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Saturday, November 21, 2009

अनुभवमूलक विधि से प्रमाण, अनुभवगामी विधि से अध्ययन

मानव परम्परा में सुदूर विगत से समझदारी संपन्न होने का प्यास बना ही रहा है। हर पीढी में, किसी आयु तक मनुष्य समझने के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा प्रयत्नशील रहना पाया जाता है। यौवन अवस्था तक ही समझदारी का प्यास सर्वाधिक व्यक्तियों में रहना पाया जाता है। सर्वाधिक मानव संतानों में यौवन अवस्था (लगभग १६ वर्ष) तक किसी निष्कर्ष में आने का शुरुआत हो जाता है। १८ वर्ष तक सर्वाधिक व्यक्ति अपने को समझदार मान ही लेते हैं।

शिक्षा का प्रयोजन पिछली पीढी का अगली पीढी को "समझदारी" प्रवाहित करना है। अभी तक के शिक्षाक्रम में "भय" और "प्रलोभन" के साथ सभी समझदारी को जोड़ता हुआ देखा जाता है। विगत का गम्यस्थली भय और प्रलोभन ही रहा है। इसमें भय दूसरों के लिए प्रयोग करना, और प्रलोभन के लिए स्वयं तैयार रहना समाहित रहता है। इस मनमानी का क्रियारूप देने के मूल में मानव में प्रकृतिप्रदत्त विधि से प्रावधानित कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता ही रहा। इसी क्रम में, हर मानव, हर वेला में कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता के चक्कर में घूमता ही रहा।

जब यह पूछते हैं - "कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता की सीमा में जीने से क्या सच्चाई हो सकती है?" इसका उत्तर मिलता है - "नहीं!" इसके आगे पूछने पर - "फ़िर आप क्यों इस सीमा में जीने के लिए विवश हैं?" इसके उत्तर में सर्वाधिक लोगों से यही सुनने में आता है - "इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।"

जीवचेतना में मानव का गम्यस्थली "भय" और "प्रलोभन" के रूप में प्रभावित होना ही रहता है। इसमें से "भय" पूर्वक दूसरों को पीड़ित करने के क्रम में मानव परम्परा में मनमानी व्यवस्था बनती गयी। यह मनमानी व्यवस्था अपने-पराये की दीवारों के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट हुई। "पराया" कहलाने वालों के साथ सर्वाधिक अपराध करने की योजना करना, और "अपना" कहलाने वालों के साथ न्यूनतम अपराध करने की योजना करना और ज्यादा से ज्यादा प्रलोभानात्मक प्रभाव रहता है। इस ढंग से जीवचेतना में हम मानव अपने-पराये के साथ ही रहते हैं।

जीवचेतना विधि से यह तय नहीं हो पाता - सबको अपना कैसे माना जाए! जीवचेतना विधि से आचरण में सबको अपना मानना तय होता नहीं है। जीवचेतना विधि से संविधान इसको तय नहीं कर पाता। जीवचेतना विधि से शिक्षा में अपने-पराये की दीवारों से मुक्ति, या सबको अपना मानने की सूत्र-व्याख्या स्पष्ट नहीं हो पाती। इन सभी प्रभावों के चलते अपराध और अपराध-कार्यक्रमों के साथ सहमत हो कर चलना मनुष्य की विवशता बन जाती है।

मानव-जाति में हर नर-नारी प्रकारांतर से शुभ चाहता है, मनः स्वस्थता चाहता है, सुख-शान्ति चाहता है, लेकिन विवशतावश ही सम्पूर्ण अस्वीकृत कार्यक्रमों को कर देता है। यह सर्वेक्षण मानव मानसिकता में "समाधान" को प्रस्तुत करने के लिए आधारबिन्दु है। वर्तमान में पायी जाने वाली सभी समस्याओं का समाधान-सूत्र के रूप में "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा" को प्रस्तावित किया गया है।

अनुभवमूलक विधि से मानवीयता पूर्ण आचरण "मूल्य", "चरित्र", और "नैतिकता" के संयुक्त रूप में प्रभावित होता है। इसे मैंने भली प्रकार से अभ्यास पूर्वक प्रमाणित किया है।

