सुदूर विगत से मानव अपने "सकारात्मक" और "नकारात्मक" मंतव्यों को व्यक्त करते आया है। एक व्यक्ति अथवा एक परिवार अथवा एक समुदाय जिस बात अथवा कार्य-व्यवहार को स्वीकारा - उसी बात को कुछ समय बाद दूसरा व्यक्ति, दूसरा परिवार, दूसरा समुदाय उसको नकार दिया। इस प्रकार की दुविधा आज तक चला आया। इस दुविधा-वश ही मत-भेदों का जन्म हुआ। जैसे - एक समुदाय ईश्वर को माना, दूसरा नहीं माना। इस प्रकार ईश्वर और ईश्वरीयता को सकारने और नकारने को लेकर बहु-संख्यात्मक मतभेद पैदा हुआ।
इसके आगे - जिन समुदायों ने ईश्वर को माना उनके मानने की कसौटियां, और तौर-तरीके अलग-अलग प्रकार से होते गए। एक का तरीका दूसरे को पसंद नहीं आया। इस प्रकार का वितंडावाद बहुत दिन तक चलता ही रहा। बीच-बीच में ईश्वर-दास, ईश्वर-भक्त, साधना-सिद्ध, मन्त्र-सिद्ध, योग-सिद्ध, ज्ञान-सिद्ध - इस प्रकार की बहुत सारी मान्यताएं सकारात्मक या नकारात्मक विधि से वाद-ग्रस्त होता रहा। इन्ही सब बातों को स्पष्ट करने के लिए वांग्मय सर्वप्रथम तैयार किए गए। भारत में ऐसे वांग्मय को "वेद" कहा गया।
वेद के तैयार होने से पहले भाषा-विज्ञानं (अर्थात व्याकरण-शास्त्र) तैयार हो चुकी थी। उस समय भाषा के सम्बन्ध में ही "विद्वान" होने की परम्परा थी। भाषा का नियंत्रण व्याकरण-विधि से ही होता रहा। इस क्रम में वेद "विद" धातु से बना। 'विद' अक्षर के अर्थ के रूप में बताया गया - "विद ज्ञानः धातु"। अर्थात विद को ज्ञान रुपी धातु माना। इस मान्यता के आधार पर वेद को ज्ञान-स्वरूप माना।
वेद को जब परम्परा में सीखा-पढ़ा गया तो ऐसी बात आयी - वेद केवल ज्ञान ही नहीं है, उपासना भी है, और कर्म भी है। ऐसा पाने पर एक "सान्त्वनात्मक वक्तव्य" जोड़ा गया कि ये कर्म और उपासना भी ज्ञान के लिए ही हैं। इसमें सहमत हुए। फ़िर कुछ समय बाद इस मुद्दे पर चर्चा होने लगी - "ज्ञान क्या है?" यह चर्चा वेद-पाठियों और वेद-मूर्ति हैसियत वालों में होती रही। वेद-पाठियों को "बुद्धि-जीवी" मानते रहे। वेद-मूर्तियों को "ज्ञानी" मानते रहे। इस प्रकार की चर्चाओं की झलक इतिहास में मिलती है।
ज्ञान को लेकर चर्चाओं के क्रम में एक संवाद याज्ञवल्क्य जी और बुद्धि-जीवियों के बीच हुआ। उस संवाद में मुख्य मुद्दे के रूप में इस बात पर अंतर्विरोध उभर आया - "ब्रह्म का भाग-विभाग होता है, या नहीं होता है?" जब याज्ञवल्क्य जी ने कहा - "ब्रह्म का भाग-विभाग नहीं होता है।", तो बुद्धिजीवी उससे सहमत हुए। उसके बाद आगे जीवों का निर्मित होने का बताते हुए उन्होंने कहा - "जीवों के ह्रदय में जीव-कारन्य-वश ब्रह्म बैठ गया। आत्मा जिसका नाम है।" ऐसा बताने पर बुद्धिजीवियों ने उस पर ऐतराज किया। इसे उन्होंने अपनी भाषा में बताया - "आपने पहले ब्रह्म के भाग-विभाग नहीं होने की बात बताई, फ़िर अब कहते हैं - असंख्य जीवों के ह्रदय में आत्मा के रूप में ब्रह्म ही बैठा है।" इसे सुनकर याज्ञवल्क्य जी ने उपमा दे कर कहा - "एक ही सूरज अनेक पानी से भरे हुए घड़ों में दिखता है - वैसे ही ब्रह्म जीवों के ह्रदय में है।" इसके बाद तर्क आगे बढ़ी। याज्ञवल्क्य जी से पूछा गया - "पानी से भरे घड़े में सूरज दिखता अवश्य है, पर क्या उनमें सूरज रहता है?" ऐसा पूछने पर याज्ञवल्क्य जी कहे - "नहीं"। उत्तर में बुद्धिजीवियों ने कहा - "तो फ़िर आत्मा भी जीवों के ह्रदय में रहता नहीं है।" इस तरह जब तर्क आशय के विपरीत होने लगी तो याज्ञवल्क्य जी नाराज हुए, और श्राप देने को कहा। फ़िर बुद्धिजीवियों ने कहा - "हमको श्राप-ग्रस्त नहीं होना - इसलिए आपकी कही हुई बातों में हमको कोई शंका नहीं है।" इसी प्रकार बहुत सारे प्रसंगों में विरोधाभासी स्थितियां लिखा हुआ मिलता है।
