रवृत्ति उदय होती है। इसी लिए मानव-परम्परा का व्यवस्था के रूप में होना अति-आवश्यक है। ऐसी परम्परा ही अपराध-मुक्त होने का साक्षी होगा। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना पूर्वक जीने से जीव-चेतना वश पहले किए हुए अनावश्यक और अप्रत्याशित घटनाओं के प्रभावों को कम करने में सहायक होना भी भावी रहेगा। इस प्रकार अपराध-परम्परा से न्याय-परम्परा में संक्रमित होना एक सर्व-शुभ कार्य है।
मानव में ज्ञान संपन्न होने और प्रमाणित हो कर तृप्त होने की कामना आज भी सर्वाधिक लोगों में जीवित है।
सहअस्तित्व परम सत्य है।
सहअस्तित्व में अनुभव होना ही परम-ज्ञान है।
ज्ञान के अनुरूप जीना ही प्रमाण है।
जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)