मूल्य का तात्पर्य है - संबंधों को "प्रयोजनों" के अर्थ में पहचानना। प्रयोजनों के आधार पर संबंधों को पहचानने से प्रयोजन अपेक्षा में "सम्बन्ध निर्वाह निरंतरता" निहित रहता ही है। सम्बन्ध निर्वाह निरंतरता स्वयं "विश्वास" का द्योतक होता है। इस तरह विश्वास सभी संबंधों में साम्य रूप में प्रकट होता है। जैसे - माता-पिता और संतान के सम्बन्ध में प्रयोजन "पोषण और संरक्षण" है। इस प्रयोजन के अर्थ में जब सम्बन्ध-निर्वाह की निरंतरता बनती है, तो विश्वास-सहित ममता, वात्सल्य, और कृतज्ञता मूल्य प्रमाणित होते हैं। इस प्रकार सभी संबंधों को प्रयोजनों के अर्थ में पहचानने पर उन संबंधों की निर्वाह-निरंतरता होना, मूल्यांकन होना, और उभय-तृप्त होना स्वाभाविक हो जाता है।

चरित्र रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण - स्वधन, स्वनारी, और दयापूर्ण कार्य-व्यवहार - यह मानवचेतना विधि से ही प्रमाणित होना पाया जाता है।

नैतिकता - हर नर-नारी द्वारा अपने तन-मन-धन रुपी अर्थ को पहचानने की आवश्यकता है। अर्थ का सदुपयोग करना और सुरक्षा करना ही नैतिकता है। नैतिकता धर्मनीति और राज्यनीति के अर्थ में प्रयोजित होती है।

सहअस्तित्व स्वरूपी अस्तित्व में मानव के ज्ञानअवस्था की इकाई होने के कारण मानव में समाधान-समृद्धि-अभय और सहअस्तित्व पूर्वक जीने की अपेक्षा सदा-सदा से है। मानवचेतना विधि से मानवीयता पूर्ण आचरण पूर्वक यह अपेक्षा पूरी हो जाती है।

जीवचेतना विधि से व्यक्तिवादी और समुदायवादी आचरण होना पाया जाता है। जीवचेतना विधि में जीवन-दृष्टियाँ प्रिय-हित-लाभ रूप में प्रभावित रहना पाया जाता है। "प्रिय-दृष्टि" इन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध) की स्वीकृति और उसको पा लेने रूप में समा जाती है। "हित-दृष्टि" शरीर-स्वास्थ्य और उसको लेकर उपायों के सम्बन्ध में चिंतित रहना और उसको पा लेने के रूप में देखने को मिलता है। "लाभ-दृष्टि" कम दे कर ज्यादा लेने की इच्छा, आंकलन, और उपलब्धि के रूप में देखने को मिलता है। जीवचेतना विधि से इन तीन दृष्टियों का उपयोग करते हुए मनुष्य आपत्तिजनक और समस्याकारी स्थितियों में क्रियाशील रहता है।

जीवचेतना की सीमा में मनुष्य का स्वभाव दीनता, हीनता, और क्रूरता के रूप में सूत्रित और व्याख्यायित होना देखा जाता है।

"दीनता" - अभाव और अत्याशा वश होने वाली यंत्रणा के रूप में परिगणित होना पाया जाता है।

"हीनता" - विश्वासघात के रूप में छल, कपट, दंभ, और पाखण्ड पूर्वक क्रियान्वयन होता है। "छल" का मतलब - विश्वासघात के बाद जिस व्यक्ति और जिस तरीके से विश्वासघात हुआ, यह समझ में नहीं आना। "कपट" का मतलब - विश्वासघात के बाद जिसने विश्वासघात किया और जिस तरीके से किया, यह उद्घाटित हो जाना। "दंभ" का मतलब - दिखावा करते हुए विश्वासघात करना। चौथे "पाखण्ड" - आश्वासन देते हुए विश्वासघात करना।

"क्रूरता" जीवचेतना से ग्रसित मानव में आंकलित होता है। यह परधन, परनारी/परपुरूष, और परपीड़ा के रूप में उजागर होता है।

यही जीवचेतना का स्पष्ट स्वरूप है।

अनुभवमूलक विधि से ही मनुष्य मानवचेतना को व्यक्त करता है, तथा अनुभवगामी विधि से अध्ययन करता है। अनुभव जीवन में संपन्न होना पाया जाता है। जीवचेतना "विवशता" के रूप में मानव परम्परा में स्पष्ट हुआ है।