वेदान्त ग्रंथों में इस बात का जिक्र किया है कि "ब्रह्म ज्ञान पवित्र है, अव्यक्त है, अनिर्वचनीय है"। ऐसा कहते हुए उपदेश विधि से सत्कर्म, उपासना, वेदाभ्यास, वेदान्त के श्रवण के बाद अभ्यास द्वारा श्रवण-मनन-निधिध्यासन अथवा धारणा-ध्यान-समाधि, न्यास-ध्यान-समाधि विधियों से समाधि होना, समाधि में ज्ञान होना, और समाधि में अज्ञात ज्ञात होना बताया गया है। समाधि में जो कुछ भी स्थिति होती है, उसे "अनिर्वचनीय" बताया गया है। इस प्रकार अभ्यास का अन्तिम छोर (समाधि) और कथन (ब्रह्म ज्ञान अनिर्वचनीय है) इन दोनों में सामंजस्यता आ गयी। इस प्रकार ऋषि-कुल परम्परा में जो वेद उद्घाटित हुए, हिंदू समुदाय उसके समर्थन में अपने मंतव्य को व्यक्त करता हुआ, अथवा सहमति को व्यक्त करता हुआ, परम्परा को बनाए रखता हुआ देखने को मिलता है। उसमें भी बहुत सारा अंतर्विरोध होते हुए बहुत सारा शाखा-प्रशाखा में बँट गया। यहाँ तक ज्ञान-विधा की बात हुई।
उपासना और आराधना क्रम में भी अनगिनत मतभेद हुए। क्रमागत विधि से इन मतभेदों के चलते चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के काल तक एक परिवार में भी अनेक मत हो गए। अनेक राजा हो गए। इसी के फल-परिणाम में पूरे देशवासी क्षति-ग्रस्त, आहत भी हुए। इसी क्रम में मुसलमान और अंग्रेजों का राज्य और उसके बाद कुछ भाग की हिन्दुस्तान के रूप में पहचान हुई। और फ़िर अंग्रेजों से आजादी और गणतंत्रीय विधि से शासन करने की बात स्थापित हुई।
गणतंत्र विधि से शासन करने के लिए संविधान १९५० में भारत में स्थापित हुआ। इस संविधान से "राष्ट्रीय चरित्र" का कोई स्वरूप स्पष्ट नहीं होता। इस संविधान में "धर्म-निरपेक्षता" और "समानता" की बात की गयी है। धर्म-निरपेक्षता की अपेक्षा व्यक्त करते हुए अनेकानेक जातियों का संविधान में उल्लेख है। समानता की अपेक्षा व्यक्त करते हुए "आरक्षण" को स्वीकार है। आरक्षण को स्वीकारने के बाद "समानता" का आधार कहाँ रहा? अनेक जातियों को लिखने के बाद "धर्म-निरपेक्षता" का क्या मतलब रहा? वोट और नोट के बंटवारा और संतुष्टि-असंतुष्टि को लेकर संविधान पर प्रश्न-चिन्हों की बौछार लग गयी है। भले ही हम सांत्वना देने के लिए कुछ भी भाषा लगा लें - ऐसे संविधान के तले गणतंत्र प्रणाली से शासन सफल नहीं हो पाया। संभवतः यह सभी राजनीतिक दलों को पता है, बुद्दिजीवियों को पता है। आगे कुछ सोचने, समझने, और निर्णय करने-कराने की आवश्यकता है।
यह सभी बवंडर जीव-चेतना विधि से ही उपजा हुआ है। इसका समाधान केवल मानव-चेतना विधि ही है। जीव-चेतना विधि से सम्पूर्ण भ्रमित कार्य होते हैं। जीव-चेतना में रहते तक भ्रमित-कार्य को रोकने के लिए दूसरा भ्रमित-कार्य ही प्रस्तुत करना बनता है। इस प्रकार भ्रमात्मक कार्यकलाप ही मानव-परम्परा में पनपी।
"चेतना-विकास मूल्य-शिक्षा" विधि से शिक्षा-तंत्र, संविधान-तंत्र, न्याय-तंत्र, उत्पादन-तंत्र, विनिमय-तंत्र, और स्वास्थ्य-संयम तंत्र के पक्ष में कार्य-व्यवहार के स्वरूप का प्रस्ताव प्रस्तुत हो चुका है। इन सभी मुद्दों पर मानव-परम्परा में पूर्णतया ध्यान देने की आवश्यकता है। इस मुद्दे पर अस्तित्व-मूलक मानव-केंद्रित चिंतन के मूल प्रबंधों (दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान, योजना) को प्रस्तुत किया जा चुका है। इन मुद्दों पर ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी के संतुष्ट होने के पश्चात मध्यस्थ-दर्शन सह-अस्तित्व-वाद में इंगित अनेक मुद्दों पर प्रबंध, उप-प्रबंध, लघु-प्रबंध लिखा जा सकता है। जिनका आगे जो कक्षा १ से कक्षा १२ तक की पाठ्य-पुस्तकें बनेंगी - उनमें उपयोग होने का स्थान रहेगा।
मूल प्रबंध जो दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान के रूप में तैयार हुआ है - आरंभिक रूप में इसी के आधार पर पारंगत होने की आवश्यकता है। इसमें पारंगत व्यक्ति ही इन मूल प्रबंधों के आधार पर उप-प्रबंध, और लघु-प्रबंधों को प्रस्तुत करेगा। ऐसा प्रावधान आगे जो इस विचारधारा में प्रवेश चाहते हैं, उनके लिए सहायक होगा। मेरा विश्वास है - आगे आने वाले विद्वान, मनीषी, प्रतिभाशाली, विवेकी अपने स्वयं-स्फूर्त विधि से सर्व-शुभ के लिए ही अपने मंतव्यों को व्यक्त करेगा। इस विधि से उपकार होना स्वाभाविक है।
जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)
1 comment:
sachmuch adbhut lekhan
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