जीवअवस्था में जीवचेतना वंश-अनुशंगीय विधि से ४ विषयों (आहार, निद्रा, भय, मैथुन) की सीमा में व्यवस्था होना देखा गया। हर जीव शरीर सम्पूर्णता के साथ त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता है। वंश-अनुशंगियता का सम्पूर्ण रूप इतने में ही निहित हुआ।

मानव वंश-अनुशंगियता की सीमा में सीमित नहीं हो पाया - क्योंकि कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता मानव को नियति प्रदत्त वरदान रहा। मानव को वंश-अनुशंगियता से छूट कर किस आधार पर परम्परा के रूप में वैभवित होना है - यह जीव-चेतना विधि से निश्चित नहीं हो पाता। मानवचेतना विधि से मानव किस प्रकार परम्परा के रूप में वैभवित होना है - यह निश्चयन होता है।

२१वी सदी तक मानव जाति जीवचेतना से पूरी तरह प्रभावित रहा है। अब मानवचेतना सहज वैभव के प्रति समझदारी विकसित करने और प्रमाणित करने का कार्यक्रम शुरू हो चुका है। इसे हर व्यक्ति, हर परिवार, और सभी समुदाय अध्ययन कर सकते हैं - और प्रमाणित कर सकते हैं।

अनुभवमूलक विधि से प्रमाण प्रस्तुत होना ही मानवचेतना का तात्पर्य है। शरीरमूलक विधि से, अथवा जीवचेतना विधि से जीवन की ४.५ क्रियाएं क्रियान्वित रहती हैं। शेष ५.५ क्रियाएं सुप्त रहती हैं। मानवचेतना विधि से जीने के लिए पूरी १० क्रियाओं का प्रकाशन आवश्यक हो जाता है। इसे भले प्रकार से अनुभव किया गया है।

सहअस्तित्व नित्य वर्तमान है। सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है। और सहअस्तित्व ही परमसत्य है। जब ये तीन मुद्दे पूरी तरह स्पष्ट हो जाते हैं, तो जीवन सहअस्तित्व में अनुभव संपन्न होता है। अनुभव संपन्न होने का विधि अध्ययन है। अध्यापक के अनुभव सहज रोशनी में ही अध्ययन संपन्न होने की व्यवस्था है। "अनुभव रोशनी" अनुभव-प्रमाण है। यह सर्वमानव में स्वीकार होने योग्य होने के करण विद्यार्थी में कल्पनाशीलता "अनुमान" रूप में विद्यमान रहता है। अनुभवमूलक विधि (अध्यापक) और अनुभवगामी प्रणाली (विद्यार्थी) के संयोग में सहअस्तित्व परम-सत्य होना विद्यार्थी को बोध होता है। फलस्वरूप विद्यार्थी को अनुभव होता है।

अनुभवमूलक विधि से आत्मा में अनुभव, और उसके प्रमाण स्वरूप में बुद्धि में बोध और संकल्प होता है। संकल्प का तात्पर्य है - अनुभव को प्रमाणित करने के लिए संकल्प। बुद्धि में संकल्प का चित्त में चिंतन होता है। इस सच्चाई को किस विधि से प्रमाणित करना चाहिए, यह निश्चित होने के बाद ही चित्त में चित्रण होना पाया जाता है। ऐसे चित्रण जब तुलन के लिए वृत्ति में प्रस्तुत हुआ तो स्वाभाविक रूप में प्रिय-हित-लाभ दृष्टियाँ न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों में विलय होता देखा गया। ऐसे तुलन का विश्लेषण जीवन-मूल्यों, मानव-मूल्यों के रूप में विचार में निश्चित होता है। विचारों में ऐसे न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक निश्चितता होने के फलस्वरूप मन में मूल्यों का आस्वादन होना, और उस आस्वादन को प्रमाणित करने के लिए संबंधों में चयन करना होता है।

इस तरह अनुभवमूलक विधि से १० क्रियाएं प्रकट होने के क्रम में मानव परम्परा अखंड-समाज और सार्वभौम-व्यवस्था के रूप में अवतरित होना पाया जाता है।

जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!

- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (अप्रैल २००६, अमरकंटक)